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27 अक्टूबर 2010

बिहार में तो 'फांस' बन गई चीनी की मिठास

नई दिल्ली October 26, 2010
बिहार में कभी चीनी और एथेनॉल में निवेश करने के लिए लोग टूटे पड़े थे, लेकिन अब उन लोगों के निशान मिलने भी मुश्किल हैं। 2006 और 2007 के दरम्यान राज्य में 24,000 करोड़ रुपये के निवेश के जो प्रस्ताव आए थे, उनमें से बमुश्किल 10 फीसदी को अमली जामा पहनाया गया क्योंकि चीनी का चक्र गड़बड़ाता रहा और ईंधन में एथेनॉल मिलाने का अभियान परवान ही नहीं चढ़ सका। राजश्री शुगर्स, धामपुर शुगर्स और इंडिया ग्लाइकॉल्स जैसी कंपनियों ने इस काम से हाथ खींचना ही बेहतर समझा।चीनी और एथेनॉल में ज्यादा निवेश के प्रस्ताव 2006 के आरंभ में आए थे, जब चीनी उद्योग शबाब पर था। लेकिन अक्टूबर 2006 से शुरू हुए चीनी सत्र में जबरदस्त पैदावार हुई और चीनी के दाम आसमान पर आ गए। गोदामों में चीनी भर गई और इस उद्योग के खिलाडिय़ों के लिए किसानों को गन्ने का भुगतान करना भी दूभर हो गया। उस वक्त सरकार को ब्याज मुक्त कर्ज देकर, चीनी का अतिरिक्त बफर स्टॉक बनाकर और निर्यात में सहयोग कर इस उद्योग को संकट से उबारना पड़ा था।राज्य में रोजाना 10,000 टन पेराई क्षमता वाली चीनी मिल लगाने के लिए 550 करोड़ रुपये के निवेश की योजना बनाने वाली दिल्ली की एक कंपनी के एक अधिकारी ने बताया, 'शुरुआत में कंपनियां माली हालत पतली होने की वजह से हिचक रही थीं। पिछले साल उनकी तिजोरियां तो सुधर गईं, लेकिन चीनी उद्योग को महसूस हुआ कि बेजा क्षमता बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है।लगातार सुर्खियों में रहे एथेनॉल मिश्रण कार्यक्रम की चाल भी बेहद सुस्त रही है। 2006 में शुरू हुए इस कार्यक्रम के तहत पेट्रोल में 5 फीसदी एथेनॉल मिलाना था। लेकिन कई राज्य सरकारों ने एथेनॉल के राज्य में आने और जाने पर कर लगा दिया। कई एथेनॉल निर्माता अल्कोहल की कीमत बढऩे की वजह से एथेनॉल की आपूर्ति से मुकर गए।बिहार सरकार ने राज्य चीनी निगम की 15 बीमार मिलों की नीलामी की योजना भी बनाई थी, लेकिन इसे ज्यादा सफलता नहीं मिली। 2006 से अब तक सरकार केवल 6 मिलें बेच सकी है। (BS Hindi)

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