भारतीय किसानों ने कमरतोड़ मेहनत, पक्के इरादे और नई तकनीकों के सहारे देश को खाद्यान्न, चीनी तथा अन्य कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भर बनाया था, परंतु सरकार ने किसानों को कृषि उत्पादों का लाभकारी मूल्य तो दूर लागत मूल्य भी नहीं दिया। नतीजा यह हुआ कि किसान साहुकारों के चंगुल में फंसने को मजबूर हुए, जिसकी इतिश्री लाखों किसानों की आत्महत्या के रूप में सामने आई। सरकार किसानों के उत्थान के लिए कमीशन और समितियां बनाती रही, जिनकी रिपोर्ट आज भी सरकारी दफ्तरों में धूल फांक रही हैं। आज देश खाद्यान्न से लेकर चीनी, दाल, खाद्य तेल सभी के लिए आयात पर निर्भर है, जो सचमुच देश के लिए कलंक है।
वर्ष 2006-07 में देश ने चीनी उत्पादन में कीर्तिमान बनाया और दिसंबर 2008 तक ट्रांसपोर्ट सब्सिडी देकर न्यूनतम दामों पर चीनी को निर्यात किया जाता रहा। 6 माह बाद जून 2009 के बाद देश उच्चतम भाव पर चीनी आयात करने पर विवश है और खुले बाजार में चीनी की महंगाई बढ़ती चली गई है। वास्तव में, आयात-निर्यात का यह खेल नेताओं और नौकरशाहों को खूब भाता है क्योंकि इसमें अनुबंधित शर्तो में 12.5 प्रतिशत तक के कमीशन की मान्यता है। चीनी उद्योग में रिकवरी पर कोई वाजिब नियंत्रण नहीं है, घटतौली बदस्तूर जारी है और अवैध रूप से गन्ना खरीद की प्रक्रिया जोरो पर है। अघोषित रूप से 10 से 15 प्रतिशत चीनी उत्पादन किया जा रहा है- न खरीद टेक्स, न एक्साइज, न उत्पादन लागत, न आयकर। इसी अकूत राशि से मिल-मालिकान क्षेत्र के छुटभैये नेताओं से लेकर अधिकारियों और राजनेताओं को काबू में रखते हैं। चीनी के भाव ऊंचे होने के कारण कुछ गोदाम सील हुए, लेकिन यह कार्रवाई नामचारे को ही हुई। अगर ईमानदारी से धरपकड़ हो तो 10-15 लाख टन चीनी प्राप्त हो सकती है, जिससे चीनी आयात भी घटेगा और अवैध रूप से चीनी उत्पादन पर भी अंकुश लगेगा, लेकिन ऐसी तत्परता और इरादा दूर-दूर तक नजर नहीं आता।
उत्तर प्रदेश देश का लगभग 50 प्रतिशत गन्ना पैदा करता है। मात्र सहारनपुर, मुजफ्फरनगर एवं मेरठ जिले का गन्ना उत्पादन संपूर्ण महाराष्ट्र से अधिक है जो देश में सबसे अधिक चीनी का उत्पादन करता है। वर्तमान दशक में उत्तर प्रदेश की पिराई क्षमता में 90 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। आज उत्तर प्रदेश की दैनिक पिराई क्षमता सर्वाधिक यानी महाराष्ट्र से भी अधिक है। फिर चीनी उत्पादन कम क्यों है? गन्ने की रिकवरी पर सतर्कता और गन्ना माफिया पर नियंत्रण की आवश्यकता है। उत्तर प्रदेश में प्रति किसान अधिकतम भूमि सीमा लगभग 15 हेक्टेयर और अधिकतम गन्ना आपूर्ति सीमा 5500 क्विंटल है। इससे अधिक आपूर्ति गन्ना आयुक्त की विशेष आज्ञा से ही हो सकती है। परंतु चीनी मिलों द्वारा प्रति किसान 4 से 14 लाख क्विंटल की सप्लाई वाले मामले आज उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालयों में लंबित हैं। यह कैसे संभव हुआ?
इन धांधलियों में गन्ना विभाग व प्रशासन पूर्णतया लिप्त है। घटतौली भी इन सबके बिना संभव नहीं। दुर्भाग्य की बात है कि केंद्र और प्रदेश सरकारों की भी इसमें मिलीभगत स्पष्ट है। केंद्र सरकार के गन्ना नियंत्रण आदेश 1966 एवं राज्य सरकार के उत्तर प्रदेश गन्ना खरीद व विपणन ऐक्ट 1954 के अनुसार 14 दिन से अधिक गन्ना मूल्य भुगतान पर 15 प्रतिशत वार्षिक ब्याज अनिवार्य है। आज तक विधानसभा व संसद पटल या गन्ना संबंधी कमीशन या कमेटी की किसी रिपोर्ट में भी बकाया गन्ना मूल्य की राशि पर देय ब्याज नहीं दर्शाया गया। उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार के गन्ना मंत्री ने सदन में बकाया पर सूद दिलाने की घोषणा भी की थी पर यह घोषणा थोथी साबित हुई। चीनी मिलों पर संकट के नाम पर 880 करोड़ रुपए बफर स्टाक सब्सिडी और चीनी निर्यात के लिए 840 करोड़ रुपए ट्रांसपोर्ट सब्सिडी देकर सस्ती चीनी निर्यात कराकर देश में चीनी संकट पैदा किया गया है और आज उच्चतम भावों पर भारी मात्रा में चीनी आयात करना दर्शाता है कि सरकार के पास सोच एवं नियोजन का पूरा अभाव है।
सूखाग्रस्त किसान सरकार से पूछना चाहता है क्या कोई राहत की बूंद उस पर भी टपकेगी और यदि हां तो कब? 2006-07 से 2008-09 तक देश में बकाया गन्ना मूल्य राशि मात्र 1023.25 करोड़ बताई गई है, जबकि इस अवधि में मात्र उत्तर प्रदेश की सूद रहित बकाया राशि लगभग 1500 करोड़ रुपए है। सरकार एक तरफ तो उद्योगपतियों के लिए राहत पैकेज ला रही है, वहीं किसानों को उनका बकाया गन्ना मूल्य दिलाने की कोशिश नहीं कर रही है। सरकार सूखे के संकट की इस घड़ी में भी किसानों को बकाया और सूद नहीं दिला सकती तो किसान की सहायता का झूठा नाटक बंद करे।
[प्रीतम चौधरी : लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं] (जागरण)
20 अक्तूबर 2009
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