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09 सितंबर 2009

दाल की कीमतें बढ़ने पर भी किसानों की हालत खस्ता

बेंगलुरु September 08, 2009
पहले मॉनसून ने देर से आकर धोखा दिया। बुआई का काम देर से शुरू हुआ। उसके बाद डेढ़ महीने तक सूखे का लंबा दौर चला, जिसके चलते फसलें सूख गईं।
और अब- भारी बारिश से फसलों की मौत। कर्नाटक के उत्तर पूर्वी इलाके के गुलबर्ग जिले के किसानों के साथ इससे बुरा क्या हो सकता था, जो देश की कुल अरहर उत्पादन का 10 प्रतिशत उत्पादन करते हैं।
उम्मीद की जा रही है कि राज्य में इस साल अरहर दाल के उत्पादन में 50 प्रतिशत की गिरावट आएगी। कमोबेश स्थिति पिछले साल जैसी ही रहने की उम्मीद है, जब बुआई में 30 प्रतिशत और उत्पादन में 35-40 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी।
सामान्यतया भारत में अरहर की बुआई 35 लाख हेक्टेयर में होती है, जिसमें कर्नाटक की हिस्सेदारी 5,50,000 हेक्टेयर है। देश में 25 लाख टन अरहर का वार्षिक उत्पादन होता है, जिसमें से 3 लाख टन उत्पादन कर्नाटक में होता है।
कर्नाटक के गुलबर्ग जिले में खासकर अरहर की खेती होती है, जिसे भारत के 'दाल का कटोरा' कहा जाता है। पिछले साल राज्य में दाल का उत्पादन गिरकर 2 लाख टन रह गया था और उम्मीद की जा रही है कि इस साल उत्पादन 1.5 लाख टन रह जाएगा।
जहां अरहर दाल की कीमतें आसमान छू रही हैं और इसकी बिक्री 75-95 रुपये प्रति किलो हो रही है, ऐसा लगता है कि गुलबर्ग और पड़ोसी जिलों बीदर तथा रायचूर के दलहन किसानों के दुखों का अंत नहीं है। इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य और कम उपज अहम भूमिका निभा रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य तो इतना कम है कि किसानों की लागत भी उससे न निकल पाए।
कर्नाटक प्रदेश रेड ग्राम ग्रोवर्स एसोसिएशन के राज्य प्रमुख बासवराज इनजिन ने कहा, 'किसान 1 क्विंटर अरहर के उत्पादन पर 3600 रुपये खर्च करता है। कई सालों से 2007-08 तक अरहर दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य करीब 1300 रुपये प्रति क्विंटल रहा।
पिछले साल ही न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर 2000 रुपये प्रति क्विंटल किया गया। उत्पादन लागत दिलाने और किसानों के मुनाफे के लिए जरूरी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य तत्काल बढ़ाकर 5,000-6,000 रुपये प्रति क्विंटल किया जाना चाहिए।'
बारिश जब 22 अगस्त को फिर से शुरू हुई, उम्मीद की जा रही थी कि बुआई का काम पूरा कर लिया जाएगा। बहरहाल भारी बारिश के चलते ऐसा नहीं हो रका। साथ ही तैयार पौध भी बर्बाद हो गई। अरहर की बुआई केवल खरीफ में होती है और अब बुआई का वक्त खत्म हो चुका है।
गुलबर्ग के एक किसान गुरुप्रसाद ने कहा, 'इसे उगाने के लिए हमें ऐसे तकनीक की जरूरत है, जैसी रबी फसलों के लिए उपलब्ध है।' किसान समुदाय के मुताबिक ऐसे बीज विकसित किए जाने की जरूरत है, जो सूखा रोधी और बीमारी रोधी हो। हर साल 50 प्रतिशत फसल कीटों के हमले से खराब हो जाती है।
गुरुप्रसाद ने कहा कि कीटों के हमले से फसल को बचाने के लिए हमें 2000 रुपये प्रति एकड़ खर्च करने पड़ते हैं, जो कहीं से वहन योग्य नहीं है। किसानों का कहना है कि अब ऐसे उन्नत बीज की जरूरत है, जिससे फसल तैयार होने में 3 महीने से ज्यादा वक्त न लगे। इस समय जो बीज मौजूद हैं, उनसे फसल तैयार होने में 6-7 महीने वक्त लग जाता है।
कर्नाटक के उत्तरी दूरस्थ इलाकों में अरहर और अन्य दलहनें ही प्रमुख नकदी फसल हैं, जिन्हें कम बारिश वाले इलाकों में उगाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में किसानों के पास अन्य फसल उगाने का विकल्प भी नहीं है और वे दलहन की बुआई जारी रखे हुए हैं। हालांकि उनका साल दर साल नुकसान बढ़ता जा रहा है।
किसानों का कहना है कि जल निकासी का उचित प्रबंध होना चाहिए, जिस समय भारी बारिश होती है। यहां के किसान हर एक गांव में एक लंबी झील बनाने की मांग कर रहे हैं, जिससे उन्हें फसलों की सिंचाई में सुविधा हो और बारिश कम होने पर भी फसलों को बर्बाद होने से बचाया जा सके।
पहले बारिश की कमी से बुआई में देरी, बाद में तेज बारिश से पौधे हुए खराब अरहर दाल पर किसानों का उत्पादन लागत 3600रुपये क्विंटल, एमएसपी 2000 रुपये प्रति क्विंटलकिसानों ने कहा कि मुनाफा तभी होगा, जब ऐसे बीज हों कि फसल 3 माह में उगेविकल्प के अभाव में दाल बोने को मजबूर किसान (बीएस हिन्दी)

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