हापुड़ September 21, 2009
दिल्ली से 60 किलोमीटर दूर गाजियाबाद जिले की हापुड़ मंडी से एनएच-24 पर इंडिका से जा रहे ब्रज भूषण मिश्र ने कहा, 'अगर अरहर की फसल अच्छी गई तो यह सोने की खेती है।'
पिछले साल मिश्र ने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के अपने गांव पीपरी खालसा स्थित अपनी 10 बीघा जमीन में अरहर, मूंग और उड़द की खेती की थी। इस साल उन्होंने बहुत कम दलहन की बुआई की है।
उन्होंने कहा, 'हमने केवल अपनी खपत भर को दलहन की बुआई की है, इसकी खेती बहुत जोखिम भरी है।' इस समय दाल की कीमतें 60 रुपये प्रति किलो हैं, लेकिन उनके पास अब दाल नहीं है। इस समय दाल की कीमतें आसमान छू रही हैं, लेकिन ज्यादातर किसान इसकी बुआई को लेकर उत्साहित नहीं हैं।
हापुड़ ब्लॉक के सादिकपुर गांव के बेदपाल कीमतें ज्यादा होने के बावजूद दाल की खेती को लेकर उत्साहित नही हैं। वे अपनी उड़द की खेती जरूर कर रहे हैं। उन्होंने कहा, 'कभी भी हमारी फसल पर कीड़ों का हमला हो सकता है। हमें बाजार से कीटनाशक खरीदना पड़ता है। हमने कीटनाशकों पर 6000 रुपये खर्च किए हैं।
उन्होंने कहा कि 'हमें इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अक्टूबर महीने में भी हमें इसी दाम पर कीटनाशक मिलेंगे। पिछले साल 1.5 क्विंटल अरहर हुई, जिसको मैने जनवरी महीने में 2200 रुपये क्विंटल के हिसाब से बेचा, उसके बाद मंडी में 6000 रुपये क्विंटल के हिसाब से दाम मिलने लगा।'
दाल की खेती करने में दूसरा मसला यह है कि फसल को उगाने में लंबा वक्त लगता है। बेदपाल ने 1 बीघे जमीन में विदेशी अरहर की बुआई की है। यह फसल कम समय में तैयार होती है, जिसमें 5 महीने का वक्त लगता है। सामान्य किस्म की अरहर की फसल को तैयार होने में 9 महीने का वक्त लगता है।
उन्होंने कहा, 'हम लंबे समय तक एक ही फसल के लिए खेत को नहीं फंसाए रख सकते हैं। आयातित किस्म की बुआई जून महीने में होती है, जो अक्टूबर में तैयार हो जाएगी। इसके बाद हमारा खेत गेहूं की बुआई के लिए खाली हो जाएगा।'
मिश्र और बेदपाल ने नीलगाय की समस्या का भी उल्लेख किया, जो झुंड में आकर फसलों पर धावा बोल देती हैं। उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति में हम दलहन की खेती करने की हालत में नहीं हैं। हापुड़ ब्लॉक के मुर्शादपुर गांव के सादुल्ला मक्के और धान की खेती से खुश हैं। वे अपनी 5 बीघा जमीन पर इसी की खेती करते हैं।
अरहर की खेती के लिए उन्होंने पट्टे पर 3 बीघा खेत ले रखा है, जैसा कि उन्होंने पिछले साल भी किया था। पिछले साल बारिश की वजह से फसल नष्ट हो गई और उन्हें महज 20 किलो प्रति बीघा अरहर मिली। गाजियाबाद जिले की हापुड़ मंडी में, जहां बेदपाल और त्यागी अपनी फसलें बेचते हैं, दालें और दाल मिलें इतिहास बन गई हैं।
अब यह कहानी बन चुकी है कि एक समय 2000 खाटी थे, और प्रत्येक खाटी में 800 मन दाल रखी जा सकती थी। (एक मन 40 किलो का होता है)। किसान और कारोबारी जसवंत सिंह कहते हैं कि आज की स्थिति यह है कि दाल का कारोबार कहानी में ही सुना जाता है। कुल 80 दाल मिलों ने काम करना बंद कर दिया है।
एक मिल को चालू रखने के लिए एक दिन में 25 क्विंटल अरहर की जरूरत होती है। साथ ही उसे चालू रखने के लिए लगातार बिजली की जरूरत होती है, जबकि मंडी को केवल 4 घंटे प्रतिदिन बिजली मिलती है। कुछ पुराने मिल मालिक तो दाल के थोक कारोबारी बन गए हैं, जो दिल्ली से दाल लाते हैं और उसे स्थानीय मंडी में बेचते हैं।
सिंह ने कहा कि पहले किसानों ने गन्ने की खेती करनी शुरू कर दी और पिछले 4 साल से वे धान की खेती करने लगे हैं। दो साल पहले किसानों को 15 रुपये प्रति किलो के हिसाब से अरहर के दाम मिलते थे, उसके बाद उन्होंने बुआई पूरी तरह से बंद कर दी। मिश्र कहते हैं कि दाल की खेती-खासकर अरहर अभी भी सोना उगलती है, लेकिन फसल अच्छी हुई, तभी ऐसा होता है।
उसके लिए बेहतर मॉनसून, उचित मात्रा में खाद और कीटनाशकों की जरूरत होती है। साथ ही किसानों को लागत के मुताबिक बेहतर दाम भी मिलना जरूरी है। (बीएस हिन्दी)
22 सितंबर 2009
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