रायपुर September 22, 2009
सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य से किसानों को आसरा मिलता है। उन्हें उम्मीद जगती है कि वे जोखिम उठाकर भी फसल की बुआई कर सकते हैं। लेकिन दाल किसानों के साथ ऐसा नहीं है।
दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य बाजार भाव की तुलना में एक चौथाई ही है। छत्तीसगढ़ में रायपुर के नैशनल एग्रीकल्चर कोआपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन के शाखा प्रबंधक आरपी गौर मानते हैं कि उनकी एजेंसी को पिछले 4 साल में किसानों से दाल का एक दाना भी छत्तीसगढ़ से नहीं मिला है। एजेंसी दाल और तिलहन की खरीद करती है।
किसान किसी भी हालत में सरकार के 2,300 रुपये प्रति क्विंटल के समर्थित मूल्य पर दाल नहीं बेचना चाहते। खासकर ऐसी स्थिति में, जब मंडी में इसका दोगुना दाम मिल रहा है। गौर ने कहा, 'नेफेड ने सरकार द्वारा तय समर्थन मूल्य पर एक किलो दाल भी नहीं खरीदा है।'
उन्होंने कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अंतिम खरीद 2005 में हुई थी, लेकिन मात्रा इतनी कम थी कि उसका उल्लेख करना भी उचित नहीं होगा। फेडरेशन अब मंडियों में होने वाली नीलामी में किसानों से दाल खरीदने के लिए हाथ आजमाता है। 31 जुलाई तक नेफेड ने करीब 11,000 क्विंटल दाल की खरीदारी मंडियों से न्यूनतम समर्थन मूल्य की तुलना में बहुत ज्यादा दाम देकर की।
यही हाल चने का है। सरकार ने चने का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1700 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है और किसान इसे मंडियों में 22,00 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बेच रहे हैं। एक महीने पहले किसानों ने मंडियों में 5,500 से 6,000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से अरहर बेचा था। अगर वे सरकारी संस्थाओं को अरहर की बिक्री करते तो उन्हें महज 2,000 रुपये क्विंटल मिलता।
गौर ने कहा कि दूर दराज के इलाकों से मंडी तक दाल लाने में बहुत ज्यादा किराया लगता है, लेकिन उन इलाकों में भी किसान सरकारी एजेंसियों को दलहन की बिक्री नहीं कर रहे हैं। बिचौलियों ने उनका काम आसान कर दिया है और वे न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा दाम देकर दाल की खरीद कर रहे हैं और उसे वे खुद मंडियों तक पहुंचा रहे हैं।
कवर्धा जिले के छोटे किसान प्रह्लाद साहू अपनी दालें बेचने को लेकर जरा भी चिंतित नहीं हैं। बिचौलिए उनके दरवाजे पर आते हैं और उनसे उनका उत्पाद आसानी से खरीद लेते हैं। जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर तारेश्वर गांव में प्रह्लाद की 2 हेक्टेयर जमीन है। वे उसमें करीब 16 क्विंटल अरहर उगाते हैं।
उनके पास दाल की बिक्री करने के 3 विकल्प हैं- मंडी, बिचौलिए और सरकारी खरीद। उनका मानना है कि बिचौलियों को अपने उपज की बिक्री करना ज्यादा मुफीद है। साहू कहते हैं कि अगर इतनी कम मात्रा में दाल को मंडी तक ले जाया जाए, तो भाड़ा अधिक लग जाता है और इस लिहाज से सौदा महंगा पड़ता है। अगर अपने उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सोसायटी को बेचा जाए तो भारी नुकसान होगा।
गांवों में बिचौलियों की जो व्यवस्था विकसित हो गई है, किसानों को सुविधाजनक लगती है। साहू का कहना है कि बिचौलिए गांव में आते हैं और दालें न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा दाम पर खरीद लेते हैं। वे मंडियों में मिलने वाले दाम से कम कीमत पर खरीदारी करते हैं, लेकिन इससे मंडी तक माल ले जाने का खर्च बच जाता है।
दो महीने पर साहू ने दाल की बिक्री 4,700 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बिचौलिए को की थी, वहीं अरहर का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2000 रुपये क्विंटल था। मंडी में किसानों को अरहर की कीमत 5500 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से मिली, लेकिन साहू अपने सौदे से खुश हैं। इसी गांव के एक मझोले किसान हैं जलेश चंद्रवंशी।
उन्होंने कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य कम होने की वजह से किसान सरकारी खरीद एजेंसियों को दाल की बिक्री नहीं कर रहे हैं। चंद्रवंशी ने कहा, 'बिचौलिए छोटे किसानों को चुनते हैं, जो अपना माल मंडी तक नहीं ले जा सकते। वे गांव में ही दाल का सौदा कर लेते हैं, जो किसानों और बिचौलियों दोनों के लिए फायदेमंद होता है।'
विश्लेषकों का कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाजार दरों में भारी अंतर होने की वजह से ही किसानों ने दलहन की खेती बंद कर दी। कृषि अर्थशास्त्री और विश्लेषक भास्कर गोस्वामी का कहना है कि सरकार दाल खरीद में असफलता की डींगे हांकती है जो संकेत देता है कि किसानों को मंडियों में ज्यादा दाम मिल रहा है।
सरकार ने हाल ही में अरहर दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2000 से बढ़ाकर 2300 रुपये क्विंटल कर दिया है। मूंग और उड़द का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2500 से बढ़ाकर 2700 रुपये प्रति क्विंटल किया गया है। मंडियों में दाम बढ़ने से किसान दलहन की ओर आकर्षित हुए हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
गोस्वामी का कहना है कि धान की बुआई के क्षेत्रफल में कमी को देखते हुए अरहर के क्षेत्रफल में बढ़ोतरी से इनकार नहीं किया जा सकता। हापुड़ की दाल मंडी के कारोबारियों का कहना है कि कीमतों का असर होता है। जिन किसानों ने दलहन की खेती की है, वे धन्यवाद दे रहे हैं कि मांग बढ़ने के साथ कीमतें बढ़ी हैं। गोस्वामी का कहना है कि यह सब देखते हुए किसान निश्चित रूप से दलहन की खेती की ओर आकर्षित होंगे। (बीएस हिन्दी)
23 सितंबर 2009
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