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03 अगस्त 2009

चीनी के सवाल पर देश दस साल पुरानी राह पर

पिछले दस साल में देश में तीन सरकारें बदल गईं लेकिन चीनी की उपलब्धता और इसकी कीमत को लेकर एक दीर्घकालिक और संतुलित नीति बनाने में तीनों सरकारें असफल रही हैं। इस मामले में सरकार दस साल पहले जहां खड़ी थी, आज भी वहीं खड़ी हैं। यही नहीं कीमतों पर नियंत्रण के लिए जिस तरह की राह पर अब वह चल पड़ी है, वह देश को हमेशा के लिए आयातक बनाने का जोखिम ले रही है। जिसके चलते न तो उपभोक्ता का भला होगा, न ही गन्ना किसानों का और न ही घरेलू उद्योग का। इन तीनों के बीच संतुलन वाली नीति ही चीनी की कीमतों में भारी उथल-पुथल की समस्या का दीर्घकालिक हल कर सकती है। यहां दस साल पहले का उदाहरण इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि 1999 में वाजपेयी सरकार के समय में देश में व्यापारियों के स्तर पर चीनी का भारी आयात किया गया था। इसमें से अधिकांश आयात पड़ोसी देश पाकिस्तान से किया गया था। इस मुद्दे पर सरकार को सफाई भी देनी पड़ी थी क्योंकि उसी साल हुए कारगिल युद्ध के दौरान भी देश में पाकिस्तान से चीनी की कुछ खेप वाघा बार्डर के रास्ते आई थी। चीनी का यह आयात शुल्क मुक्त था।यहां इसका संदर्भ इसलिए जोड़ा गया है क्योंकि इसी सप्ताह सरकार ने एक बार फिर निजी क्षेत्र को चीनी के शुल्क मुक्त आयात की इजाजत दी है। यह इजाजत दस लाख टन चीनी के आयात तक ही सीमित है और इसकी समय सीमा नवंबर तक तय की गई है। इसके पहले चीनी की कीमतों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने रॉ शुगर (गैर-रिफाइंड चीनी) के शुल्क मुक्त आयात की इजाजत दे रखी थी। इसकी अनुमति को भी बढ़ाकर 31 मार्च कर दिया गया है। जहां तक चीनी की बात है तो सरकारी एजेंसियों को अभी तक शुल्क मुक्त आयात की इजाजत थी। निजी क्षेत्र यानी ट्रेडरों को चीनी के शुल्क मुक्त आयात की इजाजत अब दी गई है। इससे बात साफ होती है कि 1999 से अब तक के एक दशक में हम एक बार फिर पुरानी राह पर आ खड़े हुए हैं। यानि देश में चीनी की जरूरत को आयात के जरिये पूरा करने की नौबत आ गई है। वैसे इस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में जो दाम चल रहे हैं उसमें आयात बहुत फायदेमंद नहीं है। ऐसा नहीं है कि इस दौरान देश में चीनी उत्पादन नहीं बढ़ा। दो साल पहले यह 282 लाख टन के रिकार्ड स्तर पर पहुंचा। उसके बाद पिछले साल यह घटकर 263 लाख टन पर आ गया और चालू पेराई सीजन जो सितंबर में खत्म हो रहा है, यह घटकर 150 लाख टन पर आ गया। ऐसा क्यों हुआ, इसकी सतह में जाने की जरूरत सरकार नहीं समझ रही है। कृषि मंत्रालय के गन्ना उत्पादन के गलत आंकड़े, वित्त मंत्रालय की चीनी निर्यात पर अतार्किक जिद और देश में चीनी की कीमतों में आई भारी गिरावट के चलते चीनी मिलों द्वारा गन्ना किसानों को बेहद कम दाम और भुगतान में लेटलतीफी जैसे कारक इसके पीछे रहे हैं। चार साल पहले दिखने लगा था कि देश अब चीनी उत्पादन में गिरावट और फिर बढ़ोतरी का कुचक्र खत्म हो गया है। यही नहीं, देश में बड़े पैमाने पर चीनी उद्योग ने नई क्षमता स्थापित करने के लिए निवेश किया। लेकिन सरकार की गलत नीतियों ने चीनी उद्योग और किसानों दोनों के साथ छल का काम किया है। उपभोक्ता को उचित कीमत पर चीनी उपलब्ध कराने के नाम पर किए गए यह फैसले उपभोक्ता के भी हित में नहीं रहे हैं। यही वजह है कि अब सरकार को डर सता रहा है कि पता नहीं इस बार त्योहारों के सीजन में कब कीमत 30 रुपये किलो को पार कर जाए। इससे बचने के लिए अब तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। पिछले साल के बेहतर दाम के बावजूद गन्ना किसानों ने इस साल गन्ने का क्षेत्रफल कम कर दिया है क्योंकि उसे भी सरकार और चीनी मिलों पर यकीन नहीं रहा है। ऊपर से देश के बड़े गन्ना उत्पादक राज्यों में मानसून ने धोखा दे दिया है इसलिए अगले सीजन में भी चीनी उत्पादन 150 से 160 लाख टन के बीच ही रहने का अनुमान है। जबकि देश में चीनी की सालाना खपत करीब 220 लाख टन है। ऐसे में अगले साल भी काफी हद तक आयात पर निर्भरता रहेगी। लेकिन यहां एक खतरा पैदा हो गया है। तमाम चीनी मिलें अब रॉ शुगर का आयात कर रही हैं और वह आगामी सीजन में इसे रिफाइंड कर खुले बाजार में बेचेंगी।कई चीनी कंपनियां सिर्फ रिफाइनरी स्थापित कर चुकी हैं या इसकी तैयारी में हैं। यानी रॉ शुगर का लगातार आयात कर इसे घरेलू बाजार में बेचने की उनकी योजना है। इसके लिए सरकार से रॉ शुगर आयात की दीर्घकालिक नीति बनाने की लॉबीइंग होने लगी है। यह वह खतरनाक खेल है जो विदेशी गन्ना किसानों को घरेलू गन्ना किसानों की कीमत पर फायदा देगा। इस कदम को हतोत्साहित करने की जरूरत है, अन्यथा चीनी के मामले में भी हालात खाद्य तेलों और दालों जैसे हो जाएंगे। अगर हम हमेशा के लिए आयातक हो जाते हैं तो फिर विश्व बाजार में जिस तरह से खाद्य तेल और दालों की ऊंची कीमतों का बोझ उपभोक्ताओं पर पड़ रहा है। वही हालत चीनी में भी होगी। इसलिए गन्ना किसानों को बेहतर दाम देकर चीनी उत्पादन में आत्मनिर्भरता बनाए रखने को तरजीह देना ही उद्योग, किसान और उपभोक्ता के हित में होगा। (Business Bhaskar)

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