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03 अगस्त 2009

मांग ज्यादा लेकिन चीनी कम

नई दिल्ली- साल 2009 इस मायने में महत्वपूर्ण होने जा रहा है कि इससे पता चलेगा कि भारत को चीनी के मामले में आत्मनिर्भर होने में क्यों एकबार फिर दिक्कत होने जा रही है। हम जितनी चीनी खरीदना चाहते हैं और स्थानीय स्तर पर हम जितना उत्पादन कर सकते हैं, उसमें साफ तौर पर अंतर है। आने वाले सालों में यह अंतर और बढ़ेगा। क्या इसका मतलब है कि उपभोक्ता, उत्पादक और निवेशक के रूप में चीनी के बारे में हमें अपने विचार तेजी से बदलने चाहिए? मांग पर नजर डालिए। चीनी उद्योग के अनुमान के अनुसार 2009-10 में यह प्रति व्यक्ति रिकॉर्ड 23 किलोग्राम का स्तर छू सकता है। खुदरा बाजार में 30 रुपए प्रति किलोग्राम की आसमान छूती कीमतें इस दिशा में कोई अवरोधक नहीं हैं क्योंकि उपभोक्ता अभी इस कीमत को बर्दाश्त करने की कुव्वत दिखा सकते हैं और दूसरी वजह यह है कि उन्हें खाद्य पदार्थों पर अधिक खर्च करने की आदत होती जा रही है। इसके अलावा सबसे खास बात है कि चीनी का कोई सस्ता विकल्प उपलब्ध नहीं है। लेकिन रसोई की खपत तो महज आधी कहानी है। इससे बड़ी मांग तो प्रसंस्कृत खाद्य तैयार करने वाली फैक्टरियों की तरफ से आती है जो कोला, जूस, आइसक्रीम, बिस्कुट, कंफेक्शनरी और रेडी-टू-ईट फूड के लिए सैकड़ों टन चीनी खरीदती हैं। इसके अलावा घर से बाहर खाना खाने की हमारी आदत से और अधिक रेस्टोरेंट तथा फास्ट फूड चेन ज्यादा चीनी की मांग करेंगे। इसमें एक और खास बात है कि ग्रामीण खान-पान में भी परिवर्तन आ रहा है और गुड़ की जगह तेजी से चीनी लेती जा रही है। अल्कोहल के इस्तेमाल के लिए स्थानीय ब्रुवरीज शीरा के लिए अधिक से अधिक गुड़ का इस्तेमाल कर रही हैं।
इन सभी बातों को साथ रखें और यह ध्यान में रखें कि 2009 में भारत का चीनी उपभोग 2.3 करोड़ टन रहेगा तो आपको यह मांग भी कम लगने लगेगी। अगर एक भारतीय साल में एक किलो चीनी का उपभोग बढ़ा दे तो उपभोग के आंकड़े में 10 लाख टन और मांग जुड़ जाएगी। अब आपूर्ति पर नजर डालिए। अगले कुछ सालों में मांग पूरी करने के लिए भारत को कम से कम 55 लाख हेक्टेयर भूमि पर गन्ना उगाना होगा और प्रति हेक्टेयर उत्पादन 65 टन होना चाहिए, लेकिन गन्ना अधिकतम 44 लाख हेक्टेयर भूमि पर उगाया जा सकता है और उसकी औसत यील्ड 55 टन प्रति हेक्टेयर है। इससे पता चलता है कि हम पहले से ही पीछे हैं। हमें कृषि क्षेत्र में 25 फीसदी और उत्पादकता में 20 फीसदी वृद्धि करने की जरूरत है। क्या हम इसे हासिल कर सकते हैं? उम्मीद बहुत कम है। गन्ने को काफी पानी और श्रम की आवश्यकता होती है। दोनों ही चीजें कम और महंगी होती जा रहा हैं। आप 2009 को अपवाद मान सकते हैं। उत्तर प्रदेश के प्रमुख गन्ना उत्पादक जिलों को आधिकारिक रूप से सूखा प्रभावित क्षेत्र घोषित किया जा चुका है। इससे राज्य की 200 चीनी मिलों की जान पहले ही सूख गई है। रिटर्न में कमी आने के कारण उत्तर प्रदेश के किसान सूखाग्रस्त घोषित होने से पहले ही गन्ने की खेती से किनारा कर चुके हैं। पंजाब और हरियाणा में भी ठीक यही स्थिति है। हर जगह स्थिति खराब है। कर्नाटक में यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज, धारवाड़ शुगरबीट अपनाने की सलाह दे रही है। पूरे देश में पानी की कमी, जलवायु परिवर्तन और मिट्टी में लवणता की मात्रा बढ़ने से मामला और बिगड़ रहा है। समृद्धि और खेती के बदलते हालात से भारत तेजी से आयात पर निर्भर होता जाएगा। खाद्य तेलों में ऐसा हो चुका है। ऐसा नहीं है कि यह पूर्ण रूप से खराब बात है लेकिन इससे खेल के नियम तो बदल ही जाएंगे। उपभोक्ताओं को अधिक कीमतों की आदत डालनी होगी। चीनी कारोबार में वैश्विक बाजार के अनुसार उथल-पुथल आएगी और सरकारी फ्री सेल कोटा बेमानी हो जाएगा। कंपनियों को गन्ने की कमी, विदेश प्रतिस्पर्द्धा और ऊंचे जोखिम से निपटने के लिए अपना कारोबारी मॉडल बदलना होगा। (ET Hindi)

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