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01 दिसंबर 2009

सेबी को कमोडिटी फ्यूचर का रेग्यूलेशन सौंपने में कई दिक्कतें

मुंबई। कमोडिटी फ्यूचर ट्रेडिंग की रेग्यूलेशन को लेकर लंबे समय से लटका मसला सुलझने की उम्मीद दिखने लगी है। कमोडिटीज फ्यूचर ट्रेडिंग को लेकर वित्त मंत्रालय और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के बीच चल रहे विवाद को सुलझाने की नई तरकीब सरकार ने ढूंढ ली है। इसके तहत कमोडिटी एक्सचेंजों पर सभी तरह के वायदा सौदों के रेग्यूलेशन का जिम्मा सेबी को सौंपा जा सकता है जबकि एक्सचेंजों के स्पॉट एक्सचेंजों में होने वाले सभी हाजिर सौदों की जिम्मेदारी फॉरवर्ड मार्केट कमीशन (एफएमसी) की दी जा सकती हैं। हालांकि सरकार की इस नई व्यवस्था से एफएमसी का दायरा काफी सीमित हो जाएगा। नई व्यवस्था लागू करने में कई तरह की मुश्किलें भी हैं।सरकारी सूत्रों के मुताबिक प्रधानमंत्री कार्यालय के दखल के बाद नयी व्यवस्था पर विचार किया जा रहा है। वैसे भी वित्त मंत्रालय शुरू से ही इस बात की वकालत करता रहा है कि कमोडिटी एक्सचेंजों में होने वाले वायदा कारोबार के रेग्यूलेशन का जिम्मा सेबी को सौंपा जाना चाहिए जबकि उपभोक्ता मामले मंत्रालय एफएमसी को अधिक अधिकार देने की वकालत करता रहा है। संसद के मौजूदा सत्र में जब फॉरवर्ड कांट्रेक्ट रेग्युलेशन एक्ट यानी एफसीआर में फेरबदल के लिए बिल लाया जाएगा तब नयी प्रस्तावित व्यवस्था को लेकर तस्वीर साफ हो पाएगी। जानकारों की मानें तो नए प्रस्ताव को अमली जामा पहनाना काफी जटिल है। अभी स्पॉट एक्सचेंजों के विभिन्न तरह के हाजिर सौदों के लिए राज्य सरकारों का नियमन चलता है। ऑनलाइन स्पॉट ट्रेडिंग लिए विभिन्न फ्यूचर एक्सचेंजों ने अलग से सब्सिडियरी यानि स्पॉट एक्सचेंज बना रखे हैं। इनके जरिये कारोबारियों को एक्सचेंज पर ऑनलाइन सिस्टम में स्पॉट सौदे करने की सुविधा मिलती है। अब परेशानी ये है कि अगर स्पॉट सौदों का रेग्यूलेशन किसी एक सेंट्रल एजेंसी (प्रस्ताव के अनुसार एफएमसी) के तहत लाना है तो संविधान में भी संशोधन करना पड़ेगा क्योंकि हाजिर कारोबार के रेग्यूलेशन का अधिकार राज्यों के पास। इसमें बदलाव की लंबी और जटिल प्रक्रिया होगी। इस मसले पर एफएमसी के सूत्रों का कहना है कि महज हाजिर सौदों का रेग्यूलेशन उनके अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर देगा। दरअसल कमोडिटी एक्सचेंजों के कुल कारोबार में स्पॉट एक्सचेंजों की हिस्सेदारी दो से तीन फीसदी से अधिक नहीं हैं। ऐसे सौदों में कारोबारियों की दिलचस्पी नहीं लेने की बड़ी वजह अनिवार्य डिलीवरी है। दूसरी ओर स्पॉट सौदों को तीन दिन के भीतर निपटाना होता हैं, ऐसा नहीं करने पर डिफॉल्ट की आशंका बनती है। दूसरी ओर कारोबारियों का कहना है कि शेयरों की डिलीवरी जितनी आसान है, जिंसों की नहीं। इसकी वजह अरबों के शेयर कंप्यूटर के एक छोटी सी डिस्क पर जमा किए जा सकते हैं और उनका ट्रांसफर भी आसान है। वहीं जिंसों में कुछ लाख रुपये के स्टॉक को भी जमा रखने और एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना बड़ा और खर्चीला काम है। यही वजह है कि कारोबारी वायदा सौदों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। (बिज़नस भास्कर)

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