नई दिल्ली September 07, 2009
निमाई घोष अब दाल नहीं बोते। पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में बेलपुकुर गांव के 65 साल के इस बुजुर्ग किसान को अब धान और जूट ही भा रहे हैं। हालांकि खाद्य सुरक्षा अभियान के तहत नदिया को 'दाल जिला' घोषित किया गया है, लेकिन निमाई ने इस बारे में हल्का फुल्का सुना भर है।
इस अभियान का मकसद दाल की खेती के लिए किसानों को सब्सिडी और सिंचाई के उपकरण मुहैया कराना है ताकि इसका उत्पादन बढ़ सके। लेकिन निमाई जैसे किसानों को इससे कोई मतलब नहीं है। आपको सुनकर हैरत होगी कि दाल के आसमान छूते दामों का फायदा किसान क्यों नहीं उठाना चाहते।
दरअसल दालों के दाम दुकानों पर ही बढ़े हैं और बारिश न होने और दूसरी वजहों से उनकी उपज इतनी कम हो रही है कि किसानों को इसकी खेती से कोई फायदा नहीं हो रहा। निमाई ही नहीं उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ के अतरौली गांव के जयप्रकाश शर्मा भी इसी वजह से दाल की बहुत कम खेती कर रहे हैं। वह 1 बीघा जमीन पर अरहर की खेती कर रहे हैं और बाकी 22 बीघा पर धान, गेहूं और पशु चारा उगाया जा रहा है।
दाल की कीमत चाहे कुछ भी हो, कई साल से शर्मा का गणित इसी दायरे में सिमटा हुआ है। वह कहते हैं कि 1 बीघा जमीन पर दाल केवल 1 क्विंटल होती है, जबकि गेहूं या धान 4 क्विंटल हो जाता है। दूसरा घाटा यह है कि दाल की फसल तैयार होने में 9 महीने का वक्त लेती है, जबकि दूसरी फसलों के साथ कुछ और भी उगाया जा सकता है।
शायद यही वजह है कि पिछले 3 साल में देश में दालों का उत्पादन 148 लाख टन पर ही अटका हुआ है। जानकार भी मानते हैं कि बाजार में दाम कितने भी बढ़ जाएं, लेकिन किसानों को उसका कोई फायदा नहीं मिलता।
हालांकि प्रधानमंत्री ने दालों की उपज बढ़ाने के लिए दाल अभियान का ऐलान किया था। लेकिन राष्ट्रीय कृषक आयोग की सिफारिशें अब भी फाइलों में बंद होकर धूल चाट रही हैं। इनमें एक सिफारिश यह भी थी कि किसानों को जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिया जाए, वह बाजार मूल्य का कम से कम आधा हो।
इस वक्त दालों के भाव खुदरा बाजार में 90 रुपये प्रति किलो तक हैं, लेकिन एमएसपी 23 रुपये किलो ही है। किसान इसे मंडी में 60 रुपये किलो के भाव बेच देते हैं। छत्तीसगढ़ में तारेश्वर जिले के प्रह्लाद साहू जैसे किसान भी हैं, जो बिचौलिये को दाल बेचना बेहतर समझते हैं।
हालांकि साहू ने बिचौलिये को 47 रुपये किलो अरहर दाल बेची। मंडी में उन्हें 57 रुपये किलो का भाव मिलता, लेकिन वहां तक दाल ढोना ही उनके लिए महंगा पड़ जाता। दलहन के किसान साफ कहते हैं कि एमएसपी का कोई मतलब ही नहीं है।
अरहर के लिए एमएसपी महज 2,000 रुपये प्रति क्विंटल है, लेकिन किल्लत के चलते मंडी में इसका दाम आसानी से 6,000 रुपये प्रति क्विंटल मिल जाता है। इसलिए किसान को लगता है कि कमी बनी रही तो उन्हें अच्छा भाव मिल जाएगा और अगर दाल ज्यादा हो गई, तो भाव की गारंटी कोई नहीं दे सकता।
सामाजिक कार्यकर्ता विजय जयवंतिया कम एमएसपी को ही इस हालत का जिम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं, 'एमएसपी किसान के लिए धमकी का काम करता है, जिसकी वजह से वह ज्यादा उत्पादन नहीं करता। अगर उत्पाद ज्यादा होगा, तो किसान को कम दाम पर उसे बेचना पड़ेगा।'
लेकिन कृषि लागत एवं मूल्य समिति के अध्यक्ष महेंद्र देव इससे इत्तफाक नहीं रखते। वह कहते हैं कि एमएसपी आधार मूल्य का काम करता है। अगर सरकार इसे बढ़ा देगी, तो बाजार में दाम अपने आप बढ़ जाएंगे। (बीएस हिन्दी)
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