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03 अगस्त 2009

धान को बकाने रोग से बचाने की समेकित विधि

धान की बेहतर पैदावार लेने में फसली रोग बहुत बडी समस्या बनते जा रहे हैं। इन रोगों की वजह से धान की फसल को काफी नुकसान पहुंच रहा है। इन रोगों में बकाने नाम की बीमारी से धान की पैदावार में काफी गिरावट आती है। अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान के आकलन के आधार पर यह पाया गया कि बकाने रोग से धान की फसल को 20-25 फीसदी नुकसान होता है। भारत में इस रोग से धान की उपज में 15 फीसदी तक नुकसान देखा गया है। ऐसे में इस रोग से होने वाले नुकसान से खेतों को बचाने की जरूरत है, जिससे कि धान की भरपूर पैदावार ली जा सके। इस बीमारी से बचाव के लिए राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन केंद्र (एनसीआईपीएम) नई दिल्ली ने धान के बकाने रोग के समेकित प्रबंधन की विधि तैयार की है। डॉ. आर. के. तंवर ने बताया कि यह बीमारी फ्यूजेरियम मोनिलीफामी नामक फफूंद से फैलती है। इस रोग से ग्रसित पौधे की लंबाई असामान्य रूप से ज्यादा हो जाती है। इस वजह से इन पौधों की पहचान दूर से ही की जा सकती है। इस रोग को उत्तरी भारत में झंडा रोग के नाम से भी जाना जाता है।रोग के लक्षणबीमारी के लक्षण पौध रोपण के एक महीने बाद दिखाई पड़ते हैं। सामान्यत: इस रोग के लक्षण नर्सरी में भी देखे जा सकते है, इससे प्रभावित पौधे जल्दी नहीं मरते हैं। सामान्य पौधों की अपेक्षाकृत रोग ग्रसित पौधों की लंबाई बहुत अधिक हो जाती है एवं पत्तियां गोलाकार कमजोर दिखाई देती है। रोगग्रसित पौधों का विकास असामान्य रूप से तेज रहता है। इसकी जड़ के ऊपरी भाग पर सफेद या गुलाबी रंग की फफूंद दिखाई देती है। रोग ग्रसित पौधा सामान्य पौधों की अपेक्षा ज्यादा लंबा हो जाता है। इससे वह एक ओर झुक जाता है। ऐसे पौधों में धान की बालियों का विकास नहीं होता है। खेत में कुछ समय बाद ये पौधे मरने लगते हैं। जिन संक्रमित पौधों में बालियां विकसित होती भी है तो उनके दाने पकने से पहले ही पौधा सूख जाता है। रोग ग्रसित पौधे में कम या बिना दानों वाली अविकसित या खाली बालियां मिलती हैं।रोग संक्रमणरोगजनक फफूंद के बीजाणु हवा से फैल जाते हैं और पौधों को रोगग्रस्त कर देते हैं। अधिक रोगजनक फफूंद से प्रदूषित बीज प्राय: बकाने बीमारी के लक्षण लाते हैं। बीज को दूषित जल में भिगोने से भी फफूंद के बीजाणु और तंतु बीज पर लग जाते है। फफूंद का संक्रमण जड़ों से प्रारंभ होकर बाद में पूरे पौधे पर फैल जाता है। रोगजनक फफूंद के सूक्ष्म जीवाणु तथा उसके तंतु संवहनी तंत्र के जाइलम में जाइलम में अधिक पाये जाते हैं।बीमारी के कारणमुख्यतया बकाने बीज से पैदा होने वाला रोग है, परंतु ग्रसित भूमि में बीज की बुवाई करने से भी यह रोग अधिक फैलता है। भूमि में रोगजनक फफूंद 6 से 9 महीने तक रह सकती है। अधिक नाइट्रोजन भी इस बीमारी को बढ़ाने में सहायक होती है। इसके अलावा खेत से पानी निकालने पर यह बीमारी अधिक तेजी से फैलती है। यह बीमारी बासमती चावल की किस्म पूसा सुगंध-4 (1121) में अधिक फैलती है क्योंकि यह किस्म के पौधे बीमारी से ज्यादा आकर्षित होते हैं।रोग से बचावइस बीमारी को फैलाने के लिए जिम्मेदार एरोबिक फफूंद ऑक्सीजन की उपस्थिति में तेजी से पनपती है। अत: धान की रोपाई के तुरंत बाद खेतों का पानी नहीं निकालना चाहिए। डॉ तंवर के अनुसार खेतों से पानी रोपाई के एक सप्ताह बाद निकालना चाहिए। धान की कटाई के बाद खेत में बचे डंठलों को हटा देना चाहिए क्योंकि यह फफूंद को विकसित करने में सहायक होते हैं। इस बीमारी से बचाव के लिए स्वस्थ खेत में उपजे बीज ही इस्तेमाल करने चाहिए। स्वस्थ्य व साफ बीजों से इस बीमारी की संभावना को कम किया जा सकता है। नमक के पानी का सांद्र घोल बनाकर बीजों को डुबोने से हल्के व रोग ग्रसित बीज ऊपर तैरने लगते हैं। जिन्हें आसानी से अलग किया जा सकता है। इसके अलावा सोडियम हाइपोक्लोराइट का पांच फीसदी घोल बनाकर बीजों को दो घंटे तक डुबोएं और बाद में साफ पानी से धोकर सुखाने से बीमारी पर नियंत्रण किया जा सकता है। बीज बोने से पहले फफूंदनाशक रसायन जैसे थाईरम, थायोफेनेट- मिथाइल, कार्ब्ेडाजिम या बिनोमिल से बीज उपचार इस बीमारी को रोकने के लिए प्रभावी पाया गया है। धान के बीजों को 60-62 डिग्री सेल्सियस पर 15 मिनट तक गर्म पानी में भिगोकर रखने से 95 फीसदी बकाने रोग की रोकथाम की जा सकती है। बकाने रोग से ग्रसित धान की खड़ी फसल में स्युडोमोनास फ्लोरेसेंस जीवाणु के प्रयोग से बीमारी को फैलाने से रोका जा सकता है। (Business Bhaskar)

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