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10 सितंबर 2009

चीन और अमेरिका में मांग बढ़ने से कॉपर 8फीसदी महंगा

वैश्विक आर्थिक संकट खत्म होने के संकेतों से चीन, अमेरिका, जर्मनी सहित भारत में कॉपर की औद्योगिक मांग बढ़ने से लंदन मेटल एक्सचेंज (एलएमई) में इसकी कीमतों में आठ फीसदी तक की वृद्धि हुई है। जानकारों के अनुसार यूरो के मुकाबले डॉलर के कमजोर पड़ने के कारण भी एलएमई में कॉपर की कीमतों में तेजी को बल मिला है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दाम बढ़ने के कारण घरेलू बाजार में भी इसके भाव बढ़े हैं। एलएमई में पिछले एक माह के दौरान कॉपर तीन माह अनुबंध के दाम 5,970 डॉलर से बढ़कर 6,432 डॉलर प्रति टन हो गए हैं। वहीं घरेलू हाजिर बाजार में इस दौरान कॉपर के भाव 290 रुपये से बढ़कर 317 रुपये प्रति किलो पहुंच गए हैं। जबकि मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज में कॉपर नवंबर वायदा के भाव 319।65 रुपये प्रति किलो चल रहे है। पिछले माह की 9 तारीख को इसके दाम 295.05 रुपये प्रति किलो थे। कॉपर कारोबारी सुरेशचंद गुप्ता ने बिजनेस भास्कर को बताया कि घरेलू बाजार में मांग बढ़ने के कारण कॉपर की कीमतों में तेजी आई है। दरअसल देश में कारों की बिक्री बढ़ने के कारण कॉपर की मांग में इजाफा हुआ है। उल्लेखनीय है कि कॉपर का उपयोग ऑटो इंडस्ट्री में काफी ज्यादा होता है। सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबिल मैन्यूफैक्चर्स (सियाम) के अनुसार चालू वर्ष के अगस्त माह में पिछली समान अवधि के मुकाबले वाहनों की ब्रिक्री में 24 फीसदी का इजाफा हुआ है। अगस्त में 10.08 लाख वाहनों की बिक्री हुई। चीन में भी अगस्त माह के दौरान पिछली समाव अवधि के मुकाबले वाहनों की बिक्री में करीब 82 फीसदी की वृद्धि हुई है। जुलाई माह के दौरान भी भारत और चीन में वाहनों की बिक्री बढ़ी थी। उधर एंजिल ब्रोकिंग के कमोडिटी विश्लेषक अनुज गुप्ता के अनुसार वैश्विक स्तर पर आर्थिक मंदी से उबरने के कारण कॉपर की वैश्विक मांग में बढ़ोतरी बढ़ने लगी है। उनके अनुसार अमेरिका, चीन, जर्मन से कॉपर की मांग में इजाफा होने लगा है। अमेरिका की प्रमुख मेटल उत्पादक कंपनी अल्कोआ ने चीन की ओर से मजबूत मांग को देखते हुए इसकी खपत बढ़ने का अनुमान लगाया है। गुप्ता कहना है कि इक्विटी मार्केट बढ़ने के कारण भी कॉपर की कीमतों में तेजी आई है। कॉपर की सबसे अधिक खपत इलैक्ट्रिकल में 42 फीसदी, भवन निर्माण में 28 फीसदी, ट्रांसपोर्ट में 12 फीसदी, कंज्यूमर प्रोडक्ट में 9 फीसदी और इंडस्ट्रियल मशीनरी में 9 फीसदी होती है। इसका सबसे अधिक उत्पादन एशिया में 43 फीसदी होता है इसके बाद 32 फीसदी अमेरिका,19 फीसदी यूरोप में किया जाता है। (बिज़नस भास्कर.)

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