नए वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के पेंच की बारीकियां समझे बगैर ही एक तरह से अपने पत्ते खोल दिए हैं। विश्व व्यापार संगठन में दोहा वार्ता दुबारा शुरू होने पर भारत का रुख कैसा होगा, इस सवाल पर शर्मा का जवाब है कि नई दिल्ली कुछ लेकर और कुछ देकर बातचीत में आगे बढ़ने को तैयार है। उन्होंने इस तरह अपनी पिछली शर्तो को सामने रखे बगैर ही अपने पत्ते खोल दिए। पिछले दिनों अमेरिका रवाना होने से पहले शर्मा ने कहा था कि भारत व अमेरिका के बीत गतिरोध समाप्त हो गया है। इसके बाद वाश्ंिागटन से खबर आई कि शर्मा ने यह संकेत दिया है कि दोहा वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए विदेशी कृषि उत्पादों को अपने बाजार में प्रवेश देने के मुद्दे पर भारत अपनी शर्तो में नरमी ला सकता है। स्पष्ट है कि आनंद शर्मा वहीं कर रहे हैं, जेा उन्हें कहा गया है। वे पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि वे प्रधानमंत्री के निर्देशों का पालन करने जा रहे हैं।
डब्लूटीओ पर भारत के यू-टर्न के परिणामों पर चर्चा करने से पहले हमें इससे जुड़ी राजनीति को समझना होगा, जिससे कारण भारत के रुख में नरमी आई। नई दिल्ली में दोहा वार्ता आगे बढ़ाने और विकास के मुद्दे पर 13 मार्च 2007 को तत्कालीन वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने धनी और औद्योगिक देशों के साथ भारत की भागीदारी बढ़ाने के लिए भारत की दिलचस्पी के संकेत दिए थे। भारत के कथित यू-टर्न पर कमलनाथ का कहना था कि यह वार्ता (नई दिल्ली में आयोजित) बाधाएं दूर करने के लिए नहीं है बल्कि उन बिंदुओं को कम करना है जिनसे कीमतों में कृत्रिम तेजी आ सकती है। उस समय दि इकोनॉमिस्ट द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी कहा कि भारत दोहा वार्ता सफल बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। इससे भारत के रुख का स्पष्ट संकेत मिल जाता है।
नई दिल्ली में दो दिवसीय सम्मेलन वाणिज्य मंत्रालय ने अपने रुख में बदलाव को तार्किक साबित करने के लिए आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में जिन लोगों का आमंत्रित किया गया, उनका चयन जिस तरह किया गया, उससे मंत्रालय का एजेंडा स्पष्ट हो गया। इस मुद्दे से जुड़े वास्तविक पक्षकारों को कार्यक्रम से अलग रखा गया और यह सुनिश्चित किया गया कि सम्मेलन में आलोचना के स्वर न उभरें। आखिर यह दोहा बचाओ अभियान का हिस्सा था। अब आनंद शर्मा का यह रुख अनायास नहीं दिखाई दे रहा है बल्कि पिछले कुछ समय से ऐसा रुख सामने आने की संभावना दिख रही थी। सिर्फ हम इस बदलाव को देख नहीं पा रहे थे। भारत ने अमेरिका और ब्रिटेन के साथ चलने के लिए मन पहले ही बना लिया था। अब कोशिश सिर्फ यू-टर्न के लिए तार्किक आधार तलाशने भर की है।
कमलनाथ ने पिछले दो साल में जो काम किया, उसके बारे में संकेत दिया गया कि भारत सबकुछ चुपचाप नहीं सह रहा है। उन्होंने बड़ी होशियारी से मीडिया के आगे भारत के बदलते रुख का खुलासा किया। इसके साथ ही धीरे-धीरे कृषि के मुद्दे पर भारत की स्थिति कमजोर हो गई। ऐसे में अब जब कमलनाथ को कम महत्व वाला मंत्रालय सौंपा गया है, तब डब्लूटीओ के मुखिया पास्कल लेमी बेशक प्रधानमंत्री के शुक्रगुजार होंगे। हम यह नहीं कह सकते है कि मनमोहन सिंह ने जानबूझकर या किसी दबाव में उनका मंत्रालय बदला है लेकिन इतना जरूर है कि डब्ल्यूटीओ भारत में होने वाले आम चुनाव में गहरी दिलचस्पी ले रहा था।
महज कुछ ही महीने पहले जब मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव हुए थे। डब्ल्यूटीओ चुनाव के परिणामों का बेताबी से इंतजार कर रहा था। अब कोई कह सकता है कि एमपी और छत्तीसगढ़ के चुनाव से भला डब्लूटीओ का क्या वास्ता। दरअसल पास्कल लेमी यहां सत्ता विरोधी लहर में भाजपा की हार की उम्मीद कर रहे थे। ऐसे में कमलनाथ मुख्यमंत्री बन सकते थे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसके बावजूद कमलनाथ को अपना मंत्रालय गंवाना पड़ा। भारतीय मंत्रिमंडल के गठन से पहले ओमान में पास्कल लेमी ने यही कहा था कि भारत में चुनाव खत्म हो गए हैं और अब भारत और अमेरिका को द्विपक्षीय मामलों पर आगे बढ़ना चाहिए। ताकि कृषि संबंधी मसलों और नामा मुद्दों पर सहमति बन सके। शुरू के दौर में कमलनाथ ने भारत का मुद्दा दोहा वार्ता में काफी मजबूती से उठाया था।
अब डब्ल्यूटीओ की सातवें दौर की वार्ता 30 नवंबर से दो दिसंबर के दौरान जेनेवा में होने जा रही है। लोगों का मानना है कि पिछले साल जुलाई में हुई वार्ता भारत द्वारा प्रस्ताओं पर अड़ियल रुख अपनाने से विफल रही। उसने एक प्रस्ताव मानने से इंकार कर दिया था। सवाल है कि क्या इससे गरीब किसानों को कृषि आयात की भरमार होने पर स्पेशल सेफगार्ड ड्यूटी के जरिये बचाने की कोशिश थी या फिर चालाकी से अमेरिकी कृषि को बचाव का हथियार दिया जा रहा था। दरअसल भारत और चीन द्वारा अपने किसानों के हितों के बचाव के प्रयास से यह वार्ता विफल नहीं मानी जा सकती। वार्ता इसलिए विफल रही क्योंकि अमेरिका अपने यहां कृषि खासकर कपास पर दी जाने वाली सब्सिडी घटाने को तैयार नहीं था। यह कदम अमेरिका के लिए राजनीतिक रूप से आत्मघाती होती।
भारत और चीन दोनों ने ही यूरोपीय यूनियन के प्रस्तावों को थोड़़े-बहुत बदलावों के साथ स्वीकार कर लिया था। उनकी चिंताओं को दूर किया जा सकता था लेकिन नए प्रस्ताव में लेमी प्रस्ताव के अनुरूप 40 फीसदी ड्यूटी की शर्त के बजाय ऐसी व्यवस्था की गई है जिससे भारत अपना किसी तरह बदलाव नहीं कर सकता है। इससे विकासशील देशों की खाद्य सुरक्षा, रोजगार संबंधी चिंताओं और ग्रामीण विकास को नुकसान हो सकता है। नए प्रस्ताव पर बातचीत हो रही है लेकिन कहा जा सकता है कि भारत ने अमेरिका और यूरोप के साथ समझौते की रूपरेखा बना ली है। समझौते की घोषणा होना भर बाकी रह गया है। (Business Bhaskar)
02 जुलाई 2009
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