नई दिल्ली- यूपीए की नई सरकार उस इलाके में कदम रखने जा रही है जहां जाने की हिम्मत इससे पहले की कोई भी सरकार नहीं जुटा सकी थी। यह इलाका है उर्वरक सब्सिडी सुधारों का। यूपीए सरकार इस वित्त वर्ष के उत्तरार्द्ध में इस दिशा में कदम बढ़ाने वाली है। उर्वरक सब्सिडी बिल एक लाख करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है। लिहाजा यह मुद्दा सिर्फ किसानों के लिए ही नहीं, बल्कि उन सभी लोगों के लिए अहम हो गया है जिन्हें इतनी बड़ी सरकारी रकम दूसरे रूपों में लाभ पहुंचा सकती है। सरकार की पहल का मुख्य उद्देश्य यह है कि सब्सिडी सीधे किसानों तक पहुंचे। इसके अलावा किसी खास इलाके की जमीन के लिए जरूरी पोषक तत्वों की मात्रा से भी इस सब्सिडी को जोड़ा जाएगा। इस समय इस्तेमाल किए गए उर्वरक की समूची मात्रा पर सब्सिडी दी जाती है जबकि कई मामलों में पाया गया है कि उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल से जमीन की उर्वरा क्षमता को नुकसान पहुंचा है। सरकार का विचार तो बढि़या है लेकिन इस राह में बाधाएं विशाल दिख रही हैं। अन्य बातों के अलावा एक फर्क तो यही आएगा कि उर्वरकों की कीमत पांच गुनी तक बढ़ सकती है। किसान और उनके स्वयंभू नेता भी इस पहल का विरोध कर सकते हैं। सरकार को भी इन बाधाओं का अनुमान है और इनसे निपटने की रणनीति तैयार की जा रही है। नई पहल के कई फायदे बताए जा रहे हैं। इसके अनुसार सब्सिडी बिल तो घटेगा ही, यूरिया जैसे सस्ते उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल पर अंकुश भी लगेगा। उर्वरकों की कीमतें बाजार के हवाले किए जाने के एक वर्ष के भीतर यूरिया सेक्टर में 2,900 करोड़ रुपए के निवेश का प्रस्ताव भी है। उर्वरक एवं रसायन मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के मुताबिक इसका मुख्य उद्देश्य सब्सिडी प्रबंधन को इंडस्ट्री मैनेजमेंट से अलग करना और दोनों ही क्षेत्रों में उच्च दक्षता सुनिश्चित करना है। उदाहरण के लिए, तीन साल की कर छूट की अवधि खत्म होने के बाद अकुशल उद्योगों का बोरिया-बिस्तर बंधने पर इंडस्ट्री मैनेजमेंट के क्षेत्र में करीब 4,500 करोड़ रुपए की बचत होने का अनुमान है। उर्वरक सब्सिडी के लिए भी सरकार विशेष बजटीय आवंटन करेगी और इसे कीमतों में उतार-चढ़ाव के आधार पर तय करने की परंपरा बंद हो जाएगी। बहरहाल सब्सिडी सुधारों का सबसे बड़ा असर यह होगा कि किसानों के लिए उर्वरकों की कीमतें मौजूदा स्तर से पांच गुना तक बढ़ जाएंगी। उर्वरक मंत्रालय का मानना है कि कीमतों में यह बदलाव लंबे अरसे से लंबित था। इसके पक्ष में यह दलील दी जा रही है कि प्रमुख उर्वरकों के दाम 2002 से एक ही स्तर पर बने हुए हैं। इस समय यूरिया की उत्पादन लागत 13,000 रुपए प्रति टन है लेकिन उपभोक्ता के लिए इसका मूल्य 4,850 रुपए प्रति टन ही है। डीएपी की उत्पादन लागत 19,000 रुपए प्रति टन है लेकिन किसानों को यह 9,815 रुपए प्रति टन मिलती है। इसी तरह पोटाश का उपभोक्ता मूल्य 4,500 रुपए प्रति टन है जो इसकी वास्तविक उत्पादन लागत का पांचवां हिस्सा है। मंत्रालय को उम्मीद है कि नई पहल से अकेले यूरिया की मांग में ही 20 फीसदी कमी आएगी जिससे सब्सिडी मद में 3,000 करोड़ रुपए तक की बचत होगी। बहरहाल इस कहानी का दूसरा पहलू यह हो सकता है कि महंगे होने से उर्वरकों का उपभोग घटेगा जिससे उत्पादकता प्रभावित हो सकती है लेकिन सरकार को उम्मीद है कि कंपनियों की प्रतिद्वंद्विता के चलते खुदरा कीमतें वाजिब स्तर पर बनी रहेंगी। नई प्रणाली का खाका अगस्त के अंत तक तैयार होने की उम्मीद है और इसे मंजूरी के लिए सितंबर के अंत या अक्टूबर की शुरुआत में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति के पास भेजा जा सकता है। मंत्रालय क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और सहकारी बैंकों के खातों, किसान क्रेडिट कार्ड और अन्य उपायों के जरिए सब्सिडी को सीधे किसानों तक पहुंचाने की व्यवस्था करने में जुटा है।
उर्वरक सचिव अतुल चतुर्वेदी ने ईटी से कहा, 'देशभर में जमीन की घटती उपजाऊ शक्ति और भूजल एवं अन्य जल स्त्रोतों के प्रदूषण को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है। उर्वरकों और अन्य पोषक तत्वों को समाहित करने की जमीन की क्षमता घट गई है जिससे उत्पादन पर असर पड़ा है। लिहाजा पोषक तत्व आधारित सब्सिडी प्रणाली का असली फायदा जमीन की गुणवत्ता में सुधार के रूप में सामने आएगा जिससे प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ेगी।' बहरहाल किसानों को सीधे सब्सिडी की राह में कई बाधाएं हैं। यह साफ नहीं है कि ग्रामीण बैंकों की शाखाएं अपने खाताधारक किसानों की ओर से खरीदे गए उर्वरकों पर सब्सिडी की गणना करेंगी या नहीं। इलाकावार उर्वरक उपयोग की सीमा तय करने का विचार तो है लेकिन देश में इतनी मृदा परीक्षण प्रयोगशालाएं ही नहीं हैं जो इस तरह का पैमाना तय कर सकें। यह भी साफ नहीं है कि सब्सिडी मनचाही खरीद पर होगी या जमीन के आधार पर प्रति किसान इसकी कोई सीमा होगी। ऐसे तमाम सवालों के जवाब के लिए हमें थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा। (ET Hindi)
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