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07 जुलाई 2009

अमल के मोर्चे पर फेल होगा सामाजिक एजेंडा

बजट पेश करते समय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के माहौल में भी देश की ऊंची जीडीपी वृद्धि दर को कैसे बरकरार रखा जाए। अमेरिका और यूरोप में छाई आर्थिक मंदी का सबसे ज्यादा असर निर्यात और सेवा क्षेत्र पर पड़ा है। उद्योग जगत की यह आशा थी कि प्रणब मुखर्जी कॉरपोरेट टैक्स में कमी करेंगे, कई तरह की रियायतें देंगे और विनिवेश को बढ़ावा देंगे। ऐसा होने पर उद्योग जगत के कारोबार में बढ़ोतरी होती और उनका मुनाफा भी बढ़ता। लेकिन प्रणब ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक का 870 अंक लुढ़कना इस निराशा को दर्शाता है। हालांकि, बाजार की प्रतिक्रिया अल्पकालिक होती है। यह एक कारोबारी प्रतिक्रिया है और यदि देखा जाए तो उसके लिए यह स्वाभाविक भी है।सरकार ने बजट में न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) को दस फीसदी से बढ़ाकर 15 फीसदी कर दिया है। इसी तरह कई वस्तुओं पर उत्पाद शुल्क को चार फीसदी से बढ़ाकर आठ फीसदी कर दिया गया है। कंपनियों के मुनाफे पर इसका सीधा असर पड़ेगा। इससे खासकर वैसी कंपनियां प्रभावित होंगी, जो टैक्स नहीं दे रही हैं या ऐसी चीजें बना रही हैं जिन पर न्यूनतम उत्पाद शुल्क लग रहा है। आम आदमी को यह जानकर ताज्जुब होगा कि कई कंपनियां हजारों करोड़ रुपये का कारोबार करती हैं, लेकिन टैक्स नहीं देती हैं। इन्हीं कंपनियों को कर दायरे में लाने के लिए मैट का प्रावधान किया गया था। कॉरपोरेट सेक्टर संगठित क्षेत्र है। उसके पास लॉबिंग के लिए हजारों संस्थाएं हैं। यह सेक्टर अपनी बातों को काफी प्रमुखता के साथ रखता है। इसलिए वह इस बजट को खारिज कर सकता है। लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि कॉरपोरेट सेक्टर या बाजार के खारिज कर देने से बजट खारिज नहीं हो सकता। याद रखें, देश की 60 फीसदी आबादी कृषि क्षेत्र और इससे जुड़ी गतिविधियों पर निर्भर है। खास तौर पर ऐसे माहौल में इसी तरह के बजट की उम्मीद थी जब मानसून में देरी हो गई है और हम सूखे जैसी स्थिति का सामना करने के कगार पर हैं। यह बजट इस बात को ध्यान में रखकर बनाया गया है कि आंतरिक अर्थव्यवस्था को मजबूत करने से ही जीडीपी वृद्धि दर उच्च स्तर पर बनी रहेगी।राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट यानी नरेगा सरकार की सफल स्कीम मानी जा रही है। इसके लिए बजटीय आवंटन में 30 फीसदी की वृद्धि करने का मतलब यह नहीं है कि इसका लाभ मुकम्मल तौर पर सबको मिल ही जाएगा। इसी तरह राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के लिए प्रावधान में 27 फीसदी की वृद्धि की गई है। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या बिजली के खंभे गाड़ देने से, तार खींच दिए जाने या मीटर लगाने से ही बिजली आ जाएगी? विद्युतीकरण का मतलब यह है कि बिजली की आपूर्ति हो, न कि सिर्फ नाममात्र के खंभे और तार लगें। बिजली की मांग और आपूर्ति की बीच की खाई आखिर कब मिटेगी? यह बिजली निजी कंपनियां पैदा करेंगी या सरकारी कंपनियां, इसका बजट भाषण में कोई जिक्र नहीं किया गया है। अच्छा होता कि प्रणब मुखर्जी देश में बिजली पैदा करने के बारे में चिंता करते। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत जो कदम उठाए गए हैं, उसकी आलोचना वाम दलों ने भी की है। मौजूदा योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को 35 किलो गेहूं और चावल दिया जाता है, लेकिन सरकार ने इसे घटा कर 25 किलो कर दिया है। सरकार का कहना है कि इसके तहत शहरी इलाकों को भी शामिल किया जाएगा। यह कहा गया है कि व्यापक विचार-विमर्श और सहमति के बाद ही यह योजना लागू की जाएगी। इंदिरा आवास योजना के तहत मकान के लिए दी जाने वाली 35,000 रुपये की राशि बढ़ाकर 38,500 रुपये कर दी गई है। इसके अलावा बैंक से 50,000 रुपये का लोन भी लिया जा सकता है। लेकिन यह योजना कामयाब नहीं है क्योंकि बैंक ग्रामीण इलाके में घर के लिए कर्ज देते ही नहीं है। यह योजना सरकार के लिए अव्यावहारिक है। नेशनल हाउसिंग बैंक को री-फाइनेंसिंग के लिए 2000 करोड़ रुपये की राशि दी जा रही है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में एनएचबी की कोई शाखा नहीं है और जो कॉमर्शियल बैंक है वे लोन देने में रुचि नहीं ले रहे हैं। सरकार की सामाजिक योजनाओं में सबसेमहत्वपूर्ण पहलू तो गायब ही है। इस पहलू पर पिछले चालीस साल से बहस चल रही है। इन योजनाओं के तहत लगातार पैसा बढ़ रहा है, लेकिन लोगों तक इसका फायदा नहीं पहुंचता है। नरेगा अगर सफल है तो इसलिए कि इसके तहत लाभार्थियों का पैसा सीधे उनके बैंक खाते में पहुंचता है। इस योजना में नुकसान कम है। सरकार सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश की बात कह रही है, लेकिन क्या बैंक अकाउंट के साथ एक डी-मैट अकाउंट नहीं खुल जाना चाहिए ताकि निवेशक आधार बढ़ सके। इन सामाजिक योजनाओं का असली फायदा तभी मिल सकेगा, जब यूनिक आइडेंटिफिकेशन परियोजना के तहत हर नागरिक को एक खास पहचान मिलेगी। फिर सही लाभार्थियों या उनके परिवार को सीधा लाभ मिल सकेगा। दिक्कत यही है कि नीतियों को अमल में लाने में ही सरकार विफल है। प्रणब मुखर्जी को यह साफ कहना चाहिए था कि इन सामाजिक नीतियों को कैसे दुरुस्त तरीके से लागू किया जा सकेगा। अगर आप नंदन नीलकानी जैसे शख्स को एक परियोजना सौंप कर उसे लागू करवा सकते हैं तो राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण जैसी योजना को निजी क्षेत्र के किसी दूसरे प्रोफेशनल को क्यों नहीं सौंप सकते? मौजूदा बजट का विश्लेषण करें तो इसी मोर्चे पर प्रणब दा की सोच और हिम्मत में कमी नजर आती है। लगता नहीं है कि आंतरिक मांग उठ पाएगी। यही कारण है कि अब सबकी निगाहें 100 दिनों के एजेंडे को अमली जामा पहनाने पर ही टिकी हैं।क. यतीश राजावत संपादक (Businss Bhaskar)

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