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02 नवंबर 2009

सरकारी मूल्य नीति से और कड़वी होगी चीनी

नई दिल्ली: गन्ने के लिए हाल में जारी समुचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) की व्यवस्था में किसानों का मुनाफा मार्जिन शामिल किया गया है, जिससे चीनी के दाम को लेकर मुश्किलों की शुरुआत हो सकती है। गन्ने का समर्थन मूल्य ऊंचा होने पर अगर चीनी उत्पादक कंपनियां लागत में बढ़ोतरी का बोझ उपभोक्ताओं पर डालती हैं तो आम लोगों के लिए काफी परेशानी खड़ी हो सकती है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि चीनी की कीमतें इस साल 40 रुपए प्रति किलोग्राम का स्तर पार कर सकती है। एफआरपी गन्ना किसानों के भी हक में नहीं है, क्योंकि आवश्यक कमोडिटी अधिनियम (ईसीए) को चुनौती नहीं दी जा सकती। देश के दूसरे सबसे बड़े गन्ना उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश ने पिछले हफ्ते 165 रुपए प्रति क्विंटल एसएपी का एलान किया है। इससे पहले पंजाब ने 200 रुपए प्रति क्विंटल एसएपी की घोषणा की थी। कर्नाटक में बीदर की चीनी मिलों को गन्ना खरीदने के लिए 195 रुपए प्रति क्विंटल का भुगतान करना होगा जबकि बेलगाम में यह 200 रुपए प्रति क्विंटल से ज्यादा हो सकता है। महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में किसानों ने गन्ने के लिए कम से कम 180 रुपए प्रति क्विंटल की कीमत मांगी है। पिछले साल चीनी मिलों ने गन्ना किसानों को 145 से 180 रुपए प्रति क्विंटल की कीमत दी थी। उन्होंने यह कीमत देकर साबित कर दिया कि केंद का 81.18 रुपए प्रति क्विंटल का वैधानिक न्यूनतम मूल्य (एसएमपी) समुचित समर्थन मूल्य से कम है। इससे कृषि उपज लागत और मूल्य आयोग के न सिर्फ गन्ना बल्कि गेहूं, चावल, तिलहन और दलहन के मूल्य निर्धारण के तरीके पर सवालिया निशान लग गया। इन कृषि उत्पादों का समर्थन मूल्य पिछले पांच वर्षों में काफी बढ़ा ही है, साथ ही सरकार पर खाद्य सब्सिडी का बोझ भी 60,000 करोड़ रुपए के पार जाता दिख रहा है। वर्ष 2009-10 में चीनी का कम कैरी ओवर होने और सालाना 2.3 करोड़ टन खपत के मुकाबले महज 1.6 करोड़ टन का उत्पादन होने की वजह से भारत को 80 लाख टन चीनी का आयात करना पड़ सकता है। ये बातें इस तरफ इशारा करती हैं कि इस साल चीनी मिलों के लिए गन्ने की लागत बढ़ने वाली है। अगले दो वर्षों में गन्ने की मांग 2.3 करोड़ टन से ज्यादा हो सकती है, जिसका सबसे बड़ा हिस्सा चीनी मिलों को जाएगा। इस तरह, किसानों को बाजार के हिसाब से दाम मिलना चाहिए, लेकिन बहुत कुछ कोला और बिस्कुट कंपनियों पर निर्भर करेगा। सूखे को देखते हुए सरकार खाद्यान्न की कीमतों और गन्ने के समर्थन मूल्य के बीच समानता लाने को प्राथमिकता देगी। चीनी मिलों के लिए तो 'समुचित मुनाफे' पर कानून बना हुआ है, लेकिन किसानों का मुनाफा सरकार की प्राथमिकता सूची में काफी नीचे है। यह अलग बात है कि वह धीरे-धीरे प्राइमरी सेक्टर से खुद को दूर करने में लगी हुई है। खाद्य तेलों और दलहन का आयात हर साल की कवायद हो गई है। अब लगता है कि सरकार इस सूची में चीनी को भी डालने पर आमादा है। (ई टी हिन्दी)

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