30 सितंबर 2009
चीन में मांग बढ़ने से भारतीय लौह अयस्क 16 फीसदी महंगा
चीन में मांग बढ़ने के कारण देश में लौह अयस्क का निर्यात भाव पिछले एक सप्ताह में 16 फीसदी से भी ज्यादा बढ़ा है। भारतीय खनिज उद्योग संगठन के एक अधिकारी ने बताया कि चीन के प्रमुख ग्राहक वहां राष्ट्रीय अवकाश आने से पहले जल्द से जल्द स्टॉक पूरा कर लेना चाहते हैं और ऐसे में मांग बढ़ रही है। संगठन के महासचिव आर।के. शर्मा ने मंगलवार को एक इंटरव्यू में कहा कि इस महीने के शुरू में लौह अयस्क की कीमतें 60 डॉलर प्रति टन थीं जो अब बढ़कर 70 डॉलर प्रति टन तक पहुंच गई हैं। चीन की सरकार ने जब से 586 अरब डॉलर का प्रोत्साहन पैकेज उद्योगों के लिए जारी किया है, स्टील उत्पादकों ने लौह अयस्क की खरीद तेज कर दी है। चीन की अर्थव्यवस्था की विकास दर इस वर्ष 8.2 फीसदी रहने की संभावना है जबकि इससे पहले मार्च में एशियाई विकास बैंक ने चीन की विकास दर 7 फीसदी रहने की संभावना व्यक्त की थी। शर्मा ने कहा कि चीन में मांग जोर पकड़ रही है और इसका फायदा भारत को भी मिल रहा है। इससे पहले संगठन के अध्यक्ष सिद्धार्थ रूंगटा ने कहा था कि भारत का लौह अयस्क निर्यात अगस्त में 15 फीसदी और सितंबर के पहले दो सप्ताह में 25 फीसदी गिरने की संभावना है। कैनबरा स्थित ऑस्ट्रेलियन ब्यूरो ऑफ एग्रीकल्चर एंड रिसोर्स इकॉनोमिक्स ने 22 सितंबर को कहा था कि विश्व के सबसे बड़े लौह अयस्क उपभोक्ता चीन अगले वर्ष मांग के पूर्व अनुमान से 20 फीसदी ज्यादा लौह अयस्क खरीद सकता है। जून में चीन ने 5,290 लाख टन लौह अयस्क आयात का अनुमान लगाया था लेकिन कैलेंडर वर्ष 2010 में चीन का आयात 6,370 लाख टन रह सकता है। ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक अगले वर्ष इस्पात की वैश्विक खपत 1.3 अरब टन रह सकती है जो इस वर्ष की अनुमानित खपत 1.2 अरब टन के मुकाबले 6.5 फीसदी अधिक है। (बिज़नस भक्सर)
खराब मौसम से रबर का उत्पादन गिरा, मांग बढ़ने से तेजी संभव
नेचुरल रबर के प्रमुख उत्पादक राज्य केरल में प्रतिकूल मौसम से उत्पादन घटने की आशंका है। चालू वित्त वर्ष के पहले सात महीनों में देश में इसके उत्पादन में 13.3 फीसदी की गिरावट आई है जबकि खपत में करीब दो फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। भारत के साथ-साथ विश्व में नेचुरल रबर की खपत में बढ़ोतरी हो रही है। विदेशी बाजार और भारत में नेचुरल रबर के भाव में चल रहा अंतर भी लगभग समाप्त हो गया है। ऐसे में आगामी दिनों में भारत में आयात घट जाएगा। इसलिए आवक का दबाव बनने के बावजूद अक्टूबर महीने में रबर की मौजूदा कीमतों में तेजी आने की संभावना है।
कोच्चि स्थित मैसर्स हरि संस मलयालम लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर पंकज कपूर ने बताया कि प्रतिकूल मौसम से चालू वित्त वर्ष में अप्रैल से अगस्त के दौरान नेचुरल रबर के उत्पादन में 13.3 फीसदी की कमी आकर कुल उत्पादन 273,575 टन रहा। पिछले साल इस अवधि के दौरान 315,365 टन उत्पादन हुआ था। अक्टूबर से दिसंबर तक कुल फसल का करीब 50 फीसदी उत्पादन होता है लेकिन लगातार बारिश होने से किसानों को टेपिंग में दिक्कत आ रही है। ऐसे में चालू वित्त वर्ष में नेचुरल रबर के कुल उत्पादन में पिछले साल के मुकाबले पांच से सात फीसदी की कमी रह सकती है। रबर बोर्ड के सूत्रों के अनुसार वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान देश में 864,500 टन नेचुरल रबर का उत्पादन हुआ था।
रबर मर्चेट एसोसिएशन के सचिव अशोक खुराना ने बताया कि विश्व में आर्थिक स्थिति में सुधार होने से रबर की खपत बढ़ रही है। इसीलिए विदेशी बाजार में रबर के भाव तेज हुए हैं। सिंगापुर कमोडिटी एक्सचेंज (सीकॉम) में मंगलवार को नेचुरल रबर के भाव भारतीय मुद्रा में 102-100 रुपये प्रति किलो हो गए। जबकि 11 अगस्त को इसके भाव 95-96 रुपये प्रति थे। हालांकि अमेरिका द्वारा चीन से टायर खरीद बंद कर देने से पिछले सप्ताह इसकी कीमतों में तीन-चार रुपये प्रति किलो की हल्की गिरावट जरूर आई है। भारत के कोट्टायम में नेचुरल रबर के भाव 106-101 रुपये प्रति किलो चल रहे हैं। मौसम साफ होने के बाद नेचुरल रबर की आवक में बढ़ोतरी होने से मौजूदा भाव में दो-चार रुपये प्रति किलो की गिरावट तो आ सकती है लेकिन खपत में बढ़ोतरी को देखते हुए दिसंबर-जनवरी में इसके भाव 15 से 20 फीसदी तक बढ़ सकते हैं।
रबर बोर्ड के अनुसार चालू वित्त वर्ष के अप्रैल-अगस्त के दौरान देश में नेचुरल रबर की खपत में दो फीसदी का इजाफा होकर कुल खपत 376,350 टन रही। पिछले वर्ष 2008-09 की समान अवधि में खपत 368,690 टन रही थी। चालू वित्त वर्ष के अप्रैल से अगस्त के दौरान देश में आयात बढ़कर 98,946 टन का हुआ है। पंकज कपूर ने कहा कि भारत के मुकाबले विदेशी बाजार में नेचुरल रबर की कीमतों का अंतर 18-20 रुपये प्रति किलो था। इसीलिए ज्यादातर बड़ी कंपनियां भारी मात्रा में आयात कर रही थीं। लेकिन अब भावों का अंतर मात्र चार रुपये रहने पर अब आयात नहीं होगा। ऐसे में घरेलू बाजार में मांग बढ़ जाएगी।
rana@businessbhaskar.net (बिज़नस भास्कर...र स रना)
कोच्चि स्थित मैसर्स हरि संस मलयालम लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर पंकज कपूर ने बताया कि प्रतिकूल मौसम से चालू वित्त वर्ष में अप्रैल से अगस्त के दौरान नेचुरल रबर के उत्पादन में 13.3 फीसदी की कमी आकर कुल उत्पादन 273,575 टन रहा। पिछले साल इस अवधि के दौरान 315,365 टन उत्पादन हुआ था। अक्टूबर से दिसंबर तक कुल फसल का करीब 50 फीसदी उत्पादन होता है लेकिन लगातार बारिश होने से किसानों को टेपिंग में दिक्कत आ रही है। ऐसे में चालू वित्त वर्ष में नेचुरल रबर के कुल उत्पादन में पिछले साल के मुकाबले पांच से सात फीसदी की कमी रह सकती है। रबर बोर्ड के सूत्रों के अनुसार वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान देश में 864,500 टन नेचुरल रबर का उत्पादन हुआ था।
रबर मर्चेट एसोसिएशन के सचिव अशोक खुराना ने बताया कि विश्व में आर्थिक स्थिति में सुधार होने से रबर की खपत बढ़ रही है। इसीलिए विदेशी बाजार में रबर के भाव तेज हुए हैं। सिंगापुर कमोडिटी एक्सचेंज (सीकॉम) में मंगलवार को नेचुरल रबर के भाव भारतीय मुद्रा में 102-100 रुपये प्रति किलो हो गए। जबकि 11 अगस्त को इसके भाव 95-96 रुपये प्रति थे। हालांकि अमेरिका द्वारा चीन से टायर खरीद बंद कर देने से पिछले सप्ताह इसकी कीमतों में तीन-चार रुपये प्रति किलो की हल्की गिरावट जरूर आई है। भारत के कोट्टायम में नेचुरल रबर के भाव 106-101 रुपये प्रति किलो चल रहे हैं। मौसम साफ होने के बाद नेचुरल रबर की आवक में बढ़ोतरी होने से मौजूदा भाव में दो-चार रुपये प्रति किलो की गिरावट तो आ सकती है लेकिन खपत में बढ़ोतरी को देखते हुए दिसंबर-जनवरी में इसके भाव 15 से 20 फीसदी तक बढ़ सकते हैं।
रबर बोर्ड के अनुसार चालू वित्त वर्ष के अप्रैल-अगस्त के दौरान देश में नेचुरल रबर की खपत में दो फीसदी का इजाफा होकर कुल खपत 376,350 टन रही। पिछले वर्ष 2008-09 की समान अवधि में खपत 368,690 टन रही थी। चालू वित्त वर्ष के अप्रैल से अगस्त के दौरान देश में आयात बढ़कर 98,946 टन का हुआ है। पंकज कपूर ने कहा कि भारत के मुकाबले विदेशी बाजार में नेचुरल रबर की कीमतों का अंतर 18-20 रुपये प्रति किलो था। इसीलिए ज्यादातर बड़ी कंपनियां भारी मात्रा में आयात कर रही थीं। लेकिन अब भावों का अंतर मात्र चार रुपये रहने पर अब आयात नहीं होगा। ऐसे में घरेलू बाजार में मांग बढ़ जाएगी।
rana@businessbhaskar.net (बिज़नस भास्कर...र स रना)
प्रमुख एशियाई बाजारों में चीनी महंगी लेकिन भारत में रही सस्ती
न्यूयॉर्क के आईसीई एक्सचेंज में चीनी के वायदा भाव में सुधार होने के बाद एशिया के प्रमुख बाजारों में चीनी में मजबूती दिखाई दी। लेकिन नई पैदावार से पहले एशिया के सबसे बड़े चीनी निर्यातक देश थाईलैंड में गतिविधियां सुस्त रहीं। आईसीई में चीनी का अक्टूबर बेंचमार्क वायदा सोमवार को 22.65 सेंट प्रति पाउंड पर बंद हुआ। एक सप्ताह पहले यह 21.86 सेंट प्रति पाउंड पर था। वहीं, थाई रॉ शुगर की अक्टूबर-नवंबर शिपमेंट के लिए प्रीमियम में थोड़ा बदलाव हुआ और यह प्रीमियम करीब 70-80 प्वाइंट रहा। बैंकाक के कमोडिटीज ट्रेडिंग हाउस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा किआने वाले दिनों या सप्ताह में चीनी के वायदा भाव बढ़ सकते हैं इससे थाई रॉ शुगर का प्रीमियम थोड़ा घट सकता है। लेकिन भारत जैसे प्रमुख उपभोक्ता देश ऊंची कीमतों के बावजूद खरीद जारी रखेंगे क्योंकि वहां इस समय स्टॉक की कमी है। चीनी के प्रमुख उत्पादक देशों भारत, चीन, थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान में फसली वर्ष 2009-10 में चीनी उत्पादन में कोई ज्यादा बढ़ोतरी की संभावना नहीं है। विश्लेषकों का मानना है कि आने वाले साल में भी चीनी की वैश्विक स्तर पर कमी बनी रहेगी, ऐसे में इसकी कीमतों में तेजी रहना स्वाभाविक है। बैंकाक के एक कारोबारी ने कहा कि माना जाता है कि इन देशों की सरकारे समय से पहले पेराई शुरू करने के बारे में सोच रही है। लेकिन उनका मानना है कि ऐसा हो सकता है क्योंकि एथनॉल उत्पादकों को उत्पादन के लिए शीरा की जरूरत होगी। उन्होंने कहा कि पेराई नवंबर के मध्य में शुरू हो सकती है। दूसरी ओर भारत में कमजोर मांग और केंद्र सरकार द्वारा जल्द ही खुले बाजार में ज्यादा कोटा जारी किए जाने की संभावना के चलते चीनी की कीमतों में गिरावट रही। मुंबई के वाशी थोक बाजार में एस-30 ग्रेड की चीनी के भाव 2830 से 2850 रुपये प्रति क्विंटल रहे, जबकि एक सप्ताह पहले भाव 2850 से 2870 रुपये प्रति क्विंटल थे। (बिज़नस भास्कर)
यूरोप के लिए मूंगफली की खेप में 94 फीसदी की गिरावट
मुंबई September 28, 2009
चालू वित्त वर्ष के पहले छह महीनों में यूरोपीय संघ के देशों को निर्यात होने वाले मूंगफली की खेप में 94 फीसदी की गिरावट आई है।
इस गिरावट की वजह मूंगफली निर्यातकों की ओर से इसकी गुणवत्ता बनाए रखने और इसे वैश्विक स्तर का बनाने के मकसद से उठाए जा रहे कदम हैं। अगस्त तक की पांच महीनों की अवधि के दौरान यूरोपीय संघ के देशों को निर्यात होने वाले शिपमेंट पिछले साल की समान अवधि 12,051 टन के मुकाबले घटकर मात्र 758 टन रह गया है।
भारत प्रति वर्ष करीब 2.5-2.75 लाख टन मूंगफली का निर्यात करता है, जिसमें यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाली मूंगफली की हिस्सेदारी 12 फीसदी होती है। गौरतलब है कि भारतीय निर्यातकों पर मूंगफली की गुणवत्ता बेहतर बनाने का दबाव है और इस बात का डर है कि इस दिशा में अगर जल्द कोई कदम नहीं उठाया गया तो विदेश से आने वाले निर्यात के ऑर्डर रद्द हो सकते हैं।
भारत से निर्यात होने वाले मूंगफली में एफ्लाटॉक्सिन के पाए जाने की शिकायतों के बाद कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने इस साल जुलाई में मूंगफली निर्यातकों के लिए इस संबंध में शख्त दिशानिर्देश जारी किए थे।
इस साल की शुरुआत से ही भारतीय तिलहन एवं उत्पाद निर्यात संवर्धन परिषद (आईओपीईपीसी) स्थानीय निर्यातकों से गुणवत्ता बरक रार रखने को कह रहे थे, ताकि यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाली मूंगफली में भारत की चार फीसदी हिस्सेदारी कायम रह सके।
खरीदारों की ओर से किसी भी तरह की शिकायत मिलने की स्थिति में मूंगफली की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए एपीडा ने ग्रेपनेट और अनारनेट की तर्ज पर ही गुणवत्ता बरकरार रखने संबंधी शख्त दिशानिर्देश जारी किए हैं। अब तक यूरोपीय संघ को भारत से निर्यात होने वाली वाली मूंगफली में एफ्लाटॉक्सिन की मौजूदगी को लेकर करीब 45 शिकायतें मिल चुकी हैं।
आईओपीईपीसी के अध्यक्ष संजय शाह कहते हैं 'अगर हम 4 फीसदी के लक्ष्य में बढ़ोतरी नहीं कर सके तो कम से कम हमें इस स्तर पर बरकरार रखना चाहिए।' एपीडा द्वारा मूंगफली के निर्यात संबंधी शख्त दिशानिर्देश जारी किए जाने से यूरोपीय संघ को होने वाले निर्यात 30,000 टन के सामान्य स्तर से कम होने की आशंका जताई जा रही है।
मूंगफली की गुणवत्ता में शिकायतें मिलने केबाद भारत सरकार ने सभी सौदों को एपीडा या आईओपीईपीसी में पंजीकृत कराना अनिवार्य कर दिया है। यूरोपीय संघ को होने वाली मूंगफली के निर्यात से जुड़े सभी इकाइयों को अब एपीडा या आईओपीईपीसी से गुणवत्ता संबंधी प्रमाणपत्र लेना अनिवार्य होगा।
शाह ने कहा कि शुरुआत में यूरोपीय संघ को होने वाले मूंगफली के निर्यात में कमी आ सकती है, लेकिन जैसे ही आयातक हमारी तरफ से गुणवत्ता पर उचित ध्यान देने की बातों के बारे में अवगत होंगे, वैसे ही 2-3 सालों में निर्यात में बढ़ोतरी हो जाएगी।
यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाले 90 फीसदी मूंगफली का इस्तेमाल मानवीय उपभोग के लिए होता है, जबकि 10 फीसदी का इस्तेमाल चिडियों के भोजन के लिए मिश्रण के तौर पर होता है। भारत में इस साल मूंगफली के उत्पादन में पिछले साल के मुकाबले गिरावट की आशंका है। पिछले साल के मुकाबले मूंगफली के रकबे में इस साल कमी दर्ज की गयी है। (बीएस हिन्दी)
चालू वित्त वर्ष के पहले छह महीनों में यूरोपीय संघ के देशों को निर्यात होने वाले मूंगफली की खेप में 94 फीसदी की गिरावट आई है।
इस गिरावट की वजह मूंगफली निर्यातकों की ओर से इसकी गुणवत्ता बनाए रखने और इसे वैश्विक स्तर का बनाने के मकसद से उठाए जा रहे कदम हैं। अगस्त तक की पांच महीनों की अवधि के दौरान यूरोपीय संघ के देशों को निर्यात होने वाले शिपमेंट पिछले साल की समान अवधि 12,051 टन के मुकाबले घटकर मात्र 758 टन रह गया है।
भारत प्रति वर्ष करीब 2.5-2.75 लाख टन मूंगफली का निर्यात करता है, जिसमें यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाली मूंगफली की हिस्सेदारी 12 फीसदी होती है। गौरतलब है कि भारतीय निर्यातकों पर मूंगफली की गुणवत्ता बेहतर बनाने का दबाव है और इस बात का डर है कि इस दिशा में अगर जल्द कोई कदम नहीं उठाया गया तो विदेश से आने वाले निर्यात के ऑर्डर रद्द हो सकते हैं।
भारत से निर्यात होने वाले मूंगफली में एफ्लाटॉक्सिन के पाए जाने की शिकायतों के बाद कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने इस साल जुलाई में मूंगफली निर्यातकों के लिए इस संबंध में शख्त दिशानिर्देश जारी किए थे।
इस साल की शुरुआत से ही भारतीय तिलहन एवं उत्पाद निर्यात संवर्धन परिषद (आईओपीईपीसी) स्थानीय निर्यातकों से गुणवत्ता बरक रार रखने को कह रहे थे, ताकि यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाली मूंगफली में भारत की चार फीसदी हिस्सेदारी कायम रह सके।
खरीदारों की ओर से किसी भी तरह की शिकायत मिलने की स्थिति में मूंगफली की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए एपीडा ने ग्रेपनेट और अनारनेट की तर्ज पर ही गुणवत्ता बरकरार रखने संबंधी शख्त दिशानिर्देश जारी किए हैं। अब तक यूरोपीय संघ को भारत से निर्यात होने वाली वाली मूंगफली में एफ्लाटॉक्सिन की मौजूदगी को लेकर करीब 45 शिकायतें मिल चुकी हैं।
आईओपीईपीसी के अध्यक्ष संजय शाह कहते हैं 'अगर हम 4 फीसदी के लक्ष्य में बढ़ोतरी नहीं कर सके तो कम से कम हमें इस स्तर पर बरकरार रखना चाहिए।' एपीडा द्वारा मूंगफली के निर्यात संबंधी शख्त दिशानिर्देश जारी किए जाने से यूरोपीय संघ को होने वाले निर्यात 30,000 टन के सामान्य स्तर से कम होने की आशंका जताई जा रही है।
मूंगफली की गुणवत्ता में शिकायतें मिलने केबाद भारत सरकार ने सभी सौदों को एपीडा या आईओपीईपीसी में पंजीकृत कराना अनिवार्य कर दिया है। यूरोपीय संघ को होने वाली मूंगफली के निर्यात से जुड़े सभी इकाइयों को अब एपीडा या आईओपीईपीसी से गुणवत्ता संबंधी प्रमाणपत्र लेना अनिवार्य होगा।
शाह ने कहा कि शुरुआत में यूरोपीय संघ को होने वाले मूंगफली के निर्यात में कमी आ सकती है, लेकिन जैसे ही आयातक हमारी तरफ से गुणवत्ता पर उचित ध्यान देने की बातों के बारे में अवगत होंगे, वैसे ही 2-3 सालों में निर्यात में बढ़ोतरी हो जाएगी।
यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाले 90 फीसदी मूंगफली का इस्तेमाल मानवीय उपभोग के लिए होता है, जबकि 10 फीसदी का इस्तेमाल चिडियों के भोजन के लिए मिश्रण के तौर पर होता है। भारत में इस साल मूंगफली के उत्पादन में पिछले साल के मुकाबले गिरावट की आशंका है। पिछले साल के मुकाबले मूंगफली के रकबे में इस साल कमी दर्ज की गयी है। (बीएस हिन्दी)
सोने की बिक्री 40 फीसदी बढ़ी
मुंबई September 29, 2009
कीमत में तेजी के बावजूद नवरात्र के दौरान सोने के कारोबार में अगस्त माह के मुकाबले 40 फीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। सर्राफा व्यापारियों को इस कारोबार में और तेजी की उम्मीद है।
क्योंकि 20 दिन बाद दीपावली है और उसके बाद शादियों का मौसम। हालांकि पिछले साल के नवरात्र के मुकाबले इस साल कारोबार में लगभग 10 फीसदी की कमी रही। सर्राफा के थोक कारोबारियों के मुताबिक पिछले साल नवरात्र के दौरान सोने की कीमत 12,000 रुपये प्रति 10 ग्राम के आसपास थी।
लिहाजा पिछले साल इस दौरान बिक्री में काफी तेजी रही। इस साल यह कीमत 15,700-16,000 रुपये प्रति 10 ग्राम के आसपास थी। शादी-ब्याह के लिए गहनों की खरीदारी अधिक मात्रा में की गयी। (बीएस हिन्दी)
कीमत में तेजी के बावजूद नवरात्र के दौरान सोने के कारोबार में अगस्त माह के मुकाबले 40 फीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। सर्राफा व्यापारियों को इस कारोबार में और तेजी की उम्मीद है।
क्योंकि 20 दिन बाद दीपावली है और उसके बाद शादियों का मौसम। हालांकि पिछले साल के नवरात्र के मुकाबले इस साल कारोबार में लगभग 10 फीसदी की कमी रही। सर्राफा के थोक कारोबारियों के मुताबिक पिछले साल नवरात्र के दौरान सोने की कीमत 12,000 रुपये प्रति 10 ग्राम के आसपास थी।
लिहाजा पिछले साल इस दौरान बिक्री में काफी तेजी रही। इस साल यह कीमत 15,700-16,000 रुपये प्रति 10 ग्राम के आसपास थी। शादी-ब्याह के लिए गहनों की खरीदारी अधिक मात्रा में की गयी। (बीएस हिन्दी)
घटेगी चावल की सरकारी खरीद!
नई दिल्ली September 29, 2009
अक्टूबर से शुरू होने वाले खरीफ सत्र 2009-10 में सरकारी खरीद में 20 फीसदी कमी आने की आशंका है।
इस सत्र में 2.7 करोड़ टन चावल की सरकारी खरीद का अनुमान है। वैसे, खाद्य मंत्रालय ने 2.94 करोड़ टन सरकारी खरीद का अनौपचारिक लक्ष्य रखा है। सत्र 2008-09 में 3.33 करोड़ टन की रिकॉर्ड खरीद हुई थी।
भारतीय खाद्य निगम के एक अधिकारी ने बताया, 'कई राज्यों में सरकारी खरीद बढ़ी है। पंजाब और हरियाणा में सोमवार से ही खरीद शुरू हो गई है और अब तक 24,000 टन चावल खरीदा जा चुका है। हमारा अनुमान है कि अगले सत्र में 2.6 से 2.7 करोड़ टन चावल की सरकारी खरीद हो पाएगी।'
अनाज के सरकारी खरीद और इसके वितरण का काम भारतीय खाद्य निगम ही करती है। इस साल पहली सितंबर तक केंद्रीय पुल में 1.72 करोड़ टन चावल था। सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न जन वितरण योजनाओं के तहत इस साल 2.5 करोड़ टन चावल के वितरण का अनुमान है।
इस अधिकारी ने कहा, 'अगर हम 2.5 करोड़ टन चावल खरीदने में भी सफल होते हैं, तो 2010 के सत्र की शुरुआत के वक्त हमारे पास अतिरिक्त 1.5 करोड़ टन का भंडार होगा। इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।'
इस साल सरकारी खरीद उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कम होने का अनुमान है। क्योंकि इन राज्यों के उत्पादन में कमी आने की संभावना है। इन दोनों राज्यों से ही हाल में समाप्त हुए सत्र में 46 लाख टन चावल की सरकारी खरीद हुई थी। अनियमित बरसात की वजह से धान बुआई के क्षेत्रफल में 16 फीसदी की कमी आई है और यह 3.15 करोड़ हेक्टेयर रह गया है।
हालांकि, अभी तक कृषि मंत्रालय ने खरीफ फसल के उत्पादन को लेकर कोई अनुमान नहीं लगाया है। लेकिन अमेरिकी कृषि विभाग का अनुमान है कि 2009-10 सत्र में भारत का चावल उत्पादन 8.2 करोड़ टन रहेगा। 2008-09 में भारत में 9.92 करोड़ टन चावल का उत्पादन हुआ था। खाद्य एवं कृषि मंत्री शरद पवार ने पिछले ही महीने कहा है कि भारत के चावल उत्पादन में 1 करोड़ टन की कमी आ सकती है।
वैसे, सरकार चावल की खरीद को बढ़ाने के लिए हर संभव उपाय कर रही है। सरकारी खरीद में कमी नहीं आए, इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी बढ़ा दिया है।
नए सत्र के लिए सामान्य श्रेणी के धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 11.76 फीसदी बढ़ोतरी की गई है और अब यह 950 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर खरीदा जाएगा। वहीं ए-ग्रेड की धान के समर्थन मूल्य को 11.36 फीसदी बढ़ाकर 980 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है। अब देखना है कि सरकार चावल खरीद के अपने लक्ष्य को पूरा कर पाती है या नहीं।
कम का गम
उत्पादन में कमी के चलते सरकारी खरीद 20 फीसदी कम रहने की आशंका2009-10 खरीफ सत्र में 2।7 करोड़ टन चावल खरीद का अनुमानबिहार और उत्तर प्रदेश में खरीद घटने की आशंकाविभिन्न योजनाओं के तहत इस साल करीब 2.5 करोड़ टन चावल के वितरण का है अनुमान (बीएस हिन्दी)
अक्टूबर से शुरू होने वाले खरीफ सत्र 2009-10 में सरकारी खरीद में 20 फीसदी कमी आने की आशंका है।
इस सत्र में 2.7 करोड़ टन चावल की सरकारी खरीद का अनुमान है। वैसे, खाद्य मंत्रालय ने 2.94 करोड़ टन सरकारी खरीद का अनौपचारिक लक्ष्य रखा है। सत्र 2008-09 में 3.33 करोड़ टन की रिकॉर्ड खरीद हुई थी।
भारतीय खाद्य निगम के एक अधिकारी ने बताया, 'कई राज्यों में सरकारी खरीद बढ़ी है। पंजाब और हरियाणा में सोमवार से ही खरीद शुरू हो गई है और अब तक 24,000 टन चावल खरीदा जा चुका है। हमारा अनुमान है कि अगले सत्र में 2.6 से 2.7 करोड़ टन चावल की सरकारी खरीद हो पाएगी।'
अनाज के सरकारी खरीद और इसके वितरण का काम भारतीय खाद्य निगम ही करती है। इस साल पहली सितंबर तक केंद्रीय पुल में 1.72 करोड़ टन चावल था। सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न जन वितरण योजनाओं के तहत इस साल 2.5 करोड़ टन चावल के वितरण का अनुमान है।
इस अधिकारी ने कहा, 'अगर हम 2.5 करोड़ टन चावल खरीदने में भी सफल होते हैं, तो 2010 के सत्र की शुरुआत के वक्त हमारे पास अतिरिक्त 1.5 करोड़ टन का भंडार होगा। इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।'
इस साल सरकारी खरीद उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कम होने का अनुमान है। क्योंकि इन राज्यों के उत्पादन में कमी आने की संभावना है। इन दोनों राज्यों से ही हाल में समाप्त हुए सत्र में 46 लाख टन चावल की सरकारी खरीद हुई थी। अनियमित बरसात की वजह से धान बुआई के क्षेत्रफल में 16 फीसदी की कमी आई है और यह 3.15 करोड़ हेक्टेयर रह गया है।
हालांकि, अभी तक कृषि मंत्रालय ने खरीफ फसल के उत्पादन को लेकर कोई अनुमान नहीं लगाया है। लेकिन अमेरिकी कृषि विभाग का अनुमान है कि 2009-10 सत्र में भारत का चावल उत्पादन 8.2 करोड़ टन रहेगा। 2008-09 में भारत में 9.92 करोड़ टन चावल का उत्पादन हुआ था। खाद्य एवं कृषि मंत्री शरद पवार ने पिछले ही महीने कहा है कि भारत के चावल उत्पादन में 1 करोड़ टन की कमी आ सकती है।
वैसे, सरकार चावल की खरीद को बढ़ाने के लिए हर संभव उपाय कर रही है। सरकारी खरीद में कमी नहीं आए, इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी बढ़ा दिया है।
नए सत्र के लिए सामान्य श्रेणी के धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 11.76 फीसदी बढ़ोतरी की गई है और अब यह 950 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर खरीदा जाएगा। वहीं ए-ग्रेड की धान के समर्थन मूल्य को 11.36 फीसदी बढ़ाकर 980 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है। अब देखना है कि सरकार चावल खरीद के अपने लक्ष्य को पूरा कर पाती है या नहीं।
कम का गम
उत्पादन में कमी के चलते सरकारी खरीद 20 फीसदी कम रहने की आशंका2009-10 खरीफ सत्र में 2।7 करोड़ टन चावल खरीद का अनुमानबिहार और उत्तर प्रदेश में खरीद घटने की आशंकाविभिन्न योजनाओं के तहत इस साल करीब 2.5 करोड़ टन चावल के वितरण का है अनुमान (बीएस हिन्दी)
खाद्य तेल : शुल्क की उम्मीद
मुंबई September 29, 2009
भारत कच्चे और परिष्कृत वनस्पति तेल के आयात पर अगले साल मार्च से सीमा शुल्क लगा सकता है।
लंदन स्थित गोदरेज इंटरनैशनल लिमिटेड के निदेशक दोराब मिस्त्री के अनुसार इस बात की पूरी संभावना है कि खाद्य तेल का दूसरा सबसे बडा आयातक देश भारत इनके आयात पर फिर से सीमा शुल्क लगा सकता है।
उल्लेखनीय है कि महंगाई से पैदा हुई स्थिति के मद्देनजर सरकार ने पिछले साल कच्चे पाम तेल के आयात पर सीमा शुल्क समाप्त कर दिया था, जबकि इस साल मार्च में कच्चे सोयाबीन तेल के आयात पर सीमा शुल्क में 20 फीसदी की कटौती की थी।
परिष्कृत कच्चे तेल के आयात पर अभी भी 7.5 फीसदी का कर लगता है। सीमा शुल्क के एक बार फिर से प्रभावी होने से घरेलू तेल की कीमतों में उबाल आ सकता है, जो सीमा शुल्क की समाप्ति के बाद कुछ कम हो गया था। खाद्य तेल उद्योग ने सरकार से सीमा शुल्क को 7.5 और 37.5 फीसदी के दायरे में रखने की सिफारिश की है, ताकि किसान और क ारोबारियों दोनों का इसका लाभ मिल सके।
मिस्त्री ने भारत में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना की प्रक्रिया पर आश्चर्य जताते हुए कहा कि यह तरीका तर्कसंगत नहीं है। बकौल मिस्त्री, खाद्य तिलहनों की कीमतों कम हैं और किसानों की इसकी खेती के लिए आकर्षित करने के लिए इनकी कीमतों में बढ़ोतरी आवश्यक है।
मिस्त्री ने कहा कि अगर खाद्य तेलों की कीमतों में कुछ बढ़ोतरी होती है तो हमें इसे स्वीकार करना चाहिए। भारत अपने 150 लाख टन रसोई तेल की जरूरतों को पूरा करने के लिए करीब इसका 45 फीसदी हिस्सा विदेश से आयात करता है। भारत पाम तेल की खरीदारी इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों से करता है, जबकि सोयाबीन तेल का आयात अर्जेंटीना और ब्राजील से होता है।
पिछले कई सालों से तिलहन का उत्पादन आवश्यकता से कम हुआ है, जबकि जनसंख्या में बढ़ोतरी के साथ ही इनकी मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। वैश्विक कीमतों में गिरावट की वजह से पिछले एक साल में प्रति व्यक्ति खाद्य तेल की खपत में 1।2 किलोग्राम की बढ़ोतरी हुई है जिसके इस साल 13 किलोग्राम तक पहुंच जाने की संभावना है। (बीएस हिन्दी)
भारत कच्चे और परिष्कृत वनस्पति तेल के आयात पर अगले साल मार्च से सीमा शुल्क लगा सकता है।
लंदन स्थित गोदरेज इंटरनैशनल लिमिटेड के निदेशक दोराब मिस्त्री के अनुसार इस बात की पूरी संभावना है कि खाद्य तेल का दूसरा सबसे बडा आयातक देश भारत इनके आयात पर फिर से सीमा शुल्क लगा सकता है।
उल्लेखनीय है कि महंगाई से पैदा हुई स्थिति के मद्देनजर सरकार ने पिछले साल कच्चे पाम तेल के आयात पर सीमा शुल्क समाप्त कर दिया था, जबकि इस साल मार्च में कच्चे सोयाबीन तेल के आयात पर सीमा शुल्क में 20 फीसदी की कटौती की थी।
परिष्कृत कच्चे तेल के आयात पर अभी भी 7.5 फीसदी का कर लगता है। सीमा शुल्क के एक बार फिर से प्रभावी होने से घरेलू तेल की कीमतों में उबाल आ सकता है, जो सीमा शुल्क की समाप्ति के बाद कुछ कम हो गया था। खाद्य तेल उद्योग ने सरकार से सीमा शुल्क को 7.5 और 37.5 फीसदी के दायरे में रखने की सिफारिश की है, ताकि किसान और क ारोबारियों दोनों का इसका लाभ मिल सके।
मिस्त्री ने भारत में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना की प्रक्रिया पर आश्चर्य जताते हुए कहा कि यह तरीका तर्कसंगत नहीं है। बकौल मिस्त्री, खाद्य तिलहनों की कीमतों कम हैं और किसानों की इसकी खेती के लिए आकर्षित करने के लिए इनकी कीमतों में बढ़ोतरी आवश्यक है।
मिस्त्री ने कहा कि अगर खाद्य तेलों की कीमतों में कुछ बढ़ोतरी होती है तो हमें इसे स्वीकार करना चाहिए। भारत अपने 150 लाख टन रसोई तेल की जरूरतों को पूरा करने के लिए करीब इसका 45 फीसदी हिस्सा विदेश से आयात करता है। भारत पाम तेल की खरीदारी इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों से करता है, जबकि सोयाबीन तेल का आयात अर्जेंटीना और ब्राजील से होता है।
पिछले कई सालों से तिलहन का उत्पादन आवश्यकता से कम हुआ है, जबकि जनसंख्या में बढ़ोतरी के साथ ही इनकी मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। वैश्विक कीमतों में गिरावट की वजह से पिछले एक साल में प्रति व्यक्ति खाद्य तेल की खपत में 1।2 किलोग्राम की बढ़ोतरी हुई है जिसके इस साल 13 किलोग्राम तक पहुंच जाने की संभावना है। (बीएस हिन्दी)
29 सितंबर 2009
उप्र में फसलों की हालत खस्ता, अब रबी से उम्मीदें
लखनऊ September 28, 2009
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने। अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं।
उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
उत्तर प्रदेश में बुआई के समय बारिश न होने के चलते इस साल खरीफ और खास तौर पर धान की पैदावार आधी रह जाने का आकलन किया गया है। कमजोर खरीफ की फसल के अनुमान के बीच इस बार किसानों के साथ-साथ कृषि विभाग के अधिकारियों की सारी की सारी आशा अब रबी की फसल से है।
राज्य सरकार ने रबी की बुआई के रकबे को बीते साल के मुकाबले बढ़ाकर 125 फीसदी करने की ठानी है। अगस्त और सितंबर में हुई बारिश के चलते खेतों में रहने वाली पर्याप्त नमी से उन्हें उम्मीद की किरणें दिखाई दी हैं। पिछले साल भी सूबे में रिकॉर्ड गेहूं की पैदावार हुई थी और कृषि विभाग के अधिकारियों का इरादा इस साल फसल उत्पादन को और ज्यादा करने का है।
राज्य में पिछले साल रिकॉर्ड 276 लाख टन गेहूं की पैदावार हुई थी। इस बार लक्ष्य 290 लाख टन रखा जा रहा है। राज्य के कृषि मंत्री चौधरी लक्ष्मी नारायण ने अभी से यूरिया और डीएपी की उपलब्धता बनाए रखने के निर्देश दिए हैं। उनका कहना है कि रबी की बुआई के लिए 10 लाख टन यूरिया और 4.5 लाख टन डीएपी खाद की जरूरत होगी, जिसका इंतजाम कर लिया गया है।
कृषि विभाग के एक आकलन के मुताबिक इस बार उत्तर प्रदेश में खरीफ का उत्पादन बीते साल के मुकाबले आधा ही रह जाएगा। बीते साल के 163.49 लाख टन के मुकाबले इस साल खरीफ का उत्पादन 83.02 लाख टन ही होगा।
खरीफ की सभी फसलों- धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, उडद, मूंग, अरहर, मूंगफली, तिल और सोयाबीन के उत्पादन में भारी कमी का आकलन कृषि विभाग ने किया है। गौरतलब है कि इस साल बारिश न होने से करीब 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की रोपाई और बुआई नहीं की जा सकी है।
सूखे का सबसे ज्यादा असर तो धान की फसल पर होने वाला है जहां फसल क्षेत्र में तो कमी 33 फीसदी के करीब है पर उत्पादन में 50 फीसदी की कमी का आकलन किया गया है। बीते साल 60.12 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान बोया गया और उत्पादन 130.51 लाख टन का था जबकि इस साल अब तक 45 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान बोए जाने की खबर है और उत्पादन घटकर 56.92 लाख टन रह जाने का आकलन किया गया है।
हालांकि कृषि विभाग का कहना है कि हो सकता है आने वाले दिनों में उत्पादन में 10 से 15 फीसदी का सुधार हो जाए पर कुल मिलाकर बीते साल के मुकाबले उत्पादन आधा ही रहेगा। साधन कृषि सहकारी समिति तुलसीपुर, देवीपाटन मंडल के विभूति राज सिंह का कहना है कि देर से हुई बारिश ने धान को तनिक भी फायदा नहीं पहुंचाया है।
उनका कहना है कि देर की बारिश के बाद अब सारी आशा गेहूं की फसल पर टिकी है। साथ ही उनका कहना है कि सरसों, मसूर और चने की फसल भी अच्छी होने के आसार हैं। बाराबंकी के गांव पपनामऊ के किसान राजेश कुमार सिंह भी अच्छी रबी की फसल को लेकर आशान्वित हैं। उनका कहना है कि खेत खाली होने के चलते सरसों की फसल लेने के बाद भी इस बार गेहूं की बुआई करने लायक पर्याप्त नमी मिलेगी।
उत्तर प्रदेश में खेती की बदहाली यहीं पर नहीं रुकती है। चीनी उत्पादन में देश में अग्रणी राज्यों में शुमार उत्तर प्रदेश में किसान बीते दो सालों से गन्ने की खेती से मुंह मोड़ रहे थे। इस साल सूखे ने स्थिति कोढ़ में खाज जैसी कर दी है।
बीते साल (2008-09) में गन्ने की बुआई 21.40 लाख हेक्टेयर में की गयी थी जबकि 2009-10 में यह घट कर 17.88 लाख हेक्टेयर रह गयी है। इसके चलते बीते साल के 1107 लाख टन गन्ने के मुकाबले इस साल पैदावार घटकर 900 लाख टन रह जाने का अनुमान है।
इस बार भी पैदावार कम रहने को देखते हुए बाजार में चीनी के दामों में भी रिकॉर्ड तेजी देखी जा रही है। इस समय खुले बाजार में चीनी के दाम 34 रुपये किलो तक जा पहुंचे हैं। (बी स हिन्दी)
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने। अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं।
उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
उत्तर प्रदेश में बुआई के समय बारिश न होने के चलते इस साल खरीफ और खास तौर पर धान की पैदावार आधी रह जाने का आकलन किया गया है। कमजोर खरीफ की फसल के अनुमान के बीच इस बार किसानों के साथ-साथ कृषि विभाग के अधिकारियों की सारी की सारी आशा अब रबी की फसल से है।
राज्य सरकार ने रबी की बुआई के रकबे को बीते साल के मुकाबले बढ़ाकर 125 फीसदी करने की ठानी है। अगस्त और सितंबर में हुई बारिश के चलते खेतों में रहने वाली पर्याप्त नमी से उन्हें उम्मीद की किरणें दिखाई दी हैं। पिछले साल भी सूबे में रिकॉर्ड गेहूं की पैदावार हुई थी और कृषि विभाग के अधिकारियों का इरादा इस साल फसल उत्पादन को और ज्यादा करने का है।
राज्य में पिछले साल रिकॉर्ड 276 लाख टन गेहूं की पैदावार हुई थी। इस बार लक्ष्य 290 लाख टन रखा जा रहा है। राज्य के कृषि मंत्री चौधरी लक्ष्मी नारायण ने अभी से यूरिया और डीएपी की उपलब्धता बनाए रखने के निर्देश दिए हैं। उनका कहना है कि रबी की बुआई के लिए 10 लाख टन यूरिया और 4.5 लाख टन डीएपी खाद की जरूरत होगी, जिसका इंतजाम कर लिया गया है।
कृषि विभाग के एक आकलन के मुताबिक इस बार उत्तर प्रदेश में खरीफ का उत्पादन बीते साल के मुकाबले आधा ही रह जाएगा। बीते साल के 163.49 लाख टन के मुकाबले इस साल खरीफ का उत्पादन 83.02 लाख टन ही होगा।
खरीफ की सभी फसलों- धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, उडद, मूंग, अरहर, मूंगफली, तिल और सोयाबीन के उत्पादन में भारी कमी का आकलन कृषि विभाग ने किया है। गौरतलब है कि इस साल बारिश न होने से करीब 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की रोपाई और बुआई नहीं की जा सकी है।
सूखे का सबसे ज्यादा असर तो धान की फसल पर होने वाला है जहां फसल क्षेत्र में तो कमी 33 फीसदी के करीब है पर उत्पादन में 50 फीसदी की कमी का आकलन किया गया है। बीते साल 60.12 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान बोया गया और उत्पादन 130.51 लाख टन का था जबकि इस साल अब तक 45 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान बोए जाने की खबर है और उत्पादन घटकर 56.92 लाख टन रह जाने का आकलन किया गया है।
हालांकि कृषि विभाग का कहना है कि हो सकता है आने वाले दिनों में उत्पादन में 10 से 15 फीसदी का सुधार हो जाए पर कुल मिलाकर बीते साल के मुकाबले उत्पादन आधा ही रहेगा। साधन कृषि सहकारी समिति तुलसीपुर, देवीपाटन मंडल के विभूति राज सिंह का कहना है कि देर से हुई बारिश ने धान को तनिक भी फायदा नहीं पहुंचाया है।
उनका कहना है कि देर की बारिश के बाद अब सारी आशा गेहूं की फसल पर टिकी है। साथ ही उनका कहना है कि सरसों, मसूर और चने की फसल भी अच्छी होने के आसार हैं। बाराबंकी के गांव पपनामऊ के किसान राजेश कुमार सिंह भी अच्छी रबी की फसल को लेकर आशान्वित हैं। उनका कहना है कि खेत खाली होने के चलते सरसों की फसल लेने के बाद भी इस बार गेहूं की बुआई करने लायक पर्याप्त नमी मिलेगी।
उत्तर प्रदेश में खेती की बदहाली यहीं पर नहीं रुकती है। चीनी उत्पादन में देश में अग्रणी राज्यों में शुमार उत्तर प्रदेश में किसान बीते दो सालों से गन्ने की खेती से मुंह मोड़ रहे थे। इस साल सूखे ने स्थिति कोढ़ में खाज जैसी कर दी है।
बीते साल (2008-09) में गन्ने की बुआई 21.40 लाख हेक्टेयर में की गयी थी जबकि 2009-10 में यह घट कर 17.88 लाख हेक्टेयर रह गयी है। इसके चलते बीते साल के 1107 लाख टन गन्ने के मुकाबले इस साल पैदावार घटकर 900 लाख टन रह जाने का अनुमान है।
इस बार भी पैदावार कम रहने को देखते हुए बाजार में चीनी के दामों में भी रिकॉर्ड तेजी देखी जा रही है। इस समय खुले बाजार में चीनी के दाम 34 रुपये किलो तक जा पहुंचे हैं। (बी स हिन्दी)
इस बार सोयाबीन उत्पादन जोरदार
भोपाल 09 28, 2009
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने। अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं।
उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
सितंबर की शुरुआत में अच्छी बारिश होने से मध्य प्रदेश के सोयाबीन किसान एक बार फिर जोरदार फसल की उम्मीद कर रहे हैं। हालांकि, इसके उलट राज्य सरकार ने सोयाबीन के उत्पादन में 40 फीसदी कमी आने का अनुमान लगाया है।
इस बाबत सरकार ने केंद्र से किसानों को संभावित नुकसान की भरपाई के लिए 3400 करोड़ रुपये की मांग की है। दूसरी तरफ किसानों का कहना है कि इस साल फसल की स्थिति पिछले साल से बेहतर है। इस वर्ष अब तक राज्य के किसी भी इलाके से फसलों को नमी या कीटों से नुकसान पहुंचने की खबर नहीं आई है।
सोयाबीन फ सल की स्वतंत्र तौर पर समीक्षा करने वाली इकाई सोयाबीन प्रोसेसर एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सोपा) का कहना है कि इस सत्र में सोयाबीन की फसल काफी बेहतर रहने की संभावना है। इस बाबत सोपा के प्रवक्ता ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि अगस्त और सितंबर में बारिश की स्थिति बेहतर रहने से सोयाबीन की फ सल को खासा लाभ मिला है और हमें पूरी उम्मीद है कि उत्पादन में 10 फीसदी की तेजी आ सकती है।
राज्य में सोयाबीन का रकबा बढ़कर 51 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया है, जबकि पूरे भारत में 93 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई हो चुकी है। सोपा का कहना है कि राज्य में 51 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई हो चुकी है। खरीफ फसलों की बुआई का क्षेत्रफल 106.70 लाख हेक्टेयर के पहले से तय लक्ष्य से घटकर 11.67 लाख हेक्टेयर रह गया है।
सबसे ज्यादा नुकसान धान की फसल को पहुंचा है। धान का रकबा 16.25 लाख हेक्टेयर से घटकर मात्र 5 लाख हेक्टेयर रह गया है। अन्य खरीफ फसलों- जैसे ज्वार, बाजरा, अरहर दाल, उड़द, मूंग और कपास की बुआई लक्ष्य के तहत रही है या फिर इनके रक बे में थोड़ी बहुत कमी आई है।
दूसरी तरफ बारिश के बेहतर रहने की वजह से सरकारी अधिकारियों के उन अनुमानों को कांटा चुभ गया है जिसमें खरीफ फसलों के रकबे में 6 लाख हेक्टेयर तक की कमी आने की बात कही गई है। राज्य सरकार ने केंद्र से इस बाबत 3400 करोड रुपये की मांग की है।
एक आंतरिक सूत्र ने इस बारे में बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया 'अगर किसी जिले के 80 फीसदी क्षेत्र में सामान्य बारिश होती है तो माना जाता है जिले में सामान्य बारिश हुई है, लेकिन बकौल राज्य सरकार, अगर बारिश 79.90 फीसदी होती है तो फिर इसे सूखाग्रस्त घोषित माना जाता है।'
अगस्त के अंतिम सप्ताह और सितंबर के शुरुआती कुछ दिनों में मौसम के अनुकूल रहने से रबी फसल के लिए उम्मीदें और ज्यादा बढ ग़ई है, हालांकि एक अधिकारी ने बताया, 'करीब 35-40 लाख हेक्टेयर भूमि में गेहूं की बुआई का लक्ष्य रखा गया है क्योंकि हमारे पास केवल 37 प्रतिशत सिंचित भूमि ही है। (बीएस हिन्दी)
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने। अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं।
उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
सितंबर की शुरुआत में अच्छी बारिश होने से मध्य प्रदेश के सोयाबीन किसान एक बार फिर जोरदार फसल की उम्मीद कर रहे हैं। हालांकि, इसके उलट राज्य सरकार ने सोयाबीन के उत्पादन में 40 फीसदी कमी आने का अनुमान लगाया है।
इस बाबत सरकार ने केंद्र से किसानों को संभावित नुकसान की भरपाई के लिए 3400 करोड़ रुपये की मांग की है। दूसरी तरफ किसानों का कहना है कि इस साल फसल की स्थिति पिछले साल से बेहतर है। इस वर्ष अब तक राज्य के किसी भी इलाके से फसलों को नमी या कीटों से नुकसान पहुंचने की खबर नहीं आई है।
सोयाबीन फ सल की स्वतंत्र तौर पर समीक्षा करने वाली इकाई सोयाबीन प्रोसेसर एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सोपा) का कहना है कि इस सत्र में सोयाबीन की फसल काफी बेहतर रहने की संभावना है। इस बाबत सोपा के प्रवक्ता ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि अगस्त और सितंबर में बारिश की स्थिति बेहतर रहने से सोयाबीन की फ सल को खासा लाभ मिला है और हमें पूरी उम्मीद है कि उत्पादन में 10 फीसदी की तेजी आ सकती है।
राज्य में सोयाबीन का रकबा बढ़कर 51 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया है, जबकि पूरे भारत में 93 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई हो चुकी है। सोपा का कहना है कि राज्य में 51 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई हो चुकी है। खरीफ फसलों की बुआई का क्षेत्रफल 106.70 लाख हेक्टेयर के पहले से तय लक्ष्य से घटकर 11.67 लाख हेक्टेयर रह गया है।
सबसे ज्यादा नुकसान धान की फसल को पहुंचा है। धान का रकबा 16.25 लाख हेक्टेयर से घटकर मात्र 5 लाख हेक्टेयर रह गया है। अन्य खरीफ फसलों- जैसे ज्वार, बाजरा, अरहर दाल, उड़द, मूंग और कपास की बुआई लक्ष्य के तहत रही है या फिर इनके रक बे में थोड़ी बहुत कमी आई है।
दूसरी तरफ बारिश के बेहतर रहने की वजह से सरकारी अधिकारियों के उन अनुमानों को कांटा चुभ गया है जिसमें खरीफ फसलों के रकबे में 6 लाख हेक्टेयर तक की कमी आने की बात कही गई है। राज्य सरकार ने केंद्र से इस बाबत 3400 करोड रुपये की मांग की है।
एक आंतरिक सूत्र ने इस बारे में बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया 'अगर किसी जिले के 80 फीसदी क्षेत्र में सामान्य बारिश होती है तो माना जाता है जिले में सामान्य बारिश हुई है, लेकिन बकौल राज्य सरकार, अगर बारिश 79.90 फीसदी होती है तो फिर इसे सूखाग्रस्त घोषित माना जाता है।'
अगस्त के अंतिम सप्ताह और सितंबर के शुरुआती कुछ दिनों में मौसम के अनुकूल रहने से रबी फसल के लिए उम्मीदें और ज्यादा बढ ग़ई है, हालांकि एक अधिकारी ने बताया, 'करीब 35-40 लाख हेक्टेयर भूमि में गेहूं की बुआई का लक्ष्य रखा गया है क्योंकि हमारे पास केवल 37 प्रतिशत सिंचित भूमि ही है। (बीएस हिन्दी)
बारिश न होने से बढ़ी उत्पादन लागत
चंडीगढ़ September 28, 2009
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने।
अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं। उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
बारिश में कमी का असर पंजाब में धान की फसलों पर नहीं पड़ा है। यह हकीकत है कि तमाम जिलों में बुआई के दौरान सामान्य से 50 प्रतिशत से कम बारिश हुई है। बावजूद इसके, किसानों ने जून और जुलाई महीनों में चालू खरीफ सत्र में लक्ष्य के मुताबिक बुआई कर ली।
पंजाब में धान की रोपाई 10 जून के बाद से जुलाई के चौथे सप्ताह तक चली। 13 जुलाई तक राज्य में बारिश में सामान्य से 65 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई थी। इतनी कम बारिश होने के बावजूद, किसानों ने 23 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान की रोपाई की।
बारिश की स्थिति में सुधार होने के बाद किसानों ने 27.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में रोपाई पूरी कर ली, जबकि पिछले साल धान की रोपाई का क्षेत्रफल 27.35 लाख हेक्टेयर था। सरकार ने 26 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान की रोपाई का लक्ष्य रखा था।
सरकारी अधिकारियों ने कहा कि अभी उत्पादन के बारे में कुछ भी अनुमान लगाना कठिन है, लेकिन उम्मीद की जा रही है कि बारिश में कमी की वजह से किसानों की उत्पादन लागत में बढ़ोतरी हुई है। वहीं बाद में हुई बारिश की वजह से नुकसान की भरपाई तो हुई ही, रबी की फसलों को भी इससे फायदा पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है।
राज्य के जलाशयों में पानी भर गया है, जिससे उम्मीद जगी है कि रबी की फसलों के दौरान सिंचाई के लिए पानी नहीं कम पड़ेगा। जल स्तर में सुधार आया है। इससे रबी की फसल की बुआई पहले करने में मदद मिलेगी। किसान कुछ इलाकों में कम समय में तैयार होने वाली दलहनी फसलों की खेती भी कर सकते हैं।
हालांकि अभी रबी की फसलों के बारे में सरकारी अनुमान आने में वक्त लगेगा। पंजाब के कृषि विभाग के सचिव बीएस सिध्दू ने बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में कहा, ' धान की रोपाई वाले इलाकों में रोपाई का काम हुआ है, लेकिन इससे किसानों की लागत बहुत बढ़ गई है।' (बीएस हिन्दी)
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने।
अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं। उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
बारिश में कमी का असर पंजाब में धान की फसलों पर नहीं पड़ा है। यह हकीकत है कि तमाम जिलों में बुआई के दौरान सामान्य से 50 प्रतिशत से कम बारिश हुई है। बावजूद इसके, किसानों ने जून और जुलाई महीनों में चालू खरीफ सत्र में लक्ष्य के मुताबिक बुआई कर ली।
पंजाब में धान की रोपाई 10 जून के बाद से जुलाई के चौथे सप्ताह तक चली। 13 जुलाई तक राज्य में बारिश में सामान्य से 65 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई थी। इतनी कम बारिश होने के बावजूद, किसानों ने 23 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान की रोपाई की।
बारिश की स्थिति में सुधार होने के बाद किसानों ने 27.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में रोपाई पूरी कर ली, जबकि पिछले साल धान की रोपाई का क्षेत्रफल 27.35 लाख हेक्टेयर था। सरकार ने 26 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान की रोपाई का लक्ष्य रखा था।
सरकारी अधिकारियों ने कहा कि अभी उत्पादन के बारे में कुछ भी अनुमान लगाना कठिन है, लेकिन उम्मीद की जा रही है कि बारिश में कमी की वजह से किसानों की उत्पादन लागत में बढ़ोतरी हुई है। वहीं बाद में हुई बारिश की वजह से नुकसान की भरपाई तो हुई ही, रबी की फसलों को भी इससे फायदा पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है।
राज्य के जलाशयों में पानी भर गया है, जिससे उम्मीद जगी है कि रबी की फसलों के दौरान सिंचाई के लिए पानी नहीं कम पड़ेगा। जल स्तर में सुधार आया है। इससे रबी की फसल की बुआई पहले करने में मदद मिलेगी। किसान कुछ इलाकों में कम समय में तैयार होने वाली दलहनी फसलों की खेती भी कर सकते हैं।
हालांकि अभी रबी की फसलों के बारे में सरकारी अनुमान आने में वक्त लगेगा। पंजाब के कृषि विभाग के सचिव बीएस सिध्दू ने बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में कहा, ' धान की रोपाई वाले इलाकों में रोपाई का काम हुआ है, लेकिन इससे किसानों की लागत बहुत बढ़ गई है।' (बीएस हिन्दी)
हरियाणा में भी खस्ता हालत
चंडीगढ़ September 28, 2009
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने। अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं।
उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
तपते आसमान और मॉनसून में देरी की वजह से हरियाणा के कृषि विभाग की योजनाएं प्रभावित हुई हैं। राज्य द्वारा खरीफ मौसम में तय किए गए कृषि उत्पादन के लक्ष्य तक पहुंचना मुश्किल लगता है।
धान की रोपाई का लक्ष्य सरकार ने 1150000 हेक्टेयर तय किया था, लेकिन बारिश की कमी की वजह से कुल रोपाई 10,90000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में ही हो सकी है। यह 2008 में राज्य में धान की रोपाई के कुल क्षेत्रफल 1,21,0000 हेक्टेयर से बहुत कम है।
केंद्रीय पूल में हरियाणा के धान की कुल हिस्सेदारी 17-22 टन है। इसी तरह से खरीफ की फसलों गन्ने, कपास और ग्वार की बुआई के क्षेत्रफल में भी कमी आई है और लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है। इस साल गन्ने की बुआई 75,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में हुई है, जबकि पिछले साल 2008 में बुआई 90,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में हुई थी।
कपास की बुआई का लक्ष्य 6,00,000 हेक्टेयर रखा गया था, जबकि बुआई 5,27,000 हेक्टेयर में ही हुई है। इसी तरह से ग्वार की बुआई के क्षेत्रफल में कमी आई है। राज्य के कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि रबी की फसलों की बुआई पहले शुरू होने की संभावना है। मौसम अनुकूल होने पर इसके उत्पादन में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो सकती है। (बीएस हिन्दी)
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने। अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं।
उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
तपते आसमान और मॉनसून में देरी की वजह से हरियाणा के कृषि विभाग की योजनाएं प्रभावित हुई हैं। राज्य द्वारा खरीफ मौसम में तय किए गए कृषि उत्पादन के लक्ष्य तक पहुंचना मुश्किल लगता है।
धान की रोपाई का लक्ष्य सरकार ने 1150000 हेक्टेयर तय किया था, लेकिन बारिश की कमी की वजह से कुल रोपाई 10,90000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में ही हो सकी है। यह 2008 में राज्य में धान की रोपाई के कुल क्षेत्रफल 1,21,0000 हेक्टेयर से बहुत कम है।
केंद्रीय पूल में हरियाणा के धान की कुल हिस्सेदारी 17-22 टन है। इसी तरह से खरीफ की फसलों गन्ने, कपास और ग्वार की बुआई के क्षेत्रफल में भी कमी आई है और लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है। इस साल गन्ने की बुआई 75,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में हुई है, जबकि पिछले साल 2008 में बुआई 90,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में हुई थी।
कपास की बुआई का लक्ष्य 6,00,000 हेक्टेयर रखा गया था, जबकि बुआई 5,27,000 हेक्टेयर में ही हुई है। इसी तरह से ग्वार की बुआई के क्षेत्रफल में कमी आई है। राज्य के कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि रबी की फसलों की बुआई पहले शुरू होने की संभावना है। मौसम अनुकूल होने पर इसके उत्पादन में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो सकती है। (बीएस हिन्दी)
खरीफ ने किया निराश, अब रबी पर टिकी आस
मुंबई September 28, 2009
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने। अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं।
उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
इस साल मॉनसून की दगाबाजी ने फसलों की बुआई पर बुरा असर डाला है। धीरे धीरे मॉनसून में थोड़ा सुधार और फसलों में बदलाव करके कुछ हद तक खरीफ फसलों का उत्पादन कम होने के खतरे पर काबू पाया गया है।
अगस्त महीने में अनुमान लगाया गया था कि इस बार बुआई कम होने के कारण सामान्य से 30 फीसदी कम उत्पादन होने वाला है लेकिन अगस्त के अंत और सितंबर के शुरू में अच्छी बारिश के कारण यह आशंका कम होकर 17 फीसदी रह गई है।
कृषि मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार फसलों की बुआई में काफी हद तक सुधार हुआ है। अगस्त महीने के अंतिम दिनों से सक्रिय हुए मॉनसून की वजह से बुआई क्षेत्रफल बढ़ा है। कृषि मंत्रालय के इन आंकड़ों में दावा किया गया है कि इस वर्ष सामान्य बुआई रकबे की तुलना में 85 फीसदी क्षेत्र में फसलों की बुआई की गई है जो पिछले साल के बुआई रकबे से महज 8 फीसदी कम है।
हालांकि इस सीजन की सबसे प्रमुख फसल धान की रोपाई पिछले साल से भी 17.4 फीसदी कम क्षेत्र में हुई है। धान की रोपाई का सामान्य क्षेत्रफल 391.97 लाख हेक्टेयर है जिसमें से इस बार 302.2 लाख हेक्टेयर में ही रोपाई हो सकी है जबकि पिछले साल 365.8 लाख हेक्टेयर में धान की फसल खड़ी थी।
बारिश और फसलों की बुआई कम ज्यादा होने की खबरों से खाद्य पदार्थों की कीमतों केसाथ इनका बाजार भी प्रभावित होता रहा है। कृषि जिंसों का वायदा बाजार मॉनसून की आंख मिचौनी के बीच हिचकोले खाता रहा है। लेकिन कृषि जिंसों के कारोबार की रफ्तार दर्शाने वाला सूचकांक दिन प्रति दिन मजबूत होता रहा है।
इस साल जनवरी से एमसीएक्स कॉमेक्स करीब 44 फीसदी जबकि कृषि सूचकांक 34 फीसदी ऊपर गया है। मॉनसून सीजन केदौरान कॉमेक्स ने 27.27 फीसदी और कृषि सूचकांक ने 20.22 फीसदी तक की ऊंची उछाल लगाई।
शेयर खान ब्रोकिंग फर्म के कमोडिटी हेड मेहुल अग्रवाल का मानना है कि मॉनसून की गड़बडी और कम बुआई का असर उत्पादन पर भी पड़ने वाला है जो कीमतों को भी प्रभावित करेगा। लेकिन अच्छी बात यह है कि शुरुआती दौर में जो स्थिति विकराल दिखाई दे रही थी, वह काफी हद तक सामान्य हुई है।
पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि 20 फीसदी उत्पादन कम होगा। अगस्त महीने में यह आशंका 30 फीसदी तक पहुंच गई लेकिन मेघों के मेहरबान होने से स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है। अब लगता है कि करीब 17-18 फीसदी कम उत्पादन होगा।
पिछले साल की अपेक्षा इस बार किसानों ने दलहन की फसल को प्रथामिकता दी है जिसकी वजह पिछले कुछ महीनों से दालों की आसमान छूती कीमतें हैं। पिछले साल खरीफ सीजन में दालों का उत्पादन 48 लाख टन था जो इस बार पांच फीसदी ज्यादा हो सकता है।
अग्रवाल कहते हैं कि सरकार द्वारा स्टॉक लिमिट तय करने और जमाखोरों के खिलाफ सख्त दिखाने का भी असर होगा और नवंबर तक दालों की कीमतें कुछ गिरेंगी। हालांकि चावल खरीदना जेब पर भारी ही रहने वाला है।
ऐंजल ब्रोकिंग के कमोडिटी हेड अमर सिंह का कहना है कि फसल कमजोर होने का असर कारोबार पर न के बराबर पड़ने वाला है। कमोडिटी एक्सचेंजों में कारोबार और बढ़ने वाला है क्योंकि लोगों में जागरुकता फैल रही है जिससे छोटे-छोटे शहरों के लोग भी इस कारोबार से जुड़ रहे हैं जिससे यह कारोबार भी बढ़ रहा है।
दो साल पहले तक कमोडिटी वायदा कारोबार करने वाले लोगों की सख्या 25-30 हजार थी जो आज एक लाख से अधिक हो चुकी है और यही वजह है कि जिंस बाजारों में कारोबार भी तेजी से बढ़ रहा है।
दो साल पहले तक भारत में कमोडिटी एक्सचेंजों में हर दिन 15-16 करोड़ रुपये का कारोबार होता था जो आज 30-35 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। और आने वाले दो सालों में यह दोगुना हो सकता है।
सिंह कहते हैं कि एक्सचेंजों से फायदा सभी को हुआ है। कारोबार नहीं करने वाले गांवों के किसानों को भी फायदा पहुंचा है क्योंकि अब उनको बाजार में कीमतें क्या है, पता रहता है। लोगों की उत्सुकता को देखते हुए कहा जा सकता है कि कमोडिटी एक्सचेंजों के कारोबार का भविष्य बहुत अच्छा है लेकिन कृषि कमोडिटी का विकास ज्यादा नहीं होने वाला है क्योंकि इसमें सरकारी हस्तक्षेप बहुत है। (बीएस हिन्दी)
इस साल खरीफ की फसल की बुआई के दौरान उम्मीद से बहुत कम बारिश हुई। बाद में बारिश हुई भी तो किसानों ने कहा- का वर्षा जब कृषि सुखाने। अब किसानों के साथ सरकार ने भी रबी की फसलों के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं।
उम्मीद की जा रही है कि इस साल रबी की फसल कुछ हद तक खरीफ के नुकसान की भरपाई कर देगी। खरीफ के नुकसान और रबी की फसलों से बढ़ी उम्मीदों का एक जायजा ...
इस साल मॉनसून की दगाबाजी ने फसलों की बुआई पर बुरा असर डाला है। धीरे धीरे मॉनसून में थोड़ा सुधार और फसलों में बदलाव करके कुछ हद तक खरीफ फसलों का उत्पादन कम होने के खतरे पर काबू पाया गया है।
अगस्त महीने में अनुमान लगाया गया था कि इस बार बुआई कम होने के कारण सामान्य से 30 फीसदी कम उत्पादन होने वाला है लेकिन अगस्त के अंत और सितंबर के शुरू में अच्छी बारिश के कारण यह आशंका कम होकर 17 फीसदी रह गई है।
कृषि मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार फसलों की बुआई में काफी हद तक सुधार हुआ है। अगस्त महीने के अंतिम दिनों से सक्रिय हुए मॉनसून की वजह से बुआई क्षेत्रफल बढ़ा है। कृषि मंत्रालय के इन आंकड़ों में दावा किया गया है कि इस वर्ष सामान्य बुआई रकबे की तुलना में 85 फीसदी क्षेत्र में फसलों की बुआई की गई है जो पिछले साल के बुआई रकबे से महज 8 फीसदी कम है।
हालांकि इस सीजन की सबसे प्रमुख फसल धान की रोपाई पिछले साल से भी 17.4 फीसदी कम क्षेत्र में हुई है। धान की रोपाई का सामान्य क्षेत्रफल 391.97 लाख हेक्टेयर है जिसमें से इस बार 302.2 लाख हेक्टेयर में ही रोपाई हो सकी है जबकि पिछले साल 365.8 लाख हेक्टेयर में धान की फसल खड़ी थी।
बारिश और फसलों की बुआई कम ज्यादा होने की खबरों से खाद्य पदार्थों की कीमतों केसाथ इनका बाजार भी प्रभावित होता रहा है। कृषि जिंसों का वायदा बाजार मॉनसून की आंख मिचौनी के बीच हिचकोले खाता रहा है। लेकिन कृषि जिंसों के कारोबार की रफ्तार दर्शाने वाला सूचकांक दिन प्रति दिन मजबूत होता रहा है।
इस साल जनवरी से एमसीएक्स कॉमेक्स करीब 44 फीसदी जबकि कृषि सूचकांक 34 फीसदी ऊपर गया है। मॉनसून सीजन केदौरान कॉमेक्स ने 27.27 फीसदी और कृषि सूचकांक ने 20.22 फीसदी तक की ऊंची उछाल लगाई।
शेयर खान ब्रोकिंग फर्म के कमोडिटी हेड मेहुल अग्रवाल का मानना है कि मॉनसून की गड़बडी और कम बुआई का असर उत्पादन पर भी पड़ने वाला है जो कीमतों को भी प्रभावित करेगा। लेकिन अच्छी बात यह है कि शुरुआती दौर में जो स्थिति विकराल दिखाई दे रही थी, वह काफी हद तक सामान्य हुई है।
पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि 20 फीसदी उत्पादन कम होगा। अगस्त महीने में यह आशंका 30 फीसदी तक पहुंच गई लेकिन मेघों के मेहरबान होने से स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है। अब लगता है कि करीब 17-18 फीसदी कम उत्पादन होगा।
पिछले साल की अपेक्षा इस बार किसानों ने दलहन की फसल को प्रथामिकता दी है जिसकी वजह पिछले कुछ महीनों से दालों की आसमान छूती कीमतें हैं। पिछले साल खरीफ सीजन में दालों का उत्पादन 48 लाख टन था जो इस बार पांच फीसदी ज्यादा हो सकता है।
अग्रवाल कहते हैं कि सरकार द्वारा स्टॉक लिमिट तय करने और जमाखोरों के खिलाफ सख्त दिखाने का भी असर होगा और नवंबर तक दालों की कीमतें कुछ गिरेंगी। हालांकि चावल खरीदना जेब पर भारी ही रहने वाला है।
ऐंजल ब्रोकिंग के कमोडिटी हेड अमर सिंह का कहना है कि फसल कमजोर होने का असर कारोबार पर न के बराबर पड़ने वाला है। कमोडिटी एक्सचेंजों में कारोबार और बढ़ने वाला है क्योंकि लोगों में जागरुकता फैल रही है जिससे छोटे-छोटे शहरों के लोग भी इस कारोबार से जुड़ रहे हैं जिससे यह कारोबार भी बढ़ रहा है।
दो साल पहले तक कमोडिटी वायदा कारोबार करने वाले लोगों की सख्या 25-30 हजार थी जो आज एक लाख से अधिक हो चुकी है और यही वजह है कि जिंस बाजारों में कारोबार भी तेजी से बढ़ रहा है।
दो साल पहले तक भारत में कमोडिटी एक्सचेंजों में हर दिन 15-16 करोड़ रुपये का कारोबार होता था जो आज 30-35 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। और आने वाले दो सालों में यह दोगुना हो सकता है।
सिंह कहते हैं कि एक्सचेंजों से फायदा सभी को हुआ है। कारोबार नहीं करने वाले गांवों के किसानों को भी फायदा पहुंचा है क्योंकि अब उनको बाजार में कीमतें क्या है, पता रहता है। लोगों की उत्सुकता को देखते हुए कहा जा सकता है कि कमोडिटी एक्सचेंजों के कारोबार का भविष्य बहुत अच्छा है लेकिन कृषि कमोडिटी का विकास ज्यादा नहीं होने वाला है क्योंकि इसमें सरकारी हस्तक्षेप बहुत है। (बीएस हिन्दी)
यूरोप के लिए मूंगफली की खेप में 94 फीसदी की गिरावट
मुंबई September 28, 2009
चालू वित्त वर्ष के पहले छह महीनों में यूरोपीय संघ के देशों को निर्यात होने वाले मूंगफली की खेप में 94 फीसदी की गिरावट आई है।
इस गिरावट की वजह मूंगफली निर्यातकों की ओर से इसकी गुणवत्ता बनाए रखने और इसे वैश्विक स्तर का बनाने के मकसद से उठाए जा रहे कदम हैं। अगस्त तक की पांच महीनों की अवधि के दौरान यूरोपीय संघ के देशों को निर्यात होने वाले शिपमेंट पिछले साल की समान अवधि 12,051 टन के मुकाबले घटकर मात्र 758 टन रह गया है।
भारत प्रति वर्ष करीब 2.5-2.75 लाख टन मूंगफली का निर्यात करता है, जिसमें यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाली मूंगफली की हिस्सेदारी 12 फीसदी होती है। गौरतलब है कि भारतीय निर्यातकों पर मूंगफली की गुणवत्ता बेहतर बनाने का दबाव है और इस बात का डर है कि इस दिशा में अगर जल्द कोई कदम नहीं उठाया गया तो विदेश से आने वाले निर्यात के ऑर्डर रद्द हो सकते हैं।
भारत से निर्यात होने वाले मूंगफली में एफ्लाटॉक्सिन के पाए जाने की शिकायतों के बाद कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने इस साल जुलाई में मूंगफली निर्यातकों के लिए इस संबंध में शख्त दिशानिर्देश जारी किए थे।
इस साल की शुरुआत से ही भारतीय तिलहन एवं उत्पाद निर्यात संवर्धन परिषद (आईओपीईपीसी) स्थानीय निर्यातकों से गुणवत्ता बरक रार रखने को कह रहे थे, ताकि यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाली मूंगफली में भारत की चार फीसदी हिस्सेदारी कायम रह सके।
खरीदारों की ओर से किसी भी तरह की शिकायत मिलने की स्थिति में मूंगफली की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए एपीडा ने ग्रेपनेट और अनारनेट की तर्ज पर ही गुणवत्ता बरकरार रखने संबंधी शख्त दिशानिर्देश जारी किए हैं। अब तक यूरोपीय संघ को भारत से निर्यात होने वाली वाली मूंगफली में एफ्लाटॉक्सिन की मौजूदगी को लेकर करीब 45 शिकायतें मिल चुकी हैं।
आईओपीईपीसी के अध्यक्ष संजय शाह कहते हैं 'अगर हम 4 फीसदी के लक्ष्य में बढ़ोतरी नहीं कर सके तो कम से कम हमें इस स्तर पर बरकरार रखना चाहिए।' एपीडा द्वारा मूंगफली के निर्यात संबंधी शख्त दिशानिर्देश जारी किए जाने से यूरोपीय संघ को होने वाले निर्यात 30,000 टन के सामान्य स्तर से कम होने की आशंका जताई जा रही है।
मूंगफली की गुणवत्ता में शिकायतें मिलने केबाद भारत सरकार ने सभी सौदों को एपीडा या आईओपीईपीसी में पंजीकृत कराना अनिवार्य कर दिया है। यूरोपीय संघ को होने वाली मूंगफली के निर्यात से जुड़े सभी इकाइयों को अब एपीडा या आईओपीईपीसी से गुणवत्ता संबंधी प्रमाणपत्र लेना अनिवार्य होगा।
शाह ने कहा कि शुरुआत में यूरोपीय संघ को होने वाले मूंगफली के निर्यात में कमी आ सकती है, लेकिन जैसे ही आयातक हमारी तरफ से गुणवत्ता पर उचित ध्यान देने की बातों के बारे में अवगत होंगे, वैसे ही 2-3 सालों में निर्यात में बढ़ोतरी हो जाएगी।
यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाले 90 फीसदी मूंगफली का इस्तेमाल मानवीय उपभोग के लिए होता है, जबकि 10 फीसदी का इस्तेमाल चिडियों के भोजन के लिए मिश्रण के तौर पर होता है। भारत में इस साल मूंगफली के उत्पादन में पिछले साल के मुकाबले गिरावट की आशंका है। पिछले साल के मुकाबले मूंगफली के रकबे में इस साल कमी दर्ज की गयी है। (बीएस हिन्दी)
चालू वित्त वर्ष के पहले छह महीनों में यूरोपीय संघ के देशों को निर्यात होने वाले मूंगफली की खेप में 94 फीसदी की गिरावट आई है।
इस गिरावट की वजह मूंगफली निर्यातकों की ओर से इसकी गुणवत्ता बनाए रखने और इसे वैश्विक स्तर का बनाने के मकसद से उठाए जा रहे कदम हैं। अगस्त तक की पांच महीनों की अवधि के दौरान यूरोपीय संघ के देशों को निर्यात होने वाले शिपमेंट पिछले साल की समान अवधि 12,051 टन के मुकाबले घटकर मात्र 758 टन रह गया है।
भारत प्रति वर्ष करीब 2.5-2.75 लाख टन मूंगफली का निर्यात करता है, जिसमें यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाली मूंगफली की हिस्सेदारी 12 फीसदी होती है। गौरतलब है कि भारतीय निर्यातकों पर मूंगफली की गुणवत्ता बेहतर बनाने का दबाव है और इस बात का डर है कि इस दिशा में अगर जल्द कोई कदम नहीं उठाया गया तो विदेश से आने वाले निर्यात के ऑर्डर रद्द हो सकते हैं।
भारत से निर्यात होने वाले मूंगफली में एफ्लाटॉक्सिन के पाए जाने की शिकायतों के बाद कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने इस साल जुलाई में मूंगफली निर्यातकों के लिए इस संबंध में शख्त दिशानिर्देश जारी किए थे।
इस साल की शुरुआत से ही भारतीय तिलहन एवं उत्पाद निर्यात संवर्धन परिषद (आईओपीईपीसी) स्थानीय निर्यातकों से गुणवत्ता बरक रार रखने को कह रहे थे, ताकि यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाली मूंगफली में भारत की चार फीसदी हिस्सेदारी कायम रह सके।
खरीदारों की ओर से किसी भी तरह की शिकायत मिलने की स्थिति में मूंगफली की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए एपीडा ने ग्रेपनेट और अनारनेट की तर्ज पर ही गुणवत्ता बरकरार रखने संबंधी शख्त दिशानिर्देश जारी किए हैं। अब तक यूरोपीय संघ को भारत से निर्यात होने वाली वाली मूंगफली में एफ्लाटॉक्सिन की मौजूदगी को लेकर करीब 45 शिकायतें मिल चुकी हैं।
आईओपीईपीसी के अध्यक्ष संजय शाह कहते हैं 'अगर हम 4 फीसदी के लक्ष्य में बढ़ोतरी नहीं कर सके तो कम से कम हमें इस स्तर पर बरकरार रखना चाहिए।' एपीडा द्वारा मूंगफली के निर्यात संबंधी शख्त दिशानिर्देश जारी किए जाने से यूरोपीय संघ को होने वाले निर्यात 30,000 टन के सामान्य स्तर से कम होने की आशंका जताई जा रही है।
मूंगफली की गुणवत्ता में शिकायतें मिलने केबाद भारत सरकार ने सभी सौदों को एपीडा या आईओपीईपीसी में पंजीकृत कराना अनिवार्य कर दिया है। यूरोपीय संघ को होने वाली मूंगफली के निर्यात से जुड़े सभी इकाइयों को अब एपीडा या आईओपीईपीसी से गुणवत्ता संबंधी प्रमाणपत्र लेना अनिवार्य होगा।
शाह ने कहा कि शुरुआत में यूरोपीय संघ को होने वाले मूंगफली के निर्यात में कमी आ सकती है, लेकिन जैसे ही आयातक हमारी तरफ से गुणवत्ता पर उचित ध्यान देने की बातों के बारे में अवगत होंगे, वैसे ही 2-3 सालों में निर्यात में बढ़ोतरी हो जाएगी।
यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाले 90 फीसदी मूंगफली का इस्तेमाल मानवीय उपभोग के लिए होता है, जबकि 10 फीसदी का इस्तेमाल चिडियों के भोजन के लिए मिश्रण के तौर पर होता है। भारत में इस साल मूंगफली के उत्पादन में पिछले साल के मुकाबले गिरावट की आशंका है। पिछले साल के मुकाबले मूंगफली के रकबे में इस साल कमी दर्ज की गयी है। (बीएस हिन्दी)
मिलों ने कहा, चावल उठाओ, फिर नया धान लेंगे
चंडीगढ़/नई दिल्ली September 29, 2009
पंजाब की चावल मिलों ने आज कहा कि अगर सरकारी एजेंसियां उनके गोदामों में पड़े चावल को नहीं उठाती हैं तो वे मिलिंग के लिए आने वाले नए धान को नहीं लेंगी।
इन चावल मिलों के गोदामों में भारतीय खाद्य निगम का 7.5 लाख टन चावल पड़ा है। मिलों की इस नई घोषणा से केंद्रीय पूल के लिए राज्य में धान की खरीद प्रभावित हो सकती है। दूसरी तरफ चावल की कीमत पर कृषि मंत्री शरद पवार के बयान का कोई असर नहीं पड़ा है।
बीते दिनों चावल की कीमतों में गिरावट का रुख जारी रहा। गुरुवार को कृषि मंत्री ने कहा था कि इस साल चावल के उत्पादन में गिरावट की पूरी आशंका है, लिहाजा चावल के दाम में बढ़ोतरी हो सकती है। पंजाब राइस मिलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष तरसेम सैनी ने कहा कि हम सरकारी एजेंसियों द्वारा मिलिंग के लिए आने वाले धान का भंडार नहीं करेंगे।
यही नहीं हम एफसीआई द्वारा चावल भंडार (7.5 लाख टन) उठाने तक हम अपने स्तर पर भी कोई खरीद नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि मिलों के गोदाम में पड़े चावल के लिए उनकी कोई गलती नहीं है। मिलों के इस फैसले से राज्य में खरीफ सत्र में आज से शुरू हुई धान की खरीद प्रभावित हो सकती है।
पंजाब ने केंद्रीय पूल के लिए 137 लाख टन धान खरीदने का लक्ष्य रखा है। राज्य में धान की खरीद प्रक्रिया की अह्म भूमिका है क्योंकि सरकारी एजेंसियां खरीद के बाद धान मिलों के पास भेजती हैं जो मिलिंग से इसे चावल में बदलती हैं। राज्य की मिलों ने भारतीय खाद्य निगम के रवैए की आलोचना की है।
एफसीआई ने पिछले साल मानकों के अनुकूल नहीं बताते हुए 7.5 लाख टन चावल उठाने से इनकार कर दिया था। मिलों ने सरकार से मांग की है कि वह रंग तथा नुकसान के बारे में अपने नियमों को नरम बनाए। सैनी ने कहा है कि पीएयू 201 किस्म धान की मिलिंग से आया चावल एफसीआई के नियमों पर खरा नहीं उतरता। मिलें चाहती हैं कि इस तरह की जांच के लिए स्वतंत्र लेबोरेटरी बने।
बासमती चावल के भाव में 150 रुपये प्रति क्विंटल तो पूसा-1121 के भाव में 300 रुपये प्रति क्विंटल तक की गिरावट दर्ज की गयी। गौरतलब है कि इससे पहले चीनी के मामले में कृषि मंत्री के बयान के तुरंत बाद चीनी की कीमत में बढ़ोतरी दर्ज की गयी। इससे गुरुवार को यह आशंका बन गयी थी कि चावल के दाम भी इस बयान के बाद बढ़ सकते हैं।
दिल्ली अनाज मंडी के कारोबारियों के मुताबिक फिलहाल बाजार में सरकार की खरीद कीमत से भी कम कीमत पर पीआर 106 या परमल उपलब्ध है। परमल चावल की सरकारी खरीद कीमत 1700 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि अनाज मंडी में यह चावल मात्र 1550-1600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से उपलब्ध है।
चावल के थोक व्यापारी एवं दिल्ली अनाज मंडी के अध्यक्ष नरेश कुमार गुप्ता कहते हैं कि कृषि मंत्री के इस बयान से सरकार के पास अगले डेढ़ साल के लिए पर्याप्त अनाज होने के दावे पर भी सवाल उठने लगे हैं। अभी हाल ही में खरीफ के रकबे में पिछले साल के मुकाबले आयी कमी के बाद सरकार ने कहा था कि देश की खपत के हिसाब से अगले डेढ़ साल के लिए अनाज की कोई कमी नहीं है।
चावल कारोबारियों के मुताबिक फिलहाल चावल के दाम में बढ़ोतरी के कोई आसार नहीं हैं। हरियाणा एवं पंजाब की मंडियों में नए धान की आवक शुरू हो गयी है। गैर बासमती के निर्यात पर लगी पाबंदी को और सख्त कर दिया गया है। बाजार में गेहूं भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। ऐसे में अगले नवंबर तक चावल के दाम में तेजी की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है।
रबी की बुआई अच्छी रही तो तब तो आगे भी चावल के दाम पुराने स्तर पर ही कायम रहेंगे। व्यापारियों का यह भी कहना है कि मौजूदा स्थिति को देखते हुए गैर बासमती चावल के निर्यात पर लगी पाबंद हटने के बाद भी चावल में बढ़ोतरी दर्ज नहीं की जाएगी। (बीएस हिन्दी)
पंजाब की चावल मिलों ने आज कहा कि अगर सरकारी एजेंसियां उनके गोदामों में पड़े चावल को नहीं उठाती हैं तो वे मिलिंग के लिए आने वाले नए धान को नहीं लेंगी।
इन चावल मिलों के गोदामों में भारतीय खाद्य निगम का 7.5 लाख टन चावल पड़ा है। मिलों की इस नई घोषणा से केंद्रीय पूल के लिए राज्य में धान की खरीद प्रभावित हो सकती है। दूसरी तरफ चावल की कीमत पर कृषि मंत्री शरद पवार के बयान का कोई असर नहीं पड़ा है।
बीते दिनों चावल की कीमतों में गिरावट का रुख जारी रहा। गुरुवार को कृषि मंत्री ने कहा था कि इस साल चावल के उत्पादन में गिरावट की पूरी आशंका है, लिहाजा चावल के दाम में बढ़ोतरी हो सकती है। पंजाब राइस मिलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष तरसेम सैनी ने कहा कि हम सरकारी एजेंसियों द्वारा मिलिंग के लिए आने वाले धान का भंडार नहीं करेंगे।
यही नहीं हम एफसीआई द्वारा चावल भंडार (7.5 लाख टन) उठाने तक हम अपने स्तर पर भी कोई खरीद नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि मिलों के गोदाम में पड़े चावल के लिए उनकी कोई गलती नहीं है। मिलों के इस फैसले से राज्य में खरीफ सत्र में आज से शुरू हुई धान की खरीद प्रभावित हो सकती है।
पंजाब ने केंद्रीय पूल के लिए 137 लाख टन धान खरीदने का लक्ष्य रखा है। राज्य में धान की खरीद प्रक्रिया की अह्म भूमिका है क्योंकि सरकारी एजेंसियां खरीद के बाद धान मिलों के पास भेजती हैं जो मिलिंग से इसे चावल में बदलती हैं। राज्य की मिलों ने भारतीय खाद्य निगम के रवैए की आलोचना की है।
एफसीआई ने पिछले साल मानकों के अनुकूल नहीं बताते हुए 7.5 लाख टन चावल उठाने से इनकार कर दिया था। मिलों ने सरकार से मांग की है कि वह रंग तथा नुकसान के बारे में अपने नियमों को नरम बनाए। सैनी ने कहा है कि पीएयू 201 किस्म धान की मिलिंग से आया चावल एफसीआई के नियमों पर खरा नहीं उतरता। मिलें चाहती हैं कि इस तरह की जांच के लिए स्वतंत्र लेबोरेटरी बने।
बासमती चावल के भाव में 150 रुपये प्रति क्विंटल तो पूसा-1121 के भाव में 300 रुपये प्रति क्विंटल तक की गिरावट दर्ज की गयी। गौरतलब है कि इससे पहले चीनी के मामले में कृषि मंत्री के बयान के तुरंत बाद चीनी की कीमत में बढ़ोतरी दर्ज की गयी। इससे गुरुवार को यह आशंका बन गयी थी कि चावल के दाम भी इस बयान के बाद बढ़ सकते हैं।
दिल्ली अनाज मंडी के कारोबारियों के मुताबिक फिलहाल बाजार में सरकार की खरीद कीमत से भी कम कीमत पर पीआर 106 या परमल उपलब्ध है। परमल चावल की सरकारी खरीद कीमत 1700 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि अनाज मंडी में यह चावल मात्र 1550-1600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से उपलब्ध है।
चावल के थोक व्यापारी एवं दिल्ली अनाज मंडी के अध्यक्ष नरेश कुमार गुप्ता कहते हैं कि कृषि मंत्री के इस बयान से सरकार के पास अगले डेढ़ साल के लिए पर्याप्त अनाज होने के दावे पर भी सवाल उठने लगे हैं। अभी हाल ही में खरीफ के रकबे में पिछले साल के मुकाबले आयी कमी के बाद सरकार ने कहा था कि देश की खपत के हिसाब से अगले डेढ़ साल के लिए अनाज की कोई कमी नहीं है।
चावल कारोबारियों के मुताबिक फिलहाल चावल के दाम में बढ़ोतरी के कोई आसार नहीं हैं। हरियाणा एवं पंजाब की मंडियों में नए धान की आवक शुरू हो गयी है। गैर बासमती के निर्यात पर लगी पाबंदी को और सख्त कर दिया गया है। बाजार में गेहूं भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। ऐसे में अगले नवंबर तक चावल के दाम में तेजी की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है।
रबी की बुआई अच्छी रही तो तब तो आगे भी चावल के दाम पुराने स्तर पर ही कायम रहेंगे। व्यापारियों का यह भी कहना है कि मौजूदा स्थिति को देखते हुए गैर बासमती चावल के निर्यात पर लगी पाबंद हटने के बाद भी चावल में बढ़ोतरी दर्ज नहीं की जाएगी। (बीएस हिन्दी)
किसानों ने धान मवेशियों के हवाले किया
रायपुर September 29, 2009
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के किसान खरीफ की खराब हो गयी फसल को जल्द से जल्द नष्ट कर देना चाहते हैं।
इस जिले के पदकेडिह गांव के कई किसानों ने अपने खेतों में मवेशियों को खुला छोड़ दिया है, ताकि उनके खेत रबी की फसल के लिए तैयार हो जाए। मानसून की बेरूखी के कारण इस इलाके की खरीफ फसल बर्बाद हो चुकी है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी से 100 किलोमीटर की दूरी पर बसे इस गांव के 16 किसानों ने खरीफ के दौरान अपने 50 एकड़ खेत में धान एवं सोयाबीन की बुआई की थी। लेकिन दुर्भाग्य से सामान्य के मुकाबले 40 फीसदी तक बारिश की कमी ने लगभग पूरी फसल को बर्बाद कर दिया। बड़ी बात यह है कि ऐसा सिर्फ इसी गांव में नहीं हो रहा है।
राज्य के अन्य इलाकों में भी सूखे से प्रभावित किसानों के पास अपने खेत को मवेशियों के हवाले करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। एग्रीकॉन नामक एक गैर सरकारी संगठन के अध्यक्ष एवं कृषि वैज्ञानिक डॉ. शंकर ठाकुर कहते हैं, किसानों की खरीफ फसल बर्बाद हो चुकी है। वे काफी घबराए हुए हैं। ऐसे में वे जल्द से जल्द अपने खेत को खाली कर उसे रबी के लिए तैयार करना चाहते हैं।
इस दौरान खेत खाली होने से रबी के लिए जरूरी नमी पर्याप्त मात्रा में मिल जाएगी। ठाकुर कहते हैं कि प्रांत के कई इलाकों में किसानों ने रबी के लिए खेतों की जुताई का काम भी शुरू कर दिया है। किसान अब सितंबर की बारिश का इंतजार कर रहे हैं। अगले कुछ दिनों में इस बारिश की उम्मीद जतायी जा रही है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक सितंबर की बारिश पर बहुत कुछ निर्भर करेगा।
इस बारिश से खरीफ की फसल को कायम रखने में मदद मिलेगी। साथ ही रबी की फसल के लिए लाभदायक साबित होगी। कृषि निदेशालय के निदेशक आरके चंद्रास्वामी कहते हैं, लेकिन मानसून की असफलता के बाद हम रबी की फसले के लिए बहुत आशान्वित नहीं है। क्योंकि मिट्टी में नमी की कमी हो गयी है।
राज्य सरकार ने वर्ष 2009-09 के दौरान रबी फसल की योजान में बदलाव किया था और रबी का रकबा 18 लाख हेक्टेयर से घटकर 17 लाख हेक्टेयर हो गया था। इस दौरान प्रति हेक्टेयर 868 किलोग्राम की उत्पादकता रही। इस दौरान 290000 में चने की खेती की गयी तो 160000 हेक्टेयर में गेहूं की।
चंद्रास्वामी के मुताबिक इस साल छत्तीसगढ़ में सामान्य के मुकाबले 22 फीसदी कम बारिश हुई। इस असर निश्चित रूप से रबी की फसल पर पड़ेगा इसलिए इस दौरान किसानों को धान की बुआई नहीं करने की सलाह दी गयी है क्योंकि धान की खेती के लिए पानी की जरूरत होती है।
चंद्रास्वामी कहते हैं कि अगर सितंबर माह के दौरान भी बारिश नहीं होती है तो खरीफ के लिए धान के उत्पादन में तय लक्ष्य से कमी आएगी। डा. ठाकुर कहते हैं कि इस साल रबी का रकबा 12-13 लाख हेक्टेयर तक सिमट सकता है।
किसानों को रबी की फसल के लिए नहर से पानी की आवश्यकता होगी। लेकिन अधिकतर जलाशयों में पानी की कमी है इसलिए किसान अधिक क्षेत्र में रबी के दौरान बुआई करने का जोखिम नहीं लेंगे। (बीएस हिन्दी)
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के किसान खरीफ की खराब हो गयी फसल को जल्द से जल्द नष्ट कर देना चाहते हैं।
इस जिले के पदकेडिह गांव के कई किसानों ने अपने खेतों में मवेशियों को खुला छोड़ दिया है, ताकि उनके खेत रबी की फसल के लिए तैयार हो जाए। मानसून की बेरूखी के कारण इस इलाके की खरीफ फसल बर्बाद हो चुकी है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी से 100 किलोमीटर की दूरी पर बसे इस गांव के 16 किसानों ने खरीफ के दौरान अपने 50 एकड़ खेत में धान एवं सोयाबीन की बुआई की थी। लेकिन दुर्भाग्य से सामान्य के मुकाबले 40 फीसदी तक बारिश की कमी ने लगभग पूरी फसल को बर्बाद कर दिया। बड़ी बात यह है कि ऐसा सिर्फ इसी गांव में नहीं हो रहा है।
राज्य के अन्य इलाकों में भी सूखे से प्रभावित किसानों के पास अपने खेत को मवेशियों के हवाले करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। एग्रीकॉन नामक एक गैर सरकारी संगठन के अध्यक्ष एवं कृषि वैज्ञानिक डॉ. शंकर ठाकुर कहते हैं, किसानों की खरीफ फसल बर्बाद हो चुकी है। वे काफी घबराए हुए हैं। ऐसे में वे जल्द से जल्द अपने खेत को खाली कर उसे रबी के लिए तैयार करना चाहते हैं।
इस दौरान खेत खाली होने से रबी के लिए जरूरी नमी पर्याप्त मात्रा में मिल जाएगी। ठाकुर कहते हैं कि प्रांत के कई इलाकों में किसानों ने रबी के लिए खेतों की जुताई का काम भी शुरू कर दिया है। किसान अब सितंबर की बारिश का इंतजार कर रहे हैं। अगले कुछ दिनों में इस बारिश की उम्मीद जतायी जा रही है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक सितंबर की बारिश पर बहुत कुछ निर्भर करेगा।
इस बारिश से खरीफ की फसल को कायम रखने में मदद मिलेगी। साथ ही रबी की फसल के लिए लाभदायक साबित होगी। कृषि निदेशालय के निदेशक आरके चंद्रास्वामी कहते हैं, लेकिन मानसून की असफलता के बाद हम रबी की फसले के लिए बहुत आशान्वित नहीं है। क्योंकि मिट्टी में नमी की कमी हो गयी है।
राज्य सरकार ने वर्ष 2009-09 के दौरान रबी फसल की योजान में बदलाव किया था और रबी का रकबा 18 लाख हेक्टेयर से घटकर 17 लाख हेक्टेयर हो गया था। इस दौरान प्रति हेक्टेयर 868 किलोग्राम की उत्पादकता रही। इस दौरान 290000 में चने की खेती की गयी तो 160000 हेक्टेयर में गेहूं की।
चंद्रास्वामी के मुताबिक इस साल छत्तीसगढ़ में सामान्य के मुकाबले 22 फीसदी कम बारिश हुई। इस असर निश्चित रूप से रबी की फसल पर पड़ेगा इसलिए इस दौरान किसानों को धान की बुआई नहीं करने की सलाह दी गयी है क्योंकि धान की खेती के लिए पानी की जरूरत होती है।
चंद्रास्वामी कहते हैं कि अगर सितंबर माह के दौरान भी बारिश नहीं होती है तो खरीफ के लिए धान के उत्पादन में तय लक्ष्य से कमी आएगी। डा. ठाकुर कहते हैं कि इस साल रबी का रकबा 12-13 लाख हेक्टेयर तक सिमट सकता है।
किसानों को रबी की फसल के लिए नहर से पानी की आवश्यकता होगी। लेकिन अधिकतर जलाशयों में पानी की कमी है इसलिए किसान अधिक क्षेत्र में रबी के दौरान बुआई करने का जोखिम नहीं लेंगे। (बीएस हिन्दी)
गोल्ड में निवेश का क्या है सीक्रेट कोड?
आम तौर पर सुरक्षित ठिकाना बताया जाने वाला सोना इन दिनों भावी खरीदारों और बिकवालों की रातों की नींद उड़ाए हुए है। यह समस्या वैल्यूएशन से जुड़ी है। खरीदार को इस बात की जानकारी नहीं है कि कौन सी कीमत खरीदारी के लिए सही है और बिकवाल इस बात को लेकर परेशान हैं कि उन्हें किस दाम पर यह कीमती धातु बेचनी चाहिए। सोने की कीमतें फिलहाल 16,000 रुपए प्रति 10 ग्राम के चारों ओर घूम रही हैं, जो पिछले साल की तुलना में 30 फीसदी ज्यादा है। तेल और इक्विटी के साथ सोने का ऐतिहासिक रिश्ता छोटी अवधि में तनाव दिखा रहा है, इसलिए इस कमोडिटी में बुलबुला बनने का डर पैदा हो गया है। औद्योगिक संस्थान एसोचैम का अनुमान है कि त्योहारों के दौरान सोने के दाम 18,000 प्रति दस ग्राम तक पहुंच जाएंगे, जिसका श्रेय मजबूत मांग और कम अंतरराष्ट्रीय उत्पादन को दिया जा रहा है। भविष्य में सोने की कीमतें किस दिशा में जाएंगी, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन वैकल्पिक एसेट क्लास के तौर पर हमारा नजरिया पेश है। उम्मीद है कि इससे ग्राहकों और बिक्री करने वालों को यह फैसला करना आसान होगा कि मौजूदा हालात में सोना खरीदा-बेचा जाए या नहीं।
सबसे पहले सोने के दामों का फैसला किसी भी दूसरी कमोडिटी की तरह मांग-आपूर्ति के पैमाने से होता है। मांग जहां गहनों (फैब्रिकेशन) से मिलती है, वहीं बिक्री खनन और कबाड़ बेचने से आती है। भारत सोने का आयात करता है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोने के दामों को मौजूदा विदेशी विनिमय दर से बदलकर भारतीय रुपए में तय किया जाता है और उसके बाद कस्टम, ऑक्ट्राय, सेल्स टैक्स जैसे जरूरी शुल्क और कर जोड़े जाते हैं। लंदन बुलियन मार्केट एसोसिएशन दिन में दो बार सोने के दाम जारी करती है। शाम चार बजे और रात साढ़े आठ बजे। इसे आम तौर पर रेफरेंस रेट के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। खुदरा कीमत तक पहुंचने के लिए रीटेलर इसमें रीटेल प्रीमियम जोड़ते हैं। यही वजह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में सोने की अमेरिकी डॉलर में कीमत और भारतीय रुपए का मौजूदा कन्वर्जन रेट भारत में रीटेल कीमतों पर काफी गहरा असर डालता है। हाजिर बाजार के अलावा सोने की ट्रेडिंग वायदा, ऑप्शन और एक्सचेंज टेडेड फंड के जरिए भी होती है। भारत में मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज ऑफ इंडिया (एमसीएक्स) और नेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव (एनसीडीईएक्स) सोना वायदा और ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट मुहैया कराते हैं। भारत ज्वैलरी के रूप में सोने का उपभोग करने वाला सबसे बड़ा देश है। पोर्टफोलियो इंश्योरेंस हालांकि, सोने के भविष्य को लेकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन पर्सनल फाइनेंस विशेषज्ञों का कहना है कि सोना इसके बावजूद निवेशक के पोर्टफोलियो का हिस्सा हो सकता है, क्योंकि डायवर्सिफिकेशन करने की इसकी ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक स्वतंत्र निवेश विशेषज्ञ और क्वांटम एएमसी के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी देवेंद नेव्गी ने कहा, 'इससे पोर्टफोलियो का जोखिम कम होता है। साल 2008 में जब सेंसेक्स 50 फीसदी से ज्यादा गिरावट झेल चुका था, सोने के दाम करीब 30 फीसदी बढ़े थे।' रिकॉर्ड बजट घाटे की वजह से अमेरिकी डॉलर में कमजोरी की वजह से आगामी महीनों में सोना नई ऊंचाइयां छू सकता है। इसके अलावा फेडरल रिजर्व के धड़ाधड़ नोट छापने और मुद्रास्फीति से जुड़े अनुमान बढ़ने के कारण भी सोने की चमक में इजाफा हो सकता है। मुद्रास्फीति के सामने पारंपरिक ढाल की भूमिका अदा करने वाला सोना, अमेरिकी डॉलर से उलट रिश्ता रखता है। नेव्गी ने कहा, 'अगर अमेरिकी या चीनी हाउसहोल्ड एसेट का 1 फीसदी अंश भी सोने की ओर जाता है, तो सुनहरी धातु के दामों में गजब की बढ़ोतरी देखने को मिलेगी।' दूसरे विश्लेषक भी इस राय से इत्तफाक रखते हैं। उनका कहना है कि प्रमुख मुदाओं में कम ब्याज दरें, सोने को वैकल्पिक निवेश उत्पाद के तौर पर काफी मदद दे रही हैं। कोटक कमोडिटी सविर्सेज में तकनीकी एनालिस्ट धमेर्श भाटिया ने कहा, 'सोने के दामों में उछाल बाजार में बनने वाले बुलबुले का हिस्सा है। हालांकि, अगर बाजार में तरलता ऊंचे मुकाम पर बनी रह सकती है, तो यह बुलबुला आगे भी बढ़ सकता है।' एनालिस्ट अनुमान जता रहे हैं कि सोने की कीमत मध्य से लंबी अवधि में 18,000 रुपए प्रति दस ग्राम का स्तर छू सकती है। ज्यादा उत्साह ठीक नहीं सोना भले ही निवेश के लिहाज से माकूल उत्पाद मालूम दे, लेकिन विश्लेषकों का एक धड़ा ऐसा भी है, जिसका मानना है कि मौजूदा स्थिति में इस धातु के ज्यादा करीब जाने पर अंगुलियां जल सकती हैं। अगर अमेरिकी डॉलर की तुलना में भारतीय रुपए में काफी मजबूती आती है, तो इससे अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अमेरिकी डॉलर में कीमत में इजाफा होने का फायदा खत्म हो जाएगा। इसके अलावा वास्तविक ज्वैलरी की मांग नहीं बढ़ती और स्क्रैप बिक्री में ज्यादा बढ़ोतरी होती है, तो ऐसा होने पर कीमतों में भारी गिरावट देखने को मिल सकती है। संयोग से दुनिया भर के केंदीय बैंक अब सोने की कीमतों की गर्मी उतारने के लिए अपने हिस्से का काम कर रहे हैं। नेव्गी ने कहा, 'यह पेपर करेंसी से प्रतिस्पर्धा करने वाली प्रॉक्सी करेंसी है, इसलिए ऐतिहासिक रूप से इन बैंकों ने सोने में ज्यादा उछाल का लुत्फ नहीं लिया है और दखल देकर इसकी रफ्तार कम करने की कोशिश भी की है।' उनका मानना है कि सोना तथाकथित बुलबुलों की ओर नहीं बढ़ेगा। तर्क यह है कि एसेट बुलबुले में काफी ज्यादा सट्टेबाजी की वजह से भारी रिटर्न मिलता है, जो फिलहाल सोने के मामले में देखने को नहीं मिल रहा। नेव्गी ने कहा, '1975 से अमेरिकी डॉलर में सोने ने 5 फीसदी से कम रिटर्न दिया है, जबकि अमेरिकी शेयर बाजारों ने साल 2008 तक सोने की तुलना में दोगुना मुनाफा दिया।' ऐतिहासिक रिश्तेदारी छोटी अवधि में टूट जाती है, खास तौर से ऐसे हालात में जब अतिरिक्त तरलता स्थिति को असामान्य बना दे। आगामी दिनों में भले सोने चमके या चुप होकर बैठ जाए, लेकिन सुरक्षित ठिकाने के तौर पर उसकी विश्वसनीयता को लंबी अवधि में कोई चुनौती नहीं दी जा सकती। कम से कम फिलहाल के लिए तो ऐसा कहा ही जा सकता है। (इत हिन्दी)
सबसे पहले सोने के दामों का फैसला किसी भी दूसरी कमोडिटी की तरह मांग-आपूर्ति के पैमाने से होता है। मांग जहां गहनों (फैब्रिकेशन) से मिलती है, वहीं बिक्री खनन और कबाड़ बेचने से आती है। भारत सोने का आयात करता है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोने के दामों को मौजूदा विदेशी विनिमय दर से बदलकर भारतीय रुपए में तय किया जाता है और उसके बाद कस्टम, ऑक्ट्राय, सेल्स टैक्स जैसे जरूरी शुल्क और कर जोड़े जाते हैं। लंदन बुलियन मार्केट एसोसिएशन दिन में दो बार सोने के दाम जारी करती है। शाम चार बजे और रात साढ़े आठ बजे। इसे आम तौर पर रेफरेंस रेट के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। खुदरा कीमत तक पहुंचने के लिए रीटेलर इसमें रीटेल प्रीमियम जोड़ते हैं। यही वजह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में सोने की अमेरिकी डॉलर में कीमत और भारतीय रुपए का मौजूदा कन्वर्जन रेट भारत में रीटेल कीमतों पर काफी गहरा असर डालता है। हाजिर बाजार के अलावा सोने की ट्रेडिंग वायदा, ऑप्शन और एक्सचेंज टेडेड फंड के जरिए भी होती है। भारत में मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज ऑफ इंडिया (एमसीएक्स) और नेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव (एनसीडीईएक्स) सोना वायदा और ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट मुहैया कराते हैं। भारत ज्वैलरी के रूप में सोने का उपभोग करने वाला सबसे बड़ा देश है। पोर्टफोलियो इंश्योरेंस हालांकि, सोने के भविष्य को लेकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन पर्सनल फाइनेंस विशेषज्ञों का कहना है कि सोना इसके बावजूद निवेशक के पोर्टफोलियो का हिस्सा हो सकता है, क्योंकि डायवर्सिफिकेशन करने की इसकी ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक स्वतंत्र निवेश विशेषज्ञ और क्वांटम एएमसी के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी देवेंद नेव्गी ने कहा, 'इससे पोर्टफोलियो का जोखिम कम होता है। साल 2008 में जब सेंसेक्स 50 फीसदी से ज्यादा गिरावट झेल चुका था, सोने के दाम करीब 30 फीसदी बढ़े थे।' रिकॉर्ड बजट घाटे की वजह से अमेरिकी डॉलर में कमजोरी की वजह से आगामी महीनों में सोना नई ऊंचाइयां छू सकता है। इसके अलावा फेडरल रिजर्व के धड़ाधड़ नोट छापने और मुद्रास्फीति से जुड़े अनुमान बढ़ने के कारण भी सोने की चमक में इजाफा हो सकता है। मुद्रास्फीति के सामने पारंपरिक ढाल की भूमिका अदा करने वाला सोना, अमेरिकी डॉलर से उलट रिश्ता रखता है। नेव्गी ने कहा, 'अगर अमेरिकी या चीनी हाउसहोल्ड एसेट का 1 फीसदी अंश भी सोने की ओर जाता है, तो सुनहरी धातु के दामों में गजब की बढ़ोतरी देखने को मिलेगी।' दूसरे विश्लेषक भी इस राय से इत्तफाक रखते हैं। उनका कहना है कि प्रमुख मुदाओं में कम ब्याज दरें, सोने को वैकल्पिक निवेश उत्पाद के तौर पर काफी मदद दे रही हैं। कोटक कमोडिटी सविर्सेज में तकनीकी एनालिस्ट धमेर्श भाटिया ने कहा, 'सोने के दामों में उछाल बाजार में बनने वाले बुलबुले का हिस्सा है। हालांकि, अगर बाजार में तरलता ऊंचे मुकाम पर बनी रह सकती है, तो यह बुलबुला आगे भी बढ़ सकता है।' एनालिस्ट अनुमान जता रहे हैं कि सोने की कीमत मध्य से लंबी अवधि में 18,000 रुपए प्रति दस ग्राम का स्तर छू सकती है। ज्यादा उत्साह ठीक नहीं सोना भले ही निवेश के लिहाज से माकूल उत्पाद मालूम दे, लेकिन विश्लेषकों का एक धड़ा ऐसा भी है, जिसका मानना है कि मौजूदा स्थिति में इस धातु के ज्यादा करीब जाने पर अंगुलियां जल सकती हैं। अगर अमेरिकी डॉलर की तुलना में भारतीय रुपए में काफी मजबूती आती है, तो इससे अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अमेरिकी डॉलर में कीमत में इजाफा होने का फायदा खत्म हो जाएगा। इसके अलावा वास्तविक ज्वैलरी की मांग नहीं बढ़ती और स्क्रैप बिक्री में ज्यादा बढ़ोतरी होती है, तो ऐसा होने पर कीमतों में भारी गिरावट देखने को मिल सकती है। संयोग से दुनिया भर के केंदीय बैंक अब सोने की कीमतों की गर्मी उतारने के लिए अपने हिस्से का काम कर रहे हैं। नेव्गी ने कहा, 'यह पेपर करेंसी से प्रतिस्पर्धा करने वाली प्रॉक्सी करेंसी है, इसलिए ऐतिहासिक रूप से इन बैंकों ने सोने में ज्यादा उछाल का लुत्फ नहीं लिया है और दखल देकर इसकी रफ्तार कम करने की कोशिश भी की है।' उनका मानना है कि सोना तथाकथित बुलबुलों की ओर नहीं बढ़ेगा। तर्क यह है कि एसेट बुलबुले में काफी ज्यादा सट्टेबाजी की वजह से भारी रिटर्न मिलता है, जो फिलहाल सोने के मामले में देखने को नहीं मिल रहा। नेव्गी ने कहा, '1975 से अमेरिकी डॉलर में सोने ने 5 फीसदी से कम रिटर्न दिया है, जबकि अमेरिकी शेयर बाजारों ने साल 2008 तक सोने की तुलना में दोगुना मुनाफा दिया।' ऐतिहासिक रिश्तेदारी छोटी अवधि में टूट जाती है, खास तौर से ऐसे हालात में जब अतिरिक्त तरलता स्थिति को असामान्य बना दे। आगामी दिनों में भले सोने चमके या चुप होकर बैठ जाए, लेकिन सुरक्षित ठिकाने के तौर पर उसकी विश्वसनीयता को लंबी अवधि में कोई चुनौती नहीं दी जा सकती। कम से कम फिलहाल के लिए तो ऐसा कहा ही जा सकता है। (इत हिन्दी)
कपास की आवक बढ़ने के बावजूद भाव तेज
गुजरात की मंडियों में कपास की दैनिक आवक बढ़ने के बावजूद भाव तेज बने हुए हैं। सोमवार को मंडियों में कपास की दैनिक आवक बढ़कर करीब दस हजार गांठ (एक गांठ 170 किलो) की हो गई। अंतरराष्ट्रीय बाजार में पिछले एक सप्ताह में कॉटन की कीमतों में 2.58 फीसदी की गिरावट आई है लेकिन घरेलू मिलों की अच्छी मांग से शंकर-6 किस्म की कॉटन के भाव इस दौरान 22,400-22,500 रुपये से बढ़कर 22,600-22,800 रुपये प्रति कैंडी (एक कैंडी-356 किलो) हो गए। अहमदाबाद के कॉटन व्यापारी ने बताया कि गुजरात की मंडियों में कॉटन की दैनिक आवक बढ़कर 10,000 गांठ की हो गई है जबकि 19 सितंबर को इसकी आवक 4000 गांठों की थी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में पिछले एक सप्ताह में तो कॉटन की कीमतों में 2.58 फीसदी की गिरावट आई है लेकिन पिछले एक महीने में इसकी कीमतों में 4.63 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।न्यूयार्क बोर्ड ऑफ ट्रेड में कॉटन के अक्टूबर वायदा अनुबंध के भाव 28 सितंबर को 60.60 सेंट प्रति पाउंड रह गए जबकि 18 सिंतबर को इसके भाव 63.18 सेंट प्रति पाउंड थे। 25 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय बाजार में अक्टूबर अनुबंध के भाव 55.97 सेंट प्रति पाउंड थे। मैसर्स कमल कॉटन ट्रेडर्स प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर राकेश राठी ने बताया कि चालू फसल सीजन में देश में कॉटन की पैदावार में बढ़ोतरी की संभावना है। लेकिन चीन में प्रतिकूल मौसम से कॉटन की फसल को नुकसान होने की संभावना है जिससे भारत से कॉटन के निर्यात में बढ़ोतरी की संभावना है। गत वर्ष भारत से चीन की आयात मांग कमजोर रही थी। भारत से कॉटन के निर्यात में बढ़ोतरी होने की संभावना के कारण ही इस समय घरेलू मिलों की भी अच्छी मांग बनी हुई है। चालू कपास सीजन के दौरान अक्टूबर से अगस्त तक कुल 34.35 लाख गांठ कॉटन निर्यात के सौदे हुए जबकि कॉटन निर्यात का लक्ष्य 55 लाख गांठ का था। कॉटन एडवाइजरी बोर्ड (सीएबी) के मुताबिक वर्ष 2007-08 में देश से 88.5 लाख गांठ का निर्यात हुआ था। सीएबी के मुताबिक वर्ष 2009-10 में देश में कॉटन का उत्पादन बढ़कर 305 लाख गांठ होने की संभावना है जबकि पिछले साल 290 लाख गांठ का हुआ था।राठी के अनुसार गुजरात की मंडियों में पिछले एक सप्ताह में कॉटन की कीमतों में 200-300 रुपये की तेजी आकर शंकर-6 किस्म की कॉटन के भाव बढ़कर 26,600-26,800 रुपये प्रति कैंडी हो गये। हालांकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भाव घटने से पिछले दो-तीन दिनों से घरेलू बाजार में भाव स्थिर बने हुए हैं लेकिन आगामी दिनों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी की ही संभावना है। उत्तर भारत के प्रमुख उत्पादक राज्यों हरियाणा, पंजाब और राजस्थान की मंडियों में सोमवार को कपास की दैनिक आवक करीब 1,000 गांठ और महाराष्ट्र की मंडियों में 300 गांठ की हुई। (बिज़नस भास्कर)
कनाडा में मसूर व चने का उत्पादन बढ़ेगा, मटर का घटने की संभावना
चालू फसल सीजन में कनाडा में मसूर का उत्पादन 23।11 फीसदी बढ़ने का अनुमान है। इसी तरह चने के उत्पादन में 1.23 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है लेकिन मटर के उत्पादन में 12.75 फीसदी की गिरावट आने की आशंका है। भारत कनाडा से मसूर और मटर का ज्यादा आयात करता है। कनाडा से मसूर के नवंबर-दिसंबर महीने के निर्यात सौदे कम भाव पर हो रहे हैं। जबकि भारत में मटर का आयात ज्यादा हो रहा है। घरेलू बाजार में मसूर व मटर के दाम गिर सकते हैं। मसूर पर जहां कनाडा के ज्यादा उत्पादन का असर होगा जबकि मटर का भारी आयात होने के कारण भाव पर दबाव होगा। कनाड़ा के कृषि विभाग के अनुसार वर्ष 2009 में मसूर के उत्पादन में 23.11 फीसदी की बढ़ोतरी होकर कुल उत्पादन 11.32 लाख टन रहने का अनुमान है जबकि वर्ष 2008 में 9.19 लाख टन का हुआ था। चने का उत्पादन भी 1.23 फीसदी बढ़कर 82,000 टन होने की संभावना है। वर्ष 2008 में कनाड़ा में 81,000 टन चने का उत्पादन हुआ था। लेकिन वर्ष 2009 में मटर के उत्पादन में 12.75 फीसदी की गिरावट आकर कुल उत्पादन 31.16 लाख टन ही रहने की संभावना है। दुबई स्थित मैसर्स हाकन एग्रो कमोडिटी ट्रेडिंग कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर सुधाकर तोमर के अनुसार कनाड़ा में मसूर के उत्पादन में बढ़ोतरी के कारण बिकवाली ज्यादा आ रही है। कनाड़ा की मसूर के भाव मुंबई पहुंच 4500 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं लेकिन नवंबर डिलीवरी के सौदे 3950-4000 रुपये और दिसंबर डिलीवरी के सौदे 3750-3800 रुपये प्रति क्विंटल में हो रहे हैं। 11 अगस्त को मुंबई में आयातित मसूर के भाव 4850 रुपये प्रति क्विंटल थे। दलहन के कुल आयात में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी मटर की है। कनाडा में नई फसल की आवक बनने के बाद से भारत में मटर के भाव घटे हैं। इस समय मुंबई में कनाड़ा की मटर के भाव घटकर 1450-1460 रुपये प्रति क्विंटल रह गए जबकि 11 अगस्त को इसके भाव 1550-1560 रुपये प्रति क्विंटल थे।मैसर्स शरद ट्रेडिंग कम्पनी के प्रोपराइटर समीर भार्गव ने बताया कि इंदौर में मसूर के भाव 4550 रुपये प्रति क्विंटल और दिल्ली बाजार में 4450 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं। घरेलू मंडियों में स्टॉक कम है लेकिन आयातित मसूर सस्ती होने के कारण आगामी महीनों में घरेलू बाजार में इसकी कीमतों में 300-400 रुपये प्रति क्विंटल की और गिरावट आने की संभावना है। साकेत फूड के डायरेक्टर ए. अग्रवाल ने बताया कि मटर का आयात ज्यादा मात्रा में हो रहा है इसीलिए भाव में गिरावट बनी हुई है। सरकारी कंपनियों ने पिछले साल 10.25 लाख टन दलहन का कुल आयात किया था इसमें 7.15 लाख टन मटर थी। चालू वित्त वर्ष के अप्रैल से जुलाई के दौरान देश में करीब नौ लाख टन दलहन का आयात हुआ है इसमें करीब 40 फीसदी हिस्सेदारी मटर की रही है।rana@businessbhaskar.net (बिज़नस भास्कर)
2020 तक 81 लाख टन खाद्य तेलों की कमी होगी : एसोचैम
मांग और आपूर्ति के बीच बढ़ती खाई से देश का खाद्य तेल की कमी वर्ष 2020 तक बढ़कर 81 लाख टन हो सकती है। तेजी से बढ़ रही खपत के कारण फिलहाल यह कमी 47।1 लाख टन तक पहुंच गई है। प्रमुख औद्योगिक संगठन एसोचैम ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट में कहा है कि यदि घरेलू खाद्य तेल उत्पादन में सुधार नहीं होता है तो खाद्य तेल घाटा आने वाले समय में काफी बड़ा हो सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक जनसंख्या और प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के कारण देश में खाद्य तेल की खपत तेजी से बढ़ी है। लोगों की खानपान की आदत में बदलाव और आय बढ़ने के कारण खाद्य तेल की प्रति व्यक्ति खपत 2.23 फीसदी बढ़कर 2007-08 में 10.23 किलोग्राम हो गई है। 1986-87 में प्रति व्यक्ति खाद्य तेल की खपत 6.43 किलोग्राम थी। खाद्य तेल घाटे की पूर्ति प्रमुख रूप से पाम ऑयल आयात से की जाती है। (बिज़नस भास्कर)
बाजार में मक्खन की किल्लत
चंडीगढ़ /लुधियाना/नई दिल्ली। उत्तर भारत में इन दिनों लोगों को बटर यानी मक्खन की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। पंजाब में मिल्कफे ड और हरियाणा में डेयरी डेवलपमेंट कोऑपरटिव फेडरशन के मिल्क प्लांटों में एक महीने में मक्खन का उत्पादन तकरीबन 25 फीसदी घटने से बाजार में इसकी किल्लत हो गई है। राजधानी दिल्ली में भी मदर डेयरी के बूथ और अमूल के रिटेल आउटलेट पर बटर की सप्लाई अभी तक सामान्य नहीं हो पाई है। यहां सबसे अधिक किल्लत 500 ग्राम बटर के पैकेट की है। चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा में रिटेल में 15 दिनों से पंजाब मिल्कफैड के वेरका और हरियाणा डेयरी डेवलपमेंट के वीटा मक्खन की आपूर्ति ठप है। यहां हिमाचल और दिल्ली से आने वाले अमूल मक्खन की आपूर्ति भी घटी है।
पंजाब मिल्कफेड के सीनियर मैनेजर सेल्स एस।के. डूडेजा के मुताबिक अगस्त तक वेरका रोजाना तकरीबन 2.5 टन मक्खन तैयार कर रहा था। अभी यह घटकर 1.75 टन रह गया है। पंजाब मिल्कफेड के अधिकारियांे का यह भी कहना है कि इन दिनों उनका जोर मिठाइयांे पर है। हरियाणा डेयरी डेवलपमेंट कोऑपरटिव फेडरशन के अधिकारियों का कहना है कि त्योहारों में दूध की बढ़ी मांग और सूखे के कारण घटी दूध की आवक से घी, मक्खन और अन्य उत्पादों का उत्पादन तकरीबन 10 फीसदी कम हो गया है। वेरका और अमूल के मक्खन की बाजार में काफी मांग है। चंडीगढ़ मंे खतना डेयरी के गुरूपाल सिंह खतना ने बताया कि अमूल मक्खन का 500 ग्राम का पैक 15 दिन से नहीं आ रहा है। वहीं वेरका की 100 और 200 ग्राम की पैकिंग की किल्लत है। 500 ग्राम बटर के पैकेट की किल्लत दिल्ली में भी बनी हुई है। यहां आईएनए मार्केट स्थित गोगियाज डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक हेमंत गुप्ता का कहना है कि डेढ़ माह से अमूल बटर की सप्लाई कम है। (बिज़नस भास्कर)
पंजाब मिल्कफेड के सीनियर मैनेजर सेल्स एस।के. डूडेजा के मुताबिक अगस्त तक वेरका रोजाना तकरीबन 2.5 टन मक्खन तैयार कर रहा था। अभी यह घटकर 1.75 टन रह गया है। पंजाब मिल्कफेड के अधिकारियांे का यह भी कहना है कि इन दिनों उनका जोर मिठाइयांे पर है। हरियाणा डेयरी डेवलपमेंट कोऑपरटिव फेडरशन के अधिकारियों का कहना है कि त्योहारों में दूध की बढ़ी मांग और सूखे के कारण घटी दूध की आवक से घी, मक्खन और अन्य उत्पादों का उत्पादन तकरीबन 10 फीसदी कम हो गया है। वेरका और अमूल के मक्खन की बाजार में काफी मांग है। चंडीगढ़ मंे खतना डेयरी के गुरूपाल सिंह खतना ने बताया कि अमूल मक्खन का 500 ग्राम का पैक 15 दिन से नहीं आ रहा है। वहीं वेरका की 100 और 200 ग्राम की पैकिंग की किल्लत है। 500 ग्राम बटर के पैकेट की किल्लत दिल्ली में भी बनी हुई है। यहां आईएनए मार्केट स्थित गोगियाज डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक हेमंत गुप्ता का कहना है कि डेढ़ माह से अमूल बटर की सप्लाई कम है। (बिज़नस भास्कर)
पशुआहार भी महंगे
हरे चारे की उपलब्धता में कमी से पशुआहार के दाम बढ़े हैं। सरसों, बिनौला खल और बिनौले की कीमतें में तेजी है। मानसा मंडी के खल व्यापारी संजीव बंसल ने बताया कि सितंबर में तीन-चार बारिश होने से ज्वार, मक्का और अन्य चारे की फसलें खेतों में ही खराब हो र्गइ। इससे कपास की नई आवक के बावजूद बिनौला के भाव घट नहीं रहे हैं। इस समय पंजाब की मंडियों में बिनौला खल के भाव 1375 रुपये और बिनौले के भाव 1425 रुपये प्रति क्विंटल हैं। पिछले साल इनके भाव क्रमश: 1150 और 1250 रुपये प्रति क्विंटल थे। इसी तरह सरसों खल के भाव 1350 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं जबकि पिछले साल इन दिनों सरसों खल के भाव 1250 रुपये प्रति क्विंटल थे। rana@businessbhaskar.net
चारा फसलें चौपट
बारिश में देरी से धान की फसल के साथ-साथ चारा फसलों को भी काफी नुकसान पहुंचा है। इससे पशुओं के लिए हरे चारे की उपलब्धता में कमी आ गई है। खरीफ का मौसम खत्म होते-होते जो बारिश हुई, उसकी नमी का लाभ रबी और चारा फसलों में लेने की योजना थी। लेकिन अब बारिश में देरी से चारा फसलें बर्बाद हो रही हैं। देश में हरे चारे की उपलब्धता 224.08 मिलियन टन है, जबकि आवश्यकता 611.99 मिलियन टन की है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. शिवाधर मिश्र का कहना है कि हरे चारे के लिए नमी तो मौजूद थी, लेकिन बारिश के अभाव में चारा फसलें चौपट हो रही हैं। ऐसे में दूध उत्पादन में गिरावट आने की आशंका है।
त्योहारों में बढ़ा दूध का संकट
मानसून की देरी और त्योहारों का जल्दी आना लोगों के लिए दूध और उसके उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी के साथ उपलब्धता का संकट लेकर आया है। जहां दूध से लेकर मक्खन, घी और खोया की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है वहीं दूध की आपूर्ति बढ़ाने के लिए स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) के आयात का सहारा भी काम नहीं आ रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में पिछले दो माह में एसएमपी की कीमत में 40 फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इसके अलावा टैरिफ रेट कोटा (टीआरक्यू) के तहत इसे पांच फीसदी सीमा शुल्क की रियायती दर पर आयात करने का विकल्प भी चालू वित्त वर्ष के लिए खत्म हो गया है। ऐसी स्थिति में इस साल त्योहारों का यह सीजन उपभोक्ताओं के लिए महंगा ही साबित होगा।
उद्योग सूत्रों के मुताबिक दूध के महंगा होने के पीछे मानसून की असफलता एक बड़ा कारण रही है। इसके चलते जहां हरे चारे की उपलब्धता काफी कम हो गई थी वहीं पशुचारे के रूप में इस्तेमाल होने वाले दूसरे विकल्पों के दाम 20 फीसदी तक बढ़ गये। दुग्ध सहकारी समितियों और निजी कंपनियों को किसानों को दूध की कीमत 22 रुपये प्रति लीटर तक देनी पड़ रही है। शुरुआती दिनों में तो दूध की आपूर्ति भी प्रभावित हुई।
एक और बड़ी वजह है त्योहारों का जल्दी आना। ईद, नवरात्र, दशहरा और दिवाली जैसे त्योहार इस साल पिछले साल से करीब 15 दिन पहले आ गये हैं। जिसके चलते दूध और दूध उत्पादों की मांग भी पहले ही आ गई। नतीजतन मांग और आपूर्ति का असंतुलन पैदा हो गया। यही वजह है कि पिछले एक माह में जहां देश के कई हिस्सों में मक्खन की उपलब्धता प्रभावित हुई है, वहीं कंपनियों ने इसके दाम में भी 30 रुपये किलो तक का इजाफा कर दिया। घी की कीमत 60 रुपये किलो तक बढ़ा दी गई। इसके अलावा बड़ी दूध कंपनियों ने दूध की खुदरा कीमतें भी बढ़ाईं।
दूध की आपूर्ति बढ़ाने के लिए एक और विकल्प है एसएमपी का आयात करना। लेकिन सूत्रों के मुताबिक इसकी कीमत पिछले दो माह में विश्व बाजार में 1600 से 1700 डॉलर प्रति टन के मुकाबले बढ़कर 2300 से 2400 डॉलर प्रति टन हो गई हैं। देश में इसकी आयात लागत 90 रुपये किलो से बढ़कर 125 रुपये किलो तक पहुंच गई है। कृषि मंत्रालय के एक सूत्र के मुताबिक टैरिफ रेट कोटा के तहत पांच फीसदी सीमा शुल्क की रियायती दर पर 10,000 टन एसएमपी आयात करने का विकल्प भी इस बार नहीं है। इसके लिए सरकारी एजेंसियों- नेफेड, एनडीडीबी, एमएमटीसी और एसटीसी को डीजीएफटी के पास 1 मार्च, 2009 को आवेदन देना था। इसके बाद डीजीएफटी द्वारा आयात की जाने वाली मात्रा का आवंटन 31 मार्च, 2009 तक करना था। लेकिन किसी भी सरकारी एजेंसी ने यह आवेदन नहीं किया। इसके चलते अब एसएमपी का आयात 60 फीसदी के सामान्य आयात शुल्क पर ही हो सकेगा। इस वजह से भी इस दिक्कत से बहुत जल्दी निजात मिलती नहीं दिख रही है। (बिज़नस Bhaskar)
उद्योग सूत्रों के मुताबिक दूध के महंगा होने के पीछे मानसून की असफलता एक बड़ा कारण रही है। इसके चलते जहां हरे चारे की उपलब्धता काफी कम हो गई थी वहीं पशुचारे के रूप में इस्तेमाल होने वाले दूसरे विकल्पों के दाम 20 फीसदी तक बढ़ गये। दुग्ध सहकारी समितियों और निजी कंपनियों को किसानों को दूध की कीमत 22 रुपये प्रति लीटर तक देनी पड़ रही है। शुरुआती दिनों में तो दूध की आपूर्ति भी प्रभावित हुई।
एक और बड़ी वजह है त्योहारों का जल्दी आना। ईद, नवरात्र, दशहरा और दिवाली जैसे त्योहार इस साल पिछले साल से करीब 15 दिन पहले आ गये हैं। जिसके चलते दूध और दूध उत्पादों की मांग भी पहले ही आ गई। नतीजतन मांग और आपूर्ति का असंतुलन पैदा हो गया। यही वजह है कि पिछले एक माह में जहां देश के कई हिस्सों में मक्खन की उपलब्धता प्रभावित हुई है, वहीं कंपनियों ने इसके दाम में भी 30 रुपये किलो तक का इजाफा कर दिया। घी की कीमत 60 रुपये किलो तक बढ़ा दी गई। इसके अलावा बड़ी दूध कंपनियों ने दूध की खुदरा कीमतें भी बढ़ाईं।
दूध की आपूर्ति बढ़ाने के लिए एक और विकल्प है एसएमपी का आयात करना। लेकिन सूत्रों के मुताबिक इसकी कीमत पिछले दो माह में विश्व बाजार में 1600 से 1700 डॉलर प्रति टन के मुकाबले बढ़कर 2300 से 2400 डॉलर प्रति टन हो गई हैं। देश में इसकी आयात लागत 90 रुपये किलो से बढ़कर 125 रुपये किलो तक पहुंच गई है। कृषि मंत्रालय के एक सूत्र के मुताबिक टैरिफ रेट कोटा के तहत पांच फीसदी सीमा शुल्क की रियायती दर पर 10,000 टन एसएमपी आयात करने का विकल्प भी इस बार नहीं है। इसके लिए सरकारी एजेंसियों- नेफेड, एनडीडीबी, एमएमटीसी और एसटीसी को डीजीएफटी के पास 1 मार्च, 2009 को आवेदन देना था। इसके बाद डीजीएफटी द्वारा आयात की जाने वाली मात्रा का आवंटन 31 मार्च, 2009 तक करना था। लेकिन किसी भी सरकारी एजेंसी ने यह आवेदन नहीं किया। इसके चलते अब एसएमपी का आयात 60 फीसदी के सामान्य आयात शुल्क पर ही हो सकेगा। इस वजह से भी इस दिक्कत से बहुत जल्दी निजात मिलती नहीं दिख रही है। (बिज़नस Bhaskar)
28 सितंबर 2009
नए सीजन में संतुलन बनेगा कॉफी के भाव में
नए सीजन में कॉफी का उत्पादन बढ़ने पर भारत को अपना पारंपरिक बाजार मिलने की उम्मीद है। नई सीजन में जहां कॉफी का ज्यादा उत्पादन होने की संभावना से जहां दाम घट सकते हैं लेकिन निर्यात बढ़ने पर मूल्य संतुलित हो जाएंगे। चालू वर्ष की अंतिम तिमाही के दौरान कॉफी निर्यात सुधरने की संभावना है। इस दौरान काफी की नई फसल आने वाली है जिसकी पैदावार पिछले सीजन के मुकाबले अधिक होने का अनुमान है। अक्टूबर से शुरू हो रहे नए सीजन 2009-10 के दौरान कॉफी का उत्पादन तीन लाख टन होने का अनुमान है जो पिछले सीजन के 2.62 लाख टन से अधिक है। पिछले सीजन में उत्पादन घटने से इसके दाम काफी बढ़ गए थे। जिससे इसके निर्यात में गिरावट आई थी। चालू वर्ष के पहले सात माह के दौरान कर्नाटक में रॉ काफी में अरेबिका पीएमटी किस्म के दाम 4900-5050 रुपये से बढ़कर 7000-7300 रुपये प्रति 50 किलो, रोबस्ता पीएमटी किस्म के दाम 4150-4300 रुपये से बढ़कर 4800-5175 रुपये प्रति 50 किलो हो गए थे। लेकिन नए सीजन में उत्पादन बढ़ने के कारण इसके मूल्यों में कमी आने की संभावना है। ऐसे में कॉफी आयातक देशों से इसकी मांग बढ़ सकती हैं।वहीं दूसरे सबसे बड़े कॉफी निर्यातक देश वियतनाम में इसका उत्पादन कम रहने का अनुमान है। यहां कॉफी सीजन 2009-10 के दौरान इसके उत्पादन में 10-15 फीसदी की गिरावट आ सकती है। वियतनाम कॉफी एवं कोकोआ एसोसिएशन के अनुसार इसकी वजह मौसम प्रतिकूल रहना है। इसके अलावा दाम कम मिलने के कारण उत्पादकों ने लागत कम रखने के लिए खाद का उचित प्रयोग नहीं किया। सीजन 2008-09 के दौरान वियतनाम में 1.65-1.70 करोड़ बोरी (60 किलोग्राम) कॉफी का उत्पादन हुआ था। ऐसे में भारत से कॉफी की मांग में इजाफा हो सकता है।पिछले सीजन के दौरान पैदावार कम रहने के दौरान इसके निर्यात में कमी आई थी। भारतीय कॉफी बोर्ड के अनुसार चालू वर्ष के पहले सात माह के दौरान कॉफी का निर्यात करीब 19 फीसदी घटकर 1.33 लाख टन रहा। इसमें गिरावट की दूसरी वजह घरेलू बाजार में दाम अधिक रहने के कारण निर्यात फायदेमंद न रहना है। दरअसल भारतीय कॉफी महंगी होने से इसके प्रमुख आयातक देश इटली, रूस, जर्मनी, बेल्जियम और अरब देशों ने एशिया के अन्य बड़े निर्यातक देश वियतनाम और इंडोनेशिया से निर्यात को तरजीह दी है। चालू वर्ष के अगस्त माह तक 23,441 टन अरेबिका कॉफी, 73,023 टन रोबस्ता कॉफी और 35,179 टन इंस्टेंट कॉफी का निर्यात किया गया। इसमेंसबसे अधिक करीब 25 फीसदी 33,446 टन कॉफी इटली को निर्यात हुई। इसके बाद 12,9921 टन रूस संघ, 6,935 टन जर्मनी और 6,614 टन कॉफी बेल्जियम को निर्यात हुई। sg.ramveer@businessbhaskar.net
गेहूं की बेहतर पैदावार के लिए उन्नत किस्में
खरीफ सीजन में मानसून की बेरुखी से खाद्यान्न उत्पादन में कमी आने की आशंका के बाद रबी सीजन अब बहुत अहम हो गया है किसानों के लिए भी और सरकार के लिए भी। जहां किसानों को सूखे से हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए रबी एक अवसर है, वहीं सरकार के लिए देश में खाद्यान्न सुलभता के लिए रबी एक चुनौती है। ऐसे में सरकार नुकसान की कुछ हद तक भरपाई रबी फसलों की ज्यादा बुवाई करके करना चाहती है। सितंबर महीने में देर तक हुई बारिश गेहूं की अगेती बुवाई के लिए फायदेमंद है। अच्छी पैदावार के लिए किसानों को गेहूं की उन्नत खेती पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। सरकार ने उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र के किसानों को अधिक पैदावार वाली किस्में डीबीडब्ल्यू 17 और पीबीडब्ल्यू 550 और पीबीडब्ल्यू 502 किस्मों की बुवाई करने की सलाह दी है। उत्तर भारत में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान सबसे अधिक गेहूं पैदा करने वाला क्षेत्र है।उन्नत किस्मों की पैदावारडीबीडब्ल्यू 17 किस्म की औसत पैदावार 50.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। जबकि पीबीडब्ल्यू 502 किस्म की औसत पैदावार 49.8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। पीबीडब्ल्यू 550 किस्म से किसान 47.7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक पैदावार ले सकते हैं। उत्तर पश्चिमी एवं उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र में किसान नवंबर महीने में गेहूं की इन किस्मों की बुवाई करें। एक हैक्टेयर के खेत के लिए 100 किलो बीज पर्याप्त होगा। इन किस्मों की फसलों के लिए उर्वरकों का अनुपात 150:60:40 किलो क्रमश: नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होगा। फसल में एक तिहाई नाइट्रोजन बुवाई के समय और दो तिहाई नाइट्रोजन पहली गांठ बनने पर (बुवाई के 35-40 दिन बाद) खेत में डालना चाहिए।बुवाई के समय उपयुक्त तापमानइन किस्मों की बुवाई के समय दिन का औसत तापमान 23 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड उपयुक्त होगा। अच्छे फुटाव के लिए तापमान 16-20 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए। बीज की गहराई लगभग 5 सेंटीमीटर एवं पक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सेंटीमीटर होनी चाहिए। जिंक की कमी वाले खेतों में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से साल में एक बार डालनी चाहिए। यदि फसल में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दें तो 0.5 प्रतिशत जिंक का छिड़काव करना चाहिए। इसके लिए 2.5 किलोग्राम जिंक सल्फेट के साथ 1.25 किलो ग्राम बिना बुझे चूने (अनस्लेक्ड लाइम) या 12.5 किलो ग्राम यूरिया को 500 लीटर पानी में घोलकर एक हैक्टेयर में 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करें।आवश्यक सिंचाईसाधारणतया गेहूं की फसल के लिए 3-6 सिंचाई की आवश्यकता होती है। पानी की उपलब्धता एवं पौधों की आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। चंदेरी जड़ें निकलना (क्राउन रुट इनिशियेशन) एवं बाली आना ऐसी अवस्थाएं है जब नमी की कमी होने का अधिक बुरा प्रभाव पड़ता है। जीरो टिलेज से बुवाई करने पर पहली सिंचाई पारंपरिक तरीके से की जानी चाहिए। अगर मार्च के शुरूआत में तापमान सामान्य से बढ़ने लगे तो हल्की सिंचाई करनी चाहिए।खरपतवार नियंत्रणउत्तर भारत में पीला रतुआ तथा भूरा रतुआ मुख्य संभावित रोग हैं। पीला रतुआ से ज्यादा नुकसान होता है। डीबीडब्ल्यू 17, पीबीडब्ल्यू 550 रोगरोधी प्रजातियां हैं। उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में लोकप्रिय प्रजाति पीबीडब्ल्यू 343 में भी पीला रतुआ के प्रकोप की आशंका रहती है इसलिए किसान इसकी बुवाई न करें। करनाल बंट उत्तर- पश्चिमी भारत में गेहूं का एक अन्य मुख्य रोग है। गेहूं की पीबीडब्ल्यू 502 प्रजाति करनाल बंट के प्रति काफी हद तक रोधक है।गेहूं में गुल्ली डंडा, गेहूंसा, मंडूसी, गेहूं का मामा, जंगली जई, बथुआ, खरबाथु, मैना, सैंजी, हिरणखुरी, सत्यानाशी, कृष्णनील, कटैली, जंगली पालक एवं गेगला आदि प्रमुख खरपतवार हैं। प्रथम सिंचाई के बाद मिट्टी में उपयुक्त नमी होने पर कसोले द्वारा निराई करना खरपतवार नियंत्रण के लिए लाभप्रद है। साफ-सुथरा बीज प्रयोग करें, जिससे खरपतवार के बीज न हों। जल्दी बुवाई एवं पंक्तियों के बीच दूरी को कम करके भी खरपतवार नियंत्रित किए जा सकते हैं। चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार के नियंत्रण के लिए मैटसल्यूरॉन 4 ग्राम प्रति हैक्टेयर या 24-डी. 500 ग्राम प्रति हैक्टेयर या कारफेन्ट्राजोन 20 ग्राम प्रति हैक्टेयर को 250-300 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के 30-35 दिन बाद छिड़काव करें। - आर.एस. राणा rana@businessbhaskar.net
निर्यातकों की हल्की मांग से मैंथा में गिरावट
निर्यातकों की कमजोर मांग से पिछले डेढ़ महीने में मैंथा तेल की कीमतों में 7।7 फासदी की गिरावट आ चुकी है। शनिवार को उत्पादक मंडियों में मैंथा तेल के दाम घटकर 549 रुपये और क्रिस्टल बोल्ड के दाम 650 रुपये प्रति किलो रह गए। चालू वित्त वर्ष के पहले पांच महीनों (अप्रैल से अगस्त) के दौरान मैंथा उत्पादों का निर्यात पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 23 फीसदी कम रहा। चालू सीजन में पैदावार तो बढ़ी ही है, साथ ही इस समय त्योहारी सीजन के कारण किसानों की बिकवाली पहले की तुलना में बढ़ी है। इसलिए मौजूदा भावों में और भी दस-पंद्रह रुपये प्रति किलो की गिरावट आने की संभावना है।एसेंशिएल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष जुगल किशोर ने बिजनेस भास्कर को बताया कि चालू सीजन में देश में मैंथा का उत्पादन बढ़ा है। भाव में आई गिरावट के कारण अमेरिका और यूरोप के आयातक अभी इंतजार करो और देखो की नीति अपना रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रिस्टल बोल्ड के भाव इस समय 13 डॉलर प्रति किलो (सीएंडएफ) चल रहे हैं। लेकिन इन भावों में भी अमेरिका और यूरोप की मांग कमजोर है। पिछले ढ़ाई महीने में इसमें करीब डेढ़ से दो डॉलर प्रति किलो की गिरावट आ चुकी है। जून के मध्य में इसके भाव 14.5 से 15 डॉलर प्रति किलो थे। भारतीय मसाला बोर्ड के सूत्रों के अनुसार चालू वित्त वर्ष के अप्रैल से अगस्त के दौरान मैंथा उत्पादों का निर्यात घटकर 6,600 टन रह गया है जबकि पिछले साल की समान अवधि में 8,575 टन निर्यात हुआ था। चालू वित्त वर्ष में निर्यात का लक्ष्य 22,000 टन का रखा गया है। जबकि वित्त वर्ष 2008-09 में भारत से मैंथा उत्पादों का कुल निर्यात 20,500 टन का हुआ था। उत्तर प्रदेश मैंथा उद्योग एसोसिएशन के अध्यक्ष फूल प्रकाश ने बताया कि त्योहारी सीजन होने के कारण किसानों की बिकवाली ज्यादा आ रही है। इस समय उत्पादक मंडियों संभल, चंदौसी और बाराबंकी में मैंथा तेल की दैनिक आवक 200-250 ड्रमों से बढ़कर 300-350 ड्रमों (एक ड्रम 180 किलो) की हो गई है। उत्पादक मंडियों में मैंथा तेल के भाव घटकर 549 रुपये प्रति किलो रह गए। जबकि क्रिस्टल बोल्ड के भाव 650 रुपये प्रति किलो बोले जा रहे हैं। अगस्त महीने के प्रथम पखवाड़े में मैंथा तेल के दाम बढ़कर 595 रुपये प्रति किलो हो गए थे। निर्यातकों के साथ घरेलू मांग भी कमजोर होने से मौजूदा भाव में और भी 10-15 रुपये प्रति किलो की गिरावट आने की संभावना है।संभल स्थित मैसर्स ग्लोरियस केमिकल के डायरेक्टर अनुराग रस्तोगी ने बताया कि चालू सीजन में देश में मैंथा तेल का उत्पादन 30 से 32 हजार टन होने की संभावना है जोकि पिछले साल से ज्यादा है। अक्टूबर महीने में यूरोप और अमेरिका की मांग निकलने से भारत से निर्यात बढ़ने की संभावना है।rana@businessbhaskar.net (बिज़नस भास्कर...र स रना)
बासमती किसानों पर अब रसायन विवाद की मार
डीजल फूंक कर इस बार बासमती धान बचाने में कामयाब रहे किसान अब एक और परेशानी से घिर गए हैं। नई फसल की आवक के ऐन मौके पर ऐसा विवाद उठा है जिसका खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ सकता है। देश के बासमती उत्पादक इस बार ईरान में भारतीय बासमती चावल को लेकर उठे विवाद से परेशान हैं। भारतीय बासमती चावल में आर्सेनिक और लेड के अंश पाए जाने के ईरान के आरोप ने यहां के उन किसानों की परेशानी बढ़ा दी है जिन्होंने ऊंचे दाम की आस में इस बार बासमती का रकबा बढ़ाया है। पंजाब और हरियाणा में इस साल बासमती धान का रकबा पिछले साल की तुलना में 50 फीसदी बढ़ाने वाले किसान इस बात को लेकर परशान हैं कि एक अक्टूबर से शुरू हो रही धान खरीद में उन्हें वाजिब दाम न मिलने से नुकसान होगा। पंजाब में इस साल किसानों ने 6 लाख हेक्टेयर और हरियाणा में 5 लाख हेक्टेयर में बासमती किस्मों की बुवाई की है जिनमें से 80 फीसदी रकबा पूसा 1121 का है। वहीं, पिछले साल पंजाब में बासमती का रकबा 3।5 लाख हेक्टेयर और हरियाणा में 3.8 लाख हेक्टेयर था।बासमती में रसायन प्रकरण को ईरान की राजनीति से प्रेरित बताते हुए ऑल इंडिया राइस एक्सपोर्टर एसोसिएशन का कहना है कि ईरान में इस साल चावल की अच्छी पैदावार के मद्देनजर वहां के स्थानीय किसानों का सरकार पर यह दबाव है कि भारत और पाकिस्तान से बासमती का आयात न हो। चावल की गुणवत्ता को लेकर आश्वस्त होने की खातिर एसोसिएशन ने इसके नमूने श्रीराम लैब और एसजीएस लैब में भेजे हैं। एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष विजय सेतिया ने बताया कि मंगलवार को लैब की जांच रिपोर्ट आ जाएगी। उन्होंने इस बात से इनकार किया कि किसी भारतीय चावल निर्यातक का चावल रसायन के अंश पाए जाने के आरोपों की वजह से बंदरगाह पर रोका गया है।सेतिया ने कहा कि मांग से अधिक चावल का आयात होने के आसार को देखते हुए ही वहां के कुछ आयातक बंदरगाहों से माल उठाने में आनाकानी कर रहे हैं। सालाना प्रति व्यक्ति 45.5 किलो चावल की खपत करने वाले ईरान में वर्ष 2,008 के दौरान सूखे के चलते चावल का उत्पादन घटकर 22 लाख टन रह गया था, जबकि खपत 30 लाख टन की थी। ईरान ने वर्ष 2008 मंे 6.30 लाख टन चावल का आयात यूएई, पाकिस्तान और भारत से किया था। वहीं, वर्ष 2009 में 14 लाख टन चावल आयात के आर्डर ईरान ने भारत, पाकिस्तान और यूएई को दिए हैं। हालांकि, ईरान का उत्पादन भी इस साल बढ़कर 25 लाख टन हो जाने की उम्मीद है। उधर, भारतीय बासमती मंे आर्सेनिक और लेड के अंश पाए जाने के ईरान के आरोप के चलते और आगामी नई फसल की आवक को देखते हुए पिछले 15 दिनों में यहां बासमती चावल की तमाम किस्मों के भावों में 15 से 20 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। 15 दिन पहले 75 रुपये किलो के भाव वाले सेला चावल का भाव गिरकर 55-60 रुपये किलो रह गया है। पंजाब मंडी बोर्ड के चेयरमैन अजमेर सिंह लखोवाल ईरान के इन आरोपों को एक साजिश के रूप में देख रहे हैं। उनका कहना है कि पूसा 1121 का भाव इस बार मंडियों में 3000 रुपये प्रति क्विंटल रहने की उम्मीद थी क्योंकि निर्यातक इसी किस्म की सबसे अधिक खरीदारी करते हैं। उनका कहना है कि पिछले साल भी धान की नई फसल की आवक के समय पूसा 1121 का निर्यात रुकवाने में निर्यातक कंपनियां सफल हो गई थीं। इसके परिणामस्वरूप पूसा 1121 के भाव 3,000 रुपये प्रति क्ंिवटल से गिरकर महज 1,800 रुपये पर आ गए थे। हालांकि, इसके दो महीने बाद इसी किस्म के भाव बढ़कर 3,500 रुपये प्रति क्विंटल हो गए थे। (बिज़नस भास्कर)
अभी सस्ता होगा पाम तेल, पर अगले साल वृद्धि का अनुमान
मुंबई September 28, 2009
इस साल कच्चे पाम तेल (सीपीओ) का बेंचमार्क वायदा भाव (मलेशिया) 13 फीसदी घटकर 1,900 रिंगिट प्रति टन तक जा सकता है।
हालांकि अलनीनो प्रभाव के चलते उत्पादन प्रभावित होने से अगले साल इसमें बढ़ोतरी होने की पूरी गुंजाइश है। पाम तेल उद्योग के शीर्ष विश्लेषक माने जाने वाले दोराब मिस्त्री ने यह अनुमान जताया है। उन्होंने बताया कि अगले साल इसकी कीमत 2,400 रिंगिट प्रति टन तक जा सकती है।
गौरतलब है कि मिस्त्री बड़े विश्लेषक के साथ गोदरेज इंटरनैशनल के वनस्पति तेल खरीद कारोबार के प्रमुख हैं। शुक्रवार को बुर्सा मलेशिया डेरिवेटिव एक्सचेंज में दिसंबर महीने का अनुबंध 71 रिंगिट बढ़कर 2,186 रिंगिट यानी 630 डॉलर प्रति टन तक चला गया। इस तरह पिछले 200 दिनों से हो रही गिरावट का सिलसिला थम गया। पाम तेल के वायदा का यह स्तर पिछले 200 दिनों के औसत 2,141 रिंगिट से भी ज्यादा हो गया।
मिस्त्री ने कहा, ''मेरा मानना है कि एक्सचेंज में दिसंबर महीने का वायदा अनुबंध 1,900 रिंगिट तक जाने की आवश्यकता है। अलनीनो की वजह से 2010 में सीपीओ का उत्पादन घटने का अनुमान है।'' इस महीने ऑस्ट्रेलिया के मौसम विभाग ने कहा कि अलनीनो प्रभाव के चलते सूखे जैसी स्थिति है, जो कम से कम इस साल के अंत तक जारी रहेगी।
मिस्त्री कहते हैं, ''हमें जनवरी से मई 2010 में होने वाले पाम तेल उत्पादन को देखना होगा ताकि अलनीनो के प्रभाव का अनुमान लगाया जा सके।'' अभी मेरा मानना है कि 2010 के पहले 5 महीनों में उत्पादन पर अलनीनो प्रभाव दिखेगा। इससे कीमतें चढ़ेंगी। समस्या केवल अभी से जनवरी तक की कीमत को लेकर है। (बीएस हिन्दी)
इस साल कच्चे पाम तेल (सीपीओ) का बेंचमार्क वायदा भाव (मलेशिया) 13 फीसदी घटकर 1,900 रिंगिट प्रति टन तक जा सकता है।
हालांकि अलनीनो प्रभाव के चलते उत्पादन प्रभावित होने से अगले साल इसमें बढ़ोतरी होने की पूरी गुंजाइश है। पाम तेल उद्योग के शीर्ष विश्लेषक माने जाने वाले दोराब मिस्त्री ने यह अनुमान जताया है। उन्होंने बताया कि अगले साल इसकी कीमत 2,400 रिंगिट प्रति टन तक जा सकती है।
गौरतलब है कि मिस्त्री बड़े विश्लेषक के साथ गोदरेज इंटरनैशनल के वनस्पति तेल खरीद कारोबार के प्रमुख हैं। शुक्रवार को बुर्सा मलेशिया डेरिवेटिव एक्सचेंज में दिसंबर महीने का अनुबंध 71 रिंगिट बढ़कर 2,186 रिंगिट यानी 630 डॉलर प्रति टन तक चला गया। इस तरह पिछले 200 दिनों से हो रही गिरावट का सिलसिला थम गया। पाम तेल के वायदा का यह स्तर पिछले 200 दिनों के औसत 2,141 रिंगिट से भी ज्यादा हो गया।
मिस्त्री ने कहा, ''मेरा मानना है कि एक्सचेंज में दिसंबर महीने का वायदा अनुबंध 1,900 रिंगिट तक जाने की आवश्यकता है। अलनीनो की वजह से 2010 में सीपीओ का उत्पादन घटने का अनुमान है।'' इस महीने ऑस्ट्रेलिया के मौसम विभाग ने कहा कि अलनीनो प्रभाव के चलते सूखे जैसी स्थिति है, जो कम से कम इस साल के अंत तक जारी रहेगी।
मिस्त्री कहते हैं, ''हमें जनवरी से मई 2010 में होने वाले पाम तेल उत्पादन को देखना होगा ताकि अलनीनो के प्रभाव का अनुमान लगाया जा सके।'' अभी मेरा मानना है कि 2010 के पहले 5 महीनों में उत्पादन पर अलनीनो प्रभाव दिखेगा। इससे कीमतें चढ़ेंगी। समस्या केवल अभी से जनवरी तक की कीमत को लेकर है। (बीएस हिन्दी)
नई फसल से सस्ती होगी अरंडी
अहमदाबाद September 28, 2009
नई फसल की आवक के चलते किसानों द्वारा अपना भंडार खाली करने के चलते अरंडी (अरंडी के बीज) की कीमत में गिरावट दर्ज की गई है।
540 रुपये प्रति 20 किलोग्राम का स्तर छूने के बाद इसके भाव 510 से 525 रुपये प्रति 20 किलोग्राम तक लुढ़क गए। राज्य के मुख्य अरंडी बाजार बनासकांठा में पुरानी अरंडी के 20 से 22 हजार बोरियों (एक बोरी मतलब 75 किलोग्राम) की आवक हुई है। कारोबारियों के मुताबिक, यह बहुत ज्यादा आवक है।
अहमदाबाद कमोडिटी एक्सचेंज के प्रवीण ठक्कर ने बताया, ''आंध्र प्रदेश के बाजारों में नई फसल आ चुकी है, जबकि गुजरात में नवंबर-दिसंबर में नई फसल आनी शुरू होगी। ऐसे में किसानों ने अपना पुराना भंडार बेचना शुरू कर दिया है। इस वजह से गुजरात में अरंडी की हाजिर कीमत कम होना शुरू हो गई है।''
अहमदाबाद के एक अन्य अरंडी कारोबारी ने बताया, ''कीमत में प्रति क्विंटल 100 रुपये की कमी हो चुकी है। अरंडी का मिल डिलिवरी भाव राज्य में 2,625 रुपये तक गिर चुका है।'' कारोबारियों के मुताबिक, वर्ष 2008-09 में अरंडी की कीमत 540 रुपये प्रति 20 किलोग्राम तक जा पहुंची थी। फिलहाल 525 रुपये प्रति 20 किलोग्राम को अच्छा दाम माना जा रहा है। उम्मीद है कि निकट भविष्य में इसमें और कमी होगी।
कारोबारियों का अनुमान है कि इस साल बारिश की कमी से उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं होगी। अनुमान है कि वर्ष 2009-10 में अरंडी का उत्पादन उतना ही रहेगा, जितना कि पिछले साल था। सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने अनुमान जताया था कि वित्त वर्ष 2009-10 में 9।76 लाख टन अरंडी का उत्पादन होगा। हालांकि पहले इस संगठन ने 11 लाख टन का अनुमान जताया था। (बीएस हिन्दी)
नई फसल की आवक के चलते किसानों द्वारा अपना भंडार खाली करने के चलते अरंडी (अरंडी के बीज) की कीमत में गिरावट दर्ज की गई है।
540 रुपये प्रति 20 किलोग्राम का स्तर छूने के बाद इसके भाव 510 से 525 रुपये प्रति 20 किलोग्राम तक लुढ़क गए। राज्य के मुख्य अरंडी बाजार बनासकांठा में पुरानी अरंडी के 20 से 22 हजार बोरियों (एक बोरी मतलब 75 किलोग्राम) की आवक हुई है। कारोबारियों के मुताबिक, यह बहुत ज्यादा आवक है।
अहमदाबाद कमोडिटी एक्सचेंज के प्रवीण ठक्कर ने बताया, ''आंध्र प्रदेश के बाजारों में नई फसल आ चुकी है, जबकि गुजरात में नवंबर-दिसंबर में नई फसल आनी शुरू होगी। ऐसे में किसानों ने अपना पुराना भंडार बेचना शुरू कर दिया है। इस वजह से गुजरात में अरंडी की हाजिर कीमत कम होना शुरू हो गई है।''
अहमदाबाद के एक अन्य अरंडी कारोबारी ने बताया, ''कीमत में प्रति क्विंटल 100 रुपये की कमी हो चुकी है। अरंडी का मिल डिलिवरी भाव राज्य में 2,625 रुपये तक गिर चुका है।'' कारोबारियों के मुताबिक, वर्ष 2008-09 में अरंडी की कीमत 540 रुपये प्रति 20 किलोग्राम तक जा पहुंची थी। फिलहाल 525 रुपये प्रति 20 किलोग्राम को अच्छा दाम माना जा रहा है। उम्मीद है कि निकट भविष्य में इसमें और कमी होगी।
कारोबारियों का अनुमान है कि इस साल बारिश की कमी से उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं होगी। अनुमान है कि वर्ष 2009-10 में अरंडी का उत्पादन उतना ही रहेगा, जितना कि पिछले साल था। सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने अनुमान जताया था कि वित्त वर्ष 2009-10 में 9।76 लाख टन अरंडी का उत्पादन होगा। हालांकि पहले इस संगठन ने 11 लाख टन का अनुमान जताया था। (बीएस हिन्दी)
सोयाबीन का उत्पादन 95 लाख टन रहने का अनुमान
नई दिल्ली September 28, 2009
देश में मौजूदा वित्त वर्ष में सोयाबीन का उत्पादन कम-से-कम 95 लाख टन रहने का अनुमान है। यदि मौसम ठीक-ठाक रहा तो यह पिछले वर्ष के 1 करोड़ टन के स्तर को भी छू सकता है।
बहुत खराब स्थिति में भी उत्पादन 90 लाख टन से कम रहने की संभावना नहीं है। फसल की अनुकूलता के लिहाज से प्रमुख उत्पादक क्षेत्रों में अच्छी बारिश होती है, तो यह एक करोड़ टन तक भी पहुंच सकता है।
सूत्रों ने कहा, प्रमुख उत्पादक राज्यों से प्राप्त जानकारी के हिसाब से अगर मौसम अनुकूल रहा तो उत्पादन 1 करोड़ टन भी हो सकता है। क्षेत्रफल बढ़िया होने के कारण 95 लाख टन का लक्ष्य संभावित लक्ष्य जान पड़ता है। देश के लगभग आधे हिस्से में सूखे के कारण मूंगफली के क्षेत्रफल में कमी आई है और इसका उत्पादन कम हो सकता है। इसलिए बहुत सारी उम्मीदें सोयाबीन पर टिकी हुई है।
तिलहन उद्योग के अनुमान के अनुसार, सोयाबीन फसल का क्षेत्रफल 96.70 लाख हेक्टेयर है, जो पिछले साल 96.24 लाख हेक्टेयर था। तिलहन उद्योग का सोयाबीन खेती के क्षेत्रफल के बारे में अनुमान हालांकि सरकार के 94.96 लाख हेक्टेयर से अधिक है।
सोयाबीन प्रसंस्करण संघ सोपा के समन्वयक राजेश अग्रवाल के अनुसार, देर से हुई बरसात मध्य प्रदेश में सोयाबीन के लिए बेहतर साबित हुई है। सोपा 30 सितंबर को सोयाबीन उत्पादन के बारे में अपने अनुमान के साथ सामने आएगा। (बीएस हिन्दी)
देश में मौजूदा वित्त वर्ष में सोयाबीन का उत्पादन कम-से-कम 95 लाख टन रहने का अनुमान है। यदि मौसम ठीक-ठाक रहा तो यह पिछले वर्ष के 1 करोड़ टन के स्तर को भी छू सकता है।
बहुत खराब स्थिति में भी उत्पादन 90 लाख टन से कम रहने की संभावना नहीं है। फसल की अनुकूलता के लिहाज से प्रमुख उत्पादक क्षेत्रों में अच्छी बारिश होती है, तो यह एक करोड़ टन तक भी पहुंच सकता है।
सूत्रों ने कहा, प्रमुख उत्पादक राज्यों से प्राप्त जानकारी के हिसाब से अगर मौसम अनुकूल रहा तो उत्पादन 1 करोड़ टन भी हो सकता है। क्षेत्रफल बढ़िया होने के कारण 95 लाख टन का लक्ष्य संभावित लक्ष्य जान पड़ता है। देश के लगभग आधे हिस्से में सूखे के कारण मूंगफली के क्षेत्रफल में कमी आई है और इसका उत्पादन कम हो सकता है। इसलिए बहुत सारी उम्मीदें सोयाबीन पर टिकी हुई है।
तिलहन उद्योग के अनुमान के अनुसार, सोयाबीन फसल का क्षेत्रफल 96.70 लाख हेक्टेयर है, जो पिछले साल 96.24 लाख हेक्टेयर था। तिलहन उद्योग का सोयाबीन खेती के क्षेत्रफल के बारे में अनुमान हालांकि सरकार के 94.96 लाख हेक्टेयर से अधिक है।
सोयाबीन प्रसंस्करण संघ सोपा के समन्वयक राजेश अग्रवाल के अनुसार, देर से हुई बरसात मध्य प्रदेश में सोयाबीन के लिए बेहतर साबित हुई है। सोपा 30 सितंबर को सोयाबीन उत्पादन के बारे में अपने अनुमान के साथ सामने आएगा। (बीएस हिन्दी)
हौले-हौले लागू होगी उर्वरक सब्सिडी नीति
नई दिल्ली September 28, 2009
केंद्रीय उर्वरक विभाग नई उर्वरक सब्सिडी योजना की चरणबद्ध शुरुआत करने के पक्ष में है। इसके तहत पहले चरण में कंपनियों के बजाय रिटेलरों को सब्सिडी दी जानी है। जहां तक उर्वरक सब्सिडी सीधे किसानों को देने की बात है तो यह योजना अगले साल से ही लागू हो पाएगी।
दरअसल मौजूदा खरीफ सीजन के लिए उर्वरक की खरीद लगभग पूरी हो चुकी है और रबी का अगला सीजन कुछ ही दिनों में 1 अक्टूबर से शुरू होने वाला है। लिहाजा, उर्वरक विभाग बीच सीजन में मौजूदा योजना में कोई बदलाव न करने के पक्ष में है।
उर्वरक सचिव अतुल चतुर्वेदी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'इस साल उर्वरक सब्सिडी मौजूदा पद्धति के तहत ही दी जाएगी। क्योंकि रबी सीजन एक हफ्ते में शुरू होने वाला है और खरीफ सीजन लगभग पूरा हो चुका है।'
उन्होंने कहा कि सब्सिडी प्रणाली में बदलाव का आदर्श समय जनवरी से मार्च होना चाहिए। गौरतलब है कि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अपने बजट भाषण में जुलाई में कहा था कि सरकार मौजूदा उर्वरक सब्सिडी नीति में बदलाव करेगी। उनके मुताबिक, सरकार का इरादा पोषकयुक्त सब्सिडी योजना लागू करने का है। यही नहीं सब्सिडी कंपनियों को देने के बजाय सीधे किसानों को दी जाएगी। वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि योजना में बदलाव से सरकार पर सब्सिडी का बोझ घटने का अनुमान है। पिछले साल उर्वरक सब्सिडी 1.17 लाख करोड़ हो गई थी। ऐसा लागत में अनुमान से ज्यादा वृद्धि होने से हुआ था। नई प्रणाली में उर्वरक की कीमतें जहां घटेंगी-बढ़ेंगी वहीं किसानों को निश्चित पोषकतत्व आधारित सब्सिडी मिला करेगी। अब तक कीमत स्थिर रहती थी, लेकिन सब्सिडी में उतार-चढ़ाव होता रहता था।
चतुर्वेदी ने कहा नई प्रणाली शुरू करने से पहले परिचालन से संबंधित कुछ मुद्दों को सुलझाना होगा। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों का एक समूह और 9 मंत्रालयों के प्रतिनिधियों को इससे जुड़े मामले सुलझाने का जिम्मा दिया गया है। उर्वरक विभाग मंत्रियों के समूह को पहले चरण के तहत उर्वरक सब्सिडी को रिटेलरों को देने का प्रस्ताव करने वाला है।
किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी की मात्रा किस आधार पर तय हो, इसे सुलझाया जाना था। चतुर्वेदी ने बताया, 'देश में करीब 14 करोड़ किसान हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और कृषि मंत्रालय किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी की मात्रा का फर्ॉम्यूला तय करेंगे।' सब्सिडी पाने के लिए जरूरी होगा कि किसानों का बैंक खाता हो और उनके नाम से जमीन हो।
उर्वरक की उत्पादन लागत का निर्धारण एक अन्य प्रमुख मुद्दा था। चतुर्वेदी के अनुसार, लागत 8 हजार से 20 हजार रुपये प्रति टन के बीच होती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उत्पादन के लिए गैस, नेफ्था या फर्नेस ऑयल किसका उपयोग किया जाता है।
हालांकि उर्वरक की कीमत एकसमान ही रहती है। उनके मुताबिक, 'निश्चित सब्सिडी की नीति से ऊंची लागत वाले संयंत्र लाभकारी नहीं रहेंगे। यदि सभी संयंत्रों में गैस पहुंचाई जाए तो भी इसमें 2 साल लग जाएंगे। ऐसे में संक्रमण काल का प्रबंधन करना होगा।' (बीएस हिन्दी)
केंद्रीय उर्वरक विभाग नई उर्वरक सब्सिडी योजना की चरणबद्ध शुरुआत करने के पक्ष में है। इसके तहत पहले चरण में कंपनियों के बजाय रिटेलरों को सब्सिडी दी जानी है। जहां तक उर्वरक सब्सिडी सीधे किसानों को देने की बात है तो यह योजना अगले साल से ही लागू हो पाएगी।
दरअसल मौजूदा खरीफ सीजन के लिए उर्वरक की खरीद लगभग पूरी हो चुकी है और रबी का अगला सीजन कुछ ही दिनों में 1 अक्टूबर से शुरू होने वाला है। लिहाजा, उर्वरक विभाग बीच सीजन में मौजूदा योजना में कोई बदलाव न करने के पक्ष में है।
उर्वरक सचिव अतुल चतुर्वेदी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'इस साल उर्वरक सब्सिडी मौजूदा पद्धति के तहत ही दी जाएगी। क्योंकि रबी सीजन एक हफ्ते में शुरू होने वाला है और खरीफ सीजन लगभग पूरा हो चुका है।'
उन्होंने कहा कि सब्सिडी प्रणाली में बदलाव का आदर्श समय जनवरी से मार्च होना चाहिए। गौरतलब है कि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अपने बजट भाषण में जुलाई में कहा था कि सरकार मौजूदा उर्वरक सब्सिडी नीति में बदलाव करेगी। उनके मुताबिक, सरकार का इरादा पोषकयुक्त सब्सिडी योजना लागू करने का है। यही नहीं सब्सिडी कंपनियों को देने के बजाय सीधे किसानों को दी जाएगी। वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि योजना में बदलाव से सरकार पर सब्सिडी का बोझ घटने का अनुमान है। पिछले साल उर्वरक सब्सिडी 1.17 लाख करोड़ हो गई थी। ऐसा लागत में अनुमान से ज्यादा वृद्धि होने से हुआ था। नई प्रणाली में उर्वरक की कीमतें जहां घटेंगी-बढ़ेंगी वहीं किसानों को निश्चित पोषकतत्व आधारित सब्सिडी मिला करेगी। अब तक कीमत स्थिर रहती थी, लेकिन सब्सिडी में उतार-चढ़ाव होता रहता था।
चतुर्वेदी ने कहा नई प्रणाली शुरू करने से पहले परिचालन से संबंधित कुछ मुद्दों को सुलझाना होगा। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों का एक समूह और 9 मंत्रालयों के प्रतिनिधियों को इससे जुड़े मामले सुलझाने का जिम्मा दिया गया है। उर्वरक विभाग मंत्रियों के समूह को पहले चरण के तहत उर्वरक सब्सिडी को रिटेलरों को देने का प्रस्ताव करने वाला है।
किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी की मात्रा किस आधार पर तय हो, इसे सुलझाया जाना था। चतुर्वेदी ने बताया, 'देश में करीब 14 करोड़ किसान हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और कृषि मंत्रालय किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी की मात्रा का फर्ॉम्यूला तय करेंगे।' सब्सिडी पाने के लिए जरूरी होगा कि किसानों का बैंक खाता हो और उनके नाम से जमीन हो।
उर्वरक की उत्पादन लागत का निर्धारण एक अन्य प्रमुख मुद्दा था। चतुर्वेदी के अनुसार, लागत 8 हजार से 20 हजार रुपये प्रति टन के बीच होती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उत्पादन के लिए गैस, नेफ्था या फर्नेस ऑयल किसका उपयोग किया जाता है।
हालांकि उर्वरक की कीमत एकसमान ही रहती है। उनके मुताबिक, 'निश्चित सब्सिडी की नीति से ऊंची लागत वाले संयंत्र लाभकारी नहीं रहेंगे। यदि सभी संयंत्रों में गैस पहुंचाई जाए तो भी इसमें 2 साल लग जाएंगे। ऐसे में संक्रमण काल का प्रबंधन करना होगा।' (बीएस हिन्दी)
26 सितंबर 2009
पैदावार में कमी से ग्वार में मजबूती का रुख
पैदावार में कमी और मिलों की मांग बढ़ने से पिछले दस दिनों में ग्वार की कीमत में 3.7 फीसदी और ग्वार गम की कीमत में 2.2 फीसदी की तेजी आई है। प्रतिकूल मौसम से चालू सीजन में देश में ग्वार की पैदावार में भारी कमी आने की आशंका है। हाजिर बाजार में आई तेजी से एनसीडीईएक्स पर अक्टूबर महीने के वायदा अनुबंध में ग्वार की कीमत में 2.9 और गम की कीमतों में 2.4 फीसदी की बढ़त दर्ज की गई। राजस्थान की गंगानगर मंडी में ग्वार की नई फसल की आवक शुरू हो चुकी है। अन्य उत्पादक क्षेत्रों में आवक का दबाव अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े तक बन जाएगा। अगले महीने मिलों की खरीद तो बढ़ेगी ही, साथ ही स्टॉकिस्टों की खरीद भी निकलेगी। ऐसे में ग्वार और ग्वारगम की कीमतों में तेजी आने की संभावना है।वायदा बाजार में तेजीनेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज लिमिटेड (एनसीडीईएक्स) पर ग्वार के अक्टूबर महीने के वायदा अनुबंध में 2.9 फीसदी की तेजी आकर भाव 2120 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। 16 सितंबर को इसके भाव 2060 रुपये प्रति क्विंटल थे जबकि अक्टूबर महीने में 122,100 लॉट के सौदे खड़े हैं। इसी तरह से ग्वार गम के अक्टूबर महीने का वायदा अनुबंध पिछले दस दिनों में 2.4 फीसदी बढ़कर भाव 4498 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। 16 सितंबर को वायदा में ग्वार गम के भाव 4390 रुपये प्रति क्विंटल थे। ग्वार गम के अक्टूबर महीने के वायदा अनुबंध में 18,045 लॉट के सौदे खड़े हुए हैं।हाजिर बाजार में तेजीजोधपुर स्थित मैसर्स वसुंधरा ट्रेडिंग कंपनी के प्रोपराइटर मोहन लाल ने बताया कि मिलों की मांग निकलने से पिछले दस दिनों में ग्वार और गम की कीमतों में मजबूती आई है। जोधपुर मंडी में शुक्रवार को ग्वार के भाव बढ़कर 2240 रुपये और ग्वार गम के भाव 4525 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। ग्वार चूरी के भाव 830 रुपये और कोरमा के 980-985 रुपये प्रति 75 किलो चल रहे हैं। गंगानगर मंडी में 500-600 बोरी नई फसल की आवक शुरू हो गई है। नए मालों में नमी होने के कारण भाव 1900 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं। अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े तक हरियाणा और राजस्थान की मंडियों में ग्वार की आवक का दबाव बन जाएगा। विश्व स्तर पर आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा है। इसलिए ग्वार गम की निर्यात मांग बढ़ने की संभावना है। नई फसल की आवक बढ़ने पर मिलों के साथ स्टॉकिस्टों की खरीद निकलने से ग्वार और ग्वार गम की कीमतों में तेजी आ सकती है।पैदावार और बकाया स्टॉकभारतीय ग्वार गम मैन्यूफैक्चर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष जीवन गांधी ने बताया कि उत्तर भारत के प्रमुख ग्वार उत्पादक राज्यों राजस्थान और हरियाणा में जून-जुलाई और अगस्त के मध्य तक बारिश सामान्य से काफी कम हुई है। चूंकि ग्वार की बुवाई ज्यादातर असिंचित क्षेत्रों में होती है। इसलिए बुवाई में भारी कमी आई है। चालू सीजन में ग्वार का उत्पादन घटकर 35-40 लाख बोरी ही होने की संभावना है जबकि पिछले साल देश में ग्वार का उत्पादन 90 से 95 लाख बोरी का हुआ था। ग्वार का करीब 25-30 लाख बोरी का बकाया स्टॉक बचा हुआ है। ऐसे में कुल उपलब्धता 60-70 लाख बोरी से ज्यादा नहीं बैठेगी। गांधी ने बताया कि पाकिस्तान में भी चालू सीजन में ग्वार की पैदावार घटकर आठ-नौ लाख बोरी ही होने की संभावना है। सामान्यत: पाकिस्तान में ग्वार की 12-13 लाख बोरी की पैदावार होती है। अत: भारत से ग्वार गम की मांग पिछले साल से ज्यादा रह सकती है।ग्वार गम का निर्यातकृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) के सूत्रों के अनुसार वित्त वर्ष 2008-09 के पहले दस महीनों के दौरान देश से ग्वार गम का 2.16 लाख टन का निर्यात हुआ है। (बिज़नस भास्कर....र स रना)
घटते-बढ़ते धातुओं के दाम
September 25, 2009
अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वर्ष 2008 की शुरुआत से धातु और खनिज की कीमतें लगातार उछाल के साथ रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गईं।
लेकिन यह बेहतरीन दौर लंबे समय तक कायम नहीं रह सका और उसके बाद मांग और कीमतों में अचानक गिरावट आनी शुरू हो गई।
भारतीय इस्पात निगम (सेल) के अध्यक्ष सुशील रूंगटा इस बात की ओर इशारा करते हैं कि इस्पात और और इसके निर्माण में प्रयुक्त होने वाले खनिजों के उत्पादन और कीमतों में तत्काल आए बदलाव आर्थिक वातावरण में हुए उलटफेर के प्रति त्वरित प्रतिक्रिया के कारण हैं।
वर्ष 2008 की पहली छमाही में इस्पात, लोहा और कोकिंग कोल की कीमतों में काफी तेजी आई, लेकिन उसके बाद बाजार में अचानक कोहराम सा मच गया और लगभग सभी क्षेत्रों से मांग में खासी गिरावट का दौर शुरू हो गया।
वर्ष 2009 पहली दो तिमाही विश्व के इस्पात निर्माताओं के लिए अत्यंत दुखद रही और पूरे विश्व में इसके उत्पादन में 20 फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई। हालांकि, इसके बाद भी इस्पात उद्योग की समस्याएं खासकर विकसित देशों में खत्म होती नजर नहीं आ रही है।
विश्व इस्पात संगठन (डब्ल्यूएसओ) का अनुमान है कि मौजूदा साल में इस्पात के उपयोग में 13 फीसदी तक की कमी आ सकती है। पिछले साल भी मांग में 1.7 फीसदी की गिरावट आई थी और यह घटकर 1,196.2 मिलियन टन रह गया।
हालांकि, जुलाई में विश्व स्तर पर इस्पात उद्योग में पहली बार सुधार होते दिखा और उत्पादन 1000 लाख टन के ऊपर पहुंच गया और रूंगटा को लगा कि हालात अब सुधरने वाले हैं। लेकिन रूंगटा अपनी इस राय पर लंबे समय तक कायम नहीं रह सके और हाल के दिनों में इस्पात के उत्पादन और कीमतों में अनिश्चितता के मद्देनजर रूंगटा अभी भी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं कि वैश्विक स्तर पर इस्पात की कीमतों में सुधार होना शुरू हो गया है।
जुलाई में इस्पात के उत्पादन में हुई बढ़ोतरी में चीन का बहुत बडा योगदान था और कुल उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी 500 लाख टन थी। विश्व के अन्य देशों के मुकाबले चीन और भारत में इस्पात क्षेत्र में गिरावट कम रही है। बकौल रूंगटा, यह इस बात को प्रदर्शित क रता है कि चीन और भारत विश्व के विकसित देशों के मुकाबले उत्पादन और खपत दोनों दृष्टि से अलग हैं।
लेकिन सवाल पैदा होता है कि भारत और चीन में बुनियादी ढांचे के विकास, निर्माण गतिविधियों और विनिर्माण उद्योग पर अधिक से अधिक जोर दिया जा रहा है लेकिन इसके बाद भी ये दोनों देश अपने को अन्य देशों के रुझान से कैसे अलग रख सके!
पिछले वित्त वर्ष कुछ अपवाद रहा और भारत में इस्पात के होने वाले उपयोग में 1.2 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गई। भारत में बुनियादी ढांचों का तेजी से विकास हो रहा है और जनवरी 2009 तक की छह महीने की अवधि में भारत में करीब 37 बुनियादी परियोजनाओं में 70,000 करोड रु पये तक का निवेश हुआ है और इसी तरह की कुछ और परियोजनाएं सरकार से मंजूरी मिलने का इंतजार कर रही हैं।
ऑटोमोबाइल उद्योग में आ रही तेजी से रूंगटा को लगता है कि इस साल इस्पात के उपयोग में 7 फीसदी तक की तेजी आ सकती है। इसमें कोई शक नहीं है कि डब्ल्यूएसए की तुलना में रूंगटा भारत में इस्पात की मांग में आने वाली तेजी को लेकर ज्यादा आशावादी हैं। उल्लेखनीय है कि वित्त वर्ष 2008-09 से पहले ऐसे भी समय रहे हैं जब इस्पात की खपत में सालाना आधार पर 11 से 13 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है।
आर्थिक विकास के इस पडाव पर चीन के बारे में ऐसा ही कहा जा सकता है और यहां इस्पात की खपत बढ़ोतरी सकल घरेलू उत्पाद की दर से कहीं ज्यादा होगी। इस समय भारत में प्रति व्यक्ति इस्पात की खतप 44.3 किलोग्राम है, जबकि विश्व के औसत 150 किलोग्राम की तुलना में काफी क म है। चीन में प्रति व्यक्ति इस्पात की खपत 400 किलोग्राम से भी ज्यादा है।
यह बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि इस अंतर को पाटने के लिए भारत को काफी लंबी राह तय करनी पड़ेगी। इसी वजह से केंद्रीय इस्पात मंत्री वीरभद्र सिंह नए लौह-अयस्क खानों को खोले जाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं।
इस्पात मंत्री ने यह पहल ऐसे समय में की है जब इस्पात की मांग और इसकी कीमतों में बढ़ोतरी होनी शुरू हो गई है। आने वाले कुछ सप्ताहों में इस्पात निर्माता कंपनियां सपाट उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी कर सकती हैं।
आर्थिक मंदी के कारण लौह-अयस्क और कोयले की कीमतें एक साल पहले की अपेक्षा काफी कम हो गईं हैं। साथ ही इस दौरान भारत के इस्पात उद्योग में तकनीकी और आर्थिक पैमाने पर भी सुधार हुआ है।
हालांकि, रूंगटा जो वित्त वर्ष 2009-10 में 1,000 क रोड रुपये की इन्क्रीमेंटल बढ़त की उम्मीद कर रहे हैं लेकिन, उनके लिए राह इतनी आसान नहीं हो सकती है। यह समय अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने का नहीं है क्योंकि अन्य देशों के इस्पात निर्माता तकनीक और अन्य मानदंडों के मामलों में हमसे कहीं आगे चल रहे हैं। (बीएस हिन्दी)
अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वर्ष 2008 की शुरुआत से धातु और खनिज की कीमतें लगातार उछाल के साथ रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गईं।
लेकिन यह बेहतरीन दौर लंबे समय तक कायम नहीं रह सका और उसके बाद मांग और कीमतों में अचानक गिरावट आनी शुरू हो गई।
भारतीय इस्पात निगम (सेल) के अध्यक्ष सुशील रूंगटा इस बात की ओर इशारा करते हैं कि इस्पात और और इसके निर्माण में प्रयुक्त होने वाले खनिजों के उत्पादन और कीमतों में तत्काल आए बदलाव आर्थिक वातावरण में हुए उलटफेर के प्रति त्वरित प्रतिक्रिया के कारण हैं।
वर्ष 2008 की पहली छमाही में इस्पात, लोहा और कोकिंग कोल की कीमतों में काफी तेजी आई, लेकिन उसके बाद बाजार में अचानक कोहराम सा मच गया और लगभग सभी क्षेत्रों से मांग में खासी गिरावट का दौर शुरू हो गया।
वर्ष 2009 पहली दो तिमाही विश्व के इस्पात निर्माताओं के लिए अत्यंत दुखद रही और पूरे विश्व में इसके उत्पादन में 20 फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई। हालांकि, इसके बाद भी इस्पात उद्योग की समस्याएं खासकर विकसित देशों में खत्म होती नजर नहीं आ रही है।
विश्व इस्पात संगठन (डब्ल्यूएसओ) का अनुमान है कि मौजूदा साल में इस्पात के उपयोग में 13 फीसदी तक की कमी आ सकती है। पिछले साल भी मांग में 1.7 फीसदी की गिरावट आई थी और यह घटकर 1,196.2 मिलियन टन रह गया।
हालांकि, जुलाई में विश्व स्तर पर इस्पात उद्योग में पहली बार सुधार होते दिखा और उत्पादन 1000 लाख टन के ऊपर पहुंच गया और रूंगटा को लगा कि हालात अब सुधरने वाले हैं। लेकिन रूंगटा अपनी इस राय पर लंबे समय तक कायम नहीं रह सके और हाल के दिनों में इस्पात के उत्पादन और कीमतों में अनिश्चितता के मद्देनजर रूंगटा अभी भी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं कि वैश्विक स्तर पर इस्पात की कीमतों में सुधार होना शुरू हो गया है।
जुलाई में इस्पात के उत्पादन में हुई बढ़ोतरी में चीन का बहुत बडा योगदान था और कुल उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी 500 लाख टन थी। विश्व के अन्य देशों के मुकाबले चीन और भारत में इस्पात क्षेत्र में गिरावट कम रही है। बकौल रूंगटा, यह इस बात को प्रदर्शित क रता है कि चीन और भारत विश्व के विकसित देशों के मुकाबले उत्पादन और खपत दोनों दृष्टि से अलग हैं।
लेकिन सवाल पैदा होता है कि भारत और चीन में बुनियादी ढांचे के विकास, निर्माण गतिविधियों और विनिर्माण उद्योग पर अधिक से अधिक जोर दिया जा रहा है लेकिन इसके बाद भी ये दोनों देश अपने को अन्य देशों के रुझान से कैसे अलग रख सके!
पिछले वित्त वर्ष कुछ अपवाद रहा और भारत में इस्पात के होने वाले उपयोग में 1.2 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गई। भारत में बुनियादी ढांचों का तेजी से विकास हो रहा है और जनवरी 2009 तक की छह महीने की अवधि में भारत में करीब 37 बुनियादी परियोजनाओं में 70,000 करोड रु पये तक का निवेश हुआ है और इसी तरह की कुछ और परियोजनाएं सरकार से मंजूरी मिलने का इंतजार कर रही हैं।
ऑटोमोबाइल उद्योग में आ रही तेजी से रूंगटा को लगता है कि इस साल इस्पात के उपयोग में 7 फीसदी तक की तेजी आ सकती है। इसमें कोई शक नहीं है कि डब्ल्यूएसए की तुलना में रूंगटा भारत में इस्पात की मांग में आने वाली तेजी को लेकर ज्यादा आशावादी हैं। उल्लेखनीय है कि वित्त वर्ष 2008-09 से पहले ऐसे भी समय रहे हैं जब इस्पात की खपत में सालाना आधार पर 11 से 13 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है।
आर्थिक विकास के इस पडाव पर चीन के बारे में ऐसा ही कहा जा सकता है और यहां इस्पात की खपत बढ़ोतरी सकल घरेलू उत्पाद की दर से कहीं ज्यादा होगी। इस समय भारत में प्रति व्यक्ति इस्पात की खतप 44.3 किलोग्राम है, जबकि विश्व के औसत 150 किलोग्राम की तुलना में काफी क म है। चीन में प्रति व्यक्ति इस्पात की खपत 400 किलोग्राम से भी ज्यादा है।
यह बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि इस अंतर को पाटने के लिए भारत को काफी लंबी राह तय करनी पड़ेगी। इसी वजह से केंद्रीय इस्पात मंत्री वीरभद्र सिंह नए लौह-अयस्क खानों को खोले जाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं।
इस्पात मंत्री ने यह पहल ऐसे समय में की है जब इस्पात की मांग और इसकी कीमतों में बढ़ोतरी होनी शुरू हो गई है। आने वाले कुछ सप्ताहों में इस्पात निर्माता कंपनियां सपाट उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी कर सकती हैं।
आर्थिक मंदी के कारण लौह-अयस्क और कोयले की कीमतें एक साल पहले की अपेक्षा काफी कम हो गईं हैं। साथ ही इस दौरान भारत के इस्पात उद्योग में तकनीकी और आर्थिक पैमाने पर भी सुधार हुआ है।
हालांकि, रूंगटा जो वित्त वर्ष 2009-10 में 1,000 क रोड रुपये की इन्क्रीमेंटल बढ़त की उम्मीद कर रहे हैं लेकिन, उनके लिए राह इतनी आसान नहीं हो सकती है। यह समय अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने का नहीं है क्योंकि अन्य देशों के इस्पात निर्माता तकनीक और अन्य मानदंडों के मामलों में हमसे कहीं आगे चल रहे हैं। (बीएस हिन्दी)
प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का निर्यात 150 प्रतिशत बढाने का लक्ष्य
मुंबई September 25, 2009
विदेश में भारतीय खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांगों को देखते हुए भारतीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय ने अगले पांच वर्षों के दौरान प्रसंस्कृत खाद्य वस्तुओं के निर्यात में 150 फीसदी की बढ़ोतरी का लक्ष्य निर्धारित किया है।
इससे वैश्विक खाद्य बाजारों में भारत की हिस्सेदारी में 5 फीसदी की बढ़ोतरी होने की संभावना है। कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य वस्तु निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीईडीए) के तहत आने वाले प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों (ताजे और प्रसंस्कृत फल और सब्जी, पशु उत्पाद, अनाज) के उत्पादन में समय के साथ वित्त वर्ष 2008-09 में रुपये में 24 फीसदी जबकि डॉलर में 10 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
अभी जिस रफ्तार से गुणवत्ता और खाद्य प्रसंस्करण में तेजी देखी जा रही है, इसे देखते 2014-15 तक भारत का निर्यात बढ़कर 60,000 करोड रुपये का हो सकता है। लेकिन ऐसा शायद उतनी आसानी से नहीं होने जा रहा है।
खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय सचिव अशोक सिन्हा कहते हैं कि इनके विकास को बनाए रखने के लिए इस अवधि के दौरान करीब 100,000 करोड़ रुपये के निवेश की जरूरत है, लेकिन निवेशकों ने इस ओर काफी बेरुखी दिखाई है।
सिन्हा ने ठेके पर आधरित खेती (कांट्रैक्ट फार्मिंग) और कृषि में ज्यादा से ज्यादा तकनीक आधारित कार्य में कॉर्पोरेट क्षेत्र की हिस्सेदारी पर ज्यादा जोर दिया जिससे खाद्यान के उत्पादन में बढ़ोतरी होगी और आयात पर से निर्भरता कम करने में काफी मदद मिलेगी।
जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी होने की वजह से किसानों के पास कृषि योग्य भूमि काफी कम हो गई है, इसलिए उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए अच्छे उर्वरकों, कीटनाशकों और कांट्रैक्ट फार्मिंग के जरिये बीज प्रबंधन की बेहतर संभावनाएं हैं। हालांकि, यह बात भी स्वीकार करते हैं कि ऐसा करना उतना आसान नहीं हैं, लेकिन बहुत ज्यादा मुश्किल भी नहीं है।
यूबीएम इंडिया के परियोजना निदेशक बिपिन सिन्हा कहते हैं 'मौजूदा कानून कांट्रैक्ट फार्मिंग में कॉर्पोरेट जगत की भागीदारी पर खामोश है।' इसी तरह बांबे चैम्बर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष भारत दोशी का कहना है कि 2006-07 को छोड़कर जब कृषि क्षेत्र की विकास दर ने 4 फीसदी के विकास का लक्ष्य हासिल कर लिया था, सरकार उस समय से अब तक इसका आधा भी प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकी है।
दोषी कहते हैं 'मौजूदा और भविष्य में मांग की पूर्ति करने के लिए कृषि क्षेत्र में उत्पादन को बढाना निहायत ही जरूरी है। ऐसे समय में जबकि कृषि योग्य भूमि तेजी से कम हो रही है, कृषि में सही तकनीक का इस्तेमाल कर उत्पादन बढाने के साथ घाटे को भी कम किया जा सकता है।' (बीएस हिन्दी)
विदेश में भारतीय खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांगों को देखते हुए भारतीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय ने अगले पांच वर्षों के दौरान प्रसंस्कृत खाद्य वस्तुओं के निर्यात में 150 फीसदी की बढ़ोतरी का लक्ष्य निर्धारित किया है।
इससे वैश्विक खाद्य बाजारों में भारत की हिस्सेदारी में 5 फीसदी की बढ़ोतरी होने की संभावना है। कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य वस्तु निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीईडीए) के तहत आने वाले प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों (ताजे और प्रसंस्कृत फल और सब्जी, पशु उत्पाद, अनाज) के उत्पादन में समय के साथ वित्त वर्ष 2008-09 में रुपये में 24 फीसदी जबकि डॉलर में 10 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
अभी जिस रफ्तार से गुणवत्ता और खाद्य प्रसंस्करण में तेजी देखी जा रही है, इसे देखते 2014-15 तक भारत का निर्यात बढ़कर 60,000 करोड रुपये का हो सकता है। लेकिन ऐसा शायद उतनी आसानी से नहीं होने जा रहा है।
खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय सचिव अशोक सिन्हा कहते हैं कि इनके विकास को बनाए रखने के लिए इस अवधि के दौरान करीब 100,000 करोड़ रुपये के निवेश की जरूरत है, लेकिन निवेशकों ने इस ओर काफी बेरुखी दिखाई है।
सिन्हा ने ठेके पर आधरित खेती (कांट्रैक्ट फार्मिंग) और कृषि में ज्यादा से ज्यादा तकनीक आधारित कार्य में कॉर्पोरेट क्षेत्र की हिस्सेदारी पर ज्यादा जोर दिया जिससे खाद्यान के उत्पादन में बढ़ोतरी होगी और आयात पर से निर्भरता कम करने में काफी मदद मिलेगी।
जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी होने की वजह से किसानों के पास कृषि योग्य भूमि काफी कम हो गई है, इसलिए उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए अच्छे उर्वरकों, कीटनाशकों और कांट्रैक्ट फार्मिंग के जरिये बीज प्रबंधन की बेहतर संभावनाएं हैं। हालांकि, यह बात भी स्वीकार करते हैं कि ऐसा करना उतना आसान नहीं हैं, लेकिन बहुत ज्यादा मुश्किल भी नहीं है।
यूबीएम इंडिया के परियोजना निदेशक बिपिन सिन्हा कहते हैं 'मौजूदा कानून कांट्रैक्ट फार्मिंग में कॉर्पोरेट जगत की भागीदारी पर खामोश है।' इसी तरह बांबे चैम्बर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष भारत दोशी का कहना है कि 2006-07 को छोड़कर जब कृषि क्षेत्र की विकास दर ने 4 फीसदी के विकास का लक्ष्य हासिल कर लिया था, सरकार उस समय से अब तक इसका आधा भी प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकी है।
दोषी कहते हैं 'मौजूदा और भविष्य में मांग की पूर्ति करने के लिए कृषि क्षेत्र में उत्पादन को बढाना निहायत ही जरूरी है। ऐसे समय में जबकि कृषि योग्य भूमि तेजी से कम हो रही है, कृषि में सही तकनीक का इस्तेमाल कर उत्पादन बढाने के साथ घाटे को भी कम किया जा सकता है।' (बीएस हिन्दी)
नए कपास की खराब शुरुआत
नई दिल्ली September 25, 2009
कपड़ा उद्योग से फिलहाल मांग नहीं निकलने से नए कपास की कीमत पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 200-300 रुपये प्रति क्विंटल कम चल रही है।
बताया जा रहा है कि आने वाले समय में कपास का भाव चीन के उत्पादन पर निर्भर करता है। चीन के आयात करने पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ सकती है और अगर चीन अपने बफर स्टॉक का इस्तेमाल करता है तो भारत में इस साल कपास की कीमत पिछले साल के मुकाबले कम रहने की उम्मीद है।
कॉटन एडवाइजरी बोर्ड (सीएबी) के मुताबिक इस साल भारत में कपास का कुल उत्पादन 305 लाख बेल्स रहने की संभावना है। भारत में इस साल पिछले साल के मुकाबले लगभग 15 लाख बेल्स (1 बेल = 170 किलोग्राम) अधिक उत्पादन की उम्मीद की जा रही है।
2009-09 के दौरान कपास का कुल उत्पादन 290 लाख बेल्स रहा। वर्ष 2009-10 के दौरान गत साल के मुकाबले कपास का रकबा बढ़कर 96.46 लाख हेक्टेयर हो गया है। पिछले साल 94.06 लाख हेक्टेयर पर कपास की खेती की गयी थी। पंजाब, गुजरात एवं महाराष्ट्र की मंडियों में नए कपास की आवक शुरू हो गयी है।
पंजाब की फरीदकोट, भिखी, बरीवाला, धूरी, जैंत एवं अन्य मंडियों में नए कपास की आवक शुरू हो चुकी है। इन मंडियों में रोजाना 20-400 टन की आवक हो रही है। इस साल कपास की बिक्री 2400-2650 रुपये प्रति क्विंटल के बीच हो रही है। वहीं गुजरात की मंडियों में कपास का औसत बिक्री मूल्य 2600-2725 चल रहा है।
पिछले साल की समान अवधि के दौरान गुजरात में कपास की कीमत 3100-3275 रुपये प्रति क्विंटल थी। पंजाब में पिछले साल सितंबर के तीसरे सप्ताह में कपास के औसत भाव 2750-2950 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे थे। यानी कि इस साल के मुकाबले यह कीमत 300 रुपये प्रति क्विंटल अधिक थी।
कपड़ा उद्योग के जानकारों के मुताबिक इस साल फिलहाल उद्योग की तरफ से कपास की मांग पिछले साल के मुकाबले कम चल रही है, लेकिन अक्टूबर मध्य के बाद से कपास की मांग में 10 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है।
कनफेडरेशन ऑफ टेक्सटाइल इंडस्ट्री के महासचिव डीके नायर कहते हैं, 'फिलहाल कपास की कीमत को लेकर किसी प्रकार का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि अभी ऐसा करना जल्दीबाजी होगी। साथ ही इस साल चीन में उत्पादन पिछले साल के मुकाबले कम है ऐसे में चीन के आयात करने या नहीं करने की नीति पर भारतीय कपास की तेजी या बढ़ोतरी निर्भर करेगी।' चीन विश्व में कपास का सबसे बड़ा उत्पादक एवं उपभोक्ता देश है।
कीमतों में कमी
मांग में कमी और उत्पादन में बढ़ोतरी से कपास की कीमत पिछले साल के मुकाबले 300 रुपये प्रति क्विंटल कमचीन के आयात करने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ सकती हैं कीमतेंभारत में कपास का कुल उत्पादन 305 लाख गांठ रहने का अनुमान (बीएस हिन्दी)
कपड़ा उद्योग से फिलहाल मांग नहीं निकलने से नए कपास की कीमत पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 200-300 रुपये प्रति क्विंटल कम चल रही है।
बताया जा रहा है कि आने वाले समय में कपास का भाव चीन के उत्पादन पर निर्भर करता है। चीन के आयात करने पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ सकती है और अगर चीन अपने बफर स्टॉक का इस्तेमाल करता है तो भारत में इस साल कपास की कीमत पिछले साल के मुकाबले कम रहने की उम्मीद है।
कॉटन एडवाइजरी बोर्ड (सीएबी) के मुताबिक इस साल भारत में कपास का कुल उत्पादन 305 लाख बेल्स रहने की संभावना है। भारत में इस साल पिछले साल के मुकाबले लगभग 15 लाख बेल्स (1 बेल = 170 किलोग्राम) अधिक उत्पादन की उम्मीद की जा रही है।
2009-09 के दौरान कपास का कुल उत्पादन 290 लाख बेल्स रहा। वर्ष 2009-10 के दौरान गत साल के मुकाबले कपास का रकबा बढ़कर 96.46 लाख हेक्टेयर हो गया है। पिछले साल 94.06 लाख हेक्टेयर पर कपास की खेती की गयी थी। पंजाब, गुजरात एवं महाराष्ट्र की मंडियों में नए कपास की आवक शुरू हो गयी है।
पंजाब की फरीदकोट, भिखी, बरीवाला, धूरी, जैंत एवं अन्य मंडियों में नए कपास की आवक शुरू हो चुकी है। इन मंडियों में रोजाना 20-400 टन की आवक हो रही है। इस साल कपास की बिक्री 2400-2650 रुपये प्रति क्विंटल के बीच हो रही है। वहीं गुजरात की मंडियों में कपास का औसत बिक्री मूल्य 2600-2725 चल रहा है।
पिछले साल की समान अवधि के दौरान गुजरात में कपास की कीमत 3100-3275 रुपये प्रति क्विंटल थी। पंजाब में पिछले साल सितंबर के तीसरे सप्ताह में कपास के औसत भाव 2750-2950 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे थे। यानी कि इस साल के मुकाबले यह कीमत 300 रुपये प्रति क्विंटल अधिक थी।
कपड़ा उद्योग के जानकारों के मुताबिक इस साल फिलहाल उद्योग की तरफ से कपास की मांग पिछले साल के मुकाबले कम चल रही है, लेकिन अक्टूबर मध्य के बाद से कपास की मांग में 10 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है।
कनफेडरेशन ऑफ टेक्सटाइल इंडस्ट्री के महासचिव डीके नायर कहते हैं, 'फिलहाल कपास की कीमत को लेकर किसी प्रकार का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि अभी ऐसा करना जल्दीबाजी होगी। साथ ही इस साल चीन में उत्पादन पिछले साल के मुकाबले कम है ऐसे में चीन के आयात करने या नहीं करने की नीति पर भारतीय कपास की तेजी या बढ़ोतरी निर्भर करेगी।' चीन विश्व में कपास का सबसे बड़ा उत्पादक एवं उपभोक्ता देश है।
कीमतों में कमी
मांग में कमी और उत्पादन में बढ़ोतरी से कपास की कीमत पिछले साल के मुकाबले 300 रुपये प्रति क्विंटल कमचीन के आयात करने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ सकती हैं कीमतेंभारत में कपास का कुल उत्पादन 305 लाख गांठ रहने का अनुमान (बीएस हिन्दी)
प्राकृतिक रबर का आयात अब नहीं मुनाफे का कारोबार
कोच्चि September 25, 2009
प्राकृतिक रबर के स्थानीय और वैश्विक कीमतों में भारी अंतर अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि अस्थायी रूप से भारत के बाजारों में रबर के आयात में बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
आरएसएस-4 ग्रेड रबर की कोच्चि बाजार में कीमतें बुधवार को 106.50 रुपये प्रति किलो रहीं, जबकि रबर की यही किस्म अंतरराष्ट्रीय बाजारों में 105.75 रुपये प्रति किलो रही। इस साल अप्रैल-अगस्त के दौरान रबर की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कीमतों में भारी अंतर की वजह से बड़े पैमाने पर आयात हुआ।
5 महीनों के दौरान कुल 98,946 टन रबर का आयात हुआ, जबकि पिछले साल की समान अवधि में 27,722 टन रबर का आयात हुआ था। 18 सितंबर तक रबर का कुल आयात 107,800 टन रहा था। अप्रैल जुलाई के दौरान कीमतों में भारी अंतर ही आयात में बढ़ोतरी की प्रमुख वजह रही। कीमतों में बढ़ोतरी की वजह से रबर का आयात बढ़कर तीन गुना हो गया।
अप्रैल महीने में घरेलू कीमतों का औसत 95 रुपये रहा जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में औसत कीमतें 81 रुपये प्रति किलो रहीं। इसी तरह से मई महीने में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें 98 और 83 रुपये तथा जून महीने में कीमतें क्रमश: 99 और 81 रुपये प्रति किलो रहीं।
जुलाई महीने में कोच्चि में औसत कीमतें 98 रुपये और वैश्विक औसत कीमतें 85 रुपये किलो रहीं। अगस्त महीने से कीमतों में अंतर घटने लगा और अब यह अंतर घटकर महज 0.75 रुपये प्रति किलो रह गया है, जो आयात के लिहाज से बेहतर नहीं है।
बहरहाल एसएमआर-20 किस्म की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़कर 100 रुपये प्रति किलो हो गई हैं, वहीं स्थानीय बाजारों में यह 96 रुपये प्रति किलो के हिसाब से उपलब्ध है। एसएमआर-20 किस्म की रबर का बड़े पैमाने पर आयात की प्रमुख वजह यह रही कि पहले अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें स्थानीय बाजार की तुलना में कम थीं और आयात सस्ता पड़ रहा था।
अब स्थिति बदलने पर उद्योग जगत के लिए आयात बेहतर नहीं रह गया है। रबर उद्योग सामान्यतया अग्रिम लाइसेंस योजना के अंतर्गत शुल्क मुक्त आयात करता है। रबर आधारित उद्योगों को करीब 125,000 टन सालाना रबर का शुल्क मुक्त आयात करने की सुविधा है। इसका 90 प्रतिशत उपयोग पहले ही किया जा चुका है।
अब विकल्प यह है कि कुल आयात का करीब 20 प्रतिशत आयात ही शुल्क मुक्त आयात की सुविधा के तहत किया जा सकता है। लेकिन कीमतों के वर्तमान स्तर पर यह आयात करना भी सुविधाजनक नहीं है। इसे देखते हुए रबर उत्पादक इस साल आयात में बढ़ोतरी की संभावना नहीं देख रहे हैं।
केरल में रबर उत्पादन का मौसम महज 2 सप्ताह बाद शुरू होने जा रहा है और उम्मीद की जा रही है कि अक्टूबर-दिसंबर के दौरान कीमतों में और गिरावट आएगी। इस महीने के दौरान कुल उत्पादन का करीब 45 प्रतिशत उत्पादन होता है। आपूर्ति बढ़ने के साथ कीमतों में गिरावट के अनुमान हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उद्योग जगत कीमतों में गिरावट के इंतजार में धीमी खरीद करेगा।
इस समय कंपनियों के पास पर्याप्त भंडार है, जिसकी वजह से वे मुख्य उत्पादन सत्र में बहुत ज्यादा खरीदारी करने के मूड में नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में बढ़ोतरी और घरेलू उत्पादन बढ़ने से उम्मीद की जा रही है कि आयात में कमी आएगी।
घट गया कीमतों में अंतर
माह घरेलू अंतरराष्ट्रीय अप्रैल 95 81मई 98 83जून 99 81जुलाई 98 85अगस्त 106।50 105.75कीमतें रुपये प्रति किलो में (बीएस हिन्दी)
प्राकृतिक रबर के स्थानीय और वैश्विक कीमतों में भारी अंतर अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि अस्थायी रूप से भारत के बाजारों में रबर के आयात में बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
आरएसएस-4 ग्रेड रबर की कोच्चि बाजार में कीमतें बुधवार को 106.50 रुपये प्रति किलो रहीं, जबकि रबर की यही किस्म अंतरराष्ट्रीय बाजारों में 105.75 रुपये प्रति किलो रही। इस साल अप्रैल-अगस्त के दौरान रबर की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कीमतों में भारी अंतर की वजह से बड़े पैमाने पर आयात हुआ।
5 महीनों के दौरान कुल 98,946 टन रबर का आयात हुआ, जबकि पिछले साल की समान अवधि में 27,722 टन रबर का आयात हुआ था। 18 सितंबर तक रबर का कुल आयात 107,800 टन रहा था। अप्रैल जुलाई के दौरान कीमतों में भारी अंतर ही आयात में बढ़ोतरी की प्रमुख वजह रही। कीमतों में बढ़ोतरी की वजह से रबर का आयात बढ़कर तीन गुना हो गया।
अप्रैल महीने में घरेलू कीमतों का औसत 95 रुपये रहा जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में औसत कीमतें 81 रुपये प्रति किलो रहीं। इसी तरह से मई महीने में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें 98 और 83 रुपये तथा जून महीने में कीमतें क्रमश: 99 और 81 रुपये प्रति किलो रहीं।
जुलाई महीने में कोच्चि में औसत कीमतें 98 रुपये और वैश्विक औसत कीमतें 85 रुपये किलो रहीं। अगस्त महीने से कीमतों में अंतर घटने लगा और अब यह अंतर घटकर महज 0.75 रुपये प्रति किलो रह गया है, जो आयात के लिहाज से बेहतर नहीं है।
बहरहाल एसएमआर-20 किस्म की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़कर 100 रुपये प्रति किलो हो गई हैं, वहीं स्थानीय बाजारों में यह 96 रुपये प्रति किलो के हिसाब से उपलब्ध है। एसएमआर-20 किस्म की रबर का बड़े पैमाने पर आयात की प्रमुख वजह यह रही कि पहले अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें स्थानीय बाजार की तुलना में कम थीं और आयात सस्ता पड़ रहा था।
अब स्थिति बदलने पर उद्योग जगत के लिए आयात बेहतर नहीं रह गया है। रबर उद्योग सामान्यतया अग्रिम लाइसेंस योजना के अंतर्गत शुल्क मुक्त आयात करता है। रबर आधारित उद्योगों को करीब 125,000 टन सालाना रबर का शुल्क मुक्त आयात करने की सुविधा है। इसका 90 प्रतिशत उपयोग पहले ही किया जा चुका है।
अब विकल्प यह है कि कुल आयात का करीब 20 प्रतिशत आयात ही शुल्क मुक्त आयात की सुविधा के तहत किया जा सकता है। लेकिन कीमतों के वर्तमान स्तर पर यह आयात करना भी सुविधाजनक नहीं है। इसे देखते हुए रबर उत्पादक इस साल आयात में बढ़ोतरी की संभावना नहीं देख रहे हैं।
केरल में रबर उत्पादन का मौसम महज 2 सप्ताह बाद शुरू होने जा रहा है और उम्मीद की जा रही है कि अक्टूबर-दिसंबर के दौरान कीमतों में और गिरावट आएगी। इस महीने के दौरान कुल उत्पादन का करीब 45 प्रतिशत उत्पादन होता है। आपूर्ति बढ़ने के साथ कीमतों में गिरावट के अनुमान हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उद्योग जगत कीमतों में गिरावट के इंतजार में धीमी खरीद करेगा।
इस समय कंपनियों के पास पर्याप्त भंडार है, जिसकी वजह से वे मुख्य उत्पादन सत्र में बहुत ज्यादा खरीदारी करने के मूड में नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में बढ़ोतरी और घरेलू उत्पादन बढ़ने से उम्मीद की जा रही है कि आयात में कमी आएगी।
घट गया कीमतों में अंतर
माह घरेलू अंतरराष्ट्रीय अप्रैल 95 81मई 98 83जून 99 81जुलाई 98 85अगस्त 106।50 105.75कीमतें रुपये प्रति किलो में (बीएस हिन्दी)
मसालों के निर्यात को लगा आघात
कोच्चि September 25, 2009
मसाले के निर्यात में गिरावट बदस्तूर जारी है और चालू वित्त वर्ष की अप्रैल से अगस्त की अवधि में पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 10 फीसदी की गिरावट आई है।
साथ ही निर्यात से प्राप्त होने वाली रकम में भी 9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। हालांकि, अप्रैल और जुलाई की अवधि में निर्यात के लिहाज से स्थिति कुछ सुधरी है, क्योंकि इस दौरान कारोबार की मात्रा में 14 फीसदी की गिरावट आई है, जबकि इससे प्राप्त होने वाली रकम में 10 फीसदी की गिरावट आई है।
मसाला बोर्ड के ताजा आंकडाें के अनुसार भारत 2090.57 करोड रुपये मूल्य के 201,410 टन निर्यात लक्ष्य को हासिल कर सकता है। अगस्त में निर्यात की मात्रा में मामूली बढ़ोतरी हुई है और पिछले साल अगस्त के 32,880 टन की अपेक्षा यह 34,025 टन रही जो 3.5 फीसदी की बढ़ोतरी को दर्शाता है।
हालांकि, निर्यात मूल्य में 7.7 फीसदी की गिरावट आई है। जुलाई 2009 की तुलना में अगस्त में प्रदर्शन दयनीय रहा है। जुलाई में 460.73 करोड रुपये मूल्य के 40,625 टन मसाले का निर्यात हुआ। इस महीने के दौरान इलायची, हल्दी, आदि के निर्यात में तेजी देखी गई।
अप्रैल-अगस्त के दौरान 126.94 करोड रुपये मूल्य की 8,250 टन काली मिर्च का निर्यात हुआ, जबकि पिछले साल की इसी अवधि के दौरान 187.60 करोड रुपये मूल्य की 11,000 काली मिर्च का निर्यात हुआ था। इस अवधि के दौरान अमेरिका, यूरोपीय देशों को होने वाली काली मिर्च के निर्यात में अप्रैल-अगस्त 2008 के मुकाबले गिरावट आई है।
मिर्च के निर्यात में भी कमी आई है और यह पिछले साल के 96,250 टन के मुकाबले घटकर 67,500 टन रह गया है। हल्दी के निर्यात की बात करें तो अप्रैल-अगस्त 2009 में 165.68 करोड़ रुपये मूल्य की 25,500 टन हल्दी का निर्यात हुआ जबकि पिछले साल की समान अवधि में 190.64 करोड रुपये मूल्य की 24,875 टन हल्दी का निर्यात हुआ था।
लहसुन के निर्यात में तेजी आई और और पिछले साल की समान अवधि के 1।54 करोड रुपये मूल्य के 485 टन के मुकाबले 4.91 करोड़ रुपये मूल्य के 2,350 टन लहसुन का निर्यात हुआ। (बी स हिन्दी)
मसाले के निर्यात में गिरावट बदस्तूर जारी है और चालू वित्त वर्ष की अप्रैल से अगस्त की अवधि में पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 10 फीसदी की गिरावट आई है।
साथ ही निर्यात से प्राप्त होने वाली रकम में भी 9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। हालांकि, अप्रैल और जुलाई की अवधि में निर्यात के लिहाज से स्थिति कुछ सुधरी है, क्योंकि इस दौरान कारोबार की मात्रा में 14 फीसदी की गिरावट आई है, जबकि इससे प्राप्त होने वाली रकम में 10 फीसदी की गिरावट आई है।
मसाला बोर्ड के ताजा आंकडाें के अनुसार भारत 2090.57 करोड रुपये मूल्य के 201,410 टन निर्यात लक्ष्य को हासिल कर सकता है। अगस्त में निर्यात की मात्रा में मामूली बढ़ोतरी हुई है और पिछले साल अगस्त के 32,880 टन की अपेक्षा यह 34,025 टन रही जो 3.5 फीसदी की बढ़ोतरी को दर्शाता है।
हालांकि, निर्यात मूल्य में 7.7 फीसदी की गिरावट आई है। जुलाई 2009 की तुलना में अगस्त में प्रदर्शन दयनीय रहा है। जुलाई में 460.73 करोड रुपये मूल्य के 40,625 टन मसाले का निर्यात हुआ। इस महीने के दौरान इलायची, हल्दी, आदि के निर्यात में तेजी देखी गई।
अप्रैल-अगस्त के दौरान 126.94 करोड रुपये मूल्य की 8,250 टन काली मिर्च का निर्यात हुआ, जबकि पिछले साल की इसी अवधि के दौरान 187.60 करोड रुपये मूल्य की 11,000 काली मिर्च का निर्यात हुआ था। इस अवधि के दौरान अमेरिका, यूरोपीय देशों को होने वाली काली मिर्च के निर्यात में अप्रैल-अगस्त 2008 के मुकाबले गिरावट आई है।
मिर्च के निर्यात में भी कमी आई है और यह पिछले साल के 96,250 टन के मुकाबले घटकर 67,500 टन रह गया है। हल्दी के निर्यात की बात करें तो अप्रैल-अगस्त 2009 में 165.68 करोड़ रुपये मूल्य की 25,500 टन हल्दी का निर्यात हुआ जबकि पिछले साल की समान अवधि में 190.64 करोड रुपये मूल्य की 24,875 टन हल्दी का निर्यात हुआ था।
लहसुन के निर्यात में तेजी आई और और पिछले साल की समान अवधि के 1।54 करोड रुपये मूल्य के 485 टन के मुकाबले 4.91 करोड़ रुपये मूल्य के 2,350 टन लहसुन का निर्यात हुआ। (बी स हिन्दी)
अमेरिका में आर्थिक मंदी से इस बार दिवाली पर काजू सस्ता
भले ही ड्राईफ्रूट की दिवाली के लिए मांग जोर पकड़ने लगी है और इस वजह से बीते दस दिनों के दौरान इसके भाव सात फीसदी तक बढ़ चुके हैं। लेकिन अमेरिका में मंदी के चलते निर्यात हल्का रहने से काजू के भाव इस साल दिवाली पर पिछले साल से कम हैं। हालांकि कारोबारियों के अनुसार आने वाले दिनों में इसकी कीमतों में और इजाफा हो सकता है।ड्राईफ्रूट बाजार में बादाम कैलिफोर्निया के दाम 340 रुपये से बढ़कर 360 रुपये प्रति किलो, काजू (करनाल 240) के दाम 360 रुपये से बढ़कर 385 रुपये प्रति किलो हो चुके हैं। वहीं पिस्ता डोडी ईरानी के दाम 40 रुपये बढ़कर 650 रुपये प्रति किलो हो गए हैं। बाजार में किशमिश 90-180 रुपये प्रति किलो बिक रही हैं। खारी बावली सर्व व्यापार महासंघ के सचिव ऋषि मंगला ने बिजनेस भास्कर को बताया कि दिवाली के त्योहार के लिए खुदरा कारोबारियों ने ड्राईफ्रूट की खरीदारी तेज कर दी है। इस वजह से बीते दस दिनों के दौरान इसके मूल्यों में सात फीसदी तक का इजाफा हुआ है। कारोबारियों के अनुसार पिछली दिवाली के मुकाबले काजू इस बार सस्ता बिक रहा है। पिछली दिवाली पर इसके भाव 450 रुपये प्रति क्विंटल तक चले गए थे। निर्यात में कमी होने के कारण काजू की घरेलू बाजार में उपलब्धता ज्यादा है। वहीं आरके ओवरसीज के मालिक रविंदर कुमार अग्रवाल का कहना है कि आने वाले दिनों में इसके मूल्यों में और इजाफा हो सकता है। उनके अनुसार उपहार के रूप में ड्राईफ्रूट देने का चलन भी अब बढ़ने लगा है। उल्लेखनीय है कि कारोबारियों द्वारा बीते दिनों में त्योहारों के लिए स्टॉक करने की वजह से इसकी कीमतों में बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन रक्षाबंधन, गणोश चतुर्थी आदि त्योहार खत्म होने के बाद ड्राईफ्रूट की कीमतों में नरमी आई थी। अब फिर से मांग बढ़ने के कारण इसकी कीमतों में तेजी आई है। आर्थिक संकट के चलते जुलाई के दौरान काजूनिर्यात में 16 फीसदी तक की गिरावट आई थी। काजू का सबसे अधिक निर्यात संयुक्त राज्य अमेरिका को किया जाता है। इस बार अमेरिका में आर्थिक मंदी के कारण इसका निर्यात कम हुआ है। देश में वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान 6.9 लाख टन काजू करनाल का उत्पादन हुआ है। पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले यह चार फीसदी अधिक है। खारी बावली मंडी ड्राईफ्रूट का देश में सबसे बड़ा बाजार है। इस बाजार में ड्राईफ्रूट का करीब 1000 करोड़ रुपये का सालाना कारोबार किया जाता है। देश में बादाम और पिस्ता अमेरिका, ईरान और अफगानिस्तान से आयात किया जाता है जबकि देश में केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र उड़ीसा और गोवा में काजू का उत्पादन किया जाता है। देश में किशमिश का उत्पादन नासिक में होता है। (बिज़नस भास्कर)
फिर से चमकने लगी है सूरत की डायमंड इंडस्ट्री
अहमदाबाद : आर्थिक तंगी में ग्राहकों के खर्च घटाने से सूरत के हीरा उद्योग में जिन लोगों की नौकरियां गई थीं, उन्हें रोशनी की किरण नजर आ रही है। हीरों की खरीदारी एक बार फिर से पटरी पर लौटती नजर आ रही है, जिससे हीरा पॉलिश करने वाले कारीगरों के चेहरे खिल उठे हैं। यह अलग बात है कि उन्हें अब पहले से ज्यादा घंटे काम करना पड़ रहा है। इसके साथ ही उन्हें लंबी त्योहारी छुट्टियों की कुर्बानी भी देनी पड़ रही है। दिसंबर में गांधीनगर जिले के रूपल गांव के किरन पटेल की नौकरी चली गई थी। उनके पास अब नई नौकरी है जिसमें उनका मासिक वेतन 7,000 रुपए है। हीरा पॉलिश करने की इस नौकरी में उन्हें पहले छूटी नौकरी के मुकाबले 1,000 रुपए ज्यादा मिल रहे हैं।
यहां उन्हें बोनस भी मिल रहा है जिससे वह पटाखों और मिठाई पर ज्यादा खर्च कर सकते हैं। पटेल काम के घंटे बढ़ने और इस दीवाली पर आधी छुट्टियां मिलने का कतई विरोध नहीं कर रहे हैं। गौरतलब है कि दुनिया भर की सरकारों ने अपनी अर्थव्यवस्था को महामंदी से बचाने के लिए लाखों करोड़ों डॉलर खर्च कर दिए। इससे आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट की रफ्तार थमी है और ग्राहक बाजार आने लगे हैं। इससे मंदी में बेरोजगार हुए लोगों के लिए रोजगार के नए मौके बन रहे हैं। सूरत डायमंड एसोसिएशन के प्रेसिडेंट रोहित मेहता बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में हीरे की मांग अप्रैल के मुकाबले लगभग 25 फीसदी बढ़ी है। दरअसल, न्यूयार्क और एंटवर्प की दुकानें क्रिसमस पर अमीर ग्राहकों की जेब से अपना हिस्सा निकालने की जुगत में लग गई हैं। इसको देखते हुए गांधीनगर में 'वैकेंसी' के बोर्ड नजर आने लगे हैं। अमेरिका, यूरोप, खाड़ी देश और चीन से ऑर्डर आने लगे हैं लेकिन इस बार 2007-08 के मुकाबले काफी कम होगा। तब कुल 65,000 करोड़ रुपए के जेम्स एंड ज्वेलरी का निर्यात हुआ था, जिसमें 40,000 करोड़ रुपए के हीरे शामिल थे। टीपू जेम्स के एमडी दिनेश नवाडिया कहते हैं, 'पॉलिश्ड हीरों की अच्छी-खासी मांग है। इस बार हमने सिर्फ 15 दिन की छुट्टी देने का फैसला किया है।' पहले कारीगर महीने भर की छुट्टी पर जाया करते थे। बाजार की मौजूदा चाल पिछले साल एक लॉबी ग्रुप की और बिना तराशा हीरा नहीं मंगाने की अपील के उलट है। सूरत में बिना तराशे हीरों को पॉलिश कर विदेश भेजा जाता है। हीरा नहीं मंगाने की अपील की वजह जरूरत से ज्यादा स्टॉक जमा होने से रोकना था। पिछले साल त्योहारी मौसम में हीरा पॉलिश करने वाली सैकड़ों इकाइयां बंद हो गई थीं और कारीगर सड़क पर आ गए थे। जेम्स एंड ज्वेलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल के मुताबिक, पहले 7 महीने में पॉलिश्ड हीरों का निर्यात 27 फीसदी घटकर 6।7 अरब डॉलर रह गया है। लेकिन, अगस्त में गिरावट की रफ्तार घटकर 24 फीसदी रह गई। पॉलिश्ड हीरों की मांग घटने के चलते जनवरी से जुलाई के बीच बिना तराशे हीरों का आयात 52 फीसदी घटकर 3 अरब डॉलर रह गया। नौकरियां मिलने से कारीगर अब घर पर कम और काम पर ज्यादा वक्त बिताने से गुरेज नहीं कर रहे। पटेल जैसे लोग अब 5 बजे सुबह से शाम 8 बजे तक 15 घंटे काम कर रहे हैं। लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया होने के चलते नौकरियों पर आफत आने से पहले तक वे 8 बजे सुबह से शाम 8 बजे तक 12 घंटे काम करते थे। नवाडिया बताते हैं, 'कारीगरों को पिछले साल काफी तकलीफ उठानी पड़ी। इसलिए इस साल वे कम छुट्टियों पर खुशी-खुशी राजी हो गए हैं।' (ई टी हिन्दी)
यहां उन्हें बोनस भी मिल रहा है जिससे वह पटाखों और मिठाई पर ज्यादा खर्च कर सकते हैं। पटेल काम के घंटे बढ़ने और इस दीवाली पर आधी छुट्टियां मिलने का कतई विरोध नहीं कर रहे हैं। गौरतलब है कि दुनिया भर की सरकारों ने अपनी अर्थव्यवस्था को महामंदी से बचाने के लिए लाखों करोड़ों डॉलर खर्च कर दिए। इससे आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट की रफ्तार थमी है और ग्राहक बाजार आने लगे हैं। इससे मंदी में बेरोजगार हुए लोगों के लिए रोजगार के नए मौके बन रहे हैं। सूरत डायमंड एसोसिएशन के प्रेसिडेंट रोहित मेहता बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में हीरे की मांग अप्रैल के मुकाबले लगभग 25 फीसदी बढ़ी है। दरअसल, न्यूयार्क और एंटवर्प की दुकानें क्रिसमस पर अमीर ग्राहकों की जेब से अपना हिस्सा निकालने की जुगत में लग गई हैं। इसको देखते हुए गांधीनगर में 'वैकेंसी' के बोर्ड नजर आने लगे हैं। अमेरिका, यूरोप, खाड़ी देश और चीन से ऑर्डर आने लगे हैं लेकिन इस बार 2007-08 के मुकाबले काफी कम होगा। तब कुल 65,000 करोड़ रुपए के जेम्स एंड ज्वेलरी का निर्यात हुआ था, जिसमें 40,000 करोड़ रुपए के हीरे शामिल थे। टीपू जेम्स के एमडी दिनेश नवाडिया कहते हैं, 'पॉलिश्ड हीरों की अच्छी-खासी मांग है। इस बार हमने सिर्फ 15 दिन की छुट्टी देने का फैसला किया है।' पहले कारीगर महीने भर की छुट्टी पर जाया करते थे। बाजार की मौजूदा चाल पिछले साल एक लॉबी ग्रुप की और बिना तराशा हीरा नहीं मंगाने की अपील के उलट है। सूरत में बिना तराशे हीरों को पॉलिश कर विदेश भेजा जाता है। हीरा नहीं मंगाने की अपील की वजह जरूरत से ज्यादा स्टॉक जमा होने से रोकना था। पिछले साल त्योहारी मौसम में हीरा पॉलिश करने वाली सैकड़ों इकाइयां बंद हो गई थीं और कारीगर सड़क पर आ गए थे। जेम्स एंड ज्वेलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल के मुताबिक, पहले 7 महीने में पॉलिश्ड हीरों का निर्यात 27 फीसदी घटकर 6।7 अरब डॉलर रह गया है। लेकिन, अगस्त में गिरावट की रफ्तार घटकर 24 फीसदी रह गई। पॉलिश्ड हीरों की मांग घटने के चलते जनवरी से जुलाई के बीच बिना तराशे हीरों का आयात 52 फीसदी घटकर 3 अरब डॉलर रह गया। नौकरियां मिलने से कारीगर अब घर पर कम और काम पर ज्यादा वक्त बिताने से गुरेज नहीं कर रहे। पटेल जैसे लोग अब 5 बजे सुबह से शाम 8 बजे तक 15 घंटे काम कर रहे हैं। लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया होने के चलते नौकरियों पर आफत आने से पहले तक वे 8 बजे सुबह से शाम 8 बजे तक 12 घंटे काम करते थे। नवाडिया बताते हैं, 'कारीगरों को पिछले साल काफी तकलीफ उठानी पड़ी। इसलिए इस साल वे कम छुट्टियों पर खुशी-खुशी राजी हो गए हैं।' (ई टी हिन्दी)
थाईलैंड खरीदेगा 35 हजार टन सोयामील
भारत थाईलैंड को 35 हजार टन सोयामील बेचेगा। यह सोयामील नवंबर में भेजा जाएगा। भारत सिंगापुर को तकरीबन 390 डॉलर प्रति टन के भाव पर सोयामील दो सौदों के तहत भेजेगा। उधर, मलेशिया अक्टूबर-नवंबर शिपमेंट के लिए 25 हजार टन अमेरिकी सोयामील की खरीद करेगा। इसकी कीमत 410 से 420 डॉलर प्रति टन आंकी गई है। सिंगापुर में अंतरराष्ट्रीय ट्रेडिंग कंपनी से जुड़े एक मार्केटिंग मैनेजर ने कहा कि वे कीमतों के बारे में निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन कीमत 410 से 420 डॉलर प्रति टन रह सकती है। उन्होंने कहा कि ये कीमत बहुत ज्यादा नहीं हैं जबकि सभी हलकों में यह उम्मीद की जा रही थी कि भारतीय सोयामील की कीमतों में कमी आएगी। उल्लेखनीय है कि भारतीय सोयामील की हाजिर कीमत में 10 फीसदी की गिरावट आई थी और यह 375 डॉलर के स्तर पर आ गई थी। इस बीच, इंडोनेशिया ने गेहूं के आयात का संकेत दिया है। इस गेहूं की डिलीवरी दिसंबर में होगी। व्यापारियों ने बताया कि ऑस्ट्रेलिया दक्षिण पूर्व एशिया को दिसंबर शिपमेंट के लिए 275 डॉलर प्रति टन की कीमत पर गेहूं उपलब्ध कराएगा। यह बीते हफ्ते की तुलना में 15 डॉलर प्रति टन अधिक है। अमेरिका में गेहूं की कीमतों में 10 रुपये प्रति टन की वृद्धि हुई है। व्यापारियों का कहना है कि मलेशिया और इंडोनेशिया गेहूं की खरीद दिसंबर में करेंगे। सिंगापुर में एक व्यापारी ने कहा कि इसके लिए अगले हफ्ते में डील की जाएगी। उन्होंने कहा कि मलेशिया को दिसंबर में एक लाख टन गेहूं और इंडोनेशिया को दो लाख टन गेहूं की आवश्यकता है।ताईवान फ्लोर मिल्स एसोसिएशन ने अमेरिका से 38,170 टन गेहूं का आयात करने के लिए एक समझौता किया है। उधर, मलेशिया और इंडोनेशिया में ईद-उल-फितर के त्योहार के कारण मक्का के सौदे हो रहे हैं। मलेशिया अपने घरेलू मांगों की पूर्ति के लिए ब्राजील से मक्के का आयात किया है। (बिज़नस भास्कर)
उत्तर प्रदेश और आंध्र में मक्का की पैदावार घटने की आशंका
बुवाई में कमी और मानसून की बेरुखी से उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश के मक्का उत्पादन में करीब 20-25 फीसदी की कमी आने की आशंका है। आंध्र प्रदेश में मक्का की बुवाई 1।03 लाख हैक्टेयर और उत्तर प्रदेश में 0।79 लाख हैक्टेयर घटी है। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार उत्तर प्रदेश में लगभग 40 फीसदी तथा आंध्र प्रदेश में 33 फीसदी कम बारिश हुई है।उत्तर प्रदेश कृषि मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार चालू खरीफ सीजन में राज्य में मक्का की बुवाई 7.92 लाख हैक्टेयर में ही हुई है जबकि पिछले साल की समान अवधि में इसकी बुवाई 8.71 लाख हैक्टेयर में हुई थी। मक्का उत्पादक क्षेत्रों में बारिश करीब 40 फीसदी कम हुई है। इसलिए मक्का के उत्पादन में करीब 20-25 फीसदी कमी आने की आशंका है। उत्पादक मंडियों में नई फसल की आवक शुरू हो चुकी है तथा अक्टूबर महीने के प्रथम पखवाड़े तक आवक का दबाव बन जाएगा। उत्पादक मंडियों में मक्का के भाव 840-850 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं। राज्य की कासगंज मंडी स्थित मैसर्स राधेश्याम राजकुमार के प्रोपराइटर अरुण बंसल ने बताया कि आगामी दिनों में पोल्ट्री फीड निर्माताओं के साथ स्टार्च निर्माताओं की मांग भी निकलेगी। पैदावार में कमी की आशंका से मक्का की मौजूदा कीमतों में गिरावट की संभावना नहीं है। दिल्ली बाजार में उत्तर प्रदेश की मक्का के भाव 990-1000 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं।आंध्र प्रदेश कृषि विभाग के अनुसार चालू सीजन में राज्य में मक्का की बुवाई में करीब 1.03 लाख हैक्टेयर की कमी आई है। चालू खरीफ सीजन में राज्य में मक्का की बुवाई 4.02 लाख हैक्टेयर में ही हुई है जबकि पिछले साल 5.05 लाख हैक्टेयर में हुई थी। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार आंध्र प्रदेश में मानसून बारिश करीब 33 फीसदी कम हुई है। ऐसे में राज्य में मक्का उत्पादन में करीब 35 फीसदी कमी आने की आशंका है। राज्य की निजामाबाद मंडी में मक्का की दैनिक आवक करीब 7000 बोरियों की हो रही है। पोल्ट्री फीड निर्माताओं की मांग से मक्का के भाव 880 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं। अमेरिकी ग्रेन काउंसिल के भारत में प्रतिनिधि अमित सचदेव के बताया कि उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश की मंडियों में नई फसल की आवक शुरू हो चुकी है। कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की मंडियों में नई फसल की आवक अक्टूबर के मध्य तक बनेगी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में मक्का के भाव 210 डॉलर प्रति टन चल रहे हैं। भारतीय मक्का के भाव बंदरगाह पहुंच 230 डॉलर प्रति टन हैं इसलिए भारत से निर्यात इस साल भी काफी कम रहेगा। कृषि मंत्रालय द्वारा जारी चौथे अग्रिम अनुमान के मुताबिक वर्ष 2008-09 में खरीफ सीजन में मक्का का उत्पादन 139 लाख टन होने का अनुमान है। वर्ष 2007-08 में मक्का का उत्पादन 151 लाख टन का हुआ था। वर्ष 2009-10 विपणन सीजन के लिए केंद्र सरकार ने मक्का का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 840 रुपये प्रति क्विंटल पिछले साल के बराबर ही रखा है। rana@businessbhaskar.net (बिज़नस भास्कर)
डॉलर की मजबूती की खबर सुन पीला पड़ा सोना
नई दिल्ली : स्टॉकिस्टों की जोरदार बिकवाली के कारण शुक्रवार को सोने में जबरदस्त गिरावट देखने को मिली। डॉलर में उछाल आने की खबरों से वैश्विक बाजार में इस कीमती धातु को भारी नुकसान हुआ। इसका असर घरेलू बाजार में भी देखने को मिला। सोने की कीमतें 320 रुपए गिरकर 15,770 रुपए प्रति 10 ग्राम पर आ गईं। बाजार विशेषज्ञों का कहना है कि डॉलर में मजबूती आने की खबरों से शुक्रवार को वैश्विक बाजार में सोने में पिछले दो महीने की सबसे बड़ी गिरावट देखने को मिली। इससे घरेलू बाजार में भी सोने पर बिक्री का दबाव बना। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को स्थिरता देने के लिए वैश्विक नेताओं की ओर से कदम उठाए जाने के संकेतों के कारण डॉलर की मांग में तेजी देखने को मिली। न्यूयॉर्क में सोना 1,020 डॉलर प्रति औंस से गिरकर 996।53 डॉलर प्रति औंस पर आ गया। 17 सितंबर को सोना 1,024.28 डॉलर प्रति औंस पर पहुंच गया था। मार्च 2008 के बाद यह सोने की उच्चतम कीमत थी।
एक प्रमुख ज्वैलर राकेश आनंद का कहना है, 'विदेशी बाजारों से कमजोर संकेत मिलने के कारण घरेलू बुलियन मार्केट पर बुरा असर पड़ा। घरेलू बाजार आमतौर पर अंतरराष्ट्रीय बाजार का अनुकरण करता है जो पहले से ही उच्चतम स्तर पर जाने के बाद मांग में गिरावट का सामना कर रहा है।' इस बीच चांदी तैयार में 550 रुपए की गिरावट आई और वह 25,850 रुपए प्रति किलो पर आ गई। साप्ताहिक डिलीवरी की चांदी में 805 रुपए की गिरावट आई और वह 26,140 रुपए प्रति किलो पर रही। रिकॉर्ड स्तर पर जाने के बाद चांदी के सिक्कों में 100 रुपए की गिरावट आई और खरीदारी वाले चांदी के सिक्के 31,700 रुपए तथा बिक्री वाले चांदी के सिक्के 31,800 रुपए प्रति 100 पर आ गए। स्टैंडर्ड गोल्ड और ऑर्नामेंट्स, दोनों में 320 रुपए की गिरावट आई और वे क्रमश: 15,770 रुपए और 15,620 रुपए प्रति 10 ग्राम पर आ गए। सॉवरेन में 50 रुपए की गिरावट आई और वह 12,900 रुपए प्रति आठ ग्राम पर आ गया। ( ऐ टी हिन्दी)
एक प्रमुख ज्वैलर राकेश आनंद का कहना है, 'विदेशी बाजारों से कमजोर संकेत मिलने के कारण घरेलू बुलियन मार्केट पर बुरा असर पड़ा। घरेलू बाजार आमतौर पर अंतरराष्ट्रीय बाजार का अनुकरण करता है जो पहले से ही उच्चतम स्तर पर जाने के बाद मांग में गिरावट का सामना कर रहा है।' इस बीच चांदी तैयार में 550 रुपए की गिरावट आई और वह 25,850 रुपए प्रति किलो पर आ गई। साप्ताहिक डिलीवरी की चांदी में 805 रुपए की गिरावट आई और वह 26,140 रुपए प्रति किलो पर रही। रिकॉर्ड स्तर पर जाने के बाद चांदी के सिक्कों में 100 रुपए की गिरावट आई और खरीदारी वाले चांदी के सिक्के 31,700 रुपए तथा बिक्री वाले चांदी के सिक्के 31,800 रुपए प्रति 100 पर आ गए। स्टैंडर्ड गोल्ड और ऑर्नामेंट्स, दोनों में 320 रुपए की गिरावट आई और वे क्रमश: 15,770 रुपए और 15,620 रुपए प्रति 10 ग्राम पर आ गए। सॉवरेन में 50 रुपए की गिरावट आई और वह 12,900 रुपए प्रति आठ ग्राम पर आ गया। ( ऐ टी हिन्दी)
आलू, प्याज पर सख्ती
केंद्र सरकार आलू और प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 यानी ECA के दायरे में लाने पर विचार कर रही है। आलू के लिए तो ये पहला मौका है, लेकिन प्याज पर पांच साल बाद दोबारा ये रोक लगेगी।
पैदावार में कमी की आशंका के बीच आलू नवरात्रि के दौरान 35 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गया। कारोबारियों की मानें तो दाम में तेजी अगले महीने भी बनी रह सकती है। दूसरी ओर प्याज अभी तो स्थिर है, लेकिन नवरात्र के बाद मांग में खासे तेजी से दाम में खासे उछाल के आसार बन सकते हैं।
इसीलिए केंद्र सरकार ऑर्डिनेंस जारी कर आलू और प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 यानी ECA में शामिल करने की सोच रही है। इसके बाद राज्य सरकारों को व्यापारियों के स्टॉक की सीमा तय करने का अधिकार मिल जाएगा। हालांकि पश्चिम बंगाल सरकार ने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए जुलाई में ही आलू को आवश्यक वस्तुओं के लिस्ट में शामिल कर दिया था।
कारोबारियों की राय में महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में फसल खराब होने से आलू की सप्लाई काफी घटने की आशंका है। जबकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो, पिछले साल औने-पौने भाव बेचने को मजबूर किसानों ने इस बार ज्यादा आलू बोया ही नहीं।
आलू-प्याज की कमी की आशंका ही है कि महंगाई दर के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, आलू 52 हफ्तों में औसत 11 परसेंट महंगा हुआ और प्याज करीब 20 परसेंट। हाल में ही प्याज का एक्सपोर्ट महंगा किया गया। लेकिन दाम बहुत ज्यादा नहीं गिरे है। अब सरकार को उम्मीद है कि नयी कोशिश से हालात सुधरेंगे। (आवाज कारोबार)
पैदावार में कमी की आशंका के बीच आलू नवरात्रि के दौरान 35 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गया। कारोबारियों की मानें तो दाम में तेजी अगले महीने भी बनी रह सकती है। दूसरी ओर प्याज अभी तो स्थिर है, लेकिन नवरात्र के बाद मांग में खासे तेजी से दाम में खासे उछाल के आसार बन सकते हैं।
इसीलिए केंद्र सरकार ऑर्डिनेंस जारी कर आलू और प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 यानी ECA में शामिल करने की सोच रही है। इसके बाद राज्य सरकारों को व्यापारियों के स्टॉक की सीमा तय करने का अधिकार मिल जाएगा। हालांकि पश्चिम बंगाल सरकार ने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए जुलाई में ही आलू को आवश्यक वस्तुओं के लिस्ट में शामिल कर दिया था।
कारोबारियों की राय में महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में फसल खराब होने से आलू की सप्लाई काफी घटने की आशंका है। जबकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो, पिछले साल औने-पौने भाव बेचने को मजबूर किसानों ने इस बार ज्यादा आलू बोया ही नहीं।
आलू-प्याज की कमी की आशंका ही है कि महंगाई दर के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, आलू 52 हफ्तों में औसत 11 परसेंट महंगा हुआ और प्याज करीब 20 परसेंट। हाल में ही प्याज का एक्सपोर्ट महंगा किया गया। लेकिन दाम बहुत ज्यादा नहीं गिरे है। अब सरकार को उम्मीद है कि नयी कोशिश से हालात सुधरेंगे। (आवाज कारोबार)
FMC को और अधिकार में अभी देर
कमोडिटी मार्केट रेगुलेटर फॉरवर्ड मार्केट कमीशन को ज्यादा अधिकार मिलने में समय लग सकता है। वित्त मंत्रालय ने फिर से इस मामले में एतराज जताया है। ऐसे में संसद के अगले सत्र में FMC को ज्यादा अधिकार देने से जुड़ा बिल नहीं आ पाएगा।
कमोडिटी मार्केट में लगातार बढ़ते कारोबार के बीच रेग्यूलेटर फॉरवर्ड मार्केट कमीशन यानी एफएमसी अधिकार बढ़ाए जाने की मांग करता रहा है।
कमीशन का कहना है कि बाजार में गड़बड़ी करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए उसके पास अधिकार नहीं है। लेकिन इस मामले में अभी तक सहमति नहीं बन पायी है।
सूत्रों के मुताबिक वित्त मंत्रालय ने फिर से एफएमसी को सेबी के तहत लाए जाने की वकालत की है। वित्त मंत्रालय की राय है कि स्टॉक मार्केट रेग्युलेटर ही कमोडिटी मार्केट पर भी नजर रखे।
अब संसद के अगले सत्र में फॉरवर्ड कान्ट्रैक्ट रेग्युलेशन एक्ट में फेरबदल का बिल आना मुश्किल लग रहा है। ये बिल पिछले साल मार्च में लोकसभा में पेश हुआ था। लेकिन पिछली लोकसभा भंग होने के बाद इस बिल को फिर से पेश करना होगा।
अभी कमोडिटी बाजार को नियमित करने के लिए एफएमसी ज्यादा से ज्यादा ओपन इंटरेस्ट की लिमिट बढ़ा सकता है, या फिर कीमतों में उतार-चढ़ाव की सीमा तय कर सकता है।
जानकारों का कहना है कि कमोडिटी मार्केट में कारोबार को देखते हुए FMC को सेबी की ही तरह गलत जुर्माना लगाने जैसे अधिकार होने चाहिए।
सूत्रों का कहना है कि अगर PMO दखल देता है तो बिल को जल्द पेश किए जाने का रास्ता खुल सकता है। उम्मीद है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद कृषि मंत्री शरद पवार प्रधानमंत्री के साथ नए सिरे से इस मामले को उठाएंगे।
उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय की राय है कि चूंकि स्टॉक मार्केट और कमोडिटी मार्केट में अलग-अलग तरीके के कारोबार होते हैं, इसीलिए रेग्यूलेटर भी अलग-अलग होने चाहिए। (आवाज कारोबार)
कमोडिटी मार्केट में लगातार बढ़ते कारोबार के बीच रेग्यूलेटर फॉरवर्ड मार्केट कमीशन यानी एफएमसी अधिकार बढ़ाए जाने की मांग करता रहा है।
कमीशन का कहना है कि बाजार में गड़बड़ी करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए उसके पास अधिकार नहीं है। लेकिन इस मामले में अभी तक सहमति नहीं बन पायी है।
सूत्रों के मुताबिक वित्त मंत्रालय ने फिर से एफएमसी को सेबी के तहत लाए जाने की वकालत की है। वित्त मंत्रालय की राय है कि स्टॉक मार्केट रेग्युलेटर ही कमोडिटी मार्केट पर भी नजर रखे।
अब संसद के अगले सत्र में फॉरवर्ड कान्ट्रैक्ट रेग्युलेशन एक्ट में फेरबदल का बिल आना मुश्किल लग रहा है। ये बिल पिछले साल मार्च में लोकसभा में पेश हुआ था। लेकिन पिछली लोकसभा भंग होने के बाद इस बिल को फिर से पेश करना होगा।
अभी कमोडिटी बाजार को नियमित करने के लिए एफएमसी ज्यादा से ज्यादा ओपन इंटरेस्ट की लिमिट बढ़ा सकता है, या फिर कीमतों में उतार-चढ़ाव की सीमा तय कर सकता है।
जानकारों का कहना है कि कमोडिटी मार्केट में कारोबार को देखते हुए FMC को सेबी की ही तरह गलत जुर्माना लगाने जैसे अधिकार होने चाहिए।
सूत्रों का कहना है कि अगर PMO दखल देता है तो बिल को जल्द पेश किए जाने का रास्ता खुल सकता है। उम्मीद है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद कृषि मंत्री शरद पवार प्रधानमंत्री के साथ नए सिरे से इस मामले को उठाएंगे।
उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय की राय है कि चूंकि स्टॉक मार्केट और कमोडिटी मार्केट में अलग-अलग तरीके के कारोबार होते हैं, इसीलिए रेग्यूलेटर भी अलग-अलग होने चाहिए। (आवाज कारोबार)
25 सितंबर 2009
सूखे से श्रीलंका में चाय का उत्पादन गिरने का अंदेशा
ब्लूमबर्ग कोलंबो. दुनिया के चौथे सबसे बड़े चाय उत्पादक देश श्रीलंका में सूखे की स्थिति होने के कारण चाय का उत्पादन गिरने की आशंका है। वहां वेतन के मुद्दे पर विवाद होने से भी उत्पादन पर असर पड़ सकता है। श्रीलंका चाय बोर्ड के चेयरमैन ललित हेतियाराच्ची के अनुसार इस साल चाय का उत्पादन 30 करोड़ किलोग्राम के लक्ष्य से कम सकता है। पिछले साल देश में 31.8 करोड़ किलो चाय का उत्पादन हुआ था। उन्होंने टेलीफोन पर बातचीत में बताया कि केन्या, श्रीलंका और भारत में सूखे के कारण चाय की विश्वव्यापी सुलभता मांग के मुकाबले 10 फीसदी कम रहने की संभावना है। दुनिया की सबसे बड़ी चाय उत्पादक कंपनी मेकलॉयल रुसेल इंडिया के अनुसार इन देशों में मौसम खराब होने से चाय के भाव रिकार्ड स्तर पर पहुंच सकते हैं। श्रीलंका में उत्पादकों की चाय का उत्पादन खर्च बढ़ सकता है। वहां कर्मचारियों ने वेतन बढ़ोतरी की मांग को लेकर सप्लाई रोक दी है। वेतन बढ़ने पर लागत बढ़ेगी।कोलंबो में प्लांटर्स एसोसिएशन के महासचिव मालिन गूनेतिलेके ने बताया कि चाय के दाम अनपेक्षित स्तर पर पहुच रहे हैं। चाय के मूल्य में बढ़ोतरी पिछले कुछ महीनों से हो रही है। श्रीलंका में वेतन मुद्दे को लेकर कर्मचारियों ने इस महीने में दो सप्ताह तक कोलंबो नीलामी केंद्र तक चाय की सप्लाई नहीं होने दी। इससे श्रीलंका में चाय के दाम 405 श्रीलंकाई रुपये (3.5 डॉलर) प्रति किलो तक पहुंच चुके हैं। इसमें करीब 40 फीसदी की बढ़त हुई है। वेतन बढ़ने से उद्योग पर 600 करोड़ श्रीलंकाई रुपये का अतिरिक्त भार पड़ेगा। बोर्ड के अनुसार दूसरी तिमाही में नीलामी केंद्र पर चाय का औसत भाव करीब 18 फीसदी बढ़ गए। 8 सितंबर को 52 लाख किलो चाय की नीलामी 445.72 श्रीलंकाई रुपये प्रति किलो के भाव पर हुई। अगस्त में भाव 419.25 रुपये प्रति किलो था। मेकलियॉड रुसेल के अनुसार केन्या और भारत में चाय के रिकार्ड भाव चल रहे हैं। इसमें अगले साल तक 15 फीसदी की और बढ़ोतरी हो सकती है। उधर हेतियाराच्ची के अनुसार श्रीलंका ब्लैक टी का दूसरी सबसे बड़ा सप्लायर है। यहां से चाय का निर्यात एक अरब डॉलर से ऊपर निकल पाना मुश्किल है क्योंकि उत्पादन में कमी आई है। पिछले साल 1.27 अरब डॉलर की चाय का निर्यात हुआ था। उनका कहना था कि उत्पादन बढ़े बगैर राजस्व बढ़ने की संभावना बहुत कम है। इस साल की पहली छमाही में चाय निर्यात 13.9 करोड़ किलो रहा जबकि पिछले साल इस दौरान 15.6 करोड़ किलो चाय का निर्यात हुआ था। अगस्त तक आठ माह में चाय का उत्पादन 19 फीसदी घटकर 18.2 करोड़ किलो रहा। (बिज़नस भास्कर)
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