September 26, 2010
भारतीय कपास उद्योग यह सुनिश्चित करने का पूरा प्रयास कर रहा है कि पिछले वर्ष वाली स्थिति मौजूदा वित्त वर्ष के दौरान न बन पाए। पिछले साल कपास का भाव 27 फीसदी बढ़ जाने की वजह से वस्त्र उद्योग के मुनाफे में भारी गिरावट आई थी।इस क्षेत्र की कंपनियां मांग कर रही हैं कि कच्चे कपास के निर्यात पर तैयार परिधान निर्यात को तरजीह दी जानी चाहिए। उनका कहना है कि यदि कपास का निर्यात किया भी जाता है, तो इसकी मात्रा पर नियंत्रण होना चाहिए और आने वाले सीजन के दौरान निर्यात के बजाए इसकी घरेलू मांग को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।घरेलू वस्त्र उद्योग ने यह मांग भी रखी है कि कपास निर्यात के लिए लाइसेंस व्यवस्था होनी चाहिए। उत्तर भारत परिधान मिल संघ (निटमा) के अध्यक्ष आशीष बगरोडिया ने कहा कि परिधान उद्योग के नजरिए में सबसे बढिय़ा तरीका यह है कि कपास निर्यात पर लाइसेंस व्यवस्था फिर से लागू कर दी जाए, जैसा कि इस वर्ष की शुरुआत में किया गया था। आगामी सीजन में फरवरी से पहले निर्यात की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। कपास सीजन अगस्त में शुरू होता है और अप्रैल में खत्म हो जाता है। प्रौद्योगिकी उन्नयन निधि योजना (टफ्स) को विस्तार दिए जाने की भी मांग की जा रही है। बगरोडिाया के मुताबिक इस योजना से कई बाधाएं दूर हुईं हैं, लेकिन अब तक इसकी जरूरत खत्म नहीं हुई है। परिधान उद्योग कर वापसी और शुल्क रियायत जैसे निर्यात प्रोत्साहन के लिए भी खेमेबंदी कर रहा है। तिरुपुर निर्यातक संघ (टी) के अध्यक्ष अरुमुगम शक्तिवेल ने केंद्रीय वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा को भेजे परिपत्र में कहा, 'अमेरिका को भेजे जाने वाले तैयार परिधान को मार्केट लिंक्ड प्रोडक्ट स्कीम (एमएलएफपीएस) के तहत सालाना मदद वाली सूची में शामिल नहीं किया जा रहा है। अमेरिका अभी भी पूरी तरह खतरे से बाहर नहीं है इसलिए निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए 2 फीसदी छूट दिए जाने की जरूरत है।कपास उत्पादन के मामले में विश्व में भारत का दूसरा स्थान है और अपने घरेलू मांग से कहीं ज्यादा यहां कपास का उत्पादन होता है। इसके बावजूद पिछले साल भारत में कपास के दाम बढ़ गए थे। इसके लिए कपास के असमान निर्यात को जिम्मेदार माना गया और हालत यह हो गई कि घरेलू टेक्सटाइल उद्योग के लिए कपास मिलना मुश्किल हो गया। ऐसा अनुमान है कि 2009-10 के दौरान भारत में 2.9 करोड़ गांठ कपास का उत्पादन हुआ था। (BS Hindi)
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