24 मई 2010
सस्ता माल बेचने वालों का है नया दौर
नई दिल्ली : पिछले एक साल में दुनिया भर के बड़े कमोडिटी डीलरों के कारोबार पर तगड़ा झटका लगा है। ये कारोबारी कमोडिटी को प्रोसेस और रिफाइंड कर दुनिया भर के बाजारों में बेचते थे। ये कंपनियां पैकिंग और दूसरे वैल्यू एडिशन के बदले ग्राहकों से अच्छी कीमत वसूलती थीं। हालांकि पिछले साल से ग्राहक कंपनियों पर भारी पड़ रहे हैं। एक वक्त तक इन कंपनियों को रोकने वाला कोई नहीं था। हालांकि चीन और भारत में इनकी पुरानी रणनीति काम नहीं आई। दरअसल, भारत और चीन को कमोडिटी रॉ फॉर्म में चाहिए। वे इनमें वैल्यू एडिशन नहीं चाहते। सॉफ्ट कमोडिटी मैन्युफैक्चरिंग में इस्तेमाल की जा रही है। हार्ड कमोडिटी (मिनरल और मेटल) और एनर्जी की मांग चीन और भारत में शहरों, फैक्ट्री और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के साथ ही बढ़ रही है। चीन इस वक्त दुनिया का करीब आधा आयरन ओर खरीदता है। साथ ही यह मेटल का तीसरा सबसे बड़ा खरीदार है। इसके अलावा यह दुनिया के कुल सोयाबीन का 40 फीसदी और आधा पोर्क का इस्तेमाल करता है। भारत पाम ऑयल का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खरीदार है। बल्क और जैसा है वैसा ही यह ग्राहकों का नया मंत्र है। और ग्राहक हमेशा सही होते हैं। खासतौर पर ऐसे वक्त जब दुनिया की करीब 40 फीसदी आबादी इन दोनों देशों में रह रही हो। भारत और चीन जैसे बाजारों में इन कंपनियों को बड़ा बाजार तो दिख रहा है, लेकिन यहां महंगे वैल्यू एडेड प्रोडक्ट बेचना आसान नहीं है। ऐसी कंपनियां जो अब तक अमीर देशों के ग्राहकों को तकनीक और लग्जरी सामान बेच रही थीं, उनके लिए भारत और चीन जैसे बाजारों में यह काम चुनौती भरा बन गया है। इन कंपनियों के सामने समस्या आ गई है कि या तो वे 5,000 डॉलर सालाना से नीचे गुजर-बसर करने वाले 45 करोड़ परिवारों के बड़े बाजार की सस्ते उत्पादों की मांग को पूरा करें या अपने धंधे को इन देशों से समेट लें। हमारे जैसे लोग इस तरह के महंगे उत्पाद नहीं चाहते हैं। हम ऐसे उत्पाद और सेवाएं चाहते हैं, जो सस्ती हों। हम कई चीजों का स्वाद पहली बार चख रहे होते हैं, ऐसे में हम इनका केवल इस्तेमाल कर देखना चाहते हैं। साथ ही हम ऐसे उत्पाद चाहते हैं जो कि कठिन परिस्थितियों में भी लंबे वक्त तक सही-सलामत बने रहें। हम शुद्धता, प्रदूषण और स्वास्थ्य मानकों की ज्यादा परवाह नहीं करते, जिनका सीधा मतलब उत्पाद के महंगे होने से है। हालांकि हम बेहतरीन डिजाइन की गई चीजों को इस्तेमाल करना चाहते हैं। अच्छा दिखना अब केवल अमीरों का शौक नहीं रह गया है। ऐसे ब्रांड जो सस्ते, आसान और टिकाऊ हैं, उनके लिए हमारे जैसे करोड़ों ग्राहक बांहें खोलकर खड़े हैं। पिछले साल, दुनिया की करीब एक चौथाई मध्यवर्गीय आबादी एशिया प्रशांत देशों में थी। 20 साल में यह आंकड़ा बढ़कर 60 फीसदी हो जाएगा। मोबाइल फोन, घर, कार और पिज्जा से लेकर कुकिंग तेल, होटल, जूते और चॉकलेट हमें सब कुछ चाहिए, मगर वह सस्ता होना चाहिए। ऐसे ब्रांड जो कि यह सोचते हैं कि वे अब भी अमेरिका या यूरोप या जापान में माल बेच रहे हैं, उन्हें अपनी इस आदत की महंगी कीमत चुकानी पड़ रही है। भारत में ही ऐसे ब्रांड जो अब तक केवल अमीर वर्ग को लक्ष्य बनाकर चल रहे थे, उन्होंने भी अब दूसरे वर्गों के लिहाज से खुद को ढालना शुरू कर दिया है। ऐसा करना इन कंपनियों के लिए कठिन है क्योंकि कच्चे माल की लागत बढ़ रही है लेकिन इन्हें कीमतों को कम रखना है। ब्रांड नाम इन ग्राहकों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। सबसे अहम बात यह है कि अगर आप चीन या भारत की आबादी को सामान बेचने की कला सीख जाते हैं तो आप दूसरी किसी भी जगह ज्यादा माल बेच पाने में खुद को समर्थ पाएंगे। विकसित देशों की मंदी की शिकार आबादी भी खरीदारी के अब पुराने ढर्रे पर लौट रही है। नया स्टेटस सिंबल अब सरलता से और वास्तविकता से रूबरू होकर जीने का है। साथ ही गरीबी का मतलब है समझदारी और स्थायित्व भरा जीवनयापन। पिछले 18 महीने में ग्लोबल कारोबार में दो बड़े बदलाव देखने को मिले हैं। एक तो मांग में बदलाव आया है। साथ ही मांग के तरीके में भी बदलाव आया है। विकसित देशों में मांग घटी है जबकि उभरते हुए देशों में मांग तेजी से बढ़ी है। साथ ही खरीदारों का एक नया वर्ग भी तेजी से उभर कर सामने आया है। (ई टी हिंदी)
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