June 22, 2009
करीब दो सप्ताह के अवरोध के बाद मानसून एक बार फिर आगे बढ़ने लगा है, लेकिन इस देरी के कारण कृषि पैदावार के अनुमान फीके पड़ गए हैं।
इतना ही नहीं, मौसम विभाग के अधिकारी मानसून की आगे की चाल को लेकर भी असमंजस में हैं, खासकर बारिश पर निर्भर महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र और मध्य प्रदेश सहित मध्य भारत के बारे में।
इन क्षेत्रों में पिछले साल मानसून अच्छा नहीं रहने के कारण पानी के कुछ स्रोत सूख गए थे। जून के पहले पखवाड़े में बारिश 45 प्रतिशत कम रहने का अर्थ है कि विभिन्न जलाशयों में पानी का भंडार और नीचे चला जाएगा, जबकि भीषण गर्मी के कारण ये जलाशय पहले ही सूख चुके हैं।
आमतौर पर मानसून उत्तर-पश्चिमी हिस्से को छोड़कर पूरे देश को 20 जून तक अपने दायरे में ले लेता है। लेकिन इस साल केरल के तट पर तय समय से दो सप्ताह पहले ही दस्तक देने के बावजूद मानसून की चाल 7 जून से थम गई थी। पश्चिम बंगाल में आए तूफान आइला के कारण ऐसा हुआ। इस कारण बंगाल की खाड़ी में ठंडक बढ़ गई।
इससे मानसून को देश में उत्तर की ओर बढ़ाने वाले मौसमी कारक प्रभावित हुए। ऐसे में महाराष्ट्र, उड़ीसा और उत्तरी आंध्र प्रदेश में मानसून आने में 10 दिन की देरी हो गई और बिहार, छत्तीसगढ़ तथा झारखंड में मानसून कम से कम 1 सप्ताह देर से आएगा। चूंकि मौसम एक बार फिर सामान्य हो रहा है, इसलिए इसे लेकर बहुत अधिक चिंतित नहीं होना चाहिए।
देश के मुख्य कृषि क्षेत्र उत्तर-पश्चिमी भाग को जून के अंत तक ही मानसून की बौछारें मिलेंगी। किसी भी दशा में इस क्षेत्र में सिंचाई के लिए अच्छी तरह से विकसित बुनियादी ढांचा है और ये भाग खेती के लिए पूरी तरह से बारिश पर निर्भर नहीं हैं।
इस साल के मानसून से जुड़ी सबसे बड़ी चिंता तेजी से उभरते अल नीनो को लेकर है (प्रशांत महासागर में पानी के गर्म होने को दिया गया स्थानीय नाम)। अक्सर माना जाता है कि इसका मानसून पर विपरीत असर पड़ रहा है। मौसम विभाग जब अप्रैल में मानसून की व्यापक भविष्यवाणी कर रहा था, तब उसे इस बात का पता नहीं था।
उस समय उसने कहा कि कुल बारिश सामान्य के करीब रहेगी। पूरे सत्र के दौरान बारिश 96 प्रतिशत रहेगी, जबकि लंबे समय का औसत 89 प्रतिशत है। लेकिन इतने से ही उम्मीद कम नहीं हो जाती है क्योंकि अल नीनो अभी अपनी शुरुआती अवस्था में है और पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि अगले तीन महीनों के दौरान उसका आकार क्या होगा।
किसी भी वर्ष की तरह दो जोखिम और भी हैं। बारिश में लंबा समयांतराल और मानसून का जल्दी खत्म हो जाना। मानसून में देरी के मुकाबले ये कारण पैदावार के लिहाज से अधिक जोखिमपूर्ण हैं। मानसून के आने में देरी से हुए नुकसान की भरपाई तो किसी तरह से की जा सकती है लेकिन अगर मानसून सत्र के अगले दौर में मौसम धोखा देता है तो खेतों में खड़ी फसल और किए गए निवेश को बचाना अधिक मुश्किल होगा।
लेकिन उम्मीद पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है। अभी भी मानसून और खरीफ की संभावनाओं के लिहाज से सतर्कता के साथ आशावादी रहना चाहिए। हो सकता है कि आगे मानसून का रुख सकारात्मक रहे। (BS Hindi)
25 जून 2009
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