30 जून 2009
बजट में खाद्य तेलों पर आयात शुल्क लगने की संभावना नगण्य
बजट में खाद्य तेलों के आयात पर शुल्क लगने की संभावना नहीं है क्योंकि अगर सरकार आयातित खाद्य तेलों पर 20 फीसदी शुल्क लगाती है तो घरेलू बाजार में इनकी कीमतों में चार-पांच रुपये प्रति किलो की तेजी आ सकती है। वैसे भी तिलहनों की नई फसल आने में अभी करीब साढ़े तीन-चार महीनों का समय शेष है। हालांकि चालू तेल वर्ष के पहले सात महीनों (नवंबर से मई) में भारत में खाद्य तेलों का आयात 70 फीसदी बढ़ा है। लेकिन आयात में भारी बढ़ोतरी के बावजूद भी खाद्य तेलों के भाव नवंबर के मुकाबले चालू महीने में लगभग 40 फीसदी बढ़े हैं।सूत्रों के अनुसार बजट में सरकार आयातित खाद्य तेलों के आयात पर शुल्क नहीं लगाएगी क्योंकि सरकार अभी खाद्य तेलों की कीमतों को स्थिर रखना चाहती है। जून महीने में मानसून की बेरुखी ने सरकार की चिंता वैसे भी बढ़ा रखी है। हालांकि पिछले तीन-चार दिनों से मानसून की प्रगति संतोषजनक रही है। इस समय थोक बाजार में सरसों तेल के दाम 50-52 रुपये तथा फुटकर में 62-65 रुपये प्रति किलो चल रहे हैं जबकि रिफाइंड पाम तेल के दाम थोक में 40-42 रुपये और फुटकर में 50-52 रुपये तथा सोया रिफाइंड तेल के दाम थोक में 50-52 रुपये और फुटकर में 62-65 रुपये, मूंगफली तेल के दाम थोक में 68-70 रुपये और फुटकर में 82-85 रुपये तथा बिनौला तेल के भाव थोक में 50-52 रुपये और फुटकर में 62-65 रुपये प्रति किलो चल रहे हैं।दिल्ली वेजिटेबल ऑयल ट्रेडर्स एसोसिएशन के सचिव हेमंत गुप्ता ने बताया कि सरकार अगर आयातित खाद्य तेलों पर बीस फीसदी शुल्क लगाती है तो इनकी कीमतों में चार से पांच रुपये प्रति किलो की तेजी आ जाएगी। हालांकि महंगाई की दर घटकर शून्य से नीचे चल रही है लेकिन खाद्यान्न के दाम ऊंचे ही बने हुए हैं। वैसे भी तिलहनों की नई फसल आने में अभी करीब साढ़े तीन-चार महीने का समय शेष है। ऐसे में सरकार खाद्य तेलों पर आयात शुल्क लगाकर कीमतों में बढ़ोतरी नहीं करना चाहेगी। यह भी माना जा रहा है कि इस समय शुल्क लगाने का फायदा किसानों को नहीं बल्कि आयातित तेल का स्टॉक कर चुके कारोबारियों को ही मिलेगा।साल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसिएशन आफ इंडिया (सीईए) के मुताबिक चालू तेल वर्ष के पहले सात महीनों में खाद्य तेलों का आयात 50.43 लाख टन का हो चुका है।पिछले साल की समान अवधि में 29.73 लाख टन खाद्य तेलों का आयात हुआ था। खाद्य तेलों के व्यापारी अशोक कुमार ने बताया कि आयात में भारी बढ़ोतरी के बावजूद नवंबर से अब तक आयातित खाद्य तेलों के भावों में करीब 40 फीसदी की भारी तेजी आ चुकी है। नवंबर में आरबीडी पामोलीन के भाव 565 डॉलर प्रति टन (भारतीय बंदरगाह पर) थे जबकि चालू महीने में भाव 795 डॉलर प्रति टन हैं। इसी तरह से क्रूड पाम तेल के दाम नवंबर में 475 डॉलर थे जबकि इस समय इसके भाव 735 डॉलर प्रति टन हैं। हालांकि ये भाव पिछले साल जून के मुकाबले काफी कम है। जून 2008 में आरबीडी पामोलीन के भाव 1294 डॉलर और क्रूड पाम तेल के दाम 1196 डॉलर प्रति टन थे।क्रूड पाम तेल के भाव सीमित दायरे मेंकुआलालंपुर। एशियाई बाजारों में क्रूड पाम तेल के वायदा भाव सीमित दायरे में रहे। दिनभर के कारोबार के बाद मलेशिया डेरिवेटिव्स एक्सचेंज में क्रूड पाम तेल वायदा में मामूली नरमी रही। हाजिर में मांग कम होने से यहां सितंबर क्रूड पाम तेल वायदा करीब 57 रिंगिट की गिरावट के साथ 2,262 रिंगिट प्रति टन पर बंद हुआ। भारतीय मौसम विभाग ने चार जुलाई तक बाकी हिस्सों में मानसून के पहुंचने की उम्मीद जताई है। इस पूर्वानुमान का असर भी क्रूड पाम तेल के कारोबार पर पड़ा है। कारोबारियों के मुताबिक यदि सोयाबीन का रकबा पिछले साल के मुकाबले बढ़ता है तो आने वाले दिनों में क्रूड पाम तेल की कीमतों पर दबाव बढ़ने के आसार ज्यादा रहेंगे। मौजूदा समय में बाजार को अमेरिकी कृषि विभाग की रिपोर्ट का इंतजार है।ऐसे में माना यह जा रहा है कि आने वाले दिनों में क्रूड पाम तेल 2,230-2,350 रिंगिट प्रति टन के दायर में कारोबार कर सकता है। (Business Bhaskar......R S Rana)
अगले साल भी चीनी उत्पादन बहुत कम रहने की संभावना
महंगी चीनी अगले साल भी बड़ा मुद्दा बना रह सकता है। सरकार के तमाम दावों के बावजूद 2009-10 के दौरान भी चीनी उत्पादन खपत के मुकाबले काफी कम रहने की आशंका है। मौसम अनुकूल न रहने से बुवाई उत्साहजनक नहीं है। इससे चीनी उत्पादन 175 लाख टन से ऊपर निकल पाना मुश्किल होगा। हालांकि यह उत्पादन बीत रहे मार्केटिंग वर्ष से भले ही थोड़ा ज्यादा हो लेकिन 2007-08 के 265 लाख टन के उत्पादन के मुकाबले काफी कम होगा। यद्यपि सरकार ने आगामी सीजन के दौरान करीब 200 लाख टन चीनी उत्पादन की उम्मीद जताई है। लेकिन गन्ने के बीज की अनुपलब्धता और कम बारिश से सरकार के उम्मीदों पर पानी फिर सकता है। जानकारों के मुताबिक उत्पादन में कमी से अगले साल भी देश में करीब 40 से 60 लाख टन चीनी का आयात करना पड़ सकता है। उद्योग जगत के मुताबिक सरकार के दावों के मुकाबले अगले सीजन में चीनी उत्पादन करीब 160-170 लाख टन रह सकता है। चालू सीजन के दौरान देश में करीब 147 लाख टन चीनी उत्पादन का अनुमान है जबकि सालाना घरलू खपत करीब 210 लाख टन का है। श्री रणुका शुगर लिमिटेड के उपाध्यक्ष और प्रबंध निदेशक नरेंद्र नरकुंबी के मुताबिक पिछले साल महज गन्ने का रकबा घटने से चीनी उत्पादन में कमी नहीं आई है। बल्कि इस गिरावट के पीछे खराब मौसम भी जिम्मेदार है। अब तक उत्तर भारत के गन्ना उत्पादक इलाकों में अज्छी बारिश नहीं हुई है। सिर्फ महाराष्ट्र के ही कुछ इलाकों में पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है। देश का करीब 60 फीसदी चीनी का उत्पादन उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में होता है। इन दोनों ही राज्यों के चीनी उत्पादन में महज 10-15 फीसदी का इजाफा देखा जा सकता है। कार्वी कॉम्ट्रेड के रिसर्च एनॉलिस्ट वीरश हीरामथ ने भी अगले साल चीनी उत्पादन करीब 160-170 लाख टन रहने की संभावना व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि खराब मौसम का असर गन्ने की फसल पर भी देखा जा सकजा है। लिहाजा उत्पादन में ज्यादा बढ़त की उम्मीद नहीं है। महाराष्ट्र कोऑपरटिव शुगर फैक्ट्रीज फेडरशन लिमिटेड के प्रबंध निदेशक प्रकाश नाइकनवार के मुताबिक देश में चीनी उत्पादन 200 लाख टन जाने के आसार नहीं हैं। मुश्किल से करीब 175-185 लाख टन उत्पादन का स्तर रह सकता है। मार्गेन स्टेनली ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि आगामी सीजन के दौरान भारत में चीनी उत्पादन का स्तर करीब 190 लाख टन रह सकता है।रिपोर्ट के मुताबिक इस साल करीब 30 लाख टन चीनी आयात होने की संभावना है। एसएमसी कमोडिटी की रिसर्च एनॉलिस्ट वंदना भारती के मुताबिक ऐसे में अगले सीजन के लिए बकाया स्टॉक में काफी कमी देखी जा सकती है। सरकारी अनुमान के मुताबिक एक अक्टूबर चीनी का बकाया स्टॉक करीब 50 लाख टन रह सकता है। मौसम विभाग द्वारा इस साल सामान्य से कम बारिश का अनुमान लगाने से भी चीनी के उत्पादन में कमी आने की संभावना जताई जा रही है। जानकारों के मुताबिक मौजूदा समय में ऊपरी गंगा नहर में पिछले साल के मुकाबले महज एक तिहाई जल स्तर है। वहीं छोटी नहरों में बिल्कुल पानी नहीं है। (Business Bhaskar)
इस्मा की मिठास पर सट्टे की खटास
नई दिल्ली June 29, 2009
शिशिर बजाज की कंपनी बजाज हिंदुस्तान ने 5 साल से ज्यादा समय पहले चीनी लॉबी के समूह इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) को छोड़ दिया था।
उसके बाद अब कुछ और सदस्य, एसोसिएशन से पल्ला झाड़ सकते हैं। यह स्थिति इस्मा की सहयोगी संस्था इंडियन शुगर इग्जिम कार्पोरेशन (आईएसईसी) द्वारा नैशनल फेडरेशन आफ कोआपरेटिव शुगर फैक्टरीज के साथ मिलकर सट्टा कारोबार करने का मामला सामने आने के बाद पैदा हुई है।
ऐसी जानकारी मिली है कि आईएसईसी को डेरिवेटिव्स उत्पादों के सट्टा कारोबार में 20 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। इसके वर्तमान ओपन पोजिशन में 1000 लाख डॉलर के डेरिवेटिव्स कारोबार में 2 करोड़ रुपये का प्रतिमाह घाटा हो रहा है।
डेरिवेटिव प्रोडक्ट्स का सट्टा कारोबार पिछले 3 साल से हो रहा है और इसकी जानकारी इस्मा को नहीं है। इस्मा समिति को इसकी जानकारी महज एक सप्ताह पहले मिली है। इसे देखते हुए एसोसिएशन में शामिल कंपनियां पूरे संगठनात्मक ढांचे में सुधार के लिए दबाव डाल रही हैं, जिससे उसकी गतिविधियों में पारदर्शिता रहे।
कुछ कंपनियों ने यह इच्छा जता दी कि अगर एसोसिएशन में कुछ गुणात्मक बदलाव नहीं होते हैं तो वे अपनी सदस्यता खत्म कर देंगे। आईएसईसी मसले पर फैसला करने के लिए इस्मा के 5 पूर्व अध्यक्षों और उपाध्यक्षों को बुलाया गया है।
बहरहाल, जानकार सूत्रों ने बताया कि आईएएमए के डायरेक्टर जनरल एसएल जैन, जो आईएसईसी के सदस्य सचिव भी हैं, स्वेच्छा से लंबी छुट्टी पर चले गए हैं, जब तक कि इस मसले का समाधान नहीं निकल जाता है।
बहरहाल जैन ने इस बात से इनकार किया है कि आईएसईसी सट्टा कारोबार में लगा हुआ था। जैन यह भी कहा कि उन्होंने छुट्टी पर जाने का कोई फैसला नहीं किया है। इस मामले से जुड़े सूत्रों ने कहा, 'शनिवार को हुई बैठक में इस्मा समिति की जानकारी में यह मामला आया। (BS Hindi)
शिशिर बजाज की कंपनी बजाज हिंदुस्तान ने 5 साल से ज्यादा समय पहले चीनी लॉबी के समूह इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) को छोड़ दिया था।
उसके बाद अब कुछ और सदस्य, एसोसिएशन से पल्ला झाड़ सकते हैं। यह स्थिति इस्मा की सहयोगी संस्था इंडियन शुगर इग्जिम कार्पोरेशन (आईएसईसी) द्वारा नैशनल फेडरेशन आफ कोआपरेटिव शुगर फैक्टरीज के साथ मिलकर सट्टा कारोबार करने का मामला सामने आने के बाद पैदा हुई है।
ऐसी जानकारी मिली है कि आईएसईसी को डेरिवेटिव्स उत्पादों के सट्टा कारोबार में 20 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। इसके वर्तमान ओपन पोजिशन में 1000 लाख डॉलर के डेरिवेटिव्स कारोबार में 2 करोड़ रुपये का प्रतिमाह घाटा हो रहा है।
डेरिवेटिव प्रोडक्ट्स का सट्टा कारोबार पिछले 3 साल से हो रहा है और इसकी जानकारी इस्मा को नहीं है। इस्मा समिति को इसकी जानकारी महज एक सप्ताह पहले मिली है। इसे देखते हुए एसोसिएशन में शामिल कंपनियां पूरे संगठनात्मक ढांचे में सुधार के लिए दबाव डाल रही हैं, जिससे उसकी गतिविधियों में पारदर्शिता रहे।
कुछ कंपनियों ने यह इच्छा जता दी कि अगर एसोसिएशन में कुछ गुणात्मक बदलाव नहीं होते हैं तो वे अपनी सदस्यता खत्म कर देंगे। आईएसईसी मसले पर फैसला करने के लिए इस्मा के 5 पूर्व अध्यक्षों और उपाध्यक्षों को बुलाया गया है।
बहरहाल, जानकार सूत्रों ने बताया कि आईएएमए के डायरेक्टर जनरल एसएल जैन, जो आईएसईसी के सदस्य सचिव भी हैं, स्वेच्छा से लंबी छुट्टी पर चले गए हैं, जब तक कि इस मसले का समाधान नहीं निकल जाता है।
बहरहाल जैन ने इस बात से इनकार किया है कि आईएसईसी सट्टा कारोबार में लगा हुआ था। जैन यह भी कहा कि उन्होंने छुट्टी पर जाने का कोई फैसला नहीं किया है। इस मामले से जुड़े सूत्रों ने कहा, 'शनिवार को हुई बैठक में इस्मा समिति की जानकारी में यह मामला आया। (BS Hindi)
अभी जारी रहेगी उत्तर प्रदेश में गेहूं की खरीद
लखनऊ June 29, 2009
सरकारी गोदाम भर चुके हैं और गेहूं खाली मैदानों मे रखा जा रहा है पर उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐलान कर दिया है कि सूबे के किसान जब तक चाहेंगे खरीद जारी रहेगी।
उत्तर प्रदेश में इस साल अब तक राज्य सरकार की अलग-अलग एजेंसियों ने 32 लाख टन गेहूं की खरीद की है। इस साल राज्य सरकार ने 30 लाख टन गेहूं की खरीद का लक्ष्य रखा था।
सरकार ने 30 जून तक गेहूं की खरीद के लिए घोषणा की थी। हालांकि राज्य सरकार का लक्ष्य पूरा कर लिया गया है पर खाद्य और रसद विभाग को कर कहा गया है कि खरीद अभी जारी रहेगी। गौरतलब है कि इस साल उत्तर प्रदेश में गेहूं की बंपर पैदावार हुई है जिसके चलते सरकार को खरीद के लक्ष्य को बढ़ाना पड़ा है।
पहले सरकार ने राज्य की एजेंसियों खाद्य एवं आवश्यक वस्तु निगम, यूपी एग्रो, पीसीएफ और खाद्य विभाग को कुल 20 लाख टन गेहूं की खरीद का लक्ष्य दिया था जिसे बाद में बढ़ाकर 30 लाख टन कर दिया गया।
अधिकारियों के मुताबिक जिस गति से खरीद की जा रही है उसके चलते 30 जून तक 34 लाख टन गेहूं की खरीद हो जाएगी। राज्य सरकार ने यह भी साफ कर दिया है कि 30 जून बीत जाने के बाद भी खरीद केंद्र खुले रहेंगे और अगर कोई किसान उसके बाद भी अपनी उपज लेकर आता है तो खरीद की जाएगीखाद्य विभाग के सामने अब सबसे बड़ी परेशानी गेहूं के भंडारण को लेकर है।
राज्य सरकार के गोदामों में केवल 25 लाख टन अनाज रखने की व्यवस्था है। सरकारी गोदाम पहले से चावल से भरे हैं ऐसे में इन गोदामों में केवल 21 लाख टन गेहूं रखा जा सकता है। बंपर खरीद के बाद अब अधिकारी गेहूं को खुले आसमान के नीचे रखने को मजबूर हैं। इस समय सरकारी खरीद का 10 लाख टन से ज्यादा गेहूं खुले आसमान के नीचे है। मानसून के आने के बाद इस गेहूं को सड़ने से बचाने की एक बड़ी चुनौती होगी। (BS Hindi)
सरकारी गोदाम भर चुके हैं और गेहूं खाली मैदानों मे रखा जा रहा है पर उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐलान कर दिया है कि सूबे के किसान जब तक चाहेंगे खरीद जारी रहेगी।
उत्तर प्रदेश में इस साल अब तक राज्य सरकार की अलग-अलग एजेंसियों ने 32 लाख टन गेहूं की खरीद की है। इस साल राज्य सरकार ने 30 लाख टन गेहूं की खरीद का लक्ष्य रखा था।
सरकार ने 30 जून तक गेहूं की खरीद के लिए घोषणा की थी। हालांकि राज्य सरकार का लक्ष्य पूरा कर लिया गया है पर खाद्य और रसद विभाग को कर कहा गया है कि खरीद अभी जारी रहेगी। गौरतलब है कि इस साल उत्तर प्रदेश में गेहूं की बंपर पैदावार हुई है जिसके चलते सरकार को खरीद के लक्ष्य को बढ़ाना पड़ा है।
पहले सरकार ने राज्य की एजेंसियों खाद्य एवं आवश्यक वस्तु निगम, यूपी एग्रो, पीसीएफ और खाद्य विभाग को कुल 20 लाख टन गेहूं की खरीद का लक्ष्य दिया था जिसे बाद में बढ़ाकर 30 लाख टन कर दिया गया।
अधिकारियों के मुताबिक जिस गति से खरीद की जा रही है उसके चलते 30 जून तक 34 लाख टन गेहूं की खरीद हो जाएगी। राज्य सरकार ने यह भी साफ कर दिया है कि 30 जून बीत जाने के बाद भी खरीद केंद्र खुले रहेंगे और अगर कोई किसान उसके बाद भी अपनी उपज लेकर आता है तो खरीद की जाएगीखाद्य विभाग के सामने अब सबसे बड़ी परेशानी गेहूं के भंडारण को लेकर है।
राज्य सरकार के गोदामों में केवल 25 लाख टन अनाज रखने की व्यवस्था है। सरकारी गोदाम पहले से चावल से भरे हैं ऐसे में इन गोदामों में केवल 21 लाख टन गेहूं रखा जा सकता है। बंपर खरीद के बाद अब अधिकारी गेहूं को खुले आसमान के नीचे रखने को मजबूर हैं। इस समय सरकारी खरीद का 10 लाख टन से ज्यादा गेहूं खुले आसमान के नीचे है। मानसून के आने के बाद इस गेहूं को सड़ने से बचाने की एक बड़ी चुनौती होगी। (BS Hindi)
मॉनसून से कमोडिटी एक्सचेंजों पर एग्री कमोडिटी के तेवर नरम पड़े
मुंबई: मॉनसून के आगे बढ़ने के बाद सोमवार को कमोडिटी एक्सचेंजों में एग्री कमोडिटी की कीमतों में गिरावट देखने को मिली। अनुकूल मौसम की स्थितियों के बाद फसल के उत्पादन क्षेत्र बढ़ने और बेहतर उत्पादन की उम्मीद जग गई। इससे खाद्य तेल, मसालों, गेहूं और ग्वारसीड समेत अधिकतर कमोडिटी के दाम में गिरावट देखने को मिली। प्रमुख एग्री कमोडिटी एक्सचेंज एनसीडीईएक्स पर सोयाबीन का जुलाई कॉन्ट्रैक्ट 1.3 फीसदी नीचे 2,487 रुपए प्रति क्विंटल पर बंद हुआ जबकि सोया ऑयल और रेपमस्टर्ड बीजों की ट्रेडिंग में कोई उछाल नहीं आया। मसालों में देखें तो काली मिर्च का जुलाई कॉन्ट्रैक्ट थोड़ी गिरावट के साथ 12,806 रुपए प्रति क्विंटल पर बंद हुआ। जीरा 10,824 रुपए प्रति क्विंटल और हल्दी का जुलाई कॉन्ट्रैक्ट 5,198 रुपए प्रति क्विंटल पर बंद हुआ।
भारतीय मौसम विभाग के अनुसार दक्षिण पश्चिम मॉनसून में बढ़ोतरी हुई है और यह पश्चिमी महाराष्ट्र तक पहुंच गया है। मध्य और उत्तरी भारत के लिए भी स्थितियां अनुकूल हैं। मौसम विभाग की वेबसाइट पर कहा गया है, 'दक्षिण पश्चिम मॉनसून गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और सिक्किम के शेष भागों और पूरे बिहार व झारखंड में पहुंच गया है। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वी राजस्थान व पश्चिम उत्तर प्रदेश के भी कुछ भागों में पहुंच गया है।' मॉनसून हवाओं के अलावा अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी कीमतें गिरने से ऑयलसीड और ऑयल फ्यूचर्स को एक्सचेंज पर समर्थन मिला। कच्चे तेल की कीमतों के 69 डॉलर के नीचे जाने के बाद मलेशियन डेरीवेटिव्स एक्सचेंज पर क्रूड पाम ऑयल फ्यूचर्स की कीमतें तीन फीसदी गिरकर 2,275 मलेशियाई रिंगिट प्रति टन पर पहुंच गई। स्थानीय बाजारों में मॉनसून प्रमुख सोयाबीन उत्पादक राज्यों महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में पहुंच गया, इससे कीमतों पर दबाव बढ़ा। एसएमसी ग्लोबल सिक्योरिटीज के रिसर्च एनालिस्ट अजीत कुमार का कहना है कि मॉनसून के आगे बढ़ने और वैश्विक बाजार में कीमतों के गिरने के कारण आने वाले दिनों में भी सोयाबीन और ऑयल में कमजोरी जारी रह सकती है। एडमिसी कमोडिटीज के देवज्योति चटर्जी का मानना है कि ऑयलसीड में नुकसान एक सीमा तक ही रहेगा, क्योंकि कम बरसात के कारण उत्पादक राज्यों में बुआई करीब पंद्रह दिन पीछे चल रही है। मॉनसून में देरी के कारण पिछले सप्ताह तेजी देखने वाले ग्वारसीड और ग्वारगम फ्यूचर्स में मुनाफा वसूली हुई थी। मानसून बढ़ने से ग्वारसीड की फसल अच्छी होने की उम्मीद बंधी है। एनसीडीईएक्स पर ग्वारसीड का जुलाई कॉन्ट्रैक्ट गिरकर 1,821 रुपए प्रति क्विंटल पर बंद हुआ। निर्यात के मुकाबले आयात अधिक होने के कारण काली मिर्च की कीमतों पर दबाव रहा। रुपए की मजबूती के कारण भारतीय किस्म की काली मिर्च की कीमत 2,750 डॉलर प्रति टन है जबकि वियतनाम और ब्राजील की किस्मों की कीमत 2,400-2,500 डॉलर के बीच है। बुआई पूरी होने और उत्पादन क्षेत्र बढ़ने की खबरों से हल्दी में भी कमजोरी देखने को मिली। (ET Hindi)
भारतीय मौसम विभाग के अनुसार दक्षिण पश्चिम मॉनसून में बढ़ोतरी हुई है और यह पश्चिमी महाराष्ट्र तक पहुंच गया है। मध्य और उत्तरी भारत के लिए भी स्थितियां अनुकूल हैं। मौसम विभाग की वेबसाइट पर कहा गया है, 'दक्षिण पश्चिम मॉनसून गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और सिक्किम के शेष भागों और पूरे बिहार व झारखंड में पहुंच गया है। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वी राजस्थान व पश्चिम उत्तर प्रदेश के भी कुछ भागों में पहुंच गया है।' मॉनसून हवाओं के अलावा अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी कीमतें गिरने से ऑयलसीड और ऑयल फ्यूचर्स को एक्सचेंज पर समर्थन मिला। कच्चे तेल की कीमतों के 69 डॉलर के नीचे जाने के बाद मलेशियन डेरीवेटिव्स एक्सचेंज पर क्रूड पाम ऑयल फ्यूचर्स की कीमतें तीन फीसदी गिरकर 2,275 मलेशियाई रिंगिट प्रति टन पर पहुंच गई। स्थानीय बाजारों में मॉनसून प्रमुख सोयाबीन उत्पादक राज्यों महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में पहुंच गया, इससे कीमतों पर दबाव बढ़ा। एसएमसी ग्लोबल सिक्योरिटीज के रिसर्च एनालिस्ट अजीत कुमार का कहना है कि मॉनसून के आगे बढ़ने और वैश्विक बाजार में कीमतों के गिरने के कारण आने वाले दिनों में भी सोयाबीन और ऑयल में कमजोरी जारी रह सकती है। एडमिसी कमोडिटीज के देवज्योति चटर्जी का मानना है कि ऑयलसीड में नुकसान एक सीमा तक ही रहेगा, क्योंकि कम बरसात के कारण उत्पादक राज्यों में बुआई करीब पंद्रह दिन पीछे चल रही है। मॉनसून में देरी के कारण पिछले सप्ताह तेजी देखने वाले ग्वारसीड और ग्वारगम फ्यूचर्स में मुनाफा वसूली हुई थी। मानसून बढ़ने से ग्वारसीड की फसल अच्छी होने की उम्मीद बंधी है। एनसीडीईएक्स पर ग्वारसीड का जुलाई कॉन्ट्रैक्ट गिरकर 1,821 रुपए प्रति क्विंटल पर बंद हुआ। निर्यात के मुकाबले आयात अधिक होने के कारण काली मिर्च की कीमतों पर दबाव रहा। रुपए की मजबूती के कारण भारतीय किस्म की काली मिर्च की कीमत 2,750 डॉलर प्रति टन है जबकि वियतनाम और ब्राजील की किस्मों की कीमत 2,400-2,500 डॉलर के बीच है। बुआई पूरी होने और उत्पादन क्षेत्र बढ़ने की खबरों से हल्दी में भी कमजोरी देखने को मिली। (ET Hindi)
आसमान छूते दाम की वजह से सोने की बिक्री जमीन पर
नई दिल्ली: सोने की आसमान छूती कीमतों के चलते लाजपत नगर, करोल बाग, चांदनी चौक और दरीबा की सर्राफा दुकानों में अब ग्राहकों की भीड़ पहले जैसी नहीं लग रही। सर्राफा इंडस्ट्री के मुताबिक, इस साल जनवरी से जून के दौरान दुकान के स्तर पर सोने की बिक्री में 30-90 फीसदी तक की गिरावट आई है। ज्वैलरी ट्रेड एंड कंज्यूमर वेलफेयर फोरम (जेटीसीडब्ल्यूएफ) के चेयरमैन विजय वर्मा के मुताबिक, 'आम तौर पर दिल्ली में हर महीने 2,000 किलो सोने की थोक बिक्री होती थी। इस साल यह घटकर 500 किलो रह गई है।' यह सोने की महंगाई की वजह से हुआ है। पिछले साल जनवरी से जून के बीच सोने की औसत कीमत 12,250 रुपए प्रति 10 ग्राम थी। इस साल की पहली छमाही में सोने की औसत कीमत 14,300 रुपए प्रति 10 ग्राम रही है।
यानी इस साल सोना करीब 16.73 फीसदी का महंगा हुआ है। चांदनी चौक के ज्वैलर रतनचंद ज्वालानाथ के तरुण गुप्ता के मुताबिक, 'पिछले साल के मुकाबले सोने की मांग बेहद कम है।' कीमतों के निचले स्तर पर आने के इंतजार में ग्राहक सोने की खरीद से दूर बने हुए हैं। बोनांजा ब्रोकरेज के असिस्टेंट वाइस प्रेसिडेंट विभुरतन धारा के मुताबिक, 'ऊंची कीमतों की वजह से लोग सोने से दूर हो रहे हैं। इसके अलावा आर्थिक संकट के चलते लोगों की खरीदारी की क्षमता पर असर पड़ा है।' वहीं, एंजेल ब्रोकिंग के कमोडिटी हेड अमर सिंह के मुताबिक लोग सोने के 12,500 से 13,000 रुपए प्रति 10 ग्राम के स्तर पर आने के इंतजार में हैं। सिंह के मुताबिक साल 2005 में सोना 6,000 से 6,200 रुपए प्रति 10 ग्राम के स्तर पर था, तब से आज के भाव करीब दोगुने हैं। विभुरतन के मुताबिक, पिछले कुछ वक्त में चांदी, क्रूड ऑयल समेत दूसरी कमोडिटी की कीमतों में गिरावट रही है, ऐसे में सोने को निवेश के तौर पर इस्तेमाल करने वाले इसकी कीमतों को ज्यादा मान रहे हैं। सोने की कीमतों पर असर डालने वाले दूसरे कारकों में ईटीएफ मांग और डॉलर की वैल्यू में उतार-चढ़ाव भी शामिल हैं। वह कहते हैं कि अगर डॉलर में कमजोरी का रुख रहता है तो इससे आने वाले वक्त में भी सोने की कीमतों में कमी नहीं आएगी।आने वाले महीने में भी सोने की मांग के कम रहने के संकेत हैं। दरीबा ज्वैलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष निर्मल जैन का कहना है, 'जून-जुलाई में वैसे भी शादियों का सीजन नहीं होने से मांग कम रहती है। ऐसे में इस दौरान भी बिक्री कम ही रहेगी।' तरुण गुप्ता के मुताबिक, 'मांग के कम होने के बावजूद सोने की कीमतों में कोई गिरावट नहीं आ रही है। कई घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कारकों की वजह से सोना लगातार ऊपर बना हुआ है और आने वाले वक्त में भी कीमतों में कोई कमी आती नहीं दिख रही है।'इस साल सोने के आयात के आंकड़े भी इस बात की गवाही दे रहे हैं कि देश में सोने की मांग में कमजोरी का दौर बना हुआ है। भारत हर साल करीब 700 टन सोने का आयात करता है। तरुण गुप्ता कहते हैं, 'इस साल यह आयात घटकर 200 टन के आसपास रहने की आशंका है।' इस साल जनवरी से जून के बीच 50 टन सोने का आयात हुआ है जबकि पिछले साल इसी दौरान 139 टन सोना आयात हुआ था। इसके अलावा फरवरी से मार्च के बीच देश में सोने का बिल्कुल आयात नहीं हुआ। अप्रैल में 20 टन और मई में यह आयात पिछले साल के मुकाबले 40 फीसदी घटकर 17.8 टन रहा है। अनुमान के मुताबिक जून में भी सोने का आयात करीब 40 फीसदी घटकर 10 टन पर आ सकता है। (ET HIndi)
यानी इस साल सोना करीब 16.73 फीसदी का महंगा हुआ है। चांदनी चौक के ज्वैलर रतनचंद ज्वालानाथ के तरुण गुप्ता के मुताबिक, 'पिछले साल के मुकाबले सोने की मांग बेहद कम है।' कीमतों के निचले स्तर पर आने के इंतजार में ग्राहक सोने की खरीद से दूर बने हुए हैं। बोनांजा ब्रोकरेज के असिस्टेंट वाइस प्रेसिडेंट विभुरतन धारा के मुताबिक, 'ऊंची कीमतों की वजह से लोग सोने से दूर हो रहे हैं। इसके अलावा आर्थिक संकट के चलते लोगों की खरीदारी की क्षमता पर असर पड़ा है।' वहीं, एंजेल ब्रोकिंग के कमोडिटी हेड अमर सिंह के मुताबिक लोग सोने के 12,500 से 13,000 रुपए प्रति 10 ग्राम के स्तर पर आने के इंतजार में हैं। सिंह के मुताबिक साल 2005 में सोना 6,000 से 6,200 रुपए प्रति 10 ग्राम के स्तर पर था, तब से आज के भाव करीब दोगुने हैं। विभुरतन के मुताबिक, पिछले कुछ वक्त में चांदी, क्रूड ऑयल समेत दूसरी कमोडिटी की कीमतों में गिरावट रही है, ऐसे में सोने को निवेश के तौर पर इस्तेमाल करने वाले इसकी कीमतों को ज्यादा मान रहे हैं। सोने की कीमतों पर असर डालने वाले दूसरे कारकों में ईटीएफ मांग और डॉलर की वैल्यू में उतार-चढ़ाव भी शामिल हैं। वह कहते हैं कि अगर डॉलर में कमजोरी का रुख रहता है तो इससे आने वाले वक्त में भी सोने की कीमतों में कमी नहीं आएगी।आने वाले महीने में भी सोने की मांग के कम रहने के संकेत हैं। दरीबा ज्वैलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष निर्मल जैन का कहना है, 'जून-जुलाई में वैसे भी शादियों का सीजन नहीं होने से मांग कम रहती है। ऐसे में इस दौरान भी बिक्री कम ही रहेगी।' तरुण गुप्ता के मुताबिक, 'मांग के कम होने के बावजूद सोने की कीमतों में कोई गिरावट नहीं आ रही है। कई घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कारकों की वजह से सोना लगातार ऊपर बना हुआ है और आने वाले वक्त में भी कीमतों में कोई कमी आती नहीं दिख रही है।'इस साल सोने के आयात के आंकड़े भी इस बात की गवाही दे रहे हैं कि देश में सोने की मांग में कमजोरी का दौर बना हुआ है। भारत हर साल करीब 700 टन सोने का आयात करता है। तरुण गुप्ता कहते हैं, 'इस साल यह आयात घटकर 200 टन के आसपास रहने की आशंका है।' इस साल जनवरी से जून के बीच 50 टन सोने का आयात हुआ है जबकि पिछले साल इसी दौरान 139 टन सोना आयात हुआ था। इसके अलावा फरवरी से मार्च के बीच देश में सोने का बिल्कुल आयात नहीं हुआ। अप्रैल में 20 टन और मई में यह आयात पिछले साल के मुकाबले 40 फीसदी घटकर 17.8 टन रहा है। अनुमान के मुताबिक जून में भी सोने का आयात करीब 40 फीसदी घटकर 10 टन पर आ सकता है। (ET HIndi)
खाद्य तेलों की कीमतों में बनी रहेगी स्थिरता
नई दिल्ली- खाद्य तेलों के आयात में तेजी के कारण लंबे समय तक कीमतों में स्थिरता बनी रह सकती है। मानसून में देर तथा गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत में खरीफ सीजन में कम बुआई से मार्केटिंग सीजन के अंत तक आयात में तेजी बनी रहेगी, भले ही दूसरी ओर दुनियाभर में तेल की कीमतों में तेजी हो। उदाहरण के तौर पर अप्रैल से मई के दौरान आयात में उस समय तेजी आई जब दुनियाभर में खाद्य तेलों की कीमतों में बढ़ोतरी दर्ज की गई। इस दौरान आरबीडी पामोलीन की कीमतें 48 डॉलर, क्रूड पाम आयल 70 डॉलर, क्रूड सोयाबीन आयल 57 डॉलर और सनफ्लावर आयल की कीमतें 45 डॉलर के स्तर पर देखी गईं। खाद्य तेलों की मार्केटिंग का साल नंवबर से लेकर अक्टूबर के बीच होता है। मौजूदा मार्केटिंग साल में रिकॉर्ड 75 लाख टन तेलों का आयात होने का अनुमान है। इनमें पाम ग्रुप आयल के आयात में प्रमुखता रहेगी। पिछले तेल सत्र में 63 लाख टन वनस्पति तेल का आयात किया गया था। आयात के इसी रिकॉर्ड स्तर से इस बात की आस जगी है कि खाद्य तेलों के दाम पर अंकुश बरकरार रहेगा। सॉल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक, इस साल के मई तक देश में खाद्य तेलों का आयात पिछले साल की समान अवधि में 3,02,345 टन से 130 फीसदी बढ़कर 6,96,625 के स्तर पर पहुंच गया। इसके अलावा मई में कुल तेलों का आयात बढ़कर 7.51 लाख टन हो गया जबकि पिछले साल की समान अवधि में यह 3.61 के स्तर पर था। इस साल केवल अप्रैल में ही 6.99 लाख टन तेलों का आयात हुआ और कुल तेलों के आयात में खाद्य तेलों का आयात 6.96 लाख टन का रहा जबकि शेष हिस्सा गैर खाद्य तेलों का था जो औद्योगिक इस्तेमाल में काम आता है। (ET Hindi)
तेजी से बढ़ीं दाल की कीमतें
नई दिल्ली: पिछले साल कई हफ्तों तक खाद्य पदार्थों की महंगाई में दाल की तेज कीमतों का असर देखने को मिला। इस साल मॉनसून की देरी से प्रमुख दाल उत्पादक क्षेत्रों में बुआई फिलहाल रोक दी गई है और यह आम लोगों के साथ सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। पिछले पंद्रह दिनों में दाल की थोक कीमतों में तेजी से इजाफा हुआ है। इस साल दलहन के उत्पादन क्षेत्र में कमी आने का अनुमान है। 19 जून तक के आंकड़ों के मुताबिक किसानों ने खरीफ के सीजन में 1,81,200 हेक्टेयर में दाल की पैदावार की है, जो पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 3.8 फीसदी कम है। कमोडिटी जानकारों का कहना है कि इस साल पूरे देश में मानसून सामान्य से कम रहने की आशंका के बीच दालों की कीमत में तेजी का रुख रह सकता है।
जानकारों का कहना है कि इस सीजन में उपभोक्ताओं को उड़द, मूंग, मसूर, मोंठ और अरहर की दाल के लिए ज्यादा कीमत चुकानी पड़ सकती है। क्रॉप वेदर वॉच रिपोर्ट के मुताबिक मानसून के सामान्य से कम रहने की घोषणा के बाद 25 जून से दालों की कीमतों में तेजी शुरू हो गई है। मसूर (छोटी और बड़ी) की कीमत बढ़कर क्रमश: 4,200-4300 रुपए प्रति क्विंटल और 4,000-4,100 रुपए प्रति क्विंटल के स्तर पर पहुंच गई हैं, जो कि 10 जून के मुकाबले 50 रुपए प्रति क्विंटल अधिक हैं। मलका (बेस्ट) की कीमत 4,900-5,000 रु प्रति क्विंटल, उड़द (महाराष्ट्र) की कीमत 3,050-3,450 रुपए, उड़द (बेस्ट) 4,400-4,900 रु प्रति क्विंटल है। वहीं मोंठ के दाम 3,200-3,300 रुपए प्रति क्विंटल, अरहर (महाराष्ट्र) की कीमत 4,000-4,100 रुपए और अरहर (रंगून) के दाम 4,000-4,100 रुपए प्रति क्विंटल हैं। मौजूदा समय में सबसे सस्ती चने की दाल है, हालांकि पिछले पंद्रह दिनों में इसकी कीमतों में भी तेजी आई है। 10 जून 2009 के आंकड़ों के मुताबिक चने की दाल की थोक कीमत में 50 रुपए प्रति क्विंटल का इजाफा हुआ है। जानकारों का कहना है कि मानसून की मौजूदा स्थिति और खरीफ सीजन में दालों की पैदावार की संभावना को देखते हुए चने की कीमतों में पहले ही उछाल का रुख चालू हो चुका है। रीटेलरों द्वारा खरीदारी किए जाने से आने वाले दिनों में इसकी कीमतों में और तेजी आएगी। एंजेल कमोडिटीज के एक रिसर्च एनालिस्ट ने बताया, 'पिछले शुक्रवार को प्रॉफिट बुकिंग के बावजूद मजबूत सेंटीमेंट के कारण चने की कीमतों को समर्थन मिला है। आने वाले दिनों में बढ़ती मांग और सीमित आपूर्ति के कारण चने के वायदा कारोबार में सुधार आएगा। दूसरी दालों की कीमतों में जारी तेजी से भी चने की कीमतों को समर्थन मिलेगा।' (ET Hindi)
जानकारों का कहना है कि इस सीजन में उपभोक्ताओं को उड़द, मूंग, मसूर, मोंठ और अरहर की दाल के लिए ज्यादा कीमत चुकानी पड़ सकती है। क्रॉप वेदर वॉच रिपोर्ट के मुताबिक मानसून के सामान्य से कम रहने की घोषणा के बाद 25 जून से दालों की कीमतों में तेजी शुरू हो गई है। मसूर (छोटी और बड़ी) की कीमत बढ़कर क्रमश: 4,200-4300 रुपए प्रति क्विंटल और 4,000-4,100 रुपए प्रति क्विंटल के स्तर पर पहुंच गई हैं, जो कि 10 जून के मुकाबले 50 रुपए प्रति क्विंटल अधिक हैं। मलका (बेस्ट) की कीमत 4,900-5,000 रु प्रति क्विंटल, उड़द (महाराष्ट्र) की कीमत 3,050-3,450 रुपए, उड़द (बेस्ट) 4,400-4,900 रु प्रति क्विंटल है। वहीं मोंठ के दाम 3,200-3,300 रुपए प्रति क्विंटल, अरहर (महाराष्ट्र) की कीमत 4,000-4,100 रुपए और अरहर (रंगून) के दाम 4,000-4,100 रुपए प्रति क्विंटल हैं। मौजूदा समय में सबसे सस्ती चने की दाल है, हालांकि पिछले पंद्रह दिनों में इसकी कीमतों में भी तेजी आई है। 10 जून 2009 के आंकड़ों के मुताबिक चने की दाल की थोक कीमत में 50 रुपए प्रति क्विंटल का इजाफा हुआ है। जानकारों का कहना है कि मानसून की मौजूदा स्थिति और खरीफ सीजन में दालों की पैदावार की संभावना को देखते हुए चने की कीमतों में पहले ही उछाल का रुख चालू हो चुका है। रीटेलरों द्वारा खरीदारी किए जाने से आने वाले दिनों में इसकी कीमतों में और तेजी आएगी। एंजेल कमोडिटीज के एक रिसर्च एनालिस्ट ने बताया, 'पिछले शुक्रवार को प्रॉफिट बुकिंग के बावजूद मजबूत सेंटीमेंट के कारण चने की कीमतों को समर्थन मिला है। आने वाले दिनों में बढ़ती मांग और सीमित आपूर्ति के कारण चने के वायदा कारोबार में सुधार आएगा। दूसरी दालों की कीमतों में जारी तेजी से भी चने की कीमतों को समर्थन मिलेगा।' (ET Hindi)
29 जून 2009
दक्षिणी राज्यों में हल्दी के रकबे में बढ़ोतरी
मुंबई 06 28, 2009
हल्दी के प्रमुख उत्पादक राज्य तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में अच्छी बारिश होने की वजह से इस बार हल्दी की बुआई अधिक होने की उम्मीद जताई जा रही है।
पिछले दो साल में हल्दी की कीमत में करीबन 150 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जिसके कारण इस बार हल्दी की फसल को किसान ज्यादा प्राथमिकता देने वाले हैं। इस साल हल्दी की फसल 20 फीसदी ज्यादा होने की उम्मीद की जा रही है।
हालांकि देश के दूसरे हिस्सों में कमजोर मानसून और बरसात में हो रही देरी से दूसरी फसलों की तरह हल्दी की बुआई पर भी असर देखा जा सकता है। इस समय थोक बाजार में हल्दी 54 रुपये प्रति किलो बिक रही है, जबकि अप्रैल में 53 रुपये प्रति किलो और जनवरी में 40 रुपये प्रति किलो एवं 31 अक्टूबर 2007 को हल्दी 21 रुपये प्रति किलो थी।
जून 2007 में हल्दी 20 रुपये प्रति किलो से भी नीचे बेची जा रही थी। पिछले दो वर्षों में हल्दी की कीमतों में मजबूती की मुख्य वजह कम उत्पादन और घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार में हल्दी की अच्छी मांग को माना जा रहा है।
वित्त वर्ष 2008-09 में हल्दी का उत्पादन 41 लाख बोरी (एक बोरी बराबर 75 किलोग्राम) का था जबकि 2007-08 में 45 लाख बोरी का उत्पादन हुआ था। देसी और विदेशी मांग(निर्यात) को मिलाकर प्रति वर्ष हल्दी की मांग करीबन 50 लाख बोरी की है।
तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश से मिल रही जानकारी के अनुसार वहां सही बरसात होने से हल्दी की अच्छी बुआई हुई है, पिछले साल की अपेक्षा इस बार दक्षिण के राज्यों में हल्दी की बुआई क्षेत्र में करीबन 25 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। (BS Hindi)
हल्दी के प्रमुख उत्पादक राज्य तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में अच्छी बारिश होने की वजह से इस बार हल्दी की बुआई अधिक होने की उम्मीद जताई जा रही है।
पिछले दो साल में हल्दी की कीमत में करीबन 150 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जिसके कारण इस बार हल्दी की फसल को किसान ज्यादा प्राथमिकता देने वाले हैं। इस साल हल्दी की फसल 20 फीसदी ज्यादा होने की उम्मीद की जा रही है।
हालांकि देश के दूसरे हिस्सों में कमजोर मानसून और बरसात में हो रही देरी से दूसरी फसलों की तरह हल्दी की बुआई पर भी असर देखा जा सकता है। इस समय थोक बाजार में हल्दी 54 रुपये प्रति किलो बिक रही है, जबकि अप्रैल में 53 रुपये प्रति किलो और जनवरी में 40 रुपये प्रति किलो एवं 31 अक्टूबर 2007 को हल्दी 21 रुपये प्रति किलो थी।
जून 2007 में हल्दी 20 रुपये प्रति किलो से भी नीचे बेची जा रही थी। पिछले दो वर्षों में हल्दी की कीमतों में मजबूती की मुख्य वजह कम उत्पादन और घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार में हल्दी की अच्छी मांग को माना जा रहा है।
वित्त वर्ष 2008-09 में हल्दी का उत्पादन 41 लाख बोरी (एक बोरी बराबर 75 किलोग्राम) का था जबकि 2007-08 में 45 लाख बोरी का उत्पादन हुआ था। देसी और विदेशी मांग(निर्यात) को मिलाकर प्रति वर्ष हल्दी की मांग करीबन 50 लाख बोरी की है।
तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश से मिल रही जानकारी के अनुसार वहां सही बरसात होने से हल्दी की अच्छी बुआई हुई है, पिछले साल की अपेक्षा इस बार दक्षिण के राज्यों में हल्दी की बुआई क्षेत्र में करीबन 25 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। (BS Hindi)
जून में सोने का आयात 44% घटने की आशंका
भारत का सोने का आयात जून माह के दौरान मई की तुलना में 44 प्रतिशत घटकर 10 टन रह सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि ऊंची कीमतों और घरेलू बाजार में कम मांग की वजह से सोने के आयात में गिरावट आ सकती है।बंबई बुलियन एसोसिएशन द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार मई में भारत ने 18 टन सोने का आयात किया था।बंबई बुलियन एसोसिएशन के निदेशक सुरेश हुंडिया ने कहा कि जून में सोने का आयात घटकर 10 टन पर आ सकता है। जब तक कीमतों में गिरावट नहीं आती है, आयात में सुधार की उम्मीद नहीं है।पिछले सप्ताह सोने की कीमतें हाजिर और वायदा बाजार में 14,600 रुपये प्रति 10 ग्राम के स्तर पर थीं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोना 938.55 डॉलर प्रति औंस पर था।इस साल अब तक देश में सोने का आयात काफी ठंडा रहा है। जनवरी से जून की अवधि के दौरान सोना आयात 50 टन रहा है, जबकि 2008 में इसी अवधि के दौरान यह 139 टन रहा था। फरवरी और मार्च में घरेलू मांग नदारद होने की वजह से सोने का आयात शून्य रहा था।इस दौरान सोना 15,000 रुपये प्रति 10 ग्राम के स्तर पर था। अप्रैल में अक्षय तृतीया की मांग की वजह से भारत ने 20 टन सोने का आयात किया था। अक्षय तृतीया के दौरान सोने की खरीद शुभ मानी जाती है। (NDTv)
पानी की किल्लत से अन्न उगाना बड़ी चुनौती
पानी इंसानों के पीने के लिए दिया जाए या फिर अन्न उपजाने को खेतों की सिंचाई के लिए। पानी की किल्लत अनाज उत्पादन पर भारी पड़ रही है। आने वाले पांच से दस साल के दौरान बढ़ती आबादी के लिए पर्याप्त अनाज उगाना देश के लिए बड़ी चुनौती होगी।अनुमान है कि वर्ष 2020 में भारत को अपनी आवश्यकता के लिए करीब दस करोड़ टन गेहूं की आवश्यकता होगी। जबकि पिछले सालों में गेहूं का उत्पादन प्रति वर्ष मात्र 0.8 फीसदी की दर से बढ़ा जबकि आबादी में बढ़ोतरी 2.2 फीसदी की दर से हो रही है। चावल का उत्पादन वर्ष 2000-01 में देश में 933 लाख टन का हुआ था जबकि चालू वर्ष में 993 लाख टन होने का अनुमान है। मक्का का उत्पादन पिछले साल के 189 लाख टन से घटकर 184 लाख टन होने का अनुमान है। खपत में हो रही बढ़ोतरी को देखते हुए वर्ष 2020 तक भारत को करीब 300 लाख टन मक्का की आवश्ययकता होगी। विशाल आबादी का पेट भरने के लिए ज्यादा खाद्यान्न की जरूरत पड़ेगी। देश में अनाज की कमी आयात से भी दूर होना मुश्किल होगा।अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ने से अनाज से बायोफ्यूल बनाने का उद्योग बढ़ रहा है। ऐसे में आगामी पांच से दस सालों में देश को खाद्यान्न की भारी कमी का सामना करना पड़ सकता है। अत: इनके उत्पादन में बढ़ोतरी कैसे हो इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों को काफी जद्दोजहद करनी पड़ सकती है। आबादी में हो रही बढ़ोतरी के हिसाब से खाद्यान्न उत्पादन कैसे बढ़े, इसके लिए ठोस रणनीति बनाने की सख्त आवश्यकता है।गेहूं अनुसंधान निदेशालय, करनाल के परियोजना निदेशक डाक्टर जग शरण ने बिजनेस भास्कर को बताया कि नहरी पानी का उपयोग सिंचाई के बजाय दूसरे कार्यो जैसे इंसानों के पीने और उद्योगों के लिए उपयोग लगातार बढ़ रहा है। पहले नहरें खेतों की सिंचाई के लिए बनाई जाती थी लेकिन अब राज्यों में दूसरे कार्यो के लिए नहरों का निर्माण हो रहा है। नहरी पानी को लेकर हरियाणा-पंजाब-राजस्थान, कर्नाटक-आंध्र प्रदेश तथा अन्य कई राज्यों के बीच मुकदमे अदालतों में कई सालों से चल रहे हैं। पिछले दो-तीन साल से सिंचाई के लिए कोई नई जल संचय परियोजना नहीं बनी है। हालत यह हो गई है कि नहरों में आखिरी टेल तक पानी ही नहीं पहुंच रहा है। भू जल स्तर का हाल यह है कि जिन क्षेत्रों में आज से चार-पांच साल पहले 80-90 फीट पर टयूबवैल लगे हुए थे, वे सब बंद हो चुके हैं। कई राज्यों में भूमि का जलस्तर गिरकर 250 से 300 फीट तक नीचे चला गया है। किसानों के लिए सबसे बड़ा जोखिम जो बनता जा रहा है, वह है बारिश में लंबा समयांतराल और मानसून का जल्दी समाप्त हो जाना। मानूसनी वर्षा कम होने का अर्थ है कि जलाशयों में पानी की कमी रहती है। मानसून धोखा देता है तो खेतों में खड़ी फसल और किए गए निवेश को बचाना मुश्किल होता है।पिछले कुछ समय से मानसून से जुड़ी सबसे बड़ी चिंता तेजी से उभरते अल नीनो (प्रशांत महासागर में पानी के गर्म होने को दिया गया स्थानीय नाम) को लेकर है। अक्सर माना जाता है कि इसका मानसून पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अगर ऐसा ही रहा तो आगामी पांच-दस साल में खेतों के लिए क्या पीने के पानी के भी लाले पड़ सकते हैं। खेती की मानसून पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।यूएस ग्रेन काउंसिल के भारत में प्रतिनिधि अमित सचदेव के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ते ही खाद्यान्न का उपयोर्ग ईधन के रूप में बढ़ जाता है। दो साल पहले जब भारत कोगेहूं का आयात करना पड़ा तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं के दाम 200 डॉलर से बढ़कर 450 डॉलर प्रति टन हो गए थे। गेहूं का उत्पादन पिछले नौ साल में मात्र डेढ़ फीसदी बढ़ा है। ऐसे में समय आ गया है कि सरकार खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने पर गंभीरता से विचार करें तथा कोई ठोस रणनीति बनाए। (Business Bhaskar....R S Rana)
क्रूड ऑयल में और सुधार होने की संभावना
एक बार रिकार्ड ऊंचाई छूने के बाद क्रूड ऑयल के दामों में सुधार का दौर शुरू हो गया है। इससे यह अटकलें भी तेज हो गई है कि साल के अंत तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड 85 डॉलर प्रति बैरल (158.99 लीटर) तक पहुंच सकता है। वहीं दूसरी तरफ चौथी तिमाही में क्रूड के औसत भाव 61 डॉलर प्रति बैरल के ऊपर रहने का भी अनुमान लगाया जा रहा है।इस वजह से क्रूड के प्रति घरलू निवेशकों का भी विश्वास वापस लौटा है। इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि पिछले वर्ष तेजी के दौर के बावजूद अप्रैल और मई के दौरान मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (एमसीएक्स) में क्रूड का कारोबार 14676 करोड़ रुपये हुआ था, जबकि इस साल मंदी के बावजूद चालू वित्त वर्ष के पहले इन दो महीनों में 18950 करोड़ रुपये का कारोबार हुआ है। इसके अलावा एमसीएक्स में वायदा सौदों में भी इस साल क्रूड के भावों में 75 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी भी देखी गई है। एक जनवरी को फरवरी वायदा क्रूड के भाव 1920 रुपये प्रति बैरल तक उतर गए थे, जबकि 27 जून को जुलाई वायदा भाव 3352 रुपये प्रति बैरल दर्ज किए गए हैं। हालांकि क्रूड वायदा सौदों में इस जोरदार तेजी की मुख्य वजह अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस साल क्रूड के दामों में 61 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी होना ही है। लेकिन क्रूड के कारोबार में आम लोगों का जुड़ाव भी भावों पर थोड़ा असर डाल रहा है। यह जान लेना जरूरी है कि क्रूड ऐसी कमोडिटी है, जिसकी डिलीवरी कम ली जाती है और निवेश के लिहाज से ही इसके सौदे किए जा रहे हैं।जहां तक वैश्विक बाजार में क्रूड के भावों में संभावित बढ़ोतरी की बात है। इसकी वजह पेरिस स्थित इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की रिपोर्ट है, जिसमें दस महीनों में पहली बार क्रूड की खपत में बढ़ोतरी का पूर्वानुमान लगाया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक इस साल क्रूड की खपत 1.20 लाख बैरल बढ़कर प्रति दिन 8.33 करोड़ बैरल प्रतिदिन होने का अनुमान है। क्रूड की खपत में बढ़ोतरी का कारण दुनिया भर में औद्योगिक उत्पादन में सुधार होना माना जा रहा है। यही कहा जा रहा है कि मांग में बढ़ने से साल के अंत तक क्रूड 85 डॉलर प्रति बैरल का स्तर बना सकता है। उल्लेखनीय है कि ऊर्जा की वैश्विक मांग को पूरा करने में क्रूड ऑयल की भागीदारी करीब चालीस फीसदी की है। वहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार में बिकने वाले क्रूड में करीब 55 फीसदी हिस्सा ओपेक देशों का होता है। दूसरी तरफ ओपेक देशों की अगली बैठक सितंबर में ही होगी और इसमें ही उत्पादन में बढ़ोतरी के बार में फैसला होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि अब जो हालात दिखाई दे रहे हैं, उसके मुताबिक क्रूड के भावों में अब बड़ी गिरावट की संभावना कम है। इसलिए क्रूड में निवेश करना निकट भविष्य में और लाभदायक हो सकता है। (Business Bhaskar)
कालीमिर्च में तेजी के रुख की संभावना
निर्यातकों की कमजोर मांग के बावजूद स्टॉक कम होने से कालीमिर्च में तेजी की ही संभावना है। पिछले एक सप्ताह में 150 रुपये की तेजी आकर एमजी वन की कीमतें 12,900 रुपये और अनगार्बल्ड के भाव 12,400-12,500 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। वियतनाम के पास इस समय लगभग 27 फीसदी माल ही बचा हुआ है। हालांकि इंडोनेशिया में नई फसल की आवक तो शुरू हो गई है लेकिन बिकवाली कम आ रही है। ब्राजील की फसल आने में चार-पांच महीने का समय शेष है, ऐसे में कालीमिर्च के मौजूदा भावों में और भी तेजी के आसार हैं।बंगलुरू के कालीमिर्च निर्यातक अनीश रावथर ने बताया कि इस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय कालीमिर्च के भाव 2650-2700 डॉलर प्रति टन (सीएंडएफ) चल रहे हैं। लेकिन इन भावों में मांग काफी कमजोर है। उधर वियतनाम और इंडोनेशिया की कालीमिर्च के भाव 2450-2500 डॉलर प्रति टन चल रहे हैं। वियतनाम अभी तक करीब 65,000 हजार टन कालीमिर्च की बिकवाली कर चुका है जबकि चालू सीजन में वियतनाम में 90,000 टन का उत्पादन हुआ था। ऐसे में अब वियतनाम के पास 25,000 टन का स्टॉक ही बचा है। इसलिए वियतनाम की बिकवाली पहले की तुलना में घट गई है। इंडोनेशिया में नई फसल की आवक शुरू हो चुकी है। इंडोनेशिया में नई फसल का 15,000 टन का उत्पादन होने की संभावना है। उत्पादक देशों में कमजोर स्टॉक को देखते हुए इंडोनेशिया की बिकवाली भी कम आ रही है। जबकि ब्राजील की नई फसल की आवक नवंबर-दिसंबर महीने में बनेगी। विश्व बाजार में काली मिर्च की कुल उपलब्धता कम रहने की संभावना है। ऐसे में घरेलू बाजार में कालीमिर्च की कीमतों में तेजी की ही संभावना है।कोच्चि मंडी स्थित मैसर्स केदारनाथ संस के डारेक्टर अजय अग्रवाल ने बताया कि केरल के उत्पादक क्षेत्रों में प्रतिकूल मौसम से पैदावार घटी है। चालू सीजन में देश में इसकी पैदावार 45,000 टन होने की संभावना है। जबकि पिछले वर्ष 50,000 टन की पैदावार हुई थी। पिछले साल नई फसल के समय बकाया स्टॉक भी 8,000-10,000 टन का बचा हुआ था लेकिन चालू वर्ष में बकाया स्टॉक मात्र 5,000 टन का ही बचा हुआ है। ऐसे में कुल उपलब्धता पिछले वर्ष के मुकाबले कम है। पैदावार में कमी के कारण ही कालीमिर्च में इस समय घरेलू मांग अच्छी बनी हुई है। जिससे भावों में तेजी दर्ज की जा रही है। वियतनाम और इंडोनेशिया में भाव कम होने के कारण पिछले दो-ढ़ाई महीने में भारत करीब 5,000 टन कालीमिर्च का आयात कर चुका है। भारत वियतनाम, इंडोनेशिया व श्रीलंका से कालीमिर्च का आयात कर पाउडर बनाकर निर्यात करता है। प्रोसेसिंग के बाद निर्यात करने के लिए कालीमिर्च का आयात शून्य शुल्क पर किया जाता है जबकि वैसे आयात पर 70 फीसदी आयात शुल्क लगता है। (Business Bhaskar...R S Rana)
मिल सकती है गेहूं उत्पादों के निर्यात की अनुमति
नई दिल्ली: केंद्र सरकार जल्द ही आटा, सूजी और मैदा जैसे गेहूं से बने उत्पादों के निर्यात की अनुमति दे सकती है, हालांकि मानसून में देर को देखते हुए गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध जारी रहेगा। विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) के एक अधिकारी ने बताया कि वाणिज्य मंत्रालय ने 6.5 लाख टन गेहूं के उत्पादों के निर्यात को मंजूरी दी है जिसके संबंध में दिशानिर्देश जल्द ही आ सकते हैं। उन्होंने बताया कि कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (अपेडा) इस निर्यात पर नजर रखेगा। पिछली सरकार के विशेषाधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह ने 15 मई के बाद 20 लाख टन गेहूं और गेहूं से बने उत्पादों के निर्यात की अनुमति दी थी। गेहूं के निर्यात पर वर्ष 2007 की शुरुआत में प्रतिबंध लगाया गया था। गेहूं निर्यात को मिली अनुमति को टालने का फैसला इसलिए किया गया है, क्योंकि सरकार खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करना चाहती है। 25 मई को खाद्य और कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा था, 'हम गेहूं निर्यात पर लगी पाबंदी को हटाने के लिए जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि मौजूदा समय में सरकार के ऊपर सबसे बड़ी जिम्मेदारी उचित दाम पर प्रत्येक व्यक्ति को गेहूं की उपलब्धता सुनिश्चित करना है।' (ET Hindi)
खाद्य तेलों की कीमतों में बनी रहेगी स्थिरता
नई दिल्ली- खाद्य तेलों के आयात में तेजी के कारण लंबे समय तक कीमतों में स्थिरता बनी रह सकती है। मानसून में देर तथा गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत में खरीफ सीजन में कम बुआई से मार्केटिंग सीजन के अंत तक आयात में तेजी बनी रहेगी, भले ही दूसरी ओर दुनियाभर में तेल की कीमतों में तेजी हो। उदाहरण के तौर पर अप्रैल से मई के दौरान आयात में उस समय तेजी आई जब दुनियाभर में खाद्य तेलों की कीमतों में बढ़ोतरी दर्ज की गई। इस दौरान आरबीडी पामोलीन की कीमतें 48 डॉलर, क्रूड पाम आयल 70 डॉलर, क्रूड सोयाबीन आयल 57 डॉलर और सनफ्लावर आयल की कीमतें 45 डॉलर के स्तर पर देखी गईं। खाद्य तेलों की मार्केटिंग का साल नंवबर से लेकर अक्टूबर के बीच होता है। मौजूदा मार्केटिंग साल में रिकॉर्ड 75 लाख टन तेलों का आयात होने का अनुमान है। इनमें पाम ग्रुप आयल के आयात में प्रमुखता रहेगी। पिछले तेल सत्र में 63 लाख टन वनस्पति तेल का आयात किया गया था। आयात के इसी रिकॉर्ड स्तर से इस बात की आस जगी है कि खाद्य तेलों के दाम पर अंकुश बरकरार रहेगा। सॉल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक, इस साल के मई तक देश में खाद्य तेलों का आयात पिछले साल की समान अवधि में 3,02,345 टन से 130 फीसदी बढ़कर 6,96,625 के स्तर पर पहुंच गया। इसके अलावा मई में कुल तेलों का आयात बढ़कर 7.51 लाख टन हो गया जबकि पिछले साल की समान अवधि में यह 3.61 के स्तर पर था। इस साल केवल अप्रैल में ही 6.99 लाख टन तेलों का आयात हुआ और कुल तेलों के आयात में खाद्य तेलों का आयात 6.96 लाख टन का रहा जबकि शेष हिस्सा गैर खाद्य तेलों का था जो औद्योगिक इस्तेमाल में काम आता है।
मौजूदा समय में रिफाइंड सोयाबीन तेल खुदरा बाजार में 20 रुपए प्रतिकिलो के स्तर पर है जबकि एनसीडीईएक्स और एमसीएक्स में जुलाई के लिए सोयाबीन तेल की वायदा कीमतें 10 रुपए प्रतिकिलो चल रहा है। कमोडिटी बाजार के एक जानकार ने बताया कि मौजूदा कारोबार एक सीमा के भीतर है और साथ ही स्थिर भी। कारोबारी के मुताबिक, ' रिफाइंड सोयाबीन तेल की मांग में कुछ समय के लिए आई कमी से भी मौजूदा कारोबार में स्थिरता आ गई है।' एंजेल कमोडिटीज के एक विश्लेषक के मुताबिक, खाद्य तेल के आयात में आई तेजी और मांग में कमी के कारण लंबे समय के लिए कीमतों में स्थिरता बनी रह सकती है। एमएमटीसी जैसी सार्वजिनक क्षेत्र की आयातक कंपनियों ने खाद्य तेलों के आयात के लिए टेंडर जारी किया है। कंपनी को करीब 12,000 टन आरबीडी पामोलीन का आयात करना है। (ET Hindi)
मौजूदा समय में रिफाइंड सोयाबीन तेल खुदरा बाजार में 20 रुपए प्रतिकिलो के स्तर पर है जबकि एनसीडीईएक्स और एमसीएक्स में जुलाई के लिए सोयाबीन तेल की वायदा कीमतें 10 रुपए प्रतिकिलो चल रहा है। कमोडिटी बाजार के एक जानकार ने बताया कि मौजूदा कारोबार एक सीमा के भीतर है और साथ ही स्थिर भी। कारोबारी के मुताबिक, ' रिफाइंड सोयाबीन तेल की मांग में कुछ समय के लिए आई कमी से भी मौजूदा कारोबार में स्थिरता आ गई है।' एंजेल कमोडिटीज के एक विश्लेषक के मुताबिक, खाद्य तेल के आयात में आई तेजी और मांग में कमी के कारण लंबे समय के लिए कीमतों में स्थिरता बनी रह सकती है। एमएमटीसी जैसी सार्वजिनक क्षेत्र की आयातक कंपनियों ने खाद्य तेलों के आयात के लिए टेंडर जारी किया है। कंपनी को करीब 12,000 टन आरबीडी पामोलीन का आयात करना है। (ET Hindi)
आने वाले हफ्तों में खाने-पीने की चीजें होंगी महंगी
नई दिल्ली - आने वाले सप्ताह में खाद्य पदार्थों के और महंगा होने का अनुमान है। इसके पीछे पहला कारण है मानसून। इस वजह से ट्रेडिंग में काफी उतार - चढ़ाव हो रहा है , लेकिन कोई नहीं जानता कि यह किस तरफ जा रहा है। दूसरा कारण है रक्षा बंधन , जन्माष्टमी और गणेश चतुर्थी जैसे त्यौहार अगस्त में पड़ रहे हैं। इसके बाद सितंबर में ईद और नवरात्रि आएगी। त्यौहारों का मतलब है कि खाद्य तेल , चावल , चीनी , बेसन , मैदा , सूखे फल , दूध और मसालों की मांग काफी ज्यादा होगी। क्या भारत इनका मुकाबला कर पाएगा ? इन्हीं सब सवालों के कारण इन कमोडिटीज पर दांव लगाए जा रहे हैं और इससे आपके बटुए पर क्या असर पड़ेगा ? आइए इस बात को समझते हैं। खाद्य तेल - त्यौहारी मांग के कारण अगस्त में इसकी कीमतों में कम से कम दो रुपए प्रति किलोग्राम की वृद्धि होगी। एमआरपी में भी इसी अनुपात में बढ़ोतरी होगी। यह आंकड़े तभी मान्य हैं , जब मानसून में आगे सुधार आएगा और सरकार ने आयातित क्रूड पाम ऑयल के ऊपर कस्टम ड्यूटी न लगाई। अगर मानसून गड़बड़ रहा तो सोया और मूंगफली की फसलों को भारी नुकसान होगा और भारत की आयात पर निर्भरता बढ़ जाएगी। चीनी - हम पहले से ही चीनी की कम आपूर्ति की समस्या का सामना कर रहे हैं। हालांकि कीमतों में अभी तेज बढ़ोतरी देखने को नहीं मिल रही है क्योंकि आपने बिजनेस चैनलों पर शुगर इक्विटी स्टॉक पर चर्चा में सुना होगा कि सरकार ने निर्णय लिया है कि आयात से पहले स्थानीय गोदामों को खाली किया जाएगा। भारत में नया पेराई सीजन अक्टूबर से शुरू होता है तो अब आयात में तेजी आएगी , लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें भारतीय चीनी की कीमतों के मुकाबले काफी ज्यादा हैं। इस कारण आयात बढ़ने के बाद स्थानीय बाजार में भी कीमतों में बढ़ोतरी देखने को मिलेगी। रूल ऑफ थम्ब कहता है कि आपको अंतरराष्ट्रीय कीमतों के अलावा तीन रुपए प्रति किलो के हिसाब से प्रोसेसिंग और परिवहन के रूप में देने होंगे। हो सकता है कि इससे आपको ज्यादा फर्क न पड़े , लेकिन कोला , चॉकलेट , आइसक्रीम , बिस्किट और ब्रेड कंपनियों के बारे में सोचिए। यहां आपको अधिक कीमत चुकानी होगी। मैदा - गेहूं की अधिकता की कारण मैदा की कीमतों में खास असर नहीं पड़ेगा। मैदे के मांग जुलाई में बढ़ती है जब स्कूल टिफिन में एक बार फिर से ब्रेड , नूडल्स और बिस्किट जाने शुरू होते हैं। लेकिन इस बार गेहूं की अधिकता और प्रतिस्पर्धा कीमतों पर नियंत्रण रखेगी। अभी मैदे की कीमत 13 रुपए प्रति किलो है , अगस्त में इसकी कीमत 14.50 रुपए प्रति किलो होने का अनुमान है। (ET Hindi)
27 जून 2009
औद्योगिक विकास तेज होने पर चांदी में बढ़त
बाजार में चांदी की चमक तभी चमकेगी, अगर औद्योगिक मांग में बढ़ोतरी होगी। अगले वर्षो में औद्योगिक तेजी आने पर चांदी की मांग इस सेक्टर से बढ़ेगी। इससे भाव बढ़ सकते हैं। पिछले एक साल में विभिन्न जिंसों के दामों में जिस तेजी से बदलाव आया है उसे देखते हुए अगले पांच सालों की स्थिति के बार में अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है। चांदी के औद्योगिक उपयोग को देखते हुए यह काम और कठिन हो जाता है। लंदन स्थित जीएफएमएस रिसर्च संस्थान के अनुसार आने वाले सालों में इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रानिक्स क्षेत्र की मांग में कमी से चांदी की औद्योगिक मांग में गिरावट आएगी। साथ ही फोटोग्राफी के मांग भी पिछले साल की भांति कम होगी। पश्चिमी देशों की ओर से चांदी की ज्वैलरी की मांग भी कम होगी। इस तरह से माना जा रहा है कि फ्क्क्9 में चांदी की औद्योगिक मांग करीब ख्क् फीसदी तक कम हो सकती है, जिसके आगे और भी कम होने की संभावना है। फिलहाल चांदी की कुल मांग का करीब स्त्रक् फीसदी औद्योगिक उपयोग होता है। दूसरी ओर निवेश के विकल्प के रूप में चांदी को जरूर मजबूती मिलेगी। खासकर ईटीएफ (एक्सचेंज ट्रेडेड फंड) की ओर से चांदी की मांग बढ़ेगी। दूसरी ओर खदानों से इसकी सप्लाई आने वाले सालों में और कम हो सकती है। साथ ही फोटोग्राफी की मांग में कमी को देखते हुए चांदी की स्क्रैप सप्लाई में भी गिरावट के आसार है। इसको देखते हुए माना जा रहा है कि फ्क्क्9 में इसकी कुल सप्लाई में दो फीसदी की कमी आ सकती है जो आने वाले वषरें में बढ़ती जाएगी। मांग और सप्लाई की स्थिति को देखते हुए जीएफएमएस ने अनुमान लगाया है कि विदेशी बाजार में चालू वर्ष के दौरान इसके दाम ख्ख्.म्क्-ख्भ्.ब्क् डॉलर प्रति औंस के बीच रहेंगे। भारतीय बाजार में इसके दाम फ्ख्,क्क्क्-फ्भ्क्क्क् रुपये प्रति किलो के बीच रहने के आसार हैं। पैराडाइम कमोडिटी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बीरने वकील ने बिजनेस भास्कर को बताया कि अगले पांच सालों के हालात के बार में अनुमान लगाना काफी मुश्किल है किंतु यह कहा जा सकता है कि दामों में तेज उतार-चढ़ाव बना रहेगा। यदि डॉलर में कमजोरी आती है तो अगले एक साल के अंदर इसके दाम ख्8 डॉलर प्रति औंस तक जा सकते है। दूसरी ओर कमोडिटी विशेषज्ञ अभिषेक शर्मा कहते है कि चांदी की एक बड़ी मात्रा का उपयोग उद्योगों में होता है। इस लिहाज से इसके दामों का सीधा संबंध अर्थव्यवस्था में सुधार से है। यदि आगे अर्थव्यवस्था में सुधार आता है तो चांदी में हम एक नई ऊंचाई देख सकते हैं। इस समय चांदी ही एक कमोडिटी है, जिसने इन हालातों में भी अपने उच्चतम स्तर को नहीं छुआ है। पिछले एक साल में चांदी के दाम भारतीय बाजार में फ्त्त,क्क्क् रुपये प्रति किलो की ऊंचाई को छूकर ख्त्त,क्क्क् रुपये प्रति किलो तक पहुंच गए थे, जो इस समय वापस इसी तरह अंतसराष्ट्रीय बाजार में दाम ख्8 डॉलर प्रति औंस की ऊंचाई से कम होकर 9.म् डॉलर तक गिर गये थे। ये बताता ह कि पिछले एक साल में दामों में किस उतार-चढ़ाव रहा है। (Business Bhaskar)
सोने का दाम तिगुना हो जाए तो कोई अचरज नहीं
भले ही सोना महंगा लग रहा हो, लेकिन आने वाले समय में सोना जिस स्तर को छू सकता है, उसके मुकाबले मौजूदा भाव सस्ता लगने लगेगा। इसकी वजह है कि अगले दस साल में सप्लाई सोने का भाव तय करेगी। दुनिया भर में वित्तीय बाजार में उथल-पुथल के कारण वर्ष 2009 की पहली तिमाही के दौरान सोने की मांग में 38 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। हालांकि अगले वर्ष में वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार और निवेश के कई विकल्प उपलब्ध हो जाएंगे, इसके बावजूद सोने की मांग और आपूर्ति में भारी अंतर रहने का अनुमान है।अगले एक दशक में दुनिया भर में सोने की मांग औसत तीन हजार टन वार्षिक रहने का अनुमान है जबकि उत्पादन 2400 टन ही होगा। लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि इस समय सोने की उत्पादन लागत 400 से 500 डॉलर प्रति औंस के बीच बैठ रही है, जो पांच साल पहले करीब 300 डॉलर प्रति औंस के बीच थी। इसको आधार मानकर देखंे तो अगले दस वर्ष में सोने की उत्पादन लागत एक हजार डॉलर प्रति औंस तक पहुंच सकती है। इसका मतलब यह है कि अगले दशक में सोने के भाव किसी भी सूरत में एक हजार डॉलर प्रति औंस से नीचे नहीं होंगे। वैसे यह कहा जा रहा रहा कि निवेशकों का रुझान और औद्योगिक मांग में बढ़ोतरी के कारण अगले एक दशक में सोने के भाव तीन हजार डॉलर प्रति औंस के स्तर तक पहुंच जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। दूसरी तरफ विश्लेषकों का कहना है कि अगले दशक में प्रति व्यक्ति 1.7 औंस सोने की खपत होगी। लेकिन मौजूदा रिजर्व को देखते हुए अगले सोलह वर्ष तक का ही सोना खदानों में बचा है। इसके बाद जो सोना होगा, वह लोगों के पास ही होगा। यह कुछ ऐसे तथ्य है जो आने वाले दशक में सोने को और कीमती बना सकते हैं। यह भी महत्वपूर्ण है कि इस दशक की शुरूआती वर्षो में सोने के भाव 300 डॉलर प्रति औंस के आसपास थे, पर आंतकवादी घटनाओं में बढ़ोतरी, वित्तीय बाजार की अस्थिरता और मुद्रास्फीति बढ़ने के साथ प्रमुख मुद्राओं की तुलना में डॉलर के कमजोर होने से सोने के प्रति निवेशकों का रुझान असुरक्षा की भावना के चलते तेजी से बढ़ा है। इस वजह से वर्ष 2008 में सोने ने एक हजार डॉलर का स्तर छू लिया था। मौजूदा दौर में निवेशकों की पहली पंसद सोना ही बना हुआ है। वहीं वर्ष 2005 के बाद से सोने के उत्पादन में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है जो आगे भी जारी रहने की संभावना है। हालांकि इस बीच सोने की मांग में भी विशेष बढ़ोतरी की संभावना नहीं है। पर मांग और उत्पादन के बीच भारी अंतर होने से सोने की चमक बरकरार रहेगी। (Business Bhaskar)
आयात पर देश की निर्भरता बढ़ने का अंदेशा
भारत की आयातित खाद्य तेलों और दलहनों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है। पिछले दस साल में देश का दलहन उत्पादन बढ़ने के बजाए घटा है जबकि पिछले चार साल में ही खाद्य तेलों का आयात बढ़कर लगभग दोगुना हो गया। सरकार दलहन और तिलहन में देश को आत्मनिर्भर बनाने की बात तो करती है लेकिन इसके लिए जितने गंभीर प्रयास किए जाने की जरूरत है, शायद इतने प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। हालत यही रही तो आगामी दस साल में भारत पूरी तरह से आयातित खाद्य तेलों पर निर्भर होने का अंदेशा है। दलहन में भी विदेशियों का मुंह ताकने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं होगा। ऐसी स्थिति से बचने के लिए सरकार को भगीरथ प्रयास करने होंगे।वर्ष 1998-99 में देश में 149 लाख टन दलहन उत्पादन हुआ था जबकि वर्ष 2008-09 में केंद्र सरकार ने तीसरे अग्रिम अनुमान में 141 लाख टन उत्पादन होने का अनुमान लगाया है। मालूम हो कि हमारी सालाना खपत 170-180 लाख टन की है। अत: हर साल भारत को 25-30 लाख टन दालें आयात करनी पड़ती हैं। भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉक्टर एस. के. सिंह ने बताया कि दलहन की ज्यादातर खेती आज भी असिचिंत क्षेत्रों में ही होती है। लेकिन चूंकि दलहन अब नकदी फसल में तब्दील हो रही है इसलिए किसानों का रुझान भी इसकी तरफ बढ़ रहा है। भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान ने देश के 14 राज्यों के 368 जिले चिन्हित किए हैं। ये राज्य हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, यूपी, बिहार, उड़ीसा, प. बंगाल और मध्य भारत के महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा दक्षिण के आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु हैं। इन राज्यों के किसानों को उच्च गुणवत्ता के बीज और दवाइयां उपलब्ध कराई जा रही हैं। 2011 तक देश में दलहन का 170 लाख टन उत्पादन का लक्ष्य तय किया गया है। उम्मीद है कि जिस तरह के प्रयास किए जा रहे हैं उससे अगले पांच-दस साल में देश दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर हो जाएगा। सेंट्रल आर्गनाजेशन फॉर ऑयल इंडस्ट्री एंड ट्रेड के कार्यकारी निदेशक डी. एन. पाठक ने बताया कि सरकार को एक ऑयल सीड डवलपमेंट फंड बनाना चाहिए जो कि किसानों को बीज, खाद्य और दवाइयां उपलब्ध कराए। इसमें प्राइवेट सेक्टर को भागीदार बनाया जाए तथा संबंधित विभागों की जवाबदेही तय की जाए। किसानों को अपनी फसल का वाजिद दाम मिले, इसकी गारंटी होनी चाहिए। एरिया बढ़ाने के बजाय आज आवश्यकता है प्रति हैक्टेयर पैदावार बढ़ाने के प्रयासों की। पिछले दस सालों से सरसों और मूंगफली का प्रति हैक्टेयर उत्पादन बढ़ नहीं रहा है जबकि इनमें तेल की मात्रा अन्य तिलहनों से ज्यादा होती है। (Busienss Bhaskar....R S Rana)
टॉप 10 में आ सकता है भारतीय कमोडिटी मार्केट
देश के कमोडिटी ट्रेडिंग के ढांचे में अगले दस साल के दौरान भारी बदलाव आ सकता है। लेकिन इसके लिए सरकार को कई कदम उठाने होंगे। भारत में जिंसों के बाजार खासकर कृषि जिंसों के कारोबार की पद्धति पारंपरिक है। इसमें नए तकनीकी बदलाव की जरूरत है। कमोडिटी स्पॉट एक्सचेंज इसी जरूरत को पूरा कर सकते हैं।भारत में अभी वायदा कारोबार की काफी आलोचना होती है। दरअसल इसके लिए डिलीवरी सिस्टम से जुड़ी बाधाएं जिम्मेदार हैं। अमेरिका जैसे विकसित बाजार में हाजिर बाजार के मुकाबले वायदा बाजार का कारोबार करीब 20 से 25 गुना तक है। वायदा और हाजिर कारोबार का अनुपात हर जिंस के अनुसार अलग अलग होता है। अमेरिका में अधिकतम 25 गुना तक वायदा कारोबार होता है। इसके विपरीत भारत में कई जिंसों में 60 गुना तक वायदा कारोबार हो रहा है।देश के हाजिर बाजारों में एपीएमसी की व्यवस्था में बदलाव आएगा और तमाम मंडियां आपस में जुड़ जाएंगी तो डिलीवरी बढ़ेगी, इससे डिलीवरी आधारित वायदा कारोबार बढ़ जाएगा। उस स्थिति में वायदा कारोबार पर तेजी लाने का इल्जाम नहीं लगेगा। इस समय सरकार वायदा कारोबार के मामले में फूंक-फूंककर कदम रख रही है। यही वजह है कि कमोडिटी वायदा कारोबार में विदेशी निवेश अभी प्रतिबंधित है।इस समय भारत में कमोडिटी फ्यूचर एक्सचेंजों में जो कारोबार हो रहा है, वह सिर्फ भारतीय कारोबारियों का ही है। इस कारोबार के बल पर ही आज भारतीय कमोडिटी वायदा कारोबार टॉप 20 देशों में शामिल होता है जबकि एमसीएक्स व एनसीडीईएक्स कई कमोडिटी में कारोबार के मामले में टॉप 10 में एक्सचेंज हैं।अगर भविष्य की बात की जाए तो विदेशी निवेश शुरू होने की स्थिति में भारतीय कमोडिटी फ्यूचर मार्केट टॉप 10 में आ सकते हैं। कई कमोडिटी के मामले में भारतीय एक्सचेंज विश्व प्रसिद्ध सीबॉट और सीएमई जैसे एक्सचेंजों को भी पीछे छोड़ सकते हैं। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब विदेशी निवेशक भारतीय एक्सचेंजों में हेजिंग कर सकें। भारतीय एक्सचेंज तिलहन, सोना और दलहनों के वायदा कारोबार में काफी विकास कर सकते हैं।कई कमोडिटी के मामले में भारतीय एक्सचेंज सीबॉट और सीएमई जैसे एक्सचेंजों को भी पीछे छोड़ सकते हैं। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब विदेशी निवेशक भारतीय एक्सचेंजों में हेजिंग कर सकें। भारतीय एक्सचेंज तिलहन, सोना और दलहनों के वायदा कारोबार में काफी विकास कर सकते हैं। (Business Bhaskar)
पहली वर्षगांठ पर टिप्पणी
वर्षगांठ बीते समय को जांचकर भविष्य की योजना बनाने का मौका होता है। बिजनेस भास्कर की आज पहली वर्षगांठ है और यह एक दिलचस्प साल रहा है। बीता साल आसान नहीं था, यह आप सब जानते हैं, पर फिर आसान काम तो हर कोई कर लेता है। जब बिजनेस भास्कर का पहला संस्करण 27 जून को भोपाल में आरंभ किया गया तब माहौल तेजी का था। तेजी से बिजनेस भास्कर भी तीन महीनों के भीतर इंदौर, रायपुर, पानीपत, हिसार, जालंधर, अमृतसर, लुधियाना, पटियाला और चंडीगढ़ जा पहुंचा। लेकिन 8 सितंबर को जब हमारा दिल्ली संस्करण आरंभ हुआ तो वातावरण पूरी तरह से बदल चुका था। अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट से हिल गई थी। ग्लोबल स्टॉक मार्केट ध्वस्त हो गए थे, पर बिजनेस भास्कर बढ़ता रहा। इसलिए क्योंकि हम आपको आर्थिक निर्णयों में मदद करने में सफल हुए। यही हमारी खासियत है और खूबी है कि हर आर्थिक निर्णय में एक समझदार दोस्त की तरह आप हमसे राय लेते रहे।अब एक साल बाद, हमें उत्सुकता यह नहीं है कि कल क्या होगा, या परसों क्या होगा। हमारी उत्सुकता दीर्घकालीन हो गई है। हम अगले दस साल की सोच रहे हैं। सब कहते हैं कि भविष्य के बार में सोचो तो अतीत को ध्यान में रखो। हम अतीत से सीखना तो चाहते हैं पर उससे बंधना नहीं चाहते। इसलिए बिजनेस भास्कर के हर एक पत्रकार ने यह सोचने की कोशिश की है कि अगले दस साल मंे ऐसा क्या हो सकता है जो समूचे विश्व को बदल दे।हर बदलाव एक विचार से शुरू होता है और अगर विचार प्रबल हो तो उसको हकीकत बनने में देर नहीं लगती। यहां पर ऐसा ही एक विचार है सड़क को लेकर। आज की तारीख में सड़कों पर आदमी के लिए जगह नहीं है। सड़कों पर आखिरकार चलती तो गाड़ियां हैं जो सिर्फ प्रदूषण करती हैं और शोर-शराबा बढ़ाती हैं। मगर फिर भी हम घर छोटे कर और पार्क काट कर सड़कें बना रहे हैं। पेवमेंट्स तो मानों खत्म ही हो गए हैं। जबकि यूरोपीय देशों में साइकिल और पैदल चलने वालों के लिए जगह बढ़ाई जा रही है। कुछ ऐसी ही सोच हमारी तेल और खाद्य सिक्योरिटी के बार में भी है। देश में पानी कम हो रहा है। हर शहर और गांव में किल्लत बढ़ रही है। ऐसे बदलते परिवेश में क्या विकसित देशों को मक्का और गन्ने कर्ो इधन तेल में बदलना चाहिए? खाद्य पदार्थो के बढ़ते भावों का एक बड़ा कारण है फसलों का गाड़ियों के लिए तेल बनाने में इस्तेमाल, यह भी आदमी की बनाई हुई समस्या है।क्या इस पूर समावेश पर ऑटोमोबाइल निर्माता कुछ कर नहीं सकते हैं? अगर टाटा सबसे सस्ती कार नैनो खड़ी कर सकती है, तो क्या वही सोच एक सार्वजनिक परिवहन या ग्रीन कार के लिए नहीं हो सकती। ऐसी कार जो प्रदूषण न कर और तेल भी न खाए। अगर ऐसा हुआ तो क्या खाद्य और ऊर्जा सिक्योरिटी की समस्या हल नहीं हो जाएगी?हर चीज एक सोच से शुरू होती है। कभी-कभी हम सोचने से डरते हैं, क्योंकि हमें यह तो पता है कि क्या नहीं हो सकता है। पर अगर हम यह मान लें कि सब कुछ हो सकता है और फिर सोचें, तो क्या हम एक नए मुकाम की कल्पना नहीं कर सकते?यही एक चीज है जो बिजनेस भास्कर के हर पत्रकार में समाई हुई है कि कुछ भी नामुमकिन नहीं है। बस आपसे दोस्ती बनी रहे (Buisness Bhaskar)
मिल सकती है गेहूं उत्पादों के निर्यात की अनुमति
नई दिल्ली: केंद्र सरकार जल्द ही आटा, सूजी और मैदा जैसे गेहूं से बने उत्पादों के निर्यात की अनुमति दे सकती है, हालांकि मानसून में देर को देखते हुए गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध जारी रहेगा। विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) के एक अधिकारी ने बताया कि वाणिज्य मंत्रालय ने 6.5 लाख टन गेहूं के उत्पादों के निर्यात को मंजूरी दी है जिसके संबंध में दिशानिर्देश जल्द ही आ सकते हैं। उन्होंने बताया कि कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (अपेडा) इस निर्यात पर नजर रखेगा। पिछली सरकार के विशेषाधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह ने 15 मई के बाद 20 लाख टन गेहूं और गेहूं से बने उत्पादों के निर्यात की अनुमति दी थी। गेहूं के निर्यात पर वर्ष 2007 की शुरुआत में प्रतिबंध लगाया गया था। गेहूं निर्यात को मिली अनुमति को टालने का फैसला इसलिए किया गया है, क्योंकि सरकार खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करना चाहती है। 25 मई को खाद्य और कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा था, 'हम गेहूं निर्यात पर लगी पाबंदी को हटाने के लिए जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि मौजूदा समय में सरकार के ऊपर सबसे बड़ी जिम्मेदारी उचित दाम पर प्रत्येक व्यक्ति को गेहूं की उपलब्धता सुनिश्चित करना है। (ET Hindi)
कॉटन आयात पर निगरानी बढ़ाने की तैयारी
नई दिल्ली: सरकार ने कपड़ों के आयात, खासतौर से चीन से मंगाए जा रहे माल पर निगरानी बढ़ाने का फैसला किया है। केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय ने चीन से आयातित सस्ते फैब्रिक्स, गारमेंट और सूती वस्त्र उत्पादों को देश के सिर्फ दो बंदरगाहों पर उतारने की अनुमति देने का मन बनाया है। मंत्रालय नए प्रस्ताव पर केन्द्रीय वाणिज्य और वित्त मंत्रालयों से बातचीत कर रहा है। केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय दयानिधि मारन ने ईटी के साथ बातचीत में कहा कि चीन जैसे देशों से होने वाले कपड़ों के सस्ते उत्पाद से घरेलू बाजार को बचाने के लिए सरकार ने आयात पर कड़ी निगरानी का फैसला किया है। मारन ने बताया, 'हम इस मसले पर पूरी कोशिश रह रहे हैं कि आयातित सूती वस्त्रों के उत्पादों को केवल दो बंदरगाहों पर ही उतारने की अनुमति मिले क्योंकि यदि सभी बंदरगाहों पर आयातित उत्पाद उतरने लगे तो कस्टम विभाग के अधिकारियों को उन पर नजर रखने में बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ेगा।
इस मसले पर हम वाणिज्य और राजस्व विभाग के अधिकारियों से बात में लगे हैं।' वैश्विक आर्थिक सुस्ती के असर से देश कासूती वस्त्र उद्योग भी अछूता नहीं रहा। अमेरिका और यूरोप के बाजारों मे मांग घटने के कारण निर्यात ऑर्डरों में कमी से पिछले कुछ महीनों में कपड़ों के निर्यात में 10 फीसदी कमी आई है। हालांकि इस दौरान घरेलू बाजार में मांग में स्थिरता बनी हुई है। प्रतिस्पर्द्धा से उद्योग को बचाने के लिए कपड़ा उद्योग सरकार से संरक्षण की उम्मीद लगाए हुए है। नाम न जाहिर करने की शर्त पर कपड़ा मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि यदि सिर्फ दो बंदरगाहों के जरिए कपड़ों के आयात की अनुमति मिल गई तो सरकार को कीमत और मात्रा की जांच करने में सहूलियत होगी। (ET Hindi)
इस मसले पर हम वाणिज्य और राजस्व विभाग के अधिकारियों से बात में लगे हैं।' वैश्विक आर्थिक सुस्ती के असर से देश कासूती वस्त्र उद्योग भी अछूता नहीं रहा। अमेरिका और यूरोप के बाजारों मे मांग घटने के कारण निर्यात ऑर्डरों में कमी से पिछले कुछ महीनों में कपड़ों के निर्यात में 10 फीसदी कमी आई है। हालांकि इस दौरान घरेलू बाजार में मांग में स्थिरता बनी हुई है। प्रतिस्पर्द्धा से उद्योग को बचाने के लिए कपड़ा उद्योग सरकार से संरक्षण की उम्मीद लगाए हुए है। नाम न जाहिर करने की शर्त पर कपड़ा मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि यदि सिर्फ दो बंदरगाहों के जरिए कपड़ों के आयात की अनुमति मिल गई तो सरकार को कीमत और मात्रा की जांच करने में सहूलियत होगी। (ET Hindi)
लौह धातुओं के कारोबारियों ने की मदद की गुहार
मुंबई June 26, 2009
घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजारों से मांग में आ रही भारी कमी से चिंतित लौह धातुओं के कारोबारियों ने सरकार सुरक्षा की गुहार की है।
वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते वैश्विक मांग मे कमी आई है और इससे 8500 करोड़ रुपये का भारत का लौह अयस्क कारोबार बुरी तरह प्रभावित है। उद्योग को बचाने के लिए कारोबारियों ने सरकार से सस्ते चीनी आयात से बचाव के लिए सरकार से हस्तक्षेप की मांग की है।
सुरक्षा की जरूरत बताते हुए इंडियन फेरो एलॉय प्रोडयूसर्स एसोसिएशन ने सरकार से मांग की है कि आयात पर लगा मूल सीमा शुल्क जारी रखा जाना चाहिए, जो 3 साल पहले 10 प्रतिशत की दर से लागू किया गया था। 2005-06 के 10 प्रतिशत के स्तर से चरणबध्द तरीके से इसे पिछले साल खत्म कर दिया गया।
बजट पूर्व अपनी अनुसंशा में एसोसिएशन ने सरकार से कहा है कि यह रोजगार आधारित उद्योग है, जिस पर वैश्विक वित्तीय संकट का गहरा असर पड़ा है, क्योंकि उपभोक्ता उद्योग में मांग बहुत गिर गई है। इसकी वजह से माल जमा हो गया है। परिणाम यह हुआ है कि फैक्टरियां कम उत्पादन के लिए मजबूर हो गई हैं, और कामगारों से काम छिन गया है।
घरेलू और वैश्विक बाजार में कीमतों में गिरावट की वजह से स्थिति और गंभीर हो गई है। यह उद्योग पिछले साल तक अपनी कुल क्षमता का 70 प्रतिशत उत्पादन कर रहा था। लेकिन आर्थिक मंदी आने के बाद से क्षमता का उपभोग घटकर 30-40 प्रतिशत रह गया है।
बहहाल, भारत का लौह धातुओं का निर्यात वित्त वर्ष 2007-08 में बढ़कर 1049.45 करोड़ रुपये का हो गया, जबकि इसके पहले साल 779.82 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ था। वहीं घरेलू बंदरगाहों पर वित्त वर्ष 2008-09 की पहली छमाही के दौरान कुल आवक 815.39 करोड़ रुपये की रही। चीन कई साल से लौह धातुओं की डंपिंग भारत के बाजारों में कर रहा है।
लौह धातुओं का प्रयोग बहुत कम मात्रा में स्टील बनाने में भी किया जाता है, जिसकी मात्रा कच्चे माल के कुल मूल्य की 1 प्रतिशत होती है। लेकिन स्टील उद्योग इस कच्चे माल की उपेक्षा नहीं कर सकता।
सरकार ने 2007-08 में रोस्टेड मॉलिबिड्नम के आयात पर 4 प्रतिशत अतिरिक्त सीमा शुल्क लगा दिया था, साथ ही निकल प्लेट पर सेनवेट लगे होने की वजह से उद्योग पर बुरा असर पड़ रहा है। (BS Hindi)
घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजारों से मांग में आ रही भारी कमी से चिंतित लौह धातुओं के कारोबारियों ने सरकार सुरक्षा की गुहार की है।
वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते वैश्विक मांग मे कमी आई है और इससे 8500 करोड़ रुपये का भारत का लौह अयस्क कारोबार बुरी तरह प्रभावित है। उद्योग को बचाने के लिए कारोबारियों ने सरकार से सस्ते चीनी आयात से बचाव के लिए सरकार से हस्तक्षेप की मांग की है।
सुरक्षा की जरूरत बताते हुए इंडियन फेरो एलॉय प्रोडयूसर्स एसोसिएशन ने सरकार से मांग की है कि आयात पर लगा मूल सीमा शुल्क जारी रखा जाना चाहिए, जो 3 साल पहले 10 प्रतिशत की दर से लागू किया गया था। 2005-06 के 10 प्रतिशत के स्तर से चरणबध्द तरीके से इसे पिछले साल खत्म कर दिया गया।
बजट पूर्व अपनी अनुसंशा में एसोसिएशन ने सरकार से कहा है कि यह रोजगार आधारित उद्योग है, जिस पर वैश्विक वित्तीय संकट का गहरा असर पड़ा है, क्योंकि उपभोक्ता उद्योग में मांग बहुत गिर गई है। इसकी वजह से माल जमा हो गया है। परिणाम यह हुआ है कि फैक्टरियां कम उत्पादन के लिए मजबूर हो गई हैं, और कामगारों से काम छिन गया है।
घरेलू और वैश्विक बाजार में कीमतों में गिरावट की वजह से स्थिति और गंभीर हो गई है। यह उद्योग पिछले साल तक अपनी कुल क्षमता का 70 प्रतिशत उत्पादन कर रहा था। लेकिन आर्थिक मंदी आने के बाद से क्षमता का उपभोग घटकर 30-40 प्रतिशत रह गया है।
बहहाल, भारत का लौह धातुओं का निर्यात वित्त वर्ष 2007-08 में बढ़कर 1049.45 करोड़ रुपये का हो गया, जबकि इसके पहले साल 779.82 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ था। वहीं घरेलू बंदरगाहों पर वित्त वर्ष 2008-09 की पहली छमाही के दौरान कुल आवक 815.39 करोड़ रुपये की रही। चीन कई साल से लौह धातुओं की डंपिंग भारत के बाजारों में कर रहा है।
लौह धातुओं का प्रयोग बहुत कम मात्रा में स्टील बनाने में भी किया जाता है, जिसकी मात्रा कच्चे माल के कुल मूल्य की 1 प्रतिशत होती है। लेकिन स्टील उद्योग इस कच्चे माल की उपेक्षा नहीं कर सकता।
सरकार ने 2007-08 में रोस्टेड मॉलिबिड्नम के आयात पर 4 प्रतिशत अतिरिक्त सीमा शुल्क लगा दिया था, साथ ही निकल प्लेट पर सेनवेट लगे होने की वजह से उद्योग पर बुरा असर पड़ रहा है। (BS Hindi)
वायदा न करने से भी मिलेगा फायदा
राजकोट June 26, 2009
वायदा बाजार नियामक, वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) का मानना है कि यह जरूरी नहीं कि किसान वायदा बाजार में सक्रिय रूप से शामिल हों।
एफएमसी के सदस्य डीएस कोलामकर ने कहा, 'किसान, वायदा बाजार में शामिल हुए बगैर वायदा कारोबार का फायदा उठा सकते हैं। यहां तक कि अमेरिका जैसे देश में भी किसान वायदा कारोबार में सक्रिय नहीं हैं।'
किसानों को केवल अपने उत्पाद की कीमतों के प्रति जागरूक रहना पड़ेगा। वायदा कारोबार उन्हें अच्छी कीमतें दिलाने में मददगार होगा, और वे कीमतों को लेकर मोलभाव करने में सक्षम होंगे। उन्होंने किसानों को सलाह दी कि वे पिछले साल के भाव को अपने ताजा उत्पाद के लिए आधार न बनाएं, इससे उनका मुनाफा प्रभावित होगा।
कोलामकर इस बात से भी सहमत हैं कि जिंसों के वायदा कारोबार पर तेजी से प्रतिबंध लगाने से वायदा बाजार प्रभावित होगा। उनके द्वारा दिए गए आंकड़ों के मुताबिक कृषि उत्पादों का कुल कारोबार वायदा बाजार में 68.80 प्रतिशत से घटकर 11.95 प्रतिशत पर आ गया है, जबकि बुलियन कारोबार 31.32 प्रतिशत से बढ़कर 62.65 प्रतिशत पर पहुंच गया है। (BS Hindi)
वायदा बाजार नियामक, वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) का मानना है कि यह जरूरी नहीं कि किसान वायदा बाजार में सक्रिय रूप से शामिल हों।
एफएमसी के सदस्य डीएस कोलामकर ने कहा, 'किसान, वायदा बाजार में शामिल हुए बगैर वायदा कारोबार का फायदा उठा सकते हैं। यहां तक कि अमेरिका जैसे देश में भी किसान वायदा कारोबार में सक्रिय नहीं हैं।'
किसानों को केवल अपने उत्पाद की कीमतों के प्रति जागरूक रहना पड़ेगा। वायदा कारोबार उन्हें अच्छी कीमतें दिलाने में मददगार होगा, और वे कीमतों को लेकर मोलभाव करने में सक्षम होंगे। उन्होंने किसानों को सलाह दी कि वे पिछले साल के भाव को अपने ताजा उत्पाद के लिए आधार न बनाएं, इससे उनका मुनाफा प्रभावित होगा।
कोलामकर इस बात से भी सहमत हैं कि जिंसों के वायदा कारोबार पर तेजी से प्रतिबंध लगाने से वायदा बाजार प्रभावित होगा। उनके द्वारा दिए गए आंकड़ों के मुताबिक कृषि उत्पादों का कुल कारोबार वायदा बाजार में 68.80 प्रतिशत से घटकर 11.95 प्रतिशत पर आ गया है, जबकि बुलियन कारोबार 31.32 प्रतिशत से बढ़कर 62.65 प्रतिशत पर पहुंच गया है। (BS Hindi)
चाय की कीमतें बढ़ाने पर मतभेद बरकरार
कोलकाता June 26, 2009
पैकेट टी कंपनियां इस महीने दूसरी बार कीमतों में बढ़ोतरी करने की योजना बना रही हैं। इन कंपनियों ने जुलाई के अंत तक उपभोक्ताओं के विरोध की वजह से कीमतों में बढ़ोतरी नहीं करने का फैसला लिया है।
फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया टी ट्रेडर्स एसोसिएशन (एफएआईटीटीए) के चेयरमैन हरेन्द्र शाह का कहना है, 'उद्योग दूसरी बार कीमतों में बढ़ोतरी के मसले पर बंटा हुआ था, इसी वजह से इसमें एक महीने तक की देरी हो गई।'
उनका कहना है कि बाजार में कोई बदलाव नहीं आया है और आपूर्ति की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन पैकेट टी कंपनियों में कीमतों में बढ़ोतरी को लेकर मतभेद है। इसके अलावा बाजार की ओर से भी कुछ प्रतिरोध है।
पैकेट टी के उत्पादनकर्ताओं ने मई में कीमतों में 20-40 रुपये प्रति किलो तक की बढ़ोतरी की और वे जून तक फिर से 15-20 रुपये प्रति किलो की बढ़ोतरी की उम्मीद कर रहे हैं। यह बढ़ोतरी अब जुलाई में हो सकती है। अगर बारिश की लुका-छिपी बरकरार रही तब चाय कीमतें और भी ज्यादा बढ़ सकती हैं।
सामान्यतया चाय की अच्छी फसल के लिए पांच इंच बारिश की जरूरत होती है। दुनिया भर में चाय की फसल में कमी की वजह से पैकेट वाली चाय की कीमतों में बढ़ोतरी हुई। नतीजतन नीलामी कीमतों में भी बढ़ोतरी हो गई। मार्च और अप्रैल के दौरान उत्तर भारत में फसलों में 1.58 करोड़ किलोग्राम तक की कमी आई थी।
उद्योग के प्रतिनिधियों का कहना है कि मई मामूली रूप से बेहतर रहा और साल दर साल 10 लाख किलोग्राम की बढ़ोतरी होती रही। हालांकि पिछले साल के मुकाबले जून में फसल अच्छी नहीं रही। दक्षिण भारत में तो स्थिति और भी बुरी थी। केवल भारत में ही नहीं दुनियाभर में 10 करोड़ किलोग्राम तक की कमी आई।
भारत के चाय मौसम के दौरान ही 2.5 करोड़ किलोग्राम की कमी आई। फिलहाल बल्क टी की कीमतों में 25-30 रुपये तक की बढ़ातरी हुई है। फसल में गिरावट की वजह पूर्व मानसून की बारिश में आने वाली कमी थी। लेकिन मानसून का यही रुख बरकरार रहा तो कमी में बढ़ोतरी हो सकती है।
भारत में ही करीब 6 करोड़ किलोग्राम तक की कमी आई है। काली चाय के बड़े उत्पादनकर्ता देशों, मसलन भारत, श्रीलंका और केन्या में गिरावट 8 से 10 करोड़ किलोग्राम तक हो सकती है।
पैकेट टी कं पनियां जून में दूसरी बार 15-20 रुपये दाम बढ़ाने मन बना रही हैंमई में हुई थी कीमतों में 20-40 रुपये प्रति किलो बढ़ोतरीबारिश की लुकाछिपी बरकरार रही तो चाय की कीमतों में हो सकती है बढ़ोतरी (BS Hindi)
पैकेट टी कंपनियां इस महीने दूसरी बार कीमतों में बढ़ोतरी करने की योजना बना रही हैं। इन कंपनियों ने जुलाई के अंत तक उपभोक्ताओं के विरोध की वजह से कीमतों में बढ़ोतरी नहीं करने का फैसला लिया है।
फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया टी ट्रेडर्स एसोसिएशन (एफएआईटीटीए) के चेयरमैन हरेन्द्र शाह का कहना है, 'उद्योग दूसरी बार कीमतों में बढ़ोतरी के मसले पर बंटा हुआ था, इसी वजह से इसमें एक महीने तक की देरी हो गई।'
उनका कहना है कि बाजार में कोई बदलाव नहीं आया है और आपूर्ति की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन पैकेट टी कंपनियों में कीमतों में बढ़ोतरी को लेकर मतभेद है। इसके अलावा बाजार की ओर से भी कुछ प्रतिरोध है।
पैकेट टी के उत्पादनकर्ताओं ने मई में कीमतों में 20-40 रुपये प्रति किलो तक की बढ़ोतरी की और वे जून तक फिर से 15-20 रुपये प्रति किलो की बढ़ोतरी की उम्मीद कर रहे हैं। यह बढ़ोतरी अब जुलाई में हो सकती है। अगर बारिश की लुका-छिपी बरकरार रही तब चाय कीमतें और भी ज्यादा बढ़ सकती हैं।
सामान्यतया चाय की अच्छी फसल के लिए पांच इंच बारिश की जरूरत होती है। दुनिया भर में चाय की फसल में कमी की वजह से पैकेट वाली चाय की कीमतों में बढ़ोतरी हुई। नतीजतन नीलामी कीमतों में भी बढ़ोतरी हो गई। मार्च और अप्रैल के दौरान उत्तर भारत में फसलों में 1.58 करोड़ किलोग्राम तक की कमी आई थी।
उद्योग के प्रतिनिधियों का कहना है कि मई मामूली रूप से बेहतर रहा और साल दर साल 10 लाख किलोग्राम की बढ़ोतरी होती रही। हालांकि पिछले साल के मुकाबले जून में फसल अच्छी नहीं रही। दक्षिण भारत में तो स्थिति और भी बुरी थी। केवल भारत में ही नहीं दुनियाभर में 10 करोड़ किलोग्राम तक की कमी आई।
भारत के चाय मौसम के दौरान ही 2.5 करोड़ किलोग्राम की कमी आई। फिलहाल बल्क टी की कीमतों में 25-30 रुपये तक की बढ़ातरी हुई है। फसल में गिरावट की वजह पूर्व मानसून की बारिश में आने वाली कमी थी। लेकिन मानसून का यही रुख बरकरार रहा तो कमी में बढ़ोतरी हो सकती है।
भारत में ही करीब 6 करोड़ किलोग्राम तक की कमी आई है। काली चाय के बड़े उत्पादनकर्ता देशों, मसलन भारत, श्रीलंका और केन्या में गिरावट 8 से 10 करोड़ किलोग्राम तक हो सकती है।
पैकेट टी कं पनियां जून में दूसरी बार 15-20 रुपये दाम बढ़ाने मन बना रही हैंमई में हुई थी कीमतों में 20-40 रुपये प्रति किलो बढ़ोतरीबारिश की लुकाछिपी बरकरार रही तो चाय की कीमतों में हो सकती है बढ़ोतरी (BS Hindi)
बिजली उत्पादन के अन्य विकल्पों पर विचार
नई दिल्ली June 26, 2009
मानसूनी बारिश में देरी की वजह से जल आधारित विद्युत उत्पादन में करीब 40 प्रतिशत की कमी आई है।
इसे देखते हुए विद्युत मंत्रालय ने कोयला और प्राकृतिक गैस आधारित विद्युत उत्पादन पर जोर देना शुरू कर दिया है। मंत्रालय ने कहा है कि गैर आधारित विद्युत संयंत्रों को पहली बार करीब पूरी क्षमता में चलाया जा रहा है, जिससे जल आधारित संयंत्रों से उत्पादन में आई कमी की भरपाई की जा सके।
हाल के आंकडों के मुताबिक, पिछले पखवाड़े के 36,000 मेगावॉट की तुलना में इस समय विद्युत उत्पादन गिरकर 25,000 मेगावॉट रह गया है। वहीं प्रतिदिन की मांग में 3,900 मेगावॉट की बढ़ोतरी हुई है।
केंद्रीय बिजली सचिव एचएस ब्रह्मा ने बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में कहा, 'हमने इसके बारे में कृ षि मंत्रालय को सूचित कर दिया है और इस मसले पर हम मौसम विभाग के भी संपर्क में बने हुए हैं। अगर बारिश नहीं होती है तो 10 जुलाई तक एक आपात योजना भी बनाई जा सकती है। भारत सरकार के मौसम विभाग निदेशालय ने सूचित किया है कि 72 घंटों के भीतर भारी बारिश की उम्मीद है।'
कृष्णा गोदावरी बेसिन के डी-6 ब्लॉक से प्राकृतिक गैस की आपूर्ति में बढ़ोतरी हुई है, जिसके चलते बिजली मंत्रालय आत्मविश्वास से लबरेज है कि अगर मानसून समय से नहीं आता तो विद्युत उत्पादन की उचित व्यवस्था कर ली जाएगी। ब्रह्मा का कहना है कि गैस आधारित विद्युत उत्पादन अब 2,000 मेगावॉट से बढ़कर अब 14,000 मेगावॉट हो गया है।
उद्योग जगत में मंदी और उर्वरकों के उत्पादन में कमी की वजह से इन क्षेत्रों में बिजली की खपत कम हुई है, जिससे विद्युत विभाग को राहत है। साथ ही उन्होंने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के गैस उत्पादन से भी राहत मिली है।
कुल विद्युत उत्पादन में प्राकृ तिक गैस की भूमिका अभी बहुत कम है। खासकर जल आधारित संयंत्रों से विद्युत उत्पादन का योगदान, कुल उत्पादन में 25 प्रतिशत है। ब्रह्मा ने कहा कि अगर 2000 मेगावॉट उत्पादन भी बढ़ जाता है तो यह बहुत बड़ी राहत होगी। इसके साथ ही कोयला आधारित संयंत्रों से विद्युत उत्पादन की क्षमता में भी बढ़ोतरी हो रही है और इससे 800 मेगावॉट विद्युत का अतिरिक्त उत्पादन होगा।
एनटीपीसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, 'सामान्यतया बहुत ज्यादा गर्मी पड़ने वाले महीनों के दौरान हम उत्पादन में बढ़ोतरी करते हैं। वास्तव में बिजली उपलब्ध कराने के लिए हम इस समय कोई संयंत्र रखरखाव कार्य नहीं कर रहे हैं। गर्मी के मौसम में मांग में बढ़ोतरी होती है और इस समय भी मानसून में देरी की वजह से मांग बढ़ी हुई है।'
ब्रह्मा ने कहा कि विद्युत उत्पादन के लिए पानी की उपलब्धता घटकर 15,000 क्यूसेक रह गई है, जबकि सामान्य उपलब्धता 20,000 क्यूसेक होती है। विद्युत उत्पादन के लिए मानसूनी बारिश तभी खतरा होती है, जब बारिश 10 प्रतिशत से ज्यादा कम होती है। उन्होंने कहा कि मान लीजिए कि बारिश 10 या 15 प्रतिशत कम होती है, तभी दबाव बढ़ेगा।
नैशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर कार्पोरेशन (एनएचपीसी), जो देश की सबसे बड़ी विद्युत उत्पादन कंपनी है, के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, 'अब तक की स्थिति देखें तो हमारे उत्पादन में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है। लेकिन मानसून में आगे भी 15-20 दिन की देरी होती है तो कुछ संयंत्रों से विद्युत उत्पादन आंशिक रूप से प्रभावित होगा।'
एनएचपीसी की विद्युत उत्पादन क्षमता इस समय 5,175 मेगावॉट है, जो देश के कुल विद्युत उत्पादन का 4 प्रतिशत है। इसकी परियोजनाओं में से ज्यादातर संयंत्र नदी के बहाव (आरओआर) से संचालित हैं। आरओआर परियोजनाएं मौसमी प्रभाव, जैसे मानसून से बची हुई हैं क्योंकि उन्हें जल की आपूर्ति हिमालय के ग्लेशियर से होती है।
विभाग के अधिकारी ने कहा कि परियोजनाएं सहयोगी संस्थाओं से भी संचालित हैं, जैसे नर्मदा हाइड्रोइलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कार्पोरेशन (एनएचडीसी)- इन पर मानसून का प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि ये जल संचयन के आधार पर चलती हैं। एनएचडीसी की उत्पादन क्षमता 1500 मेगावॉट है, जिसमें 1000 मेगावॉट की मध्य प्रदेश की इंदिरा सागर परियोजना की है।
मुख्य समस्या देश के उत्तरी और पूर्वोत्तर भागों में है। कुल 174 विद्युत उत्पादन केंद्रों में 60 100 से ज्यादा जल आधारित विद्युत उत्पादन संयंत्र यानी 60 प्रतिशत उत्तर भारत में हैं। ये संयंत्र पानी के संकट का सामना कर रहे हैं। असम और मेघालय में भारी बारिश की वजह से उन इलाकों में स्थिति में सुधार आई है, लेकिन अरुणाचल प्रदेश के विद्युत उत्पादन केंद्रों पर संकट बरकरार है।
ब्रह्मा ने कहा कि अगर आरआईएल गैस का उत्पादन प्रतिदिन 80 मिलियन स्टैंडर्ड क्यूबिक मीटर (एमएससीएमडी) प्रतिदिन बढ़ाती है तो विद्युत क्षेत्र को गैस का आवंटन 18 एमएससीएमडी से बढ़कर 36 या 40 एमएससीएमडी हो जाएगा। (BS Hindi)
मानसूनी बारिश में देरी की वजह से जल आधारित विद्युत उत्पादन में करीब 40 प्रतिशत की कमी आई है।
इसे देखते हुए विद्युत मंत्रालय ने कोयला और प्राकृतिक गैस आधारित विद्युत उत्पादन पर जोर देना शुरू कर दिया है। मंत्रालय ने कहा है कि गैर आधारित विद्युत संयंत्रों को पहली बार करीब पूरी क्षमता में चलाया जा रहा है, जिससे जल आधारित संयंत्रों से उत्पादन में आई कमी की भरपाई की जा सके।
हाल के आंकडों के मुताबिक, पिछले पखवाड़े के 36,000 मेगावॉट की तुलना में इस समय विद्युत उत्पादन गिरकर 25,000 मेगावॉट रह गया है। वहीं प्रतिदिन की मांग में 3,900 मेगावॉट की बढ़ोतरी हुई है।
केंद्रीय बिजली सचिव एचएस ब्रह्मा ने बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में कहा, 'हमने इसके बारे में कृ षि मंत्रालय को सूचित कर दिया है और इस मसले पर हम मौसम विभाग के भी संपर्क में बने हुए हैं। अगर बारिश नहीं होती है तो 10 जुलाई तक एक आपात योजना भी बनाई जा सकती है। भारत सरकार के मौसम विभाग निदेशालय ने सूचित किया है कि 72 घंटों के भीतर भारी बारिश की उम्मीद है।'
कृष्णा गोदावरी बेसिन के डी-6 ब्लॉक से प्राकृतिक गैस की आपूर्ति में बढ़ोतरी हुई है, जिसके चलते बिजली मंत्रालय आत्मविश्वास से लबरेज है कि अगर मानसून समय से नहीं आता तो विद्युत उत्पादन की उचित व्यवस्था कर ली जाएगी। ब्रह्मा का कहना है कि गैस आधारित विद्युत उत्पादन अब 2,000 मेगावॉट से बढ़कर अब 14,000 मेगावॉट हो गया है।
उद्योग जगत में मंदी और उर्वरकों के उत्पादन में कमी की वजह से इन क्षेत्रों में बिजली की खपत कम हुई है, जिससे विद्युत विभाग को राहत है। साथ ही उन्होंने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के गैस उत्पादन से भी राहत मिली है।
कुल विद्युत उत्पादन में प्राकृ तिक गैस की भूमिका अभी बहुत कम है। खासकर जल आधारित संयंत्रों से विद्युत उत्पादन का योगदान, कुल उत्पादन में 25 प्रतिशत है। ब्रह्मा ने कहा कि अगर 2000 मेगावॉट उत्पादन भी बढ़ जाता है तो यह बहुत बड़ी राहत होगी। इसके साथ ही कोयला आधारित संयंत्रों से विद्युत उत्पादन की क्षमता में भी बढ़ोतरी हो रही है और इससे 800 मेगावॉट विद्युत का अतिरिक्त उत्पादन होगा।
एनटीपीसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, 'सामान्यतया बहुत ज्यादा गर्मी पड़ने वाले महीनों के दौरान हम उत्पादन में बढ़ोतरी करते हैं। वास्तव में बिजली उपलब्ध कराने के लिए हम इस समय कोई संयंत्र रखरखाव कार्य नहीं कर रहे हैं। गर्मी के मौसम में मांग में बढ़ोतरी होती है और इस समय भी मानसून में देरी की वजह से मांग बढ़ी हुई है।'
ब्रह्मा ने कहा कि विद्युत उत्पादन के लिए पानी की उपलब्धता घटकर 15,000 क्यूसेक रह गई है, जबकि सामान्य उपलब्धता 20,000 क्यूसेक होती है। विद्युत उत्पादन के लिए मानसूनी बारिश तभी खतरा होती है, जब बारिश 10 प्रतिशत से ज्यादा कम होती है। उन्होंने कहा कि मान लीजिए कि बारिश 10 या 15 प्रतिशत कम होती है, तभी दबाव बढ़ेगा।
नैशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर कार्पोरेशन (एनएचपीसी), जो देश की सबसे बड़ी विद्युत उत्पादन कंपनी है, के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, 'अब तक की स्थिति देखें तो हमारे उत्पादन में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है। लेकिन मानसून में आगे भी 15-20 दिन की देरी होती है तो कुछ संयंत्रों से विद्युत उत्पादन आंशिक रूप से प्रभावित होगा।'
एनएचपीसी की विद्युत उत्पादन क्षमता इस समय 5,175 मेगावॉट है, जो देश के कुल विद्युत उत्पादन का 4 प्रतिशत है। इसकी परियोजनाओं में से ज्यादातर संयंत्र नदी के बहाव (आरओआर) से संचालित हैं। आरओआर परियोजनाएं मौसमी प्रभाव, जैसे मानसून से बची हुई हैं क्योंकि उन्हें जल की आपूर्ति हिमालय के ग्लेशियर से होती है।
विभाग के अधिकारी ने कहा कि परियोजनाएं सहयोगी संस्थाओं से भी संचालित हैं, जैसे नर्मदा हाइड्रोइलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कार्पोरेशन (एनएचडीसी)- इन पर मानसून का प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि ये जल संचयन के आधार पर चलती हैं। एनएचडीसी की उत्पादन क्षमता 1500 मेगावॉट है, जिसमें 1000 मेगावॉट की मध्य प्रदेश की इंदिरा सागर परियोजना की है।
मुख्य समस्या देश के उत्तरी और पूर्वोत्तर भागों में है। कुल 174 विद्युत उत्पादन केंद्रों में 60 100 से ज्यादा जल आधारित विद्युत उत्पादन संयंत्र यानी 60 प्रतिशत उत्तर भारत में हैं। ये संयंत्र पानी के संकट का सामना कर रहे हैं। असम और मेघालय में भारी बारिश की वजह से उन इलाकों में स्थिति में सुधार आई है, लेकिन अरुणाचल प्रदेश के विद्युत उत्पादन केंद्रों पर संकट बरकरार है।
ब्रह्मा ने कहा कि अगर आरआईएल गैस का उत्पादन प्रतिदिन 80 मिलियन स्टैंडर्ड क्यूबिक मीटर (एमएससीएमडी) प्रतिदिन बढ़ाती है तो विद्युत क्षेत्र को गैस का आवंटन 18 एमएससीएमडी से बढ़कर 36 या 40 एमएससीएमडी हो जाएगा। (BS Hindi)
उत्तर प्रदेश में घटेगी धान और गन्ने की पैदावार
लखनऊ June 25, 2009
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
उत्तर प्रदेश में धान की 60 प्रतिशत खेती मानसून पर निर्भर है। इसके चलते सूखे की नौबत आने के आसार हैं। खरीफ की फसल को लेकर किसानों में मानसून को लेकर खासी चिंता है, क्योंकि नकदी फसल के रूप में यहां के किसान धान और गन्ने पर ज्यादा निर्भर हैं।
सामान्यतया उत्तर प्रदेश में मानसून 18 जून को आ जाता है, लेकिन देश के शेष हिस्सों की तरह यहां भी मानसून में देरी हो रही है। अगर मानसून 30 जून के बाद आता है, तो सूखे जैसी स्थिति हो जाएगी और फसलों को भारी नुकसान होगा। इस सिलसिले में कृषि विभाग ने पहले ही किसानों के लिए दिशानिर्देश जारी कर दिया है।
अगर 30 जून तक मानसून आ भी जाता है तो यहां की धान और गन्ने फसलों को 20 प्रतिशत नुकसान होने का अनुमान लगाया गया है। अगर मानसून 15 जुलाई को आता है तो धान की फसल 40 प्रतिशत प्रभावित होगी, वहीं गन्ने की फसल के 50 प्रतिशत तक प्रभावित होने के आसार हैं। कृषि वैज्ञानिक एसएस सिंह ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि धान और गन्ने के अलावा ज्वार, बाजरे और मक्के की फसल को भी नुकसान होगा।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान राजबीर सिंह कहते हैं, मानसून में देरी से हर किसान के माथे पर बल है लेकिन सिंचाई की सुविधा होने से धान बिजाई के लिए पौधों की तैयारी चल रही है। सरकारी आंकड़े भी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में धान बोने के लिए 78 फीसदी पौधों की तैयारी पूरी हो चुकी है। किसानों को सबसे अधिक इस बात की चिंता सता रही हैं कि धान बोने के बाद बारिश की जरूरत होती है और तब बारिश नहीं हुई तो सिंचाई के साधन से उनका काम नहीं चल पाएगा। (BS Hindi)
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
उत्तर प्रदेश में धान की 60 प्रतिशत खेती मानसून पर निर्भर है। इसके चलते सूखे की नौबत आने के आसार हैं। खरीफ की फसल को लेकर किसानों में मानसून को लेकर खासी चिंता है, क्योंकि नकदी फसल के रूप में यहां के किसान धान और गन्ने पर ज्यादा निर्भर हैं।
सामान्यतया उत्तर प्रदेश में मानसून 18 जून को आ जाता है, लेकिन देश के शेष हिस्सों की तरह यहां भी मानसून में देरी हो रही है। अगर मानसून 30 जून के बाद आता है, तो सूखे जैसी स्थिति हो जाएगी और फसलों को भारी नुकसान होगा। इस सिलसिले में कृषि विभाग ने पहले ही किसानों के लिए दिशानिर्देश जारी कर दिया है।
अगर 30 जून तक मानसून आ भी जाता है तो यहां की धान और गन्ने फसलों को 20 प्रतिशत नुकसान होने का अनुमान लगाया गया है। अगर मानसून 15 जुलाई को आता है तो धान की फसल 40 प्रतिशत प्रभावित होगी, वहीं गन्ने की फसल के 50 प्रतिशत तक प्रभावित होने के आसार हैं। कृषि वैज्ञानिक एसएस सिंह ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि धान और गन्ने के अलावा ज्वार, बाजरे और मक्के की फसल को भी नुकसान होगा।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान राजबीर सिंह कहते हैं, मानसून में देरी से हर किसान के माथे पर बल है लेकिन सिंचाई की सुविधा होने से धान बिजाई के लिए पौधों की तैयारी चल रही है। सरकारी आंकड़े भी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में धान बोने के लिए 78 फीसदी पौधों की तैयारी पूरी हो चुकी है। किसानों को सबसे अधिक इस बात की चिंता सता रही हैं कि धान बोने के बाद बारिश की जरूरत होती है और तब बारिश नहीं हुई तो सिंचाई के साधन से उनका काम नहीं चल पाएगा। (BS Hindi)
26 जून 2009
पहली छमाही में सिर्फ 54 टन चांदी का आयात
अत्यधिक ऊंचे भाव होने के कारण चांदी की मांग पिछले छह महीनों बहुत कम रही। चांदी की औद्योगिक खपत भी इस दौरान बहुत कम रही। इसके कारण चांदी का भारत में आयात जनवरी से जून के दौरान घटकर मात्र 54 टन रह गया। जबकि भारत में हर माह 100 से 300 टन चांदी का आयात होता रहा है।सामान्य तौर पर देश में हर माह करीब 100 से 300 टन चांदी का आयात होता है। पिछले साल देश में करीब दो हजार टन चांदी का आयात हुआ था। बॉम्बे बुलियन मर्चेट एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरश हुंडिया के मुताबिक कीमतों में यदि गिरावट नहीं होती है तो आने वाले दिनों में इसकी मांग और कमी देखी जा सकती है।गौरतलब है कि चालू साल के दौरान घरलू बाजार में चांदी की कीमतें करीब 25 फीसदी तक बढ़ चुकी हैं। मौजूदा समय में इसका भाव करीब 22,740 रुपये प्रति किलो है। हुंडिया के मुताबिक दुसरी छमाही के दौरान चांदी के भाव यदि 16-17 हजार रुपये प्रति किलो के आसपास आते हैं तो इसकी मांग में सुधार हो सकता है। हालांकि विदेशों में फंडों की जोरदार खरीद होने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में चांदी के भाव गिरने की उम्मीद बहुत कम है। ऐसे में घरेलू बाजार में भी भाव घटने की संभावना नगण्य है। इसके उलट एक्सचेंज ट्रेडेड फंड में निवेश बढ़ने से इसके भाव ऊपर रह सकते हैं। मौजूदा समय में जहां थोड़ी बहुत मांग निकल भी रही है तो उसकी आपूर्ति रिसाक्लिंग से पूरी हो जा रही है। हुंडिया ने बताया कि पिछले छह महीनों से रोजाना बाजार में करीब 2-3 टन पुरानी चांदी आ रही है।उन्होंने बताया कि आने वाले दिनों में यदि मानसून में सुधार होता है और फसलों की पैदावार बढ़ती है तो चांदी के मांग में सुधार होने की उम्मीद की जा सकती है क्योंकि ऐसे में ग्रामीण खरीदारों की खरीद क्षमता में इजाफा होगा। मौजूदा समय में देश के कई इलाकों में किसान बीज खरीदने और खेती के लिए अपने यहां रखे चांदी के स्टॉक को बेच रहे हैं। (Business Bhaskar)
स्टॉकिस्टों की बिकवाली धीमी पड़ने से हल्दी के भाव में तेजी
प्रमुख उत्पादक राज्यों आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में पर्याप्त वर्षा न होने के कारण हल्दी की बुवाई गति नहीं पकड़ पा रही है। मौके का फायदा उठाने के लिए स्टॉकिस्टों ने बिकवाली घटा दी है जिससे हल्दी में तेजी का रुख बन गया है। उत्पादक मंडियों में हल्दी के भाव बढ़कर 5300 से 5650 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। पिछले दो दिनों में इसकी कीमतों में करीब 100 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी आ चुकी है। उत्पादक मंडियों में बकाया स्टॉक कम है जबकि नई फसल आने में अभी करीब आठ महीने का समय शेष है।ऐसे में उत्पादक राज्यों में जल्दी ही मानसून सक्रिय नहीं हुआ तो मौजूदा भावों में और भी तेजी की संभावना है। हल्दी व्यापारी पूनम चंद गुप्ता ने बिजनेस भास्कर को बताया कि प्रतिकूल मौसम के कारण अभी तक हल्दी की कुल बुवाई मात्र 40 फीसदी क्षेत्रफल में ही हुई है। जबकि पिछले साल जून के आखिर तक करीब 80 फीसदी क्षेत्रफल में बुवाई हो चुकी थी। इस समय उत्पादक मंडियों में हल्दी का मात्र 15-16 लाख बोरी (एक बोरी 70 किलो) का स्टॉक ही बचा हुआ है। जबकि नई फसल आने में अभी करीब आठ महीने का समय शेष है। औसतन हर महीने घरेलू खपत और निर्यात मांग को मिलाकर दो लाख बोरी की जरूरत होती है। ऐसे में नई फसल की आवक के समय हल्दी का स्टॉक न के बराबर ही बचेगा। इसीलिए स्टॉकिस्टों ने पहले की तुलना में बिकवाली कम कर दी है जिससे हल्दी की तेजी को बल मिला है। निजामाबाद मंडी में गुरुवार को हल्दी के भाव बढ़कर 5300 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। जबकि यहां हल्दी का करीब दो लाख बोरी का स्टॉक है।इरोड़ स्थित मैसर्स ज्योति ट्रेडिंग कंपनी के डायरेक्टर सुभाष गुप्ता ने बताया कि इस वर्ष देश में हल्दी की पैदावार 42 लाख बोरी होने की संभावना है। जबकि पिछले वर्ष देश में इसका उत्पादन 43 लाख बोरी का हुआ था। हालांकि उत्पादन में तो ज्यादा कमी नहीं आई लेकिन पिछले वर्ष नई फसल की आवक के समय उत्पादक राज्यों की मंडियों में बकाया स्टॉक ज्यादा बचा हुआ था। जबकि चालू वर्ष में नई फसल के समय बकाया स्टॉक मात्र चार से पांच लाख बोरी का ही बचा हुआ था। ऐसे में चालू सीजन में देश में हल्दी की कुल उपलब्धता 46-47 लाख बोरी की ही होने का अनुमान है। जबकि देश की सालाना खपत भी करीब इतनी ही होती है। इरोड़ मंडी में भाव बढ़कर 5650 रुपये प्रति क्विंटल हो गए जबकि स्टॉक करीब छह लाख बोरी का बचा हुआ है। भारतीय मसाला बोर्ड के अनुसार वित्त वर्ष 2008-09 में देश से हल्दी के निर्यात में सात फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान 52,500 टन का निर्यात हुआ है जबकि वित्त वर्ष 2007-08 में देश से 49,250 टन का ही निर्यात हुआ था। मसाला बोर्ड ने निर्यात का लक्ष्य 50,000 टन का ही रखा था। (Business Bhaskar....R S Rana)
आलू वायदा पर 20 फीसदी स्पेशल मार्जिन
आलू वायदा में हो रही सट्टेबाजी पर अंकुश लगाने के लिए मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज और नेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज ने आलू वायदा पर 20 फीसदी का स्पेशल मार्जिन लगाया है। दोनों एक्सचेंजों द्वारा जारी बयान के मुताबिक यह दर 27 जुलाई से लागू होगी। पिछले महीने भी दोनों ही एक्सचेंजों ने आलू वायदा पर पांच फीसदी का स्पेशल मार्जिन लगाया था। एक्सचेंजों के मुताबिक नया मार्जिन आलू के आगरा और तारकेश्वर दोनों ही किस्मों पर लगेगा। जिसे नकद में लिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि इस साल के दौरान आलू वायदा भाव में 100 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी हो चुकी है। मौजूदा समय में आलू वायदा करीब 1,170 रुपये प्रति क्विंटल है। जनवरी में इसका भाव करीब 510 रुपये प्रति क्विंटल था। विश्लेषकों का कहना है कि पश्चिमी बंगाल में आलू का उत्पादन घटने के बाद वायदा बाजार में इसके भाव तेजी बढ़ने लगे। आलू उत्पादन में पश्चिमी बंगाल प्रमुख राज्य राज्य है। देश में इस साल आलू का उत्पादन 26 लाख टन रहने का अनुमान है। दूसरी ओर बाजार के कारोबारियों का कहना है कि वायदा कारोबार में सट्टेबाजों को आलू के भाव चढ़ाने का मौका मिल गया। जिसकी उन्हें बड़ी शिद्दत से तलाश थी। बेशक पश्चिमी बंगाल में आलू के उत्पादन में कमी आई है लेकिन देश के कुल उत्पादन में कोई कमी नहीं आई है। आलू के सबसे बड़े उत्पादक उत्तर प्रदेश में पैदावार पिछले साल से काफी ज्यादा रही। हाजिर बाजार के व्यापारियों का कहना है कि वायदा में आलू के भाव लगातार बढ़ने से हाजिर में भी भाव बढ़ रहे हैं। जबकि उत्पादन और सुलभता सामान्य होने से ऐसी तेजी आने अप्रत्याशित है। कमोडिटी एक्सचेंजों ने इस विरोध को देखते हुए वायदा व्यापार आयोग के निर्देश पर आलू वायदा पर दुबारा स्पेशल मार्जिन लगाने का फैसला किया है। (Business Bhaskar)
खाद्य तेल उद्योग को चाहिए अलग नीति
नई दिल्ली: खाद्य तेल उद्योग ने सरकार से आग्रह किया है कि इस क्षेत्र के लिए एक अलग नीति बनाई जाए और आम चुनावों के पहले हटाए गए आयात कर को दोबारा लगाया जाए। सेंट्रल आर्गनाइजेशन फॉर आयल इंडस्ट्री एंड ट्रेड (सीओओआईटी) ने यह अनुरोध करते हुए कहा है कि अलग नीति बनाने से ही देश में तिलहन उत्पादन में सुधार होगा और आयात पर निर्भरता भी घटेगी जिसके चलते सरकारी खजाने पर दबाव भी पहले के मुकाबले कम हो जाएगा। एक अधिकारी ने बताया, 'उपयुक्त खाद्य तेल नीति के अभाव में चुनिंदा निर्यातक देशों पर हमारी निर्भरता बरकरार रहेगी।' इस साल 75 लाख टन से ज्यादा खाद्य तेलों की आयात का अनुमान जताया गया है। इतनी ही मात्रा में देश में भी उत्पादन का अनुमान है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन जैसे केंद्र सरकार के कार्यक्रमों में 2011-12 तक चावल, गेहूं और दाल के उत्पादन में बढ़ोतरी करना प्राथमिकता में शामिल है, लेकिन इसमें तिलहन को शामिल नहीं किया गया है। सीओओआईटी के मुताबिक, तिलहन के क्रांतिकारी उत्पादन में ऐसे कार्यक्रमों को अपनाने की सख्त जरूरत है। संगठन के अनुसार, तिलहन के कुल उत्पादन और प्रति एकड़ उपज में बढ़ोतरी के लिए किसानों को समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी का फायदा देना बहुत जरूरी है। उद्योग के एक जानकार ने बताया, 'अब तक खाद्य तेलों पर आयात शुल्क तदर्थ आधार पर लगाया जाता रहा है जिससे कारोबारियों के एक खास तबके को आयात पर लाभ मिलता रहा है। इसके बजाय आयात शुल्क को बड़े पैमाने पर आयात पर अंकुश के लिए नियामक उपाय के रूप में अपनाया जाना चाहिए।' इस उद्योग के विशेषज्ञों के अनुसार केन्द्र में नई सरकार बनने पर आयात कर में बढ़ोतरी का अनुमान लगाकर कारोबारियों ने इस साल बड़े पैमाने पर आयात किया। (ET Hindi)
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन जैसे केंद्र सरकार के कार्यक्रमों में 2011-12 तक चावल, गेहूं और दाल के उत्पादन में बढ़ोतरी करना प्राथमिकता में शामिल है, लेकिन इसमें तिलहन को शामिल नहीं किया गया है। सीओओआईटी के मुताबिक, तिलहन के क्रांतिकारी उत्पादन में ऐसे कार्यक्रमों को अपनाने की सख्त जरूरत है। संगठन के अनुसार, तिलहन के कुल उत्पादन और प्रति एकड़ उपज में बढ़ोतरी के लिए किसानों को समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी का फायदा देना बहुत जरूरी है। उद्योग के एक जानकार ने बताया, 'अब तक खाद्य तेलों पर आयात शुल्क तदर्थ आधार पर लगाया जाता रहा है जिससे कारोबारियों के एक खास तबके को आयात पर लाभ मिलता रहा है। इसके बजाय आयात शुल्क को बड़े पैमाने पर आयात पर अंकुश के लिए नियामक उपाय के रूप में अपनाया जाना चाहिए।' इस उद्योग के विशेषज्ञों के अनुसार केन्द्र में नई सरकार बनने पर आयात कर में बढ़ोतरी का अनुमान लगाकर कारोबारियों ने इस साल बड़े पैमाने पर आयात किया। (ET Hindi)
किसानों को सौगात, गन्ने के एमएसपी में 32 फीसदी का इजाफा
नई दिल्ली: सरकार ने गुरुवार को वर्ष 2009-10 के लिए गन्ने का वैधानिक न्यूनतम मूल्य इस साल की तुलना में 32 फीसदी से ज्यादा बढ़ाकर 107.76 रुपए प्रति क्विंटल करने की घोषणा की। देश में चीनी उत्पादन में इस वर्ष गिरावट की आशंका को देखते हुए किसानों को गन्ने की खेती के लिए प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने आगामी सीजन में गन्ने के वैधानिक न्यूनतम मूल्य में पिछले साल के मुकाबले 32 फीसदी की बढ़ोतरी की है। एसएमपी वह न्यूनतम मूल्य है जो चीनी मिलों को गन्ना खरीदने करने के लिए किसानों को भुगतान करना पड़ता है। चीनी सत्र अक्टूबर से लेकर सितंबर तक का होता है। वर्ष 2008-09 में एसएमपी 81.18 रुपए प्रति क्विंटल था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक के बाद गृहमंत्री पी चिदंबरम ने बताया कि अक्टूबर-सितंबर 2009-10 सीजन के लिए गन्ने के वैधानिक न्यूनतम मूल्य को 32 फीसदी से ज्यादा बढ़ाकर 107.76 रुपए प्रति क्विंटल करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है।
सीसीईए द्वारा स्वीकृति प्राप्त एसएमपी वही है जिसका सुझाव खाद्य मंत्रालय ने दिया था और उसे प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का समर्थन प्राप्त था। चिंदबरम ने बताया, 'इस गारंटी मूल्य के अलावा किसानों को 9.5 प्रतिशत से अधिक की अतिरिक्त रिकवरी होने पर प्रीमियम भी प्राप्त होगा। हर 0.1 फीसदी बढ़ोतरी पर 1.13 रुपए का प्रीमियम प्राप्त होगा।' रिकवरी रेट गन्ने से बनने वाली चीनी की मात्रा को बताता है। एसएमपी बढ़ाने का स्वागत करते हुए इंडियन मिल्स एसोसिएशन के डायरेक्टर जनरल एस एल जैन ने कहा कि यह सकारात्मक कदम है और इससे किसानों को मदद मिलेगी। (ET Hindi)
सीसीईए द्वारा स्वीकृति प्राप्त एसएमपी वही है जिसका सुझाव खाद्य मंत्रालय ने दिया था और उसे प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का समर्थन प्राप्त था। चिंदबरम ने बताया, 'इस गारंटी मूल्य के अलावा किसानों को 9.5 प्रतिशत से अधिक की अतिरिक्त रिकवरी होने पर प्रीमियम भी प्राप्त होगा। हर 0.1 फीसदी बढ़ोतरी पर 1.13 रुपए का प्रीमियम प्राप्त होगा।' रिकवरी रेट गन्ने से बनने वाली चीनी की मात्रा को बताता है। एसएमपी बढ़ाने का स्वागत करते हुए इंडियन मिल्स एसोसिएशन के डायरेक्टर जनरल एस एल जैन ने कहा कि यह सकारात्मक कदम है और इससे किसानों को मदद मिलेगी। (ET Hindi)
उड़ीसा में भी संकट
भुवनेश्वर June 25, 2009
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
अब तक उड़ीसा में सामान्य मानसून से 66 प्रतिशत कम बारिश हुई है। अगर पहले से ही 2 सप्ताह देर कर चुका मानसून एक और सप्ताह की देरी करता है तो राज्य में सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
राज्य के कृषि मंत्री दामोदर राउत ने कहा कि राज्य में खरीफ की फसल प्रभावित हुई है, लेकिन अभी खतरनाक स्थिति नहीं है। खरीफ फसल में धान की फसल मानसून पर ही निर्भर है और कुल क्षेत्रफल के 30 प्रतिशत से कम हिस्सा ही सिंचित क्षेत्र में आता है। सामान्यतया उड़ीसा में मानसून जून के दूसरे सप्ताह में पहुंचता है और धान की रोपाई 15 जून से शुरू हो जाती है। उसके बाद रोपाई और निराई का काम 15 अगस्त तक चलता रहता है।
बहरहाल, मानसून में देरी की वजह से रोपाई का काम रुका सा है। उड़ीसा सरकार के कृषि सचिव यूपी सिंह ने कहा कि मानसून में 2 सप्ताह की देरी तो किसी तरह से चल जाती है, लेकिन अगर एक सप्ताह और बारिश नहीं हुई तो हमारा खरीफ का उत्पादन लक्ष्य प्रभावित होगा। सरकार ने खरीफ-09 में 70 लाख टन चावल उत्पादन का लक्ष्य रखा है।
वहीं मई में आए तूफान आइला से बालासोर, भद्रक, जगतसिंह पुर और नयागढ़ जिलों में किसानों ने धान के बीज की रोपाई कर दी, जिससे जरई तैयार हो जाए। लेकिन इन इलाकों में बारिश न होने की वजह से जरई पूरी तरह से खराब हो गई है। मानसून में देरी को देखते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने किसानों से कहा है कि वे मध्य काल में तैयार होने वाली धान की किस्म की रोपाई करें, जिससे नुकसान कम होगा। (BS Hindi)
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
अब तक उड़ीसा में सामान्य मानसून से 66 प्रतिशत कम बारिश हुई है। अगर पहले से ही 2 सप्ताह देर कर चुका मानसून एक और सप्ताह की देरी करता है तो राज्य में सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
राज्य के कृषि मंत्री दामोदर राउत ने कहा कि राज्य में खरीफ की फसल प्रभावित हुई है, लेकिन अभी खतरनाक स्थिति नहीं है। खरीफ फसल में धान की फसल मानसून पर ही निर्भर है और कुल क्षेत्रफल के 30 प्रतिशत से कम हिस्सा ही सिंचित क्षेत्र में आता है। सामान्यतया उड़ीसा में मानसून जून के दूसरे सप्ताह में पहुंचता है और धान की रोपाई 15 जून से शुरू हो जाती है। उसके बाद रोपाई और निराई का काम 15 अगस्त तक चलता रहता है।
बहरहाल, मानसून में देरी की वजह से रोपाई का काम रुका सा है। उड़ीसा सरकार के कृषि सचिव यूपी सिंह ने कहा कि मानसून में 2 सप्ताह की देरी तो किसी तरह से चल जाती है, लेकिन अगर एक सप्ताह और बारिश नहीं हुई तो हमारा खरीफ का उत्पादन लक्ष्य प्रभावित होगा। सरकार ने खरीफ-09 में 70 लाख टन चावल उत्पादन का लक्ष्य रखा है।
वहीं मई में आए तूफान आइला से बालासोर, भद्रक, जगतसिंह पुर और नयागढ़ जिलों में किसानों ने धान के बीज की रोपाई कर दी, जिससे जरई तैयार हो जाए। लेकिन इन इलाकों में बारिश न होने की वजह से जरई पूरी तरह से खराब हो गई है। मानसून में देरी को देखते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने किसानों से कहा है कि वे मध्य काल में तैयार होने वाली धान की किस्म की रोपाई करें, जिससे नुकसान कम होगा। (BS Hindi)
कर्नाटक में मानसून ने नहीं दिखाई ज्यादा कंजूसी
बेंगलुरु June 25, 2009
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून में देरी होने के बावजूद कर्नाटक में सामान्य बारिश होगी। राज्य में पहले तीन हफ्ते की बारिश के दौरान मामूली कमी देखी गई है।
राज्य में 1 जून से 24 जून तक कुल बारिश 138 मिलीमीटर हुई। साल के इस महीने में सामान्यतया जो बारिश होती है उसकी तुलना में इसमें 3.5 फीसदी तक की गिरावट आई। मौजूदा संकेतों के मुताबिक राज्य में 1.38 करोड़ टन अनाज के उत्पादन का लक्ष्य पूरा किए जाने की पूरी संभावना है और यह पिछले साल की तुलना में यह 10 फीसदी ज्यादा है।
तिलहन का उत्पादन 16 लाख टन होने की संभावना है जो पिछले साल से लगभग 33 फीसदी ज्यादा है। उत्तरी और दक्षिणी कर्नाटक के ज्यादातर गांवों में सामान्य से ज्यादा बारिश हुई है जबकि तटीय और मलनाड क्षेत्रों में बारिश में थोड़ी कमी देखी गई।
हालांकि अगर पूरे देश की स्थिति देखें तो कर्नाटक में अच्छी स्थिति है और वहां के किसानों और सरकार को किसी भी तरह के संकट का सामना नहीं करना पड़ रहा है। (BS Hindi)
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून में देरी होने के बावजूद कर्नाटक में सामान्य बारिश होगी। राज्य में पहले तीन हफ्ते की बारिश के दौरान मामूली कमी देखी गई है।
राज्य में 1 जून से 24 जून तक कुल बारिश 138 मिलीमीटर हुई। साल के इस महीने में सामान्यतया जो बारिश होती है उसकी तुलना में इसमें 3.5 फीसदी तक की गिरावट आई। मौजूदा संकेतों के मुताबिक राज्य में 1.38 करोड़ टन अनाज के उत्पादन का लक्ष्य पूरा किए जाने की पूरी संभावना है और यह पिछले साल की तुलना में यह 10 फीसदी ज्यादा है।
तिलहन का उत्पादन 16 लाख टन होने की संभावना है जो पिछले साल से लगभग 33 फीसदी ज्यादा है। उत्तरी और दक्षिणी कर्नाटक के ज्यादातर गांवों में सामान्य से ज्यादा बारिश हुई है जबकि तटीय और मलनाड क्षेत्रों में बारिश में थोड़ी कमी देखी गई।
हालांकि अगर पूरे देश की स्थिति देखें तो कर्नाटक में अच्छी स्थिति है और वहां के किसानों और सरकार को किसी भी तरह के संकट का सामना नहीं करना पड़ रहा है। (BS Hindi)
अभी तो सुरक्षित है गुजरात में कपास और मूंगफली
राजकोट June 25, 2009
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
मानसून में देरी के बावजूद गुजरात के सौराष्ट्र इलाके में कपास और मूंगफली की बुआई ठीक-ठाक चल रही है। यह इलाका देश के मूंगफली और कपास उत्पादन का प्रमुख क्षेत्र है।
राज्य के कृषि विश्वविद्यालयों के मुताबिक अभी बुआई के लिए बेहतर स्थिति है। लेकिन उनका कहना है कि अगर बारिश में 30 जून के बाद देरी होती है, तो क पास और मूंगफली की फसलों की स्थिति बहुत खराब हो जाएगी।
जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति नगीनभाई पटेल ने कहा, 'फसलें 30 जून तक तो पूरी तरह से सुरक्षित हैं। लेकिन अगर बारिश में 10-15 दिनों की और देरी होती है तो संकट की स्थिति होगी।
सौराष्ट्र में पिछले 2 दिनों से बूंदाबांदी हो रही है और ज्यादातर इलाकों में किसानों ने कपास और मूंगफली की बुआई शुरू कर दी है।' उन्होंने कहा कि मानसून आने में अगर अभी और देरी होती है तो मूंगफली की उत्पादकता पर असर पड़ेगा, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले दिनों में बारिश की क्या स्थिति रहती है। उत्पादन के बारे में कुछ भी कहना अभी जल्दबाजी होगी। (BS Hindi)
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
मानसून में देरी के बावजूद गुजरात के सौराष्ट्र इलाके में कपास और मूंगफली की बुआई ठीक-ठाक चल रही है। यह इलाका देश के मूंगफली और कपास उत्पादन का प्रमुख क्षेत्र है।
राज्य के कृषि विश्वविद्यालयों के मुताबिक अभी बुआई के लिए बेहतर स्थिति है। लेकिन उनका कहना है कि अगर बारिश में 30 जून के बाद देरी होती है, तो क पास और मूंगफली की फसलों की स्थिति बहुत खराब हो जाएगी।
जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति नगीनभाई पटेल ने कहा, 'फसलें 30 जून तक तो पूरी तरह से सुरक्षित हैं। लेकिन अगर बारिश में 10-15 दिनों की और देरी होती है तो संकट की स्थिति होगी।
सौराष्ट्र में पिछले 2 दिनों से बूंदाबांदी हो रही है और ज्यादातर इलाकों में किसानों ने कपास और मूंगफली की बुआई शुरू कर दी है।' उन्होंने कहा कि मानसून आने में अगर अभी और देरी होती है तो मूंगफली की उत्पादकता पर असर पड़ेगा, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले दिनों में बारिश की क्या स्थिति रहती है। उत्पादन के बारे में कुछ भी कहना अभी जल्दबाजी होगी। (BS Hindi)
महाराष्ट्र में बढ़ सकता है बासमती का रकबा
मुंबई June 25, 2009
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
जून महीने में बारिश में कमी आने की वजह से बासमती के रक बे में 3-4 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है। इसकी वजह यह है कि बासमती चावल की बुआई सामान्यतया देरी से ही होती है।
कारोबारी सूत्रों के मुताबिक चावल की बुआई के कुल क्षेत्र के लगभग 4-5 फीसदी क्षेत्र में बासमती चावल की बुआई होती है जो इस साल मानसून के आने में देरी की वजह से बढ़ सकती है। पहले के अनुमानों की मानें तो देश में गैर-बासमती चावल के उत्पादन के प्रभावित होने की संभावना नहीं है।
बुधवार को सरकार ने इस सीजन में 93 फीसदी बारिश होने का पूर्वानुमान घोषित किया है। यह लंबी अवधि तक की औसत सामान्य बारिश 97 फीसदी से लगभग 3 फीसदी कम है। 19 जून को भारत ने इस सीजन में महज 50 फीसदी से थोड़ा ज्यादा बारिश का अनुमान लगाया है। इससे लगभग 60 फीसदी चावल उत्पादकों के लिए संकट की स्थिति पैदा हो गई है जो पूरी तरह से मानसून की बारिश पर निर्भर हैं।
बासमती राइस फामर्स ऐंड एक्सपोर्टस डेवलपमेंट फोरम के अध्यक्ष, विनोद आहूजा वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक और कृषि विशेषज्ञ भी हैं उनका कहना है, 'सामान्यतया यह समझा जाना चाहिए की मानसून में देरी होने से गैर-बासमती चावल का रकबा बासमती चावल के लिए बढ़ जाएगा।'
गैर बासमती चावल की बुआई बारिश न होने की वजह से बहुत धीरे हो रही है। पिछले साल की समान अवधि की तुलना में इस सीजन में कुल बुआई 20 फीसदी कम है। मानसून के आने में लगभग 15 दिनों से ज्यादा की देरी हो रही है और उत्तर-पूर्व और मध्य भारत के किसान धान की बुआई की शुरुआत के लिए इंतजार कर रहे हैं।
चावल की 1121 पूसा किस्म को गैर-बासमती से बासमती श्रेणी में शामिल किए जाने की वजह से कीमतों में बढ़ोतरी के साथ निर्यात में भी पिछले साल बढ़ोतरी हुई। पंजाब और हरियाणा के किसान बेहतर मुनाफे के लिए इस चावल की किस्म के लिए अतिरिक्त भूमि देने के लिए तैयार हैं।
पिछले साल विदेशों से मांग बढ़ने की वजह से 1121 पूसा किस्म की बासमती चावल की कीमत 2500 रुपये प्रति क्विंटल से 3500 रुपये प्रति क्विंटल तक हो गई। ऑल इंडिया राइस एक्सपोर्टस एसोसिएशन के अध्यक्ष विजय सेथिया का कहना है, 'अगर बारिश जून के आखिरी हफ्ते और जुलाई की शुरुआत में होती है तो चावल के उत्पादन में कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन अगर सूखे का दौर ज्यादा दिनों तक खिंचता है तो उत्पादन में कमी आ जाएगी।' (BS Hindi)
पंजाब में सरकारी दफ्तरों में एसी बंद हुए तो दिल्ली में कम पानी के इस्तेमाल की सलाह। वहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में बुआई में देरी हो रही है।
बांध सूख रहे हैं तो बिजली का संकट भी लाजिमी है। महाराष्ट्र में सोयाबीन और धान उगाने वाले किसान अपनी जुगत लगा रहे हैं तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भविष्य को लेकर चिंता उभर रही है। देश भर में फैले बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाताओं ने मानसून में देरी का जायजा लिया, पेश है खास अंश...
जून महीने में बारिश में कमी आने की वजह से बासमती के रक बे में 3-4 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है। इसकी वजह यह है कि बासमती चावल की बुआई सामान्यतया देरी से ही होती है।
कारोबारी सूत्रों के मुताबिक चावल की बुआई के कुल क्षेत्र के लगभग 4-5 फीसदी क्षेत्र में बासमती चावल की बुआई होती है जो इस साल मानसून के आने में देरी की वजह से बढ़ सकती है। पहले के अनुमानों की मानें तो देश में गैर-बासमती चावल के उत्पादन के प्रभावित होने की संभावना नहीं है।
बुधवार को सरकार ने इस सीजन में 93 फीसदी बारिश होने का पूर्वानुमान घोषित किया है। यह लंबी अवधि तक की औसत सामान्य बारिश 97 फीसदी से लगभग 3 फीसदी कम है। 19 जून को भारत ने इस सीजन में महज 50 फीसदी से थोड़ा ज्यादा बारिश का अनुमान लगाया है। इससे लगभग 60 फीसदी चावल उत्पादकों के लिए संकट की स्थिति पैदा हो गई है जो पूरी तरह से मानसून की बारिश पर निर्भर हैं।
बासमती राइस फामर्स ऐंड एक्सपोर्टस डेवलपमेंट फोरम के अध्यक्ष, विनोद आहूजा वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक और कृषि विशेषज्ञ भी हैं उनका कहना है, 'सामान्यतया यह समझा जाना चाहिए की मानसून में देरी होने से गैर-बासमती चावल का रकबा बासमती चावल के लिए बढ़ जाएगा।'
गैर बासमती चावल की बुआई बारिश न होने की वजह से बहुत धीरे हो रही है। पिछले साल की समान अवधि की तुलना में इस सीजन में कुल बुआई 20 फीसदी कम है। मानसून के आने में लगभग 15 दिनों से ज्यादा की देरी हो रही है और उत्तर-पूर्व और मध्य भारत के किसान धान की बुआई की शुरुआत के लिए इंतजार कर रहे हैं।
चावल की 1121 पूसा किस्म को गैर-बासमती से बासमती श्रेणी में शामिल किए जाने की वजह से कीमतों में बढ़ोतरी के साथ निर्यात में भी पिछले साल बढ़ोतरी हुई। पंजाब और हरियाणा के किसान बेहतर मुनाफे के लिए इस चावल की किस्म के लिए अतिरिक्त भूमि देने के लिए तैयार हैं।
पिछले साल विदेशों से मांग बढ़ने की वजह से 1121 पूसा किस्म की बासमती चावल की कीमत 2500 रुपये प्रति क्विंटल से 3500 रुपये प्रति क्विंटल तक हो गई। ऑल इंडिया राइस एक्सपोर्टस एसोसिएशन के अध्यक्ष विजय सेथिया का कहना है, 'अगर बारिश जून के आखिरी हफ्ते और जुलाई की शुरुआत में होती है तो चावल के उत्पादन में कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन अगर सूखे का दौर ज्यादा दिनों तक खिंचता है तो उत्पादन में कमी आ जाएगी।' (BS Hindi)
गन्ना हो गया और भी मीठा
नई दिल्ली June 25, 2009
गन्ना उपजाने वाले प्रमुख राज्य महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की तैयारी शायद सरकार ने शुरू कर दी है। इसीलिए सरकार ने आगामी सीजन में गन्ने के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 32.74 फीसदी का इजाफा कर दिया है।
आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने गन्ने का मूल्य 107.76 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने आज बताया कि इस कदम से किसानों को गन्ना उपजाने की प्रेरणा मिलेगी और गन्ने की फसल बढ़ जाएगी।
2008-09 के सीजन में चीनी उत्पादन काफी कम हो गया और तीन साल में सबसे निचले स्तर पर आकर यह आंकड़ा महज 147 लाख टन रह गया। माना जा रहा है कि इसकी वजह किसानों का गन्ना कम उपजाना रहा।
भारतीय चीनी मिल संघ के महानिदेशक एस एल जैन ने कहा, 'यह बहुत अच्छा कदम है और गन्ने की खेती पर इसका काफी अच्छा असर पड़ेगा। गन्ने का उत्पादन बढ़ने से चीनी मिलें भी अपनी क्षमता का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर पाएंगी। इसके अलावा मदिरा उत्पादन और दूसरे उद्योगों में भी मदद मिलेगी।'
लेकिन सरकार ने यह कीमत उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा के लिए लागू नहीं की है। इन राज्यों की सरकारें अपनी कीमत तय करती हैं, जो केंद्र सरकार के मूल्यों से ज्यादा ही होती है। बजाज हिंदुस्तान और बलरामपुर चीनी की यूपी स्थित मिलों से पिछले साल एक क्विंटल गन्ने के लिए 140 से 145 रुपये दिए गए थे। (BS Hindi)
गन्ना उपजाने वाले प्रमुख राज्य महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की तैयारी शायद सरकार ने शुरू कर दी है। इसीलिए सरकार ने आगामी सीजन में गन्ने के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 32.74 फीसदी का इजाफा कर दिया है।
आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने गन्ने का मूल्य 107.76 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने आज बताया कि इस कदम से किसानों को गन्ना उपजाने की प्रेरणा मिलेगी और गन्ने की फसल बढ़ जाएगी।
2008-09 के सीजन में चीनी उत्पादन काफी कम हो गया और तीन साल में सबसे निचले स्तर पर आकर यह आंकड़ा महज 147 लाख टन रह गया। माना जा रहा है कि इसकी वजह किसानों का गन्ना कम उपजाना रहा।
भारतीय चीनी मिल संघ के महानिदेशक एस एल जैन ने कहा, 'यह बहुत अच्छा कदम है और गन्ने की खेती पर इसका काफी अच्छा असर पड़ेगा। गन्ने का उत्पादन बढ़ने से चीनी मिलें भी अपनी क्षमता का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर पाएंगी। इसके अलावा मदिरा उत्पादन और दूसरे उद्योगों में भी मदद मिलेगी।'
लेकिन सरकार ने यह कीमत उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा के लिए लागू नहीं की है। इन राज्यों की सरकारें अपनी कीमत तय करती हैं, जो केंद्र सरकार के मूल्यों से ज्यादा ही होती है। बजाज हिंदुस्तान और बलरामपुर चीनी की यूपी स्थित मिलों से पिछले साल एक क्विंटल गन्ने के लिए 140 से 145 रुपये दिए गए थे। (BS Hindi)
सूखे में दिलासे की सरकारी फुहार
नई दिल्ली June 25, 2009
सूखे के बादल घिरने के साथ ही सरकार भी अपनी मुहिम में जुट गई है। सरकार ने कम से कम दिलासों की बौछार तो शुरू कर ही दी है।
उसने कहा है कि बारिश में देर होने की वजह से खाद्यान्न उत्पादन में किसी तरह की कमी नहीं होने दी जाएगी। यदि दिक्कत आती भी है, तो सरकारी खजाने से उसकी भरपाई की जाएगी। इतना ही नहीं सरकार ने सूखे जैसी स्थिति से निपटने के लिए और किसानों की मदद के लिए हेल्पलाइन शुरू करने का भी फैसला लिया है।
कृषि सचिव टी. नंद कुमार ने कहा है कि मानसून में देरी की वजह से इस साल खरीफ फसल के दौरान पिछले साल के मुकाबले खाद्यान्न उत्पादन (23 करोड़ टन) में कोई कमी नहीं आएगी। बिजाई के लिए अभी पर्याप्त समय बाकी है।
उन्होंने कहा कि कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में अच्छी बारिश हुई है और वहां खरीफ फसलों की बिजाई अपने चरम पर है। महाराष्ट्र, उड़ीसा, गुजरात एवं बिहार में भी बारिश शुरू हो गयी है और वहां भी फसलों की बिजाई अपनी प्रगति पर है। खरीफ फसलों की बिजाई अमूमन 15 जून से शुरू होकर 15 जुलाई तक चलती है।
जुलाई के दौरान मानसून के सामान्य रहने का अनुमान है। लिहाजा बिजाई के रकबे में कमी आने के फिलहाल कोई आसार नहीं हैं। उत्तर पश्चिम भारत के लिए मौसम विभाग ने कम बारिश का अनुमान लगाया है, लेकिन इस क्षेत्र में आने वाले पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं जम्मू कश्मीर प्रांतों की 80-90 फीसदी खेती योग्य जमीन के लिए सिंचाई सुविधा उपलब्ध है।
उन्होंने बताया कि बारिश कम होने या अन्य किसी भी प्रकार की दिक्कत आने पर खरीफ फसल की देखभाल के लिए सरकार के पास पर्याप्त पैसा है। (BS Hindi)
सूखे के बादल घिरने के साथ ही सरकार भी अपनी मुहिम में जुट गई है। सरकार ने कम से कम दिलासों की बौछार तो शुरू कर ही दी है।
उसने कहा है कि बारिश में देर होने की वजह से खाद्यान्न उत्पादन में किसी तरह की कमी नहीं होने दी जाएगी। यदि दिक्कत आती भी है, तो सरकारी खजाने से उसकी भरपाई की जाएगी। इतना ही नहीं सरकार ने सूखे जैसी स्थिति से निपटने के लिए और किसानों की मदद के लिए हेल्पलाइन शुरू करने का भी फैसला लिया है।
कृषि सचिव टी. नंद कुमार ने कहा है कि मानसून में देरी की वजह से इस साल खरीफ फसल के दौरान पिछले साल के मुकाबले खाद्यान्न उत्पादन (23 करोड़ टन) में कोई कमी नहीं आएगी। बिजाई के लिए अभी पर्याप्त समय बाकी है।
उन्होंने कहा कि कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में अच्छी बारिश हुई है और वहां खरीफ फसलों की बिजाई अपने चरम पर है। महाराष्ट्र, उड़ीसा, गुजरात एवं बिहार में भी बारिश शुरू हो गयी है और वहां भी फसलों की बिजाई अपनी प्रगति पर है। खरीफ फसलों की बिजाई अमूमन 15 जून से शुरू होकर 15 जुलाई तक चलती है।
जुलाई के दौरान मानसून के सामान्य रहने का अनुमान है। लिहाजा बिजाई के रकबे में कमी आने के फिलहाल कोई आसार नहीं हैं। उत्तर पश्चिम भारत के लिए मौसम विभाग ने कम बारिश का अनुमान लगाया है, लेकिन इस क्षेत्र में आने वाले पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं जम्मू कश्मीर प्रांतों की 80-90 फीसदी खेती योग्य जमीन के लिए सिंचाई सुविधा उपलब्ध है।
उन्होंने बताया कि बारिश कम होने या अन्य किसी भी प्रकार की दिक्कत आने पर खरीफ फसल की देखभाल के लिए सरकार के पास पर्याप्त पैसा है। (BS Hindi)
बीजों के भंडार जुटाने में लगे हैं सोयाबीन किसान
मुंबई June 25, 2009
मानसून के देर से आने की आशंका से सोयाबीन किसानों को बीजों के स्टॉक को दोगुना रखने के लिए मजबूर होना पड रहा है।
बीजों का दोगुना स्टॉक औसत जरूरत से ज्यादा है। दरअसल किसानों को यह चिंता सता रही है कि मानसून में देरी होने से इस सीजन में दूसरी दफे बुआई करनी पड़ सकती है। सामान्य परिस्थितियों में देश में बुआई के लिए 5.5-6 लाख टन सोयाबीन के बीजों की जरूरत होती है।
लेकिन मानसून में देरी होने से पहली बार बोए गए बीज सूखे मौसम की वजह से खराब हो सकते हैं या फिर देर से भारी वर्षा होने की वजह से भी बीज बर्बाद हो सकते हैं। ऐसे में किसान दोबारा बुआई की आशंका की वजह से ज्यादा बीजों का भंडार तैयार कर रहे हैं।
इंदौर के सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन (एसओपीए) के अनुमान के मुताबिक किसानों के पास 12 लाख टन से ज्यादा बीज हैं जो सामान्य जरूरत से दोगुने हैं। अभी तक 100 किलोग्राम वाली बोरी रोजाना आवक 50,000-70,000 बोरी से ज्यादा है जो पिछले साल की समान अवधि में 25,000 बोरी से भी कम थी।
एसओपीए के कोऑर्डीनेटर राजेश अग्रवाल का कहना है, 'मार्च तक आवक बहुत कम थी और किसानों को ऐसा अनुमान था कि कीमतों में बढ़ोतरी होगी।' किसान अक्सर जून में ही सोयाबीन की बुआई करते हैं क्योंकि उसी वक्त मानसून आता है। कुल फसल क्षेत्र के लगभग 15 फीसदी पर इस महीने के दौरान बुआई हो जाती है। लेकिन बुआई अभी शुरू नहीं हो पाई है क्योंकि मानसून ने वक्त पर दस्तक नहीं दी है।
सोयाबीन के बुआई के लिए जमीन में थोड़ी नमी जरूरी होती है जबकि ज्यादातर सोयाबीन उत्पादक राज्यों में इसकी कमी है। जून में अब तक बारिश में 40-60 फीसदी तक की कमी रिकॉर्ड की गई है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) को उम्मीद है कि इस साल मानसून की बारिश 96 फीसदी तक होगी।
देश के ज्यादातर हिस्सों की बारिश में लगभग 15 दिनों तक की देरी हो रही है खासतौर पर सोयाबीन उत्पादक राज्यों जिसमें दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य महाराष्ट्र भी शामिल है। बड़े सोयाबीन उत्पादक राज्य मध्यप्रदेश में मानसून के आने में 10 दिन तक की देरी हो सकती है और अभी इसके असर का मूल्यांकन करना भी बाकी है।
हालांकि अगर मध्य मानसून की अवधि मसलन जुलाई के दौरान भी बारिश होती है तो जून में बुआई के नुकसान की भरपाई की जा सकती है। देश के सबसे बड़े सोयाबीन पेराई की कंपनी रुचि सोया इंडस्ट्रीज लिमिटेड के प्रबंध निदेशक दिनेश शारा का कहना है कि किसान मानूसन का इंतजार ही कर रहे हैं।
बुआई में देरी होने से फसल पकने की समय सीमा भी बढ़ जाएगी, इसी वजह से फसल की कटाई का काम देर से होगा। लेकिन जुलाई के दौरान बेहतर बारिश होने के बावजूद भी बुआई में देरी होगी और बहुत ज्यादा बारिश की उम्मीदों पर भी पानी फिर जाएगा। शारा का कहना है कि इस साल निश्चित तौर पर रकबे में बढ़ोतरी होगी।
एनसीडीईएक्स में भी सोयाबीन की कीमतों में बढ़त देखी गई और इंदौर में यह कीमत मंदी के मौसम में भी 2809 रुपये प्रति क्विंटल हो गई जो लगभग 85 फीसदी ज्यादा है। पिछले साल 18 नवंबर को फसल की कटाई वाले मौसम के दौरान बिक्री की कीमत 1517 रुपये प्रति क्विंटल तक थी।
सरकार ने पिछले साल काले और पीले सोयाबीन का न्यूनतम समर्थन मूल्य क्रमश: 910 रुपये और 1050 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 1350 रुपये और 1390 रुपये कर दिया था। देश में इस बुआई के सीजन में सोयाबीन का रकबा पिछले साल के 96 लाख हेक्टेयर के मुकाबले बढ़कर 1 करोड़ हेक्टेयर हो सकता है। वर्ष 2008-09 में देश में सोयाबीन का कुल उत्पादन 108 लाख टन रिकॉर्ड किया गया जो इससे पहले साल में 94.73 लाख टन था। (BS Hindi)
मानसून के देर से आने की आशंका से सोयाबीन किसानों को बीजों के स्टॉक को दोगुना रखने के लिए मजबूर होना पड रहा है।
बीजों का दोगुना स्टॉक औसत जरूरत से ज्यादा है। दरअसल किसानों को यह चिंता सता रही है कि मानसून में देरी होने से इस सीजन में दूसरी दफे बुआई करनी पड़ सकती है। सामान्य परिस्थितियों में देश में बुआई के लिए 5.5-6 लाख टन सोयाबीन के बीजों की जरूरत होती है।
लेकिन मानसून में देरी होने से पहली बार बोए गए बीज सूखे मौसम की वजह से खराब हो सकते हैं या फिर देर से भारी वर्षा होने की वजह से भी बीज बर्बाद हो सकते हैं। ऐसे में किसान दोबारा बुआई की आशंका की वजह से ज्यादा बीजों का भंडार तैयार कर रहे हैं।
इंदौर के सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन (एसओपीए) के अनुमान के मुताबिक किसानों के पास 12 लाख टन से ज्यादा बीज हैं जो सामान्य जरूरत से दोगुने हैं। अभी तक 100 किलोग्राम वाली बोरी रोजाना आवक 50,000-70,000 बोरी से ज्यादा है जो पिछले साल की समान अवधि में 25,000 बोरी से भी कम थी।
एसओपीए के कोऑर्डीनेटर राजेश अग्रवाल का कहना है, 'मार्च तक आवक बहुत कम थी और किसानों को ऐसा अनुमान था कि कीमतों में बढ़ोतरी होगी।' किसान अक्सर जून में ही सोयाबीन की बुआई करते हैं क्योंकि उसी वक्त मानसून आता है। कुल फसल क्षेत्र के लगभग 15 फीसदी पर इस महीने के दौरान बुआई हो जाती है। लेकिन बुआई अभी शुरू नहीं हो पाई है क्योंकि मानसून ने वक्त पर दस्तक नहीं दी है।
सोयाबीन के बुआई के लिए जमीन में थोड़ी नमी जरूरी होती है जबकि ज्यादातर सोयाबीन उत्पादक राज्यों में इसकी कमी है। जून में अब तक बारिश में 40-60 फीसदी तक की कमी रिकॉर्ड की गई है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) को उम्मीद है कि इस साल मानसून की बारिश 96 फीसदी तक होगी।
देश के ज्यादातर हिस्सों की बारिश में लगभग 15 दिनों तक की देरी हो रही है खासतौर पर सोयाबीन उत्पादक राज्यों जिसमें दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य महाराष्ट्र भी शामिल है। बड़े सोयाबीन उत्पादक राज्य मध्यप्रदेश में मानसून के आने में 10 दिन तक की देरी हो सकती है और अभी इसके असर का मूल्यांकन करना भी बाकी है।
हालांकि अगर मध्य मानसून की अवधि मसलन जुलाई के दौरान भी बारिश होती है तो जून में बुआई के नुकसान की भरपाई की जा सकती है। देश के सबसे बड़े सोयाबीन पेराई की कंपनी रुचि सोया इंडस्ट्रीज लिमिटेड के प्रबंध निदेशक दिनेश शारा का कहना है कि किसान मानूसन का इंतजार ही कर रहे हैं।
बुआई में देरी होने से फसल पकने की समय सीमा भी बढ़ जाएगी, इसी वजह से फसल की कटाई का काम देर से होगा। लेकिन जुलाई के दौरान बेहतर बारिश होने के बावजूद भी बुआई में देरी होगी और बहुत ज्यादा बारिश की उम्मीदों पर भी पानी फिर जाएगा। शारा का कहना है कि इस साल निश्चित तौर पर रकबे में बढ़ोतरी होगी।
एनसीडीईएक्स में भी सोयाबीन की कीमतों में बढ़त देखी गई और इंदौर में यह कीमत मंदी के मौसम में भी 2809 रुपये प्रति क्विंटल हो गई जो लगभग 85 फीसदी ज्यादा है। पिछले साल 18 नवंबर को फसल की कटाई वाले मौसम के दौरान बिक्री की कीमत 1517 रुपये प्रति क्विंटल तक थी।
सरकार ने पिछले साल काले और पीले सोयाबीन का न्यूनतम समर्थन मूल्य क्रमश: 910 रुपये और 1050 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 1350 रुपये और 1390 रुपये कर दिया था। देश में इस बुआई के सीजन में सोयाबीन का रकबा पिछले साल के 96 लाख हेक्टेयर के मुकाबले बढ़कर 1 करोड़ हेक्टेयर हो सकता है। वर्ष 2008-09 में देश में सोयाबीन का कुल उत्पादन 108 लाख टन रिकॉर्ड किया गया जो इससे पहले साल में 94.73 लाख टन था। (BS Hindi)
गन्ना मूल्य बढ़ाने में महाराष्ट्र का ख्याल, उप्र को ठेंगा
Jun 25, 04:06 pm
नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। गन्ना खेती से किसानों के मुंह मोड़ने से परेशान केंद्र सरकार ने गन्ना वर्ष 2009-10 के लिए गन्ने का वैधानिक न्यूनतम मूल्य [एसएमपी] 32 फीसदी बढ़ाकर 107.76 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया है। यह मूल्य 9.50 प्रतिशत की रिकवरी पर दिया जाएगा। रिकवरी दर में प्रति प्वाइंट की वृद्धि पर 1.13 रुपये प्रीमियम के तौर पर अलग से मिलेंगे। जबकि पिछले गन्ना सत्र में नौ फीसदी की रिकवरी पर 81.18 रुपये का एमएसपी तथा प्रत्येक अतिरिक्त प्वाइंट की रिकवरी दर पर 90 पैसे का प्रीमियम निर्धारित किया गया था।
केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में गुरुवार को गन्ने के एसएमपी को मंजूरी दी गई। यह जानकारी गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने पत्रकारों को दी।
हालांकि गन्ने के एसएमपी के लिए कृषि लागत व मूल्य आयोग [सीएसीपी] ने 125 रुपये प्रति क्विंटल के एसएमपी की सिफारिश की थी, जिसे घटाकर 107.76 रुपये प्रति क्विंटल एसएमपी की घोषणा की गई है। दरअसल, महाराष्ट्र में चुनाव के मद्देनजर कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार ने महीन चाल चली है, जिससे महाराष्ट्र व तमिलनाडु के किसानों को सीधा फायदा होगा। गन्ने की अतिरिक्त रिकवरी पर मिलने वाले प्रीमियम में 23 पैसे प्रति प्वाइंट की जो वृद्धि की गई है, उसका सर्वाधिक लाभ इन्हीं राज्यों के गन्ना किसानों को मिलेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि इन राज्यों में गन्ने से रिकवरी की दर 11.50 से लेकर 12 फीसदी तक है।
उत्तर प्रदेश में चूंकि चीनी की रिकवरी दर महाराष्ट्र और तमिलनाडु के मुकाबले कम रहती है, इसलिए राज्य के किसानों को गन्ने का मूल्य ज्यादा से ज्यादा 110.58 रुपये प्रति क्विंटल मिलेगा। पिछले साल उत्तर प्रदेश के गन्ने का मूल्य 84.50 रुपये प्रति क्विंटल पड़ रहा था। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में उत्तर प्रदेश की तर्ज पर राज्य समर्थित मूल्य [एसएपी] नहीं दिया जाता है, जिसकी भरपाई के लिए पवार ने प्रीमियम 90 पैसे प्रति प्वाइंट से बढ़ाकर 1.13 रुपये कर दिया है। इस आधार पर महाराष्ट्र व तमिलनाडु के किसानों को गन्ने का दाम 140 रुपये प्रति क्विंटल की दर से मिलना ही है।
दरअसल, गन्ने के इस एसएमपी का औचित्य उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए कुछ खास नहीं है। इसके मुकाबले राज्य सरकार अपना एसएपी घोषित करती है, जो इसके मुकाबले 40 से 50 रुपये प्रति क्िवटल अधिक होता है। लेकिन वर्ष 2008-09 के गन्ना सत्र के दौरान चीनी मिलों ने 140 से 160रुपये प्रति क्विंटल की दर से भुगतान किया है। इसे देखते हुए राज्य के गन्ना किसानों को केंद्र सरकार की इस घोषणा से निराशा ही हुई है।
गन्ना किसान नेता अवधेश मिश्र ने हैरानी जताते हुए कहा कि न जाने क्यों सरकार गन्ने की लागत को नजरअंदाज कर एसएमपी घोषित करती है। एक बार फिर उत्तर प्रदेश के किसानों को छला गया है। एसएमपी की घोषणा से हताश गन्ना किसान नेता चौधरी अनिल सिंह का कहना है कि निराश किसानों ने गन्ना खेती से पहले ही दूरी बना ली है। अब गन्ना खेती का रकबा और घटेगा। गन्ने की खेती घटी तो चीनी में किल्लत रहेगी ही। सरकार ने दूसरी बार सीएसीपी की सिफारिश को खारिज किया है। गन्ना खेती की लागत 140 रुपये प्रति क्विंटल पड़ती है। (Dainik Jagran)
नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। गन्ना खेती से किसानों के मुंह मोड़ने से परेशान केंद्र सरकार ने गन्ना वर्ष 2009-10 के लिए गन्ने का वैधानिक न्यूनतम मूल्य [एसएमपी] 32 फीसदी बढ़ाकर 107.76 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया है। यह मूल्य 9.50 प्रतिशत की रिकवरी पर दिया जाएगा। रिकवरी दर में प्रति प्वाइंट की वृद्धि पर 1.13 रुपये प्रीमियम के तौर पर अलग से मिलेंगे। जबकि पिछले गन्ना सत्र में नौ फीसदी की रिकवरी पर 81.18 रुपये का एमएसपी तथा प्रत्येक अतिरिक्त प्वाइंट की रिकवरी दर पर 90 पैसे का प्रीमियम निर्धारित किया गया था।
केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में गुरुवार को गन्ने के एसएमपी को मंजूरी दी गई। यह जानकारी गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने पत्रकारों को दी।
हालांकि गन्ने के एसएमपी के लिए कृषि लागत व मूल्य आयोग [सीएसीपी] ने 125 रुपये प्रति क्विंटल के एसएमपी की सिफारिश की थी, जिसे घटाकर 107.76 रुपये प्रति क्विंटल एसएमपी की घोषणा की गई है। दरअसल, महाराष्ट्र में चुनाव के मद्देनजर कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार ने महीन चाल चली है, जिससे महाराष्ट्र व तमिलनाडु के किसानों को सीधा फायदा होगा। गन्ने की अतिरिक्त रिकवरी पर मिलने वाले प्रीमियम में 23 पैसे प्रति प्वाइंट की जो वृद्धि की गई है, उसका सर्वाधिक लाभ इन्हीं राज्यों के गन्ना किसानों को मिलेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि इन राज्यों में गन्ने से रिकवरी की दर 11.50 से लेकर 12 फीसदी तक है।
उत्तर प्रदेश में चूंकि चीनी की रिकवरी दर महाराष्ट्र और तमिलनाडु के मुकाबले कम रहती है, इसलिए राज्य के किसानों को गन्ने का मूल्य ज्यादा से ज्यादा 110.58 रुपये प्रति क्विंटल मिलेगा। पिछले साल उत्तर प्रदेश के गन्ने का मूल्य 84.50 रुपये प्रति क्विंटल पड़ रहा था। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में उत्तर प्रदेश की तर्ज पर राज्य समर्थित मूल्य [एसएपी] नहीं दिया जाता है, जिसकी भरपाई के लिए पवार ने प्रीमियम 90 पैसे प्रति प्वाइंट से बढ़ाकर 1.13 रुपये कर दिया है। इस आधार पर महाराष्ट्र व तमिलनाडु के किसानों को गन्ने का दाम 140 रुपये प्रति क्विंटल की दर से मिलना ही है।
दरअसल, गन्ने के इस एसएमपी का औचित्य उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए कुछ खास नहीं है। इसके मुकाबले राज्य सरकार अपना एसएपी घोषित करती है, जो इसके मुकाबले 40 से 50 रुपये प्रति क्िवटल अधिक होता है। लेकिन वर्ष 2008-09 के गन्ना सत्र के दौरान चीनी मिलों ने 140 से 160रुपये प्रति क्विंटल की दर से भुगतान किया है। इसे देखते हुए राज्य के गन्ना किसानों को केंद्र सरकार की इस घोषणा से निराशा ही हुई है।
गन्ना किसान नेता अवधेश मिश्र ने हैरानी जताते हुए कहा कि न जाने क्यों सरकार गन्ने की लागत को नजरअंदाज कर एसएमपी घोषित करती है। एक बार फिर उत्तर प्रदेश के किसानों को छला गया है। एसएमपी की घोषणा से हताश गन्ना किसान नेता चौधरी अनिल सिंह का कहना है कि निराश किसानों ने गन्ना खेती से पहले ही दूरी बना ली है। अब गन्ना खेती का रकबा और घटेगा। गन्ने की खेती घटी तो चीनी में किल्लत रहेगी ही। सरकार ने दूसरी बार सीएसीपी की सिफारिश को खारिज किया है। गन्ना खेती की लागत 140 रुपये प्रति क्विंटल पड़ती है। (Dainik Jagran)
25 जून 2009
यूएसडीए की रिपोर्ट के इंतजार में अनाज सुस्त
सिंगापुर। अमेरिकी कृषि विभाग की रिपोर्ट के इंतजार में कारोबारियों की सक्रियता कम होने से आने वाले दिनों में एशियाई बाजारों में अनाजों के दाम सुस्त रह सकते है। हालांकि इस दौरान शिकागो बोर्ड ऑफ ट्रेड में अनाजों की कीमतों में मजबूती बरकरार रह सकती है। इसके लिए दूसरे कारक जिम्मेदार होंगे।कारोबारियों के मुताबिक अमेरिकी कृषि विभाग की रिपोर्ट जारी होने वाली है। जिसका कारोबार पर असर पड़ सकता है। रिपोर्ट आने के बाद बाजार की दिशा तय हो सकेगी। ऐसे में कारोबारी बड़े सौदे करने से बच रहे हैं। इसके कारण सीबॉट के एशियाई ट्रेड पर भी पड़ा है। जहां मंगलवार को कारोबार के दौरान अनाजों की कीमतों में भारी गिरावट देखी गई। हालांकि बाद में डॉलर में कमजोरी और क्रूड ऑयल की कीमतों में स्थिरता की वजह से मामूली शॉर्ट कवरिंग भी हुई। टोक्यो के कारोबारियों के मुताबिक मौजूदा समय में गिरावट के आसार ज्यादा हैं।अनाजों के मामले में अभी कोई भी सकारात्मक संकेत नहीं दिख रहे हैं। मंगलवार को सीबॉट में जुलाई मक्का वायदा मामूली सुधार के साथ करीब 3.89 डॉलर प्रति बुशल पर बंद हुआ। इसमें भी गिरावट आने के कयास लगाए जा रहे हैं। काराबारियों का मानना है कि यूएसडीए की रिपोर्ट आने के बाद ही कारोबार की दिशा तय हो सकेगी। 30 जून को यूएसडीए अपनी रिपोर्ट में फसलों के बुवाई रकबा के बारे में आंकड़े जारी करने वाला है। मंगलवार को सीबॉट गेहूं वायदा में भी बढ़त रही। लंेकिन आने वाले दिनों में इसमें कमजोर कारोबार रहने के ज्यादा आसार हैं। सोयाबीन में भी आगे कमजोरी की संभावना है। चीन की ओर से जून के दौरान करीब 43.4 लाख टन सोयाबीन आयात होने की संभावना जताई गई है। इससे पहले करीब 64.2 लाख टन आयात के आसार थे। पिछले दिनों यहां आयात बढ़ने की वजह से ही वैश्विक बाजार में सोयाबीन की कीमतों में रिकार्ड तेजी देखी गई थी। (डो जोंस) (Busienss Bhaskar)
साढ़े छह लाख टन गेहूं उत्पाद निर्यात की अनुमति
केंद्र सरकार ने 6.5 लाख टन गेहूं उत्पादों जैसे आटा, मैदा व सूजी के निर्यात को मंजूरी दे दी है। हालांकि अभी अधिसूचना जारी नहीं हुई है। बुधवार को दिल्ली में एग्री सर्विस कंपनी एसोकॉम इंडिया द्वारा आयोजित कांफ्रेंस में खाद्य उपभोक्ता मामले तथा सार्वजनिक वितरण मंत्रालय में संयुक्त सचिव शिराज हुसैन ने कहा कि गेहूं उत्पादों के निर्यात को मंजूरी दे दी गई है।सरकार जल्दी ही अधिसूचना जारी करेगी। गेहूं व गैर बासमती चावल निर्यात के सवाल पर उन्होंने बताया कि गेहूं और चावल का देश में भरपूर स्टॉक है लेकिन जुलाई के बाद मौसम की स्थिति देखकर ही निर्यात पर निर्णय लिया जाएगा। सूत्रों के अनुसार चालू फसल सीजन में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) अभी तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर 247 लाख टन गेहूं और 306 लाख टन चावल की खरीद कर चुकी है। वर्तमान में हो रही खरीद को देखते हुए 250 लाख टन गेहूं और 325 लाख टन चावल की खरीद होने की संभावना है जबकि सरकार के पास पिछले साल का बकाया स्टॉक भी बचा हुआ है। रोलर फ्लोर मिलर्स फैडरेशन ऑफ इंडिया की सचिव वीणा शर्मा ने बताया कि विदेशी बाजार के मुकाबले घरेलू बाजार में गेहूं उत्पादों के दाम तो ऊंचे चल रहे हैं। लेकिन विदेशों के मुकाबले भारत में मिलिंग लागत कम है, ऐसे में पड़ोसी देशों इंडोनेशिया, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार को निर्यात पड़ते लगने की संभावना है क्योंकि इन देशों में गेहूं का उत्पादन काफी कम होता है तथा फ्लोर मिलों की संख्या भी कम है। हालांकि इन देशों में केवल मैदा की ही खपत होती है। ऐसे में भारत से मैदा का ही निर्यात होने की संभावना है। दिल्ली बाजार में इस समय मैदा के भाव 1300 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं जबकि गेहूं के भाव 1050 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं। एक क्विंटल गेहूं से 50 किलो मैदा बनती है। उधर शिकागो बोर्ड ऑफ ट्रेड (सीबॉट) में गेहूं के भाव लगभग 200 डॉलर प्रति टन चल रहे हैं।कांफ्रेंस में दलहन और तिलहन के उत्पादन में बढ़ोतरी न होना और आयात में लगातार इजाफा होने पर भी चिंता जताई गई। भारत में जनसंख्या की बढ़ोतरी दर जहां 1.8 फीसदी है वही खाद्यान्न के उत्पादन में मात्र 1.6 फीसदी की ही बढ़ोतरी हो रही है। इसके अलावा घटता भूजलस्तर भी चिंताजनक है। जिस तरह से भूमि का जलस्तर घट रहा है उससे आगामी दस सालों में भारी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। गेहूं और गन्ने की फसल को पानी की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। ऐसे में सूखे से लड़ने वाले बीजों का विकास करके ही इस समस्या का निदान किया जा सकता है। (Business Bhaskar....R S Rana)
मॉनसून के बहाने मिलेगा कालाबाजारी को बढ़ावा!
नई दिल्ली: मॉनसून में देरी से फसलों के उत्पादन पर असर तो वक्त आने पर ही दिखेगा, लेकिन लगातार हो रही सरकारी बयानबाजी और बाजार के जानकारों द्वारा जताई जा रही चिंता से कालाबाजारी को जरूर मदद मिल सकती है, जिसका नतीजा बढ़ी कीमतों के रूप में देखा जा सकता है। कमोडिटी बाजार पर करीब से नजर रखने वालों का मानना है कि मॉनसून में देरी के कारण दाल, ऑयलसीड, धान और गन्ना, ज्वार एवं बाजरा जैसी खरीफ फसलों की बुआई में देरी हो सकती है। इसके अलावा हरी सब्जियों के उत्पादन पर भी गर्मी का सीधा कहर बरपेगा। जानकारों के मुताबिक इस समय दिल्ली के बाजारों में इनमें से ज्यादातर कमोडिटी का पर्याप्त भंडार है। लेकिन जिस तरह से वायदा बाजार में कीमतें चढ़ रही हैं, उसे देखते हुए मानसून की देरी जुलाई में कीमतों में वृद्धि के रूप में दिखेगी।
दिल्ली में खाद्यान्न की खपत पर गौर करें, तो यहां 125 लाख क्विंटल खाद्यान्न की रोजाना खपत होती है। जबकि शहर में खाद्य तेलों की रोज की खपत 700 टन है। दिल्ली सर्व व्यापार मंडल के अध्यक्ष ओम प्रकाश जैन ने ईटी को बताया, 'शहर में इस समय गेहूं, मक्का, बाजरा, दाल, चावल और अन्य खाद्यान्न का पर्याप्त स्टॉक है। अगर जुलाई के पहले हफ्ते तक सामान्य बारिश नहीं होती है, तो भी शहर में एकदम से खाद्यान्न की किल्लत नहीं होगी। लेकिन इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगली फसल कमजोर होने के अनुमान से बाजार में कीमतें तेज होने का सेंटीमेंट बनेगा। खासकर सरकार ने मानसून को लेकर जितनी सक्रियता दिखाई है, उससे उपभोक्ताओं को महंगाई का डर सताने लगा है।' कार्वी कॉमट्रेड के एसोसिएट रिसर्च हेड अरबिंदो प्रसाद के मुताबिक, 'जुलाई के पहले हफ्ते तक अगर देश में सामान्य मानसूनी बारिश नहीं होती है तो इससे दालों की कीमतों में 5-6 फीसदी का इजाफा हो सकता है। इसके अलावा सोयाबीन, मूंगफली, बिनौला जैसे ऑयलसीड की कीमतों में 10 फीसदी तक का उछाल आ सकता है।' दिल्ली वेजिटेबल ऑयल ट्रेडर्स एसोसिएशन के सचिव हेमंत गुप्ता ने कहा, 'सरसों के तेल के अलावा बाकी प्रमुख खाद्य तेल मानसून में देरी से प्रभावित होंगे। हालांकि इस समय सोया ऑयल, सनफ्लावर ऑयल आदि की कीमतें पिछले साल से निचले स्तर पर हैं। एक महीने में तेल की कीमतों में 8 से 10 रुपए प्रति किलो तक की मंदी आई है। लेकिन नई फसल में देरी के अनुमान से इन तेलों की कीमतों में अगस्त में 5 से 10 फीसदी तक की तेजी आ सकती है।' उधर सब्जी और फलों पर मॉनसून की संभावित देरी के असर पर दिल्ली कृषि विपणन बोर्ड (डीएएमबी) के अध्यक्ष ब्रह्मा यादव ने बताया, 'मॉनसून सही समय पर उत्तर भारत में प्रवेश करेगा तो हरी सब्जियों की कीमतें नीचे आ सकती हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो कीमतों में कुछ उछाल आ सकता है। फलों की कीमतों पर असर पड़ने की आशंका नहीं है।' (ET Hindi)
दिल्ली में खाद्यान्न की खपत पर गौर करें, तो यहां 125 लाख क्विंटल खाद्यान्न की रोजाना खपत होती है। जबकि शहर में खाद्य तेलों की रोज की खपत 700 टन है। दिल्ली सर्व व्यापार मंडल के अध्यक्ष ओम प्रकाश जैन ने ईटी को बताया, 'शहर में इस समय गेहूं, मक्का, बाजरा, दाल, चावल और अन्य खाद्यान्न का पर्याप्त स्टॉक है। अगर जुलाई के पहले हफ्ते तक सामान्य बारिश नहीं होती है, तो भी शहर में एकदम से खाद्यान्न की किल्लत नहीं होगी। लेकिन इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगली फसल कमजोर होने के अनुमान से बाजार में कीमतें तेज होने का सेंटीमेंट बनेगा। खासकर सरकार ने मानसून को लेकर जितनी सक्रियता दिखाई है, उससे उपभोक्ताओं को महंगाई का डर सताने लगा है।' कार्वी कॉमट्रेड के एसोसिएट रिसर्च हेड अरबिंदो प्रसाद के मुताबिक, 'जुलाई के पहले हफ्ते तक अगर देश में सामान्य मानसूनी बारिश नहीं होती है तो इससे दालों की कीमतों में 5-6 फीसदी का इजाफा हो सकता है। इसके अलावा सोयाबीन, मूंगफली, बिनौला जैसे ऑयलसीड की कीमतों में 10 फीसदी तक का उछाल आ सकता है।' दिल्ली वेजिटेबल ऑयल ट्रेडर्स एसोसिएशन के सचिव हेमंत गुप्ता ने कहा, 'सरसों के तेल के अलावा बाकी प्रमुख खाद्य तेल मानसून में देरी से प्रभावित होंगे। हालांकि इस समय सोया ऑयल, सनफ्लावर ऑयल आदि की कीमतें पिछले साल से निचले स्तर पर हैं। एक महीने में तेल की कीमतों में 8 से 10 रुपए प्रति किलो तक की मंदी आई है। लेकिन नई फसल में देरी के अनुमान से इन तेलों की कीमतों में अगस्त में 5 से 10 फीसदी तक की तेजी आ सकती है।' उधर सब्जी और फलों पर मॉनसून की संभावित देरी के असर पर दिल्ली कृषि विपणन बोर्ड (डीएएमबी) के अध्यक्ष ब्रह्मा यादव ने बताया, 'मॉनसून सही समय पर उत्तर भारत में प्रवेश करेगा तो हरी सब्जियों की कीमतें नीचे आ सकती हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो कीमतों में कुछ उछाल आ सकता है। फलों की कीमतों पर असर पड़ने की आशंका नहीं है।' (ET Hindi)
अनुमान से कम होगा चीनी उत्पादन
मुंबई: अगले सीजन में भारत में चीनी का उत्पादन पिछले अनुमान से भी कम रहने की आशंका है। बुधवार को इंडस्ट्री के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि मॉनसून में देर के कारण 2009-10 में 1.75-1.85 करोड़ टन चीनी उत्पादन होगा, जो पहले बताए गए अनुमानों से कम है। उल्लेखनीय है कि पहले के अनुमानों के मुताबिक इस दौरान 2 करोड़ टन चीनी उत्पादन की बात कही जा रही थी। महाराष्ट्र स्टेट को-ऑपरेटिव शुगर फैक्टरीज फेडरेशन के मैनेजिंग डायरेक्टर प्रकाश नैकनावरे का कहना है, 'मेरे अनुमान से मॉनसून में देर और कम बरसात के कारण अगले सीजन में चीनी का उत्पादन 1.75-1.85 करोड़ टन के बीच रहेगा।' हालांकि चीनी उद्योग को पहले 2 करोड़ टन चीनी उत्पादन की उम्मीद थी। उल्लेखनीय है कि 2008-09 में देश में कुल 1.47 करोड़ टन चीनी का उत्पादन हुआ था। (ET Hindi)
म्यांमार में भाव बढ़ने से अरहर के दाम पहुंचे रिकार्ड स्तर पर
घरेलू मंडियों में कमजोर स्टॉक और म्यांमार में भाव बढ़ने से अरहर के दाम रिकार्ड स्तर पर पहुंच गए हैं। लातूर और गुलबर्गा मंडियों में देसी अरहर के भाव बढ़कर 4500-4550 रुपये प्रति क्विंटल और आयातित लेमन अरहर के भाव मुंबई पहुंच 4300-4350 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। म्यांमार के निर्यातकों ने भाव बढ़ाकर 890-900 डॉलर प्रति टन बोलने शुरू कर दिए हैं। घरेलू फसल आने में अभी करीब छह महीने का समय बाकी है। ऐसे में इसके मौजूदा भावों में और भी तेजी की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।दलहन आयातक संतोष उपाध्याय ने बताया कि म्यांमार के निर्यातकों ने लेमन अरहर के भाव पिछले एक सप्ताह में 830-840 डॉलर से बढ़ाकर 890-900 डॉलर प्रति टन कर दिए हैं। घरेलू बाजार में कमजोर स्टॉक और मानसून की देरी से भी तेजी को बल मिला है। वैसे भी पिछले चार महीने से तमिलनाडु सरकार हर महीने करीब दो लाख टन अरहर दाल की खरीद निविदा के माध्यम से कर रही है। सूत्रों के अनुसार सरकारी कंपनियों एसटीसी, एमएमटीसी, पीईसी और नैफेड ने वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान 95,140 टन लेमन अरहर का आयात किया।बंदेवार दाल एंड बेसन मिल के डायरेक्टर सुनील बंदेवार ने बताया कि स्टॉकिस्टों की बिकवाली कम आने और अरहर दाल की मांग अच्छी होने से प्रमुख उत्पादक मंडियों लातूर और गुलबर्गा में देसी अरहर के भाव बढ़कर क्रमश: 4500-4550 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। अरहर दाल के भाव बढ़कर इस दौरान 6300 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। फुटकर बाजार में इसके भाव बढ़कर 75-80 रुपये प्रति क्विंटल हो गए हैं। इस समय गुलबर्गा मंडी में करीब चार लाख क्विंटल, लातूर में करीब दो लाख क्विंटल और जलगांव तथा जालना मंडी में दो-ढ़ाई लाख क्विंटल का ही स्टॉक बचा है। घरेलू मंडियों में अरहर की नई फसल की आवक नवंबर-दिसंबर महीने में शुरू होगी। अत: नई फसल आने में अभी करीब पांच-छह महीने का समय शेष है। इसलिए स्टॉकिस्ट की बिकवाली कम आ रही है। दलहन व्यापारी विजेंद्र गोयल ने बताया कि महाराष्ट्र के लातूर, नानदेड़, पुणो और जलगांव लाईन में हाल ही में वर्षा होने से बुवाई का कार्य गति पकड़ेगा। हालांकि अभी तक विदर्भ लाइन में वर्षा नहीं होने से बुवाई में तेजी नहीं आई है। उधर कर्नाटक के गुलबर्गा, गदक, रायचूर और यादगिर में अच्छी बारिश हुई है। कर्नाटक में अभी तक करीब 40-45 फीसदी क्षेत्रफल में बुवाई हो चुकी है जबकि महाराष्ट्र में 25-30 फीसदी में ही बुवाई हुई है। केंद्र सरकार द्वारा जारी तीसरे अग्रिम उत्पादन अनुमान के मुताबिक वर्ष 2008-09 के दौरान देश में अरहर की पैदावार घटकर 23 लाख टन ही होने की अनुमान है। जबकि पिछले वर्ष देश में इसकी पैदावार 30 लाख टन की हुई थी। (Business Bhaskar.....R S Rana)
अगली तिमाही के लिए चीनी का कोटा बढ़ने की संभावना
केंद्र सरकार जुलाई-सितंबर तिमाही के लिए चीनी के कोटा में इजाफा कर सकती है। इस दौरान पड़ने वाले त्यौहारों में मांग बढ़ने की संभावना से कोटे में करीब 29 फीसदी इजाफा करने की उम्मीद जताई गई है। त्यौहारी सीजन होने के नाते इस दौरान हर साल चीनी की मांग बढ़ जाती है। जिससे भाव बढ़ने के आसार रहते हैं। बॉम्बे शुगर मर्चेट एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक जैन के मुताबिक सरकार इस दौरान करीब 45 लाख टन चीनी का कोटा जारी कर सकती है। ज्ञात हो कि इस साल कम उत्पादन की वजह से चीनी के भाव में तगड़ी तेजी आ चुकी है। जिस पर अंकुश के लिए सरकार की ओर से कवायद जारी है। हालांकि सरकार के उपायों के बावजूद चीनी की कीमतों में तेजी जारी है। हाल ही में सरकार ने स्टॉक लिमिट का कड़ाई से लागू करने की राज्यों को हिदायत दी है।पिछले साल समान अवधि के लिए सरकार की ओर से करीब 35 लाख टन चीनी का कोटा जारी किया गया था। इस साल जारी होने वाले कोटे में से जुलाई के लिए 13 लाख टन और अगस्त व सितंबर के लिए क्रमश: 16-16 लाख टन चीनी बिक्री के लिए उपलब्ध रह सकती है। चालू साल के दौरान घरलू बाजार में चीनी की कीमत करीब 27 फीसदी बढ़ चुकी हैं। मौजूदा समय में चीनी का हाजिर भाव करीब 2372 रुपये प्रति क्विंटल है। इस साल देश में करीब 147 लाख टन चीनी का उत्पादन होने की संभावना है। पिछले साल करीब 263 लाख टन उत्पादन हुआ था। चालू बुवाई सीजन में अभी तक हुई बुवाई में गन्ने का रकबा घटा है। इस समय उत्तर भारत में मौसम प्रतिकूल बना हुआ है।आईसीई एक्सचेंज में चीनी वायदा मजबूतसिंगापुर। आईसीई एक्सचेंज में जुलाई चीनी वायदा के निपटान से पहले चीनी की कीमतों में तगड़ी तेजी आई है। इस बीच एशिया के हाजिर बाजारों में भी भाव तेज रहने से कारोबारी बड़े सौदों से परहेज कर रहे हैं। जानकारों का मानना है कि ऐसे रुझान से जुलाई वायदा निपटान के दौरान डिलीवरी ज्यादा हो सकती है। मंगलवार को कारोबार के दौरान आईसीई अक्टूबर चीनी वायदा करीब 4.6 फीसदी की उछाल के साथ करीब 16.98 सेंट प्रति पाउंड पर पहुंच गई। दिन भर के कारोबार के दौरान यह 17 सेंट के ऊपरी स्तर पर भी देखा गया जो जुलाई 2007 के बाद का उच्चर स्तर है। (Business Bhaskar)
दूध पाउडर के निर्यात पर मिले सब्सिडी
नई दिल्ली June 24, 2009
भारतीय डेयरी उद्योग ने दूध के पाउडर के निर्यात पर 25 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी दिए जाने की मांग की है।
उद्योग का कहना है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ (ईयू) की अंतरराष्ट्रीय बाजार में दी जा रही सब्सिडी को देखते हुए प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए यह जरूरी है। इंडियन डेयरी एसोसिएशन (आईडीए) ने इस सिलसिले में केंद्रीय कृषि मंत्रालय के पास एक ज्ञापन भी भेजा है।
इस सब्सिडी खर्च 2007-08 (अक्टूबर से सितंबर) के दौरान किए गए के 80,000 टन निर्यात के आधार करीब 200 करोड़ रुपये आएगी। बहरहाल इस साल निर्यात केवल 30,000 टन का रहा है, क्योंकि मांग बहुत कम है।
भारत में कुल 1,95,000 टन दूध पाउडर का वार्षिक उत्पादन होता है। उद्योग जगत ने सलाह दी है कि मांस के निर्यात के लिए दी जा रही सब्सिडी में कटौती कर इसके लिए फंड इकट्ठा किया जा सकता है। मांस के निर्यात पर दो योजनाओं- डयूटी एनटाइटलमेंट पासबुक स्कीम और विशेष कृ षि और ग्राम उद्योग योजना के तहत 550 करोड़ रुपये की वार्षिक सब्सिडी दी जाती है।
आईडीए ने कहा है, 'अमेरिका में हाल ही में डेयरी एक्सपोर्ट प्रोत्साहन योजना पेश की गई है। इसके तहत वे 68,201 टन पाउडर और 10,000 टन मक्खन पर छूट दे रहे हैं। यूरोपीय संघ और अमेरिका द्वारा दी जा रही सब्सिडी से अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर असर पड़ेगा और वे कम होंगी। दूध पाउडर पर यूरोपीय संघ 24 रुपये प्रति किलो के हिसाब से सब्सिडी दे रहा है।'
चेन्नई स्थित हैटसन एग्रो के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक आरजी चंद्रमोगन, जो आईडीए के सदस्य हैं, ने कहा कि दूध पाउडर के निर्यात पर यूरोपीय संघ आगे चलकर सब्सिडी और बढ़ाएगा और इसे 10 प्रतिशत से 26.40 रुपये प्रति किलो तक किया जा सकता है। दरअसल यूरोपीय संघ अमेरिका द्वारा सब्सिडी पर इस महीने की जाने वाली घोषणा की प्रतीक्षा कर रहा है।
उन्होंने कहा कि यहां पर 80,000 टन अतिरिक्त दूध पाउडर का उत्पादन होता है, जिसका निर्यात किए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा, 'अगर इसका निर्यात नहीं किया जाता है तो डेयरी संयंत्रों को दूध पाउडर का उत्पादन कम करना पड़ेगा और उत्पादन पहले जैसा ही रहेगा। इसका मतलब यह होगा कि इससे मिलने वाले अतिरिक्त उत्पाद, घी और मक्खन का भी उत्पादन कम हो जाएगा।
इसकी वजह से घी और मक्खन की कमी होगी और इसका आयात करना होगा, जो घरेलू उद्योग के लिए बुरा साबित होगा।' इस समय मक्खन की कमी पहले से ही महसूस की जाती रही है। पिछले साल देश में कुल 15,000 टन मक्खन का आयात किया गया। उद्योग जगत के अनुमानों के मुताबिक चालू साल के लिए 10,000 टन मक्खन आयात के लिए पहले ही अनुबंध हो चुका है।
डेयरी उद्योग ने सरकार से मांगी दूध पाउडर के निर्यात पर 25 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी अगर दी जाती है इस दर पर सब्सिडी तो आएगा कुल 200 करोड़ रुपये सालाना खर्चसाथ ही उद्योग ने सुझाव दिया है कि मांस के निर्यात पर दी जा रही छूट में कटौती से की जाए घाटे की भरपाई (BS Hindi)
भारतीय डेयरी उद्योग ने दूध के पाउडर के निर्यात पर 25 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी दिए जाने की मांग की है।
उद्योग का कहना है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ (ईयू) की अंतरराष्ट्रीय बाजार में दी जा रही सब्सिडी को देखते हुए प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए यह जरूरी है। इंडियन डेयरी एसोसिएशन (आईडीए) ने इस सिलसिले में केंद्रीय कृषि मंत्रालय के पास एक ज्ञापन भी भेजा है।
इस सब्सिडी खर्च 2007-08 (अक्टूबर से सितंबर) के दौरान किए गए के 80,000 टन निर्यात के आधार करीब 200 करोड़ रुपये आएगी। बहरहाल इस साल निर्यात केवल 30,000 टन का रहा है, क्योंकि मांग बहुत कम है।
भारत में कुल 1,95,000 टन दूध पाउडर का वार्षिक उत्पादन होता है। उद्योग जगत ने सलाह दी है कि मांस के निर्यात के लिए दी जा रही सब्सिडी में कटौती कर इसके लिए फंड इकट्ठा किया जा सकता है। मांस के निर्यात पर दो योजनाओं- डयूटी एनटाइटलमेंट पासबुक स्कीम और विशेष कृ षि और ग्राम उद्योग योजना के तहत 550 करोड़ रुपये की वार्षिक सब्सिडी दी जाती है।
आईडीए ने कहा है, 'अमेरिका में हाल ही में डेयरी एक्सपोर्ट प्रोत्साहन योजना पेश की गई है। इसके तहत वे 68,201 टन पाउडर और 10,000 टन मक्खन पर छूट दे रहे हैं। यूरोपीय संघ और अमेरिका द्वारा दी जा रही सब्सिडी से अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर असर पड़ेगा और वे कम होंगी। दूध पाउडर पर यूरोपीय संघ 24 रुपये प्रति किलो के हिसाब से सब्सिडी दे रहा है।'
चेन्नई स्थित हैटसन एग्रो के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक आरजी चंद्रमोगन, जो आईडीए के सदस्य हैं, ने कहा कि दूध पाउडर के निर्यात पर यूरोपीय संघ आगे चलकर सब्सिडी और बढ़ाएगा और इसे 10 प्रतिशत से 26.40 रुपये प्रति किलो तक किया जा सकता है। दरअसल यूरोपीय संघ अमेरिका द्वारा सब्सिडी पर इस महीने की जाने वाली घोषणा की प्रतीक्षा कर रहा है।
उन्होंने कहा कि यहां पर 80,000 टन अतिरिक्त दूध पाउडर का उत्पादन होता है, जिसका निर्यात किए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा, 'अगर इसका निर्यात नहीं किया जाता है तो डेयरी संयंत्रों को दूध पाउडर का उत्पादन कम करना पड़ेगा और उत्पादन पहले जैसा ही रहेगा। इसका मतलब यह होगा कि इससे मिलने वाले अतिरिक्त उत्पाद, घी और मक्खन का भी उत्पादन कम हो जाएगा।
इसकी वजह से घी और मक्खन की कमी होगी और इसका आयात करना होगा, जो घरेलू उद्योग के लिए बुरा साबित होगा।' इस समय मक्खन की कमी पहले से ही महसूस की जाती रही है। पिछले साल देश में कुल 15,000 टन मक्खन का आयात किया गया। उद्योग जगत के अनुमानों के मुताबिक चालू साल के लिए 10,000 टन मक्खन आयात के लिए पहले ही अनुबंध हो चुका है।
डेयरी उद्योग ने सरकार से मांगी दूध पाउडर के निर्यात पर 25 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी अगर दी जाती है इस दर पर सब्सिडी तो आएगा कुल 200 करोड़ रुपये सालाना खर्चसाथ ही उद्योग ने सुझाव दिया है कि मांस के निर्यात पर दी जा रही छूट में कटौती से की जाए घाटे की भरपाई (BS Hindi)
चीनी का आयात सर्वोच्च स्तर पर
नई दिल्ली June 24, 2009
सितंबर में समाप्त होने वाले चालू चीनी सत्र में भारत द्वारा कच्ची चीनी का आयात अब तक के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया है।
इस दौरान कुल 25 लाख टन कच्ची चीनी का आयात किया गया। घरेलू स्तर पर चीनी के उत्पादन में 44 प्रतिशत गिरावट के साथ कुल उत्पादन 147 लाख टन रहा, जिसके चलते ऐसी हालत पैदा हुई।
इसके पहले 2004-05 सत्र में भारत ने कुल 213 लाख टन कच्ची चीनी का आयात किया था, उसके बाद 3 साल तक भारत में चीनी की आपूर्ति घरेलू उत्पादन से ही पूरी हो जाती थी। उद्योग जगत के अनुमानों के मुताबिक आयात सौदे 20 लाख टन के आस पास हैं, जो पहले ही विभिन्न कंपनियों द्वारा किए जा चुके हैं।
इसके अलावा सितंबर तक 50,000 टन कच्ची चीनी के सौदे होने के आसार हैं। इस सत्र के दौरान अब तक कुल 18.5 लाख टन कच्ची चीनी भारत में आ चुकी है। मुंबई स्थित रेणुका शुगर्स ने बड़े पैमाने पर चीनी का आयात किया है। देश में सबसे ज्यादा, 4000 टन प्रतिदिन के हिसाब से चीनी रिफाइनिंग की क्षमता रेणुका शुगर्स की है और दिसंबर तक इसकी रिफाइनिंग क्षमता बढ़कर 6,000 टन हो जाएगी।
इस कंपनी ने अब तक 7,53,000 टन कच्ची चीनी के आयात के सौदे किए हैं। सिंभावली शुगर्स, जिसकी उत्तर प्रदेश में 3 चीनी मिले हैं, दूसरी सबसे बड़ी कच्ची चीनी आयातक कंपनी है। कंपनी ने कुल 1,12,000 टन कच्ची चीनी के आयात के सौदे किए हैं।
इसके अलावा अन्य आयातक मिलों में बलरामपुर चीनी (1,00,000 टन), बजाज हिंदुस्तान (91,000 टन). शक्ति शुगर्स (8,9000 टन) और धामपुर शुगर्स (61,000 टन) शामिल हैं। इसमें से ज्यादातर आयात ब्राजील से किया जा रहा है। आयात के आरंभिक सौदे 280-300 डॉलर प्रति टन के हिसाब से हो रहे हैं।
बहरहाल, भारत के आयात शुरू करने और उत्पादक देशों में कम उत्पादन के अनुमानों से चीनी की वैश्विक कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और हाल के सौदे औसतन 325-340 डॉलर प्रति टन के हिसाब से हो रहे हैं। ये कंपनियां सामान्य तौर पर चीनी की रिफाइनिंग कर रही हैं और उन्हें बाजार में बेच रही हैं।
इनमें से ज्यादातर आयात ओपन जनरल लाइसेंस के माध्यम से हो रहा है, जिसमें निर्यात की शर्त शामिल नहीं है। सरकार ने कच्ची चीनी के आयात को कर मुक्त कर दिया है, जिससे घरेलू बाजार में चीनी की कमी को पूरा किया जा सके और कीमतें नियंत्रित रह सकें। पिछले साल अक्टूबर महीने के बाद से चीनी की कीमतों में करीब 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है और वर्तमान में चीनी की कीमत 28-29 रुपये प्रति किलो है।
घरेलू उपलब्धता की कमी में सुधार के साथ ही आयातित चीनी से मिलों के राजस्व और मुनाफे में भी बढ़ोतरी होगी। ऐसे में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब चालू चीनी सत्र के दौरान पिछले सत्र की तुलना में मिलों ने बहुत कम पेराई की है।
सिंभावली शुगर्स के निदेशक (वित्त) संजय तप्रिया ने कहा, 'आयातित कच्ची चीनी से हमारी कंपनी को 300 करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। हम यह भी उम्मीद करते हैं कि आयातित चीनी पर प्रति किलो 3-4 रुपये का मुनाफा होगा।'
तप्रिया को उम्मीद है कि 2009-10 सत्र के दौरान चीनी का आयात नए रिकॉर्ड बनाएगा, क्योंकि घरेलू उत्पाद 190-200 लाख टन रहने की उम्मीद है, जबकि कुल घरेलू खपत 220 लाख टन होती है।
कच्ची चीनी की प्रमुख आयातक चीनी मिलें
चीनी मिल कुल आयातरेणुका शुगर्स 7,53,000 टनसिंभावली शुगर्स 1,12,000 टनबलरामपुर चीनी 1,00,000 टनबजाज हिंदुस्तान 91,000 टनशक्ति शुगर्स 8,9000 टनधामपुर शुगर्स 61,000 टन
(BS Hindi)
सितंबर में समाप्त होने वाले चालू चीनी सत्र में भारत द्वारा कच्ची चीनी का आयात अब तक के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया है।
इस दौरान कुल 25 लाख टन कच्ची चीनी का आयात किया गया। घरेलू स्तर पर चीनी के उत्पादन में 44 प्रतिशत गिरावट के साथ कुल उत्पादन 147 लाख टन रहा, जिसके चलते ऐसी हालत पैदा हुई।
इसके पहले 2004-05 सत्र में भारत ने कुल 213 लाख टन कच्ची चीनी का आयात किया था, उसके बाद 3 साल तक भारत में चीनी की आपूर्ति घरेलू उत्पादन से ही पूरी हो जाती थी। उद्योग जगत के अनुमानों के मुताबिक आयात सौदे 20 लाख टन के आस पास हैं, जो पहले ही विभिन्न कंपनियों द्वारा किए जा चुके हैं।
इसके अलावा सितंबर तक 50,000 टन कच्ची चीनी के सौदे होने के आसार हैं। इस सत्र के दौरान अब तक कुल 18.5 लाख टन कच्ची चीनी भारत में आ चुकी है। मुंबई स्थित रेणुका शुगर्स ने बड़े पैमाने पर चीनी का आयात किया है। देश में सबसे ज्यादा, 4000 टन प्रतिदिन के हिसाब से चीनी रिफाइनिंग की क्षमता रेणुका शुगर्स की है और दिसंबर तक इसकी रिफाइनिंग क्षमता बढ़कर 6,000 टन हो जाएगी।
इस कंपनी ने अब तक 7,53,000 टन कच्ची चीनी के आयात के सौदे किए हैं। सिंभावली शुगर्स, जिसकी उत्तर प्रदेश में 3 चीनी मिले हैं, दूसरी सबसे बड़ी कच्ची चीनी आयातक कंपनी है। कंपनी ने कुल 1,12,000 टन कच्ची चीनी के आयात के सौदे किए हैं।
इसके अलावा अन्य आयातक मिलों में बलरामपुर चीनी (1,00,000 टन), बजाज हिंदुस्तान (91,000 टन). शक्ति शुगर्स (8,9000 टन) और धामपुर शुगर्स (61,000 टन) शामिल हैं। इसमें से ज्यादातर आयात ब्राजील से किया जा रहा है। आयात के आरंभिक सौदे 280-300 डॉलर प्रति टन के हिसाब से हो रहे हैं।
बहरहाल, भारत के आयात शुरू करने और उत्पादक देशों में कम उत्पादन के अनुमानों से चीनी की वैश्विक कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और हाल के सौदे औसतन 325-340 डॉलर प्रति टन के हिसाब से हो रहे हैं। ये कंपनियां सामान्य तौर पर चीनी की रिफाइनिंग कर रही हैं और उन्हें बाजार में बेच रही हैं।
इनमें से ज्यादातर आयात ओपन जनरल लाइसेंस के माध्यम से हो रहा है, जिसमें निर्यात की शर्त शामिल नहीं है। सरकार ने कच्ची चीनी के आयात को कर मुक्त कर दिया है, जिससे घरेलू बाजार में चीनी की कमी को पूरा किया जा सके और कीमतें नियंत्रित रह सकें। पिछले साल अक्टूबर महीने के बाद से चीनी की कीमतों में करीब 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है और वर्तमान में चीनी की कीमत 28-29 रुपये प्रति किलो है।
घरेलू उपलब्धता की कमी में सुधार के साथ ही आयातित चीनी से मिलों के राजस्व और मुनाफे में भी बढ़ोतरी होगी। ऐसे में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब चालू चीनी सत्र के दौरान पिछले सत्र की तुलना में मिलों ने बहुत कम पेराई की है।
सिंभावली शुगर्स के निदेशक (वित्त) संजय तप्रिया ने कहा, 'आयातित कच्ची चीनी से हमारी कंपनी को 300 करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। हम यह भी उम्मीद करते हैं कि आयातित चीनी पर प्रति किलो 3-4 रुपये का मुनाफा होगा।'
तप्रिया को उम्मीद है कि 2009-10 सत्र के दौरान चीनी का आयात नए रिकॉर्ड बनाएगा, क्योंकि घरेलू उत्पाद 190-200 लाख टन रहने की उम्मीद है, जबकि कुल घरेलू खपत 220 लाख टन होती है।
कच्ची चीनी की प्रमुख आयातक चीनी मिलें
चीनी मिल कुल आयातरेणुका शुगर्स 7,53,000 टनसिंभावली शुगर्स 1,12,000 टनबलरामपुर चीनी 1,00,000 टनबजाज हिंदुस्तान 91,000 टनशक्ति शुगर्स 8,9000 टनधामपुर शुगर्स 61,000 टन
(BS Hindi)
उत्पादन में गिरावट आने से जूट का भाव 94 फीसदी तक बढ़ा
उत्पादन घटने से कच्चे जूट (टीडी-5 किस्म) के दाम कोलकाता में एक साल के दौरान करीब 94 फीसदी बढ़कर 2900 रुपये प्रति क्विंटल हो चुके हैं। कारोबारियों का कहना है कि वायदा कारोबार की वजह से भी कीमतों में तेजी को बल मिल रहा है। कच्चे जूट महंगा होने के कारण हेसियन क्लॉथ के मूल्यों में भी इजाफा हुआ है। हाल ही में सरकार ने जूट उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कच्चे जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 125 रुपये प्रति क्विंटल का इजाफा किया है। वहीं बारिश में देरी के चलते अगले सीजन में भी जूट का उत्पादन घटने का अनुमान है।इंडियन जूट मिल एसोसिएशन (आईजेएमए) के चेयरमैन संजय कजरिया ने बिजनेस भास्कर को बताया कि चालू जूट वर्ष (2008-09) में उत्पादन घटकर 82 लाख गांठ (एक गांठ 180 किलो) रहने का अनुमान है, पिछले जूट वर्ष में यह आंकडा़ 95 लाख गांठ का था। उनके अनुसार उत्पादन घटने के कारण कच्चे जूट (टीडी-5 किस्म) के दाम अब तक के रिकॉर्ड स्तर पर 2900 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच चुके हैं। दरअसल बीते वषरें में जूट की खेती में मुनाफा न होने के कारण किसानों ने दूसरी फसलों की ओर रुख कर लिया है। इसके मद्देनजर सरकार ने हाल ही में किसानों को जूट की खेती के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अगले सीजन 2009-10 के लिए कच्चे जूट (टीडी-5 ) के एमएसपी को 125 रुपये बढ़ाकर 1375 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है।वहीं गेंगेज जूट मिल के निदेशक अभिषेक पोद्दार ने बताया कि जूट बाजार में सट्टेबाजी और कच्चा जूट महंगा होने के कारण हेसियन क्लॉथ (7.5 ओंज) के दाम पिछले एक माह में ही 44000 रुपये से बढ़कर 55000 रुपये प्रति टन हो चुके है। वहीं पिछले साल सीजन की शुरूआत में इसके दाम करीब 35000 रुपये प्रति टन थे। जूट मिल एसोसिएशन के अनुसार जूट सीजन की शुरूआत से ही इसके मूल्यों में लगातार इजाफा हो रहा है। जुलाई 2008 में इसके दाम 1500 रुपये प्रति क्विंटल थे। इसी वर्ष दिसबंर में इसके भाव बढ़कर 1700 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। जनवरी में जूट के दाम 2000 रुपये क्विंटल के ऊपर चले गए। मई के मुकाबले चालू माह में इसके मूल्यों में 400 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी हो चुकी है। संजय कजरिया का कहना है कि जूट का वायदा कारोबार होने से भी इसकी कीमतों में वृद्धि हुई है। उनके अनुसार सरकार को जूट के वायदा कारोबार में पाबंदी लगा देनी चाहिए। ताकि बेहताशा बढ़ रही जूट की कीमतों को नियंत्रित किया जा सके। जूट मिल एसोसिएशन के मुताबिक बारिश में देरी के चलते अगले सीजन के दौरान भी उत्पादन कम होने की संभावना है। वर्ष 2009-10 के दौरान जूट का उत्पादन घटकर 80 लाख गांठ होने का अनुमान है। एसोसिएशन के चेयरमैन कजरिया के अनुसार अगले चार-पांच दिनों में बारिश होने पर जूट उत्पादन सुधर सकता है। गौरतलब है कि टैक्सटाइल मंत्रालय ने जूट की कमी को देखते हुए चीनी उद्योग को पैकेजिंग सामग्री के लिए पॉलीप्रोपलीन व पॉलीएथेलीन से बने बैग का उपयोग 20 फीसदी तक करने की अनुमति एक मई तक के लिए दी थी। (Business bhaskar)
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