नई दिल्ली March 16, 2010
भाव में कमी का नश्तर झेल रही चीनी कंपनियों को अब बैंकों से भी चोट सहनी पड़ रही है।
चीनी के दाम गिरने की वजह से बैंकों ने भी कंपनियों के कर्ज की रकम कम करना शुरू कर दिया है। दरअसल किसानों को गन्ने का मोल देने के लिए ये कंपनियां अपने पास मौजूद चीनी के भंडार के आधार पर ही बैंकों से कर्ज लेती हैं, लेकिन भाव गिरने से भंडार की कुल कीमत भी अब कम हो गई है।
जनवरी में कई कंपनियों ने चीनी की कीमत 3,600 रुपये प्रति क्विंटल के आधार पर बैंकों से ऋण लिया था। चीनी कंपनियों को ऋण देते समय बैंक पिछले 3 महीने के दौरान चीनी के औसत दाम या फिर मौजूदा दाम (जो भी कम हो)को आधार बनाते हैं।
लेकिन उद्योग के सूत्र ने बताया कि बैंकों ने अपनी ऋण क्षमता को चीनी की मौजूदा कीमत 3,100 रुपये प्रति क्विंटल के अनुसार ही कर दिया है। इस कारण चीनी कंपनियों को मिलने वाले ऋण में करीब 14 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।
उत्तर प्रदेश की एक दिग्गज चीनी मिल के अधिकारी ने बताया, 'हमारे पास कार्यशील पूंजी की किल्लत है। बाजार में चीनी के दाम घट गए हैं लेकिन हम अब भी किसानों को 260 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से ही भुगतान कर रहे हैं। हमें आशंका है कि अगर चीनी के दाम नहीं बढ़े तो किसानों को गन्ने के भुगतान में देरी हो सकती है। किसानों को सही समय पर पैसा नहीं मिला तो वह अगले सीजन के लिए कम गन्ना बोएंगे।'
बैंक चीनी कंपनियों को बाजार में बेची जाने वाली कुल चीनी की कीमत का अधिकतम 85 फीसदी ऋण देते हैं। जबकि लेवी चीनी के मामले में यह आंकड़ा अधिकतम 90 फीसदी है। एक बैंक के अधिकारी ने बताया, 'चीनी कंपनियों को ऋण देने के लिए हमारे पास कई नियम हैं और इन्हें ध्यान में रखते हुए ही फेरबदल किए जाते हैं।'
चीनी की बाजार में बिक्री होने पर कंपनियां बैंकों को नियमित तौर पर ऋण का भुगतान करती हैं। जबकि बैंक ऋण के तौर पर दी जाने वाली रकम साप्ताहिक आधार पर तय करते हैं और कंपनियों को हर हफ्ते बैंकों के पास अपने चीनी स्टॉक की जानकारी देनी होती है।
जनवरी में बाजार में चीनी के दाम 4,300 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गए थे। लेकिन जनवरी के अंत से चीनी के दामों में गिरावट आनी शुरू हो गई जो फरवरी में भी जारी रही। हालांकि इसके बावजूद कंपनियां किसानों को गन्ने के वही दाम दे रही हैं जो जनवरी में दे रही थी।
दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में पेराई सत्र की अवधि बढ़ने के कारण अधिकतर कंपनियां अपनी क्षमता के अनुसार बैंकों से ऋण भी ले चुकी हैं। इससे किसानों को भुगतान में देरी की आशंका है। (बीएस हिंदी)
18 मार्च 2010
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