कोलकाता March 27, 2010
वर्ष 2006-07 में देश का चीनी उत्पादन 283.3 लाख टन के रिकॉर्ड स्तर पर था। वहीं, पिछले दो साल में उत्पादन में भारी गिरावट देखने को मिली है।
इस दौरान जहां चीनी का थोक भाव 1,315 रुपये प्रति टन तक लुढ़का वहीं इसकी कीमतें 4,050 रुप्रति टन के स्तर को भी छू लिया था। दोनों ही परिस्थितियों में सरकार ने खुद को भंवर जाल में ही पाया है।
एक ओर जहां चीनी की कीमतें कम होने से सरकार को किसानों का कोपभाजन बनना पड़ सकता है, वहीं पिछले साल के मध्य से महंगाई के आसामन छूने के साथ ही आम जनता की नजरों में सरकार की काफी किरकिरी हुई है।
यही वजह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कृषि मंत्री शरद पवार माथापच्ची करने में लगे हैं कि किस तरह से चीनी और महंगाई की मुश्किलों से निजात पाई जाए और अगर हालात पूरी तरह नियंत्रण में न भी आए तो कम से कम इसके प्रभाव को जहां तक हो कम किया जा सके।
आवश्यकता से अधिक आपूर्ति की स्थिति में फैक्टरी के गन्ना भुगतान के मद में बकाया राशि करोड़ों की हो जाएगी जैसा कि वर्ष 2006-07 और 2007-08 में हुआ था। किसान और चीनी उद्योग को राहत देने के लिए सरकार विभिन्न उपायों के साथ आगे आई जिसमें बफर स्टॉक, उत्पाद शुल्क को इंटरेस्ट फीस लोन में तब्दील किए जाने की छूट और चीनी के निर्यात पर पाबंदी आदि शामिल हैं।
मौजूदा संकट के बाबत कच्ची और व्हाइट शुगर के सीमा शुल्क आयात की अनुमति दिए जाने के बाद रूप में जो प्रतिक्रियाएं देखने को मिली है उसकी संभावना पहले से जाहिर की जा रही थी। लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार इन परिस्थितियों से निपटने के लिए कुछ खास नहीं कर रही है।
सरकार को वैसे मॉडलों के विकसित किए जाने की जरूरत नहीं होगी जहां चीनी की बिक्री से प्राप्त होने वाली रकम गन्ना किसानों और फैक्टरियों के बीच बांटे जाने का प्रावधान है। चूंकि, गन्ना एक नकदी फसल है, लिहाजा फैक्टरियों को शुरुआत में ही भुगतान करना पड़ेगा।
भारतीय चीनी मिल महासंघ (इसमा) के अनुसार किसानों को उनकी फसल की पूरी कीमतें मिलने से ही सत्रों के दौरान चीनी की कीमतों में आने वाली तेजी और गिरावट पर नियंत्रण पाया जा सकता है। गन्ना किसानों की इसके उत्पादन में रुचि बनी रहे, इसे सुनिश्चित किए जाने का एक तरीका यह हो सकता है कि अच्छे और बुरे दोनों समय में चीनी मिलों की ओर से मांग बनी रहे।
कुल चीनी उत्पादन में से लेवी शुगर के नाम पर 20 फीसदी चीनी की मात्रा अलग किए जाने की प्रणाली को समाप्त किए जाने से चीनी उद्योग को काफी राहत मिल सकती है। दिचलस्प बात तो यह है कि इस मात्रा के उत्पादन में जितनी लागत आती है, उसका भी भुगतान नहीं किया जाता है।
सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है कि क्यों न न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार बना कर लेवी शुगर की कीमतें तय की जाए जबकि उत्तर प्रदेश के चीनी मिलों को प्रति क्विंटल गन्ने के लिए 260 रुपये का भुगतान करना पड़ रहा है।
उल्लेखनीय है कि सरकार ने पिछले पांच सालों से लेवी शुगर की कीमतों में संशोधन नहीं किया है। सरकार शुगर साइकिल के प्रभाव को कम करना चाहती है लेकिन इसके लिए सरकार को गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले लोगों को कूपन देने से हिचकना नहीं चाहिए। (बीएस हिंदी)
29 मार्च 2010
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