27 अक्तूबर 2008
एमएसपी की मृग मरीचिका नहीं लाभकारी मूल्य चाहिए किसान को
अंतत: सरकार ने धान के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 50 रुपये प्रति क्विंटल जोड़कर अंतिम फैसला दे दिया। अब किसानों को मौजूदा खरीफ सीजन के धान के लिए इसी भाव पर सरकार से भुगतान मिलेगा। पहले सरकार ने कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिश को धता बताकर सिर्फ 850 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी तय किया था। इससे किसान संतुष्ट नहीं थे, तो उन्हें खुश करने के लिए 50 रुपये का बोनस और दे दिया। सवाल है कि सीएसीपी ने 1000 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी करने की सिफारिश क्यों की थी। सरकार ने उसकी सिफारिश नहीं मानी, तो क्या माना जाए कि सीएसीपी ने वैज्ञानिक आधार नहीं अपनाया था और बिना सोचे-समझे ही अपनी सिफारिश दे दी। अगर सीएसीपी ने समुचित अध्ययन करने और सभी पक्षों को सुनने के बाद सिफारिश की तो उसकी सिफारिश मानी जानी चाहिए।कोई निष्कर्ष निकालने से पहले एमएसपी के तंत्र को समझना जरूरी है। किसान कोई फसल बोता है तो उसे तैयार करने में कई महीने लग जाते हैं। पूरे साल में आमतौर पर दो या ज्यादा से ज्यादा तीन फसलें ही ले पाता है। इस तरह उसे चार या छह महीने की कड़ी मेहनत के बाद फसल मिलती है। आमतौर पर किसी व्यापार में कम से कम दस फीसदी मार्जिन मिल ही जाता है। अगर कोई व्यापारी एक लाख रुपये पूंजी लगाता है तो निश्चित ही वह चार-पांच गुना यानि चार-पांच लाख का व्यवसाय कर लेता है। इस तरह उसका मार्जिन कम से कम 40-50 हजार रुपये हो गया। इस तरह उसकी पूंजी पर उसका न्यूनतम लाभ पचास फीसदी हो गया। अलग-अलग व्यापार में यह लाभ और ज्यादा भी हो सकता है। देखने वाली बात यह है कि क्या किसान को इस अनुपात में लाभ मिल पाता है। किसान व्यापार से ज्यादा लाभ पाने का हकदार है क्योंकि उसके सामने मौसम और दूसरे ऐसे जोखिमों का भी सामना करना पड़ता है जिन पर उसका कोई वश नहीं चलता है।इसके अलावा लगातार बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अन्न व अन्य खाद्य वस्तुएं उगाने के लिए प्रोत्साहित करना भी आवश्यक है। एमएसपी की मूल धारणा यही है कि किसानों को कम से कम इतना मूल्य तो मिलना ही चाहिए। बेहतर होगा कि किसानों को इससे अच्छा मूल्य मिले। सीएसीपी ने गहन अध्ययन करने के बाद एमएसपी की सिफारिश की है तो उसे सरकार को मानना ही चाहिए। खासकर उस स्थिति में जब एमएसपी ही घरेलू बाजार का बैंचमार्क मूल्य बन जाता है। अगर एमएसपी कम होगा तो खुले बाजार में भी भाव उससे ऊपर होगा। लेकिन एमएसपी किसानों के लिए मृग मरीचिका बन गया है। जिन फसलों की सरकार सीधे खरीद करती है, उसमें सरकार वित्तीय भार का ध्यान रखते हुए एमएसपी तय करते समय पूरी सावधानी बरतती है। लेकिन उन फसलों जैसे मक्का, बाजरा, कपास, दलहनों आदि में वह सीधे खरीद नहीं करती है तो उनमें एमएसपी बढ़ाने में उसे कोई गुरेज नहीं रहता है। पिछली रबी फसल और मौजूदा खरीफ फसल की दूसरी उपजों के लिए एमएसपी में खासी बढ़ोतरी कर दी। इससे इन वस्तुओं की सरकार द्वारा खरीद न किए जाने के कारण खुले बाजार में भाव एसएमपी ने काफी नीचे हैं। राजस्थान में बाजरा और पंजाब में कपास के भाव का यही हाल हो रहा है। राजस्थान में तो बाजरा की खरीद अभी तक शुरू नहीं हो पाई। इससे वहां एमएसपी के मुकाबले भाव तीस फीसदी तक नीचे चल रहे हैं। किसान अपनी फसल औने-पौने में बेचने को मजबूर है। एमएसपी के सवाल पर सरकार किसानों की अपेक्षाओं को पूरा करने में विफल ही रही है। इस मसले का दूसरा पहलू यह भी है कि किसानों को बाजार का पूरा लाभ भी नहीं मिल पाता है। अगर बाजार में कृषि वस्तुओं के मूल्य बढ़ने लगते हैं तो उपभोक्ता की दुहाई देकर नियंत्रणकारी कदम उठाने से भी सरकार को कोई परहेज नहीं है। हर साल कभी गेहूं, चावल या मक्का, तिलहन, दलहन के निर्यात पर रोक लगाई जाती रही है। इससे किसानों को फसल का बेहतर मूल्य मिलने की संभावना घट जाती है। लेकिन अगर सरकार की निर्यात-आयात संबंधी नीति में स्थिरता हो तो किसान दीर्घकालिक बाजार को ध्यान रखकर अपनी फसल बेचने का फैसला करे। साफ है कि अगर सरकार एमएसपी और नियंत्रणकारी निर्यात व्यापार नीति अपनाकर किसान व उपभोक्ताओं के बीच संतुलन बनाना चाहती है, तो उसे ईमानदारी से किसानों उचित नहीं बल्कि आकर्षक मूल्य देना होगा। नहीं तो किसानों को विश्व बाजार का लाभ लेने दीजिए। लेकिन इसके लिए भी किसानों के हितों की रक्षा करने वाले तंत्र की दरकार होगी। (Business Bhaskar)
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