31 अक्तूबर 2008
कमजोर स्टॉक के बावजूद तुअर में मंदा
तुअर के हाजिर स्टॉक में कमी के बावजूद कमजोर मांग से पिछले एक सप्ताह में इसके भाव में करीब 200 से 250 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आ चुकी है। जानकारों के अनुसार चने में स्टॉकिस्टों की भारी बिकवाली से तुअर की गिरावट को बल मिल रहा है। नई फसल की आवक उत्पादक मंडियों में 15 दिसंबर के बाद ही बनेगी तथा चालू सीजन में तुअर के उत्पादन में गत वर्ष के मुकाबले कमी आने के आसार हैं। अत: नई फसल की आवक तक इसके भाव में 50 से 100 रुपये प्रति क्विंटल की सीमित घटबढ़ ही रहने के आसार हैं।महाराष्ट्र की जलगांव मंडी के दालों के व्यापारी संतोष उपाध्याय ने बिजनेस भास्कर को बताया कि तुअर का स्टॉक उत्पादक मंडियों में काफी कम बचा हुआ है तथा नई फसल की आवक बनने में अभी करीब डेढ़ माह का समय शेष है। दूसरी तरफ रुपये के मुकाबले डॉलर भी तेज चल रहा है लेकिन उत्पादक मंडियों में चने का बंपर स्टॉक होने से स्टॉकिस्टों द्वारा बिकवाली बढ़ा देने से तुअर की गिरावट को बल मिला है। उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र की मंडियों में पिछले एक सप्ताह में तुअर के भावों में 200 से 250 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आकर भाव 3100 से 3150 रुपये प्रति क्विंटल रह गये तथा आयातित बर्मा लेमन तुअर के भाव घटकर मुंबई पहुंच 2950 से 3000 रुपये प्रति क्विंटल रह गये।तुअर की बुवाई देश में चालू खरीफ सीजन में 34.57 लाख हैक्टेयर में ही हो पाई है जोकि गत वर्ष के मुकाबले 3.97 लाख हैक्टेयर कम है। बीते वर्ष की समान अवधि में देश में तुअर की बुवाई 38.54 लाख हैक्टेयर में हुई थी। केंद्र सरकार द्वारा जारी आरंभिक अनुमान में देश में चालू खरीफ सीजन में तुअर का उत्पादन घटकर 23 लाख टन रह सकता है जबकि गत वर्ष इसका उत्पादन 30 लाख टन हुआ था। तुअर के प्रमुख उत्पादक राज्य कर्नाटक की मंडियों में 15 दिसंबर के बाद नई फसल की आवक शुरूहो जाएगी। महाराष्ट्र की मंडियों में नई फसल की आवक जनवरी के प्रथम पखवाड़े में ही बन पाएगी। बीते वर्ष कर्नाटक व महाराष्ट्र में तुअर का उत्पादन क्रमश: 7 व 6 लाख टन का हुआ था। अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश व हरियाणा तथा राजस्थान हैं। लारेंस रोड के दाल व्यापारी दुर्गाप्रसाद ने बताया कि तुअर का मंडियों में स्टॉक तो कम बचा हुआ है लेकिन आगामी दिनों में दालों की खपत में कमी आने व चने में मध्य प्रदेश के स्टॉकिस्टों की भारी बिकवाली के कारण तुअर में मंदे का रुख देखने को मिल रहा है। उन्होंने बताया कि पिछले एक सप्ताह में दिल्ली बाजार में इसके भावों में 200 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आकर भाव 3100 रुपये प्रति क्विंटल रह गए। (Business Bhaskar...............R S Rana)
भारत का बासमती चावल निर्यात 20 फीसदी बढ़ा
विश्व बाजार में चावल की उपलब्धता में कमी के चलते देश से चावल विपणन वर्ष (अक्टूबर-सितंबर) 2007-08 के दौरान बासमती चावल का निर्यात 20 फीसदी बढ़ गया है। जबकि इसी अवधि में सभी तरह के चावल के कुल निर्यात में 23 फीसदी की कमी हुई है। 2007-08 में बासमती चावल का निर्यात 11.9 लाख टन हुआ है। जो साल 2006-07 में 10.3 लाख टन हुआ था। एपीडा (कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण) के प्रारंभिक अनुमान के अनुसार चावल विपणन वर्ष 2007-08 में चावल का कुल निर्यात 44 लाख टन हुआ है जो इसी अवधि में 2006-07 में 57 लाख टन हुआ था। चावल निर्यात संध के कार्यकारी निदेशक एस. के. अधलक्खा का मानना है कि सरकार द्वारा गैर बासमती निर्यात पर लगाई गई रोक और न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) की सीमा तय किए जाने के कारण चावल के निर्यात में यह कमी आई है। अन्यथा विश्व स्तर पर आई चावल की मांग में बढ़ोतरी से चावल का कुल निर्यात बढ़ सकता था। उन्होंने कहा कि इस साल चावल की रिकार्ड पैदावार को देखते हुए सरकार को एमईपी में कमी करनी चाहिए । सरकार ने इस साल अप्रैल में घरेलू बाजार में चावल की उपलब्धता बढ़ाने और बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के लिए गैर बासमती चावल के निर्यात पर रोक लगा दी थी। साथ ही बासमती चावल पर एमईपी बढ़ा दिया था। इस समय बासमती चावल का एमईपी 1200 डॉलर प्रति टन है। इससे पहले अक्टूबर 2007 में केंद्र सरकार ने चावल के निर्यात पर रोक लगा दी थी। जिसे बाद में हटाकर गैर बासमती चावल पर 650 डॉलर की एमईपी सीमा लगा दी थी। गैर बासमती चावल के निर्यात पर रोक लगने के कारण 31 फीसदी की गिरावट हुई है। चावल विपणन सीजन 2007-08 में इसका निर्यात 32 लाख टन हुआ है। जो 2006-07 की इसी अवधि में 46.7 लाख टन हुआ था। इस साल अप्रैल से गैर बासमती चावल के निर्यात पर रोक लगी हुई है। (Business Bhaskar)
लंबी मंदी के बाद मांग बढ़ने से बिनौला तेल के भाव चढ़े
बिनौला तेल में लोकल के साथ-साथ गुजरात की अच्छी मांग निकलने से पिछले तीन-चार दिनों में 320 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी आकर भाव 4150 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। जानकारों के अनुसार आगामी दिनों में मांग में और भी बढ़ोतरी की संभावना से बिनौला व बिनौला तेल के भावों में तेजी का रुख कायम रह सकता है।पंजाब की मानसा मंडी के व्यापारी संजीव गर्ग ने बताया कि पिछले तीन-चार दिनों से बिनौला तेल में गुजरात लाइन के साथ ही स्टॉकिस्टों की मांग बढ़ने से 320 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी आकर भाव 4150 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। गत सप्ताह के आखिर में इसके भाव घटकर 3820 रुपये प्रति क्विंटल रह गए थे। बिनौला तेल के भावों में आई तेजी का असर बिनौला के भाव पर देखने को मिला। कॉटन कारपोरेशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) ने बिनौला के भाव 25 रुपये बढ़ाकर 1310 रुपये प्रति क्विंटल कर दिए जबकि हाजिर बाजार में इसके भाव बढ़कर 1320 से 1325 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। उन्होंने बताया कि सरसों तेल के मुकाबले बिनौला तेल का भाव 200 से 300 प्रति क्विंटल कम रहता है लेकिन पिछले दो-तीन महीनों से क्रुड पॉम ऑयल (सीपीओ) के भावों में आई एकतरफा भारी गिरावट से बनौला तेल के भाव काफी नीचे चले गए थे।बिनौला तेल का ज्यादातर उपयोग वनपस्पति घी बनाने में होता है तथा सीपीओ की खपत भी वनस्पति घी बनाने में ही होती है। अत: सीपीओ के भावों में आई भारी गिरावट के असर से सरसों तेल के मुकाबले बिनौला तेल के भाव 2000 से 2200 रुपये प्रति क्विंटल नीचे हो गए थे। बिनौला खल में इस दौरान उठान बढ़ने से करीब 40 से 50 रुपये की तेजी आकर भाव 1130 से 1150 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। किसान इस समय धान व कपास की फसल में व्यस्त होने के कारण बिनौला खल में मांग सीमित देखी जा रही है। नवंबर के दूसरे पखवाड़े में बिनौला खल में लोकल के साथ ही दिसावरी मांग निकलने से और भी तेजी बन सकती है।भाव गिरने पर कॉटन की सरकारी खरीद तेजनई दिल्ली। चालू कॉटन सीजन के दौरान केंद्र सरकार अपनी एजेंसियों के माध्यम से करीब 10 लाख `िंटल कॉटन की खरीद कर चुकी है। कॉटन के गिरते भावों के माहौल में किसानों ने सरकारी केंद्रों पर कपास की बिक्री बढ़ा दी है। इससे सरकारी खरीद तेज हो गई है। कॉटन कारपोरशन ऑफ इंडिया द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक इस साल 29 अक्टूबर तक करीब 9.87 लाख `िंटल कॉटन की खरीद हो चुकी है। कपड़ा मंत्रालय में संयुक्त सचिव जे. एन. सिंह ने बताया कि सरकार एमएसपी के भाव पर कॉटन की तेजी से खरीद कर रही है जो भी किसान बेचने आ रहे हैं उनसे खरीद जरूर हो रही है। गौरतलब है कि इस साल सरकार ने कॉटन के समर्थन मूल्य में इजाफा कर लांग स्टेपल का एमएसपी 3000 रुपये `िंटल और मीडियम स्टेपल का भाव बढ़ाकर 2500 रुपये `िंटल कर दिया है। सरकारी सूत्रों के मुताबिक किसानों द्वारा बढ़कर सरकार को कॉटन बेचने की वजह से अगले साल मार्च तक करीब 100-125 लाख क्विंटल कॉटन की खरीद होने की संभावना जताई जा रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल सरकार ने करीब 27.5 लाख गांठ कॉटन की खरीद की थी। (Business Bhaskar.............R S Rana)
मूल्य स्थिरता के लिए मलेशिया व इंडोनेशिया गंभीर
पाम तेल और रबर के भाव को स्थिर रखने के सवाल पर मलेशिया व इंडोनेशिया साझा विचार करेंगे। इसके लिए मलेशिया के अधिकारी अगले हफ्ते इंडोनेशिया की यात्रा पर जाएंगे। गुरुवार को मंत्रालय में एक कार्यक्रम के दौरान मलेशिया के मंत्री पीटर चिन ने बताया कि वे जकार्ता की यात्रा पर जाएंगे और वहां अपने समकक्ष से पॉम तेल से संबंधित सभी मुद्दों पर तथा उससे संबंधित किसी विकल्प के विकास के लिए विचार करेंगे।गौरतलब है कि मलेशिया और इंडोनेशिया विश्व के दो प्रमुख पाम तेल उत्पादक देश हैं। विश्लेषकों का मानना है कि अगले महीने तक दोनो देशों का साझा भंडार 50 लाख टन तक पहुंच सकता है। चिन ने आगे कहा कि इंडोनेशिया द्वारा पाम तेल पर कर कम करने से मलेशिया के दूसरे देशों में निर्यात पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। इंडोनेशिया पाम तेलों का मुख्य निर्यातक है जबकि मलेशिया से पॉम तेल का निर्यात प्रक्रमण के बाद होता है, इस वजह से मलेशिया की निर्यात संरचना अलग प्रकार की है।गुरुवार को इंडोनेशिया द्वारा पॉम तेलों से निर्यात कर कम होने से मलेशिया डेरिवेटिव एक्सचेंज में पॉम तेल का वायदा 4.7 फीसदी की गिरावट पर दिखा। चिन ने कहा कि उनकी यात्रा के दौरान रबर के दामों में गिरावट तथा उससे जुड़े सभी मुद्दों पर भी विचार किया जाएगा। उन्होने आगे कहा कि इंडोनेशिया, मलेशिया और थाइलैंड के उच्चाधिकारी रबर के भाव को स्थिर रखने संबंधित समस्या के समाधान पर कार्य कर रहे हैं। (Business Bhaskar)
एशियाई हाजिर बाजारों में सोना दो फीसदी चमका
सिडनी। एशियाई हाजिर बाजारों में सोने की कीमतों में बढ़त देखी गई। गुरुवार के कारोबार के दौरान यहां अमेरिकी फेडरल बैंक द्वारा ब्याज दरों में कटौती और डॉलर में कमजोरी का असर साफ देखा गया है। ऐसे में यहां हाजिर सोना करीब 2.1 त्न की तेजी के साथ कारोबार करता देखा गया। एक दिन पहले अमेरिकी फेडरल बैंक द्वारा ब्याज दर में आधे फीसदी की कटौती कर इसे एक फीसदी कर दिया गया है। इस दौरान न्यूयार्क में सोना 750 डॉलर प्रति औंस के प्रतिरोध को तोड़ते हुए 15.70 डॉलर की बढ़त के साथ 771 डॉलर प्रति औंस पर पहुंच गया। सिंगापुर में फिलिप फ्यूचर के रिसर्च हैड एड्रीयन कोह के मुताबिक सोने के लिए अब सार फंडामेंटल्स दुरुस्त है। आने वाले दिनों में इसमें और देखी जा सकती है। उन्होंने बताया कि वैश्विक स्तर पर पूंजी बाजारों में लौटी रौनक से भी सराफा निवेशकों में भरोसा लौटा है। हालांकि उन्होंने कहा कि सोने के कारोबार को प्रभावित करने में अब डॉलर की दरें ही बड़ी कारण हो सकती हैं क्योंकि इस दौरान जापानी केंद्रीय बैंक ने भी ब्याज दरों में कटौती का संकेत दिया है। अगले सप्ताह यूरोपीय केंद्रीय बैंकों की भी ब्याज दरों के मसले पर बैठक होने की संभावना है। हालांकि वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में अनिश्चितता बने रहने की उन्होंने आशंका जताई है। घरेलू बाजार में भी तेजीनई दिल्ली। अंतरराष्ट्रीय कारोबार का असर घरलू कारोबार पर पड़ने से दिल्ली सराफा बाजार में गुरुवार को सोने के भाव में 550 रुपये की तेजी आकर भाव 12550 रुपये प्रति 10 ग्राम हो गए। सोने में निवेश एक सुरक्षित विकल्प होने की वजह से ही विश्व स्तर पर आई मंदी के बावजूद निवेशक इसमें निवेश को प्राथमिकता दे रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोने के भाव में 4 डॉलर प्रति औंस की तेजी आकर भाव 759 डॉलर प्रति औंस पर कारोबार करते देखा गया। (Business Bhaskar)
लगातार बढ़ रही है देश में दालों की मांग
नई दिल्ली : भारत में दालों की मांग लगातार बढ़ रही है। हालांकि, इस बीच उत्पादन में कमोबेश ना के बराबर बढ़ोतरी हुई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगले 10 साल तक दालों के आयात में वृद्धि की उम्मीद है। यह खबर ग्राहकों के हक में नहीं है। रुपए में कमजोरी को देखते हुए आयातित दाल के लिए ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। इसका असर घरेलू बाजार में भी दाल की कीमतों पर पड़ेगा और ग्राहकों को दाल महंगी पड़ेगी। एसोचैम की पल्स प्रॉडक्शन रिपोर्ट, 2008 में कहा गया है कि भारत में दाल की कमी का फायदा उठाते हुए दुनिया भर के दाल उत्पादक कीमतों में बढ़ोतरी कर रहे हैं। अध्ययन के अनुसार 2019 - 2020 तक दालों का आयात में 27 लाख टन की वृद्धि होगी। भारत में दाल की कमी और कीमतों में बढ़ोतरी का सबसे ज्यादा फायदा कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, म्यांमार को होगा। यह रिपोर्ट इस मायने में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि औसतन प्रत्येक भारतीय घर में दाल का उपयोग होता है। घरेलू आपूर्ति कम होने और कीमतों में बढ़ोतरी के कारण उड़द, मूंग, मसूर और चने की दाल की कीमतें काफी बढ़ चुकी हैं। इससे सरकार भी काफी चिंतित है। इससे प्रति व्यक्ति दाल की खपत में कमी आ रही है। मौजूदा समय में प्रति व्यक्ति दाल का उपभोग 12.7 किलो सालाना है जबकि 1958-59 में यह 27.3 किलो सालाना था। एसोचैम के डायरेक्टर जनरल डी. एस. रावत के मुताबिक, 1.58 फीसदी की नकारात्मक वृद्धि चिंताजनक है। भारत दाल का प्रमुख उत्पादक देश है। दुनिया भर के दाल उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 24 फीसदी है। 2007 में दुनिया भर में 6.13 करोड़ टन दाल का उत्पादन हुआ था और इसमें भारत की हिस्सेदारी 1.45 करोड़ टन रही थी। पिछले पांच दशक से दाल के उत्पादन में सीएजीआर 0.26 फीसदी रही है। (ET Hindi)
हरियाणा, महाराष्ट्र, यूपी में गेहूं की बुआई समय से पहले
नई दिल्ली : हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में अनुकूल तापमान होने से इस साल रबी सीजन में गेहूं की बुआई अक्टूबर के हफ्ते से ही शुरू हो गई। यह जानकारी एक वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक ने दी है। करनाल स्थित गेहूं अनुसंधान संस्थान के डायरेक्टर बी . मिश्रा ने कहा, 'इस बार अनुकूल तापमान और अच्छी नमी के कारण कुछ राज्यों में गेहूं की बुआई समय से कुछ पहले 23 अक्टूबर से शुरू हो गई है।' हरियाणा में बुआई की शुरुआत समय से 6 दिन पहले हो गई है, वहीं इस साल महाराष्ट्र और गुजरात में इसकी समय से पहले शुरुआत हो चुकी है। अमूमन गेहूं की बुआई 30 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच होती है। मिश्रा ने बताया कि सबसे अधिक गेहूं उत्पादन करने वाले उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में बुआई की शुरुआत हुई है, जबकि केंद्रीय भाग में धान की रोपाई देरी से हुई थी। इस वजह से इस इलाके में गेहूं की बुआई में भी देरी हो सकती है। उन्होंने बताया कि पंजाब में कुछ दिनों में बुआई की शुरुआत हो जाएगी। मिश्रा ने बताया कि प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में इस साल औसत से अधिक बारिश हुई है, जिससे मिट्टी में नमी का स्तर बना हुआ है। इससे गेहूं की बुआई में मदद मिल रही है। फिलहाल इन तीनों राज्यों में दिन और रात का तापमान 25 और 19 डिग्री सेल्सियस है। इस साल गेहूं की बुआई 2.9 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में होगी, सीजन में मौसम अनुकूल रहने और बुआई का क्षेत्र बढ़ने से उपज 20 लाख टन तक बढ़ सकता है। (ET Hindi)
सीसीआई ने खरीदा 10 लाख क्विंटल कपास
नई दिल्ली October 30, 2008
सरकारी एजेंसियों ने 29 अक्टूबर तक 10 लाख क्विंटल कपास की खरीद कर ली है।
चूंकि हाजिर बाजार में कपास की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे उतर आई है, लिहाजा कपास उगाने वाले किसान सरकारी एजेंसियों का रुख कर रहे हैं।कपास खरीद की नोडल एजेंसी भारतीय कपास निगम से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक, 29 अक्टूबर तक 9.87 लाख क्विंटल कपास की खरीद हो चुकी है। कपड़ा मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे. एन. सिंह ने कहा कि कपास की खरीद जोरों पर है क्योंकि हाजिर बाजार में कपास की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे चली आई है।चूंकि किसान कपास बेचने के इच्छुक हैं, लिहाजा कपास की खरीद अपने रफ्तार से चल रही है। सरकार ने हाल ही में कपास के एमएसपी में अच्छा खासी बढ़ोतरी की है। स्टैंडर्ड कपास (लॉन्ग स्टेपल) का एमएसपी बढ़ाकर 2008-09 के लिए 3 हजार रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है जो पहले 2030 रुपये प्रति क्विंटल था।मीडियम स्टेपल कपास का एमएसपी 1800 रुपये से बढ़ाकर 2500 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है। एक सरकारी अधिकारी ने कहा - चूंकि सरकारी एजेंसियों के पास कपास बेचने से किसानों को बाजार के मुकाबले ज्यादा रकम मिल रही है, लिहाजा उम्मीद है कि मार्च तक कपास की खरीद का आंकड़ा 100-125 लाख क्विंटल तक पहुंच जाएगा। पिछले सीजन में 27.5 लाख गांठ (एक गांठ = 170 किलो) कपास की खरीद हुई थी। भारतीय कपास निगम ने पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में कुल 252 खरीद केंद्र की स्थापना की है। निगम ने कहा कि अब तक सबसे ज्यादा खरीद पंजाब में हुई है जहां किसानों ने 24 अक्टूबर तक कुल 5.44 लाख क्विंटल कपास की बिक्री की। इसके बाद आंध्र प्रदेश के किसानों ने 1.83 लाख क्विंटल और राजस्थान के किसानों ने 53 हजार क्विंटल कपास की बिक्री की।कपास की मशहूर किस्म जे-34 की कीमत पंजाब के हाजिर बाजार में 2688-2805 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि किसानों को निगम 2800 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से भुगतान कर रहा है। राजस्थान में जे-34 किस्म की कीमत 2548-2679 रुपये प्रति क्विंटल है। सरकारी अनुमान के मुताबिक, 2008-09 में कपास का उत्पादन 320 लाख गांठ रहेगा जबकि पिछले साल यह 315 लाख गांठ था। (BS Hindi)
सरकारी एजेंसियों ने 29 अक्टूबर तक 10 लाख क्विंटल कपास की खरीद कर ली है।
चूंकि हाजिर बाजार में कपास की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे उतर आई है, लिहाजा कपास उगाने वाले किसान सरकारी एजेंसियों का रुख कर रहे हैं।कपास खरीद की नोडल एजेंसी भारतीय कपास निगम से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक, 29 अक्टूबर तक 9.87 लाख क्विंटल कपास की खरीद हो चुकी है। कपड़ा मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे. एन. सिंह ने कहा कि कपास की खरीद जोरों पर है क्योंकि हाजिर बाजार में कपास की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे चली आई है।चूंकि किसान कपास बेचने के इच्छुक हैं, लिहाजा कपास की खरीद अपने रफ्तार से चल रही है। सरकार ने हाल ही में कपास के एमएसपी में अच्छा खासी बढ़ोतरी की है। स्टैंडर्ड कपास (लॉन्ग स्टेपल) का एमएसपी बढ़ाकर 2008-09 के लिए 3 हजार रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है जो पहले 2030 रुपये प्रति क्विंटल था।मीडियम स्टेपल कपास का एमएसपी 1800 रुपये से बढ़ाकर 2500 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है। एक सरकारी अधिकारी ने कहा - चूंकि सरकारी एजेंसियों के पास कपास बेचने से किसानों को बाजार के मुकाबले ज्यादा रकम मिल रही है, लिहाजा उम्मीद है कि मार्च तक कपास की खरीद का आंकड़ा 100-125 लाख क्विंटल तक पहुंच जाएगा। पिछले सीजन में 27.5 लाख गांठ (एक गांठ = 170 किलो) कपास की खरीद हुई थी। भारतीय कपास निगम ने पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में कुल 252 खरीद केंद्र की स्थापना की है। निगम ने कहा कि अब तक सबसे ज्यादा खरीद पंजाब में हुई है जहां किसानों ने 24 अक्टूबर तक कुल 5.44 लाख क्विंटल कपास की बिक्री की। इसके बाद आंध्र प्रदेश के किसानों ने 1.83 लाख क्विंटल और राजस्थान के किसानों ने 53 हजार क्विंटल कपास की बिक्री की।कपास की मशहूर किस्म जे-34 की कीमत पंजाब के हाजिर बाजार में 2688-2805 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि किसानों को निगम 2800 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से भुगतान कर रहा है। राजस्थान में जे-34 किस्म की कीमत 2548-2679 रुपये प्रति क्विंटल है। सरकारी अनुमान के मुताबिक, 2008-09 में कपास का उत्पादन 320 लाख गांठ रहेगा जबकि पिछले साल यह 315 लाख गांठ था। (BS Hindi)
पैकिंग के लिए जूट की बोरियां, पंजाब को मिली मोहलत
कोलकाता October 30, 2008
धान के रिकॉर्ड उत्पादन और जूट उत्पादन में कमी के चलते काफी पहले से यह आशंका जताई जा रही थी कि इस बार जूट की बोरियों की खासी कमी हो सकती है।
ऐसे में सरकार ने जूट पैकेजिंग (अनिवार्य) अधिनियम, 1997 के कुछ प्रावधानों में थोड़ी ढील दे दी है। फिलहाल यह ढील केवल पंजाब के लिए ही दी गई है। केंद्र सरकार ने पंजाब को धान की पैकिंग के लिए जूट की बोरियों का इस्तेमाल करने की अनिवार्यता खत्म कर दी है।केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय ने पंजाब सरकार को 30 नवंबर या इससे पहले खरीदे गए धान की पैकिंग के लिए जूट बोरियों की 80 हजार गांठों को खरीदने से छूट दे दी है। सरकार के इस आदेश में साफतौर पर कहा गया है कि तय समय के बाद छूट नहीं दी जाएगी। आदेश में कहा गया कि एक जनवरी 2008 या इसके बाद खरीदे गए अनाज की पैकिंग के लिए जूट की बोरियों का इस्तेमाल अनिवार्य है। बताया जा रहा है कि यह छूट हाल ही में पंजाब सरकार द्वारा केंद्रीय उपभोक्ता मामलों और खाद्य और जनवितरण प्रणाली के मंत्रालय को लिखे पत्र के बाद दी जा रही है। इस पत्र में पंजाब सरकार ने लिखा था कि पहले के अनुमान से करीब 15 लाख टन ज्यादा धान पैदा होने की उम्मीद है। इस बार करीब 1.57 करोड़ टन धान पैदा होने की संभावना है। पंजाब का कहना था कि ऐसी हालत में जूट की करीब 80 हजार गांठों की कमी का अंदाजा है। इस पत्र में कहा गया था कि यदि जूट की बोरियां न खरीदी गई तो एचडीपीई या पीपी बोरियों को इस्तेमाल की छूट दी जानी चाहिए। पंजाब का तर्क था कि विशेष मामला मानते हुए इन बोरियों को खुली बोलियों के जरिए खरीदने की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि इससे धान की खरीद पर नकारात्मक असर न पड़े। बाद में उपभोक्ता मामले एवं खाद्य और जनवितरण प्रणाली मंत्रालय ने जूट आयुक्त के साथ हुई बैठक में पाया कि 5.6 लाख गांठों की तुलना में महज 5.11 गांठों की आपूर्ति हो पाई है। इस तरह इस बार करीब 58 हजार जूट गांठों की कमी होने का खतरा है जबकि जूट के करीब 80 हजार गांठ और चाहिए। जूट आयुक्त कार्यालय के मुताबिक, जूट उद्योग के पास करीब 2.43 लाख का ऑर्डर लंबित पड़ा है। जूट उद्योग की उत्पादन क्षमता इस समय करीब 2.20 लाख गांठें हैं। जूट आयुक्त के मुताबिक, अतिरिक्त उत्पादन के लिए जूट उद्योग को अतिरिक्त समय चाहिए।लेकिन हालत यह है कि यह उद्योग 16 नवंबर से पहले जूट की बोरियों का अतिरिक्त उत्पादन करने की स्थिति में बिल्कुल ही नहीं है। इस बीच पंजाब सरकार ने सूचित किया कि इस बार धान के ज्यादा उत्पादन के चलते जूट की बोरियों की किल्लत हो जाएगी क्योंकि कम से कम 16 नवंबर तक जूट उद्योग अतिरिक्त बोरियों की आपूर्ति करने में असमर्थ है। (BS Hindi)
धान के रिकॉर्ड उत्पादन और जूट उत्पादन में कमी के चलते काफी पहले से यह आशंका जताई जा रही थी कि इस बार जूट की बोरियों की खासी कमी हो सकती है।
ऐसे में सरकार ने जूट पैकेजिंग (अनिवार्य) अधिनियम, 1997 के कुछ प्रावधानों में थोड़ी ढील दे दी है। फिलहाल यह ढील केवल पंजाब के लिए ही दी गई है। केंद्र सरकार ने पंजाब को धान की पैकिंग के लिए जूट की बोरियों का इस्तेमाल करने की अनिवार्यता खत्म कर दी है।केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय ने पंजाब सरकार को 30 नवंबर या इससे पहले खरीदे गए धान की पैकिंग के लिए जूट बोरियों की 80 हजार गांठों को खरीदने से छूट दे दी है। सरकार के इस आदेश में साफतौर पर कहा गया है कि तय समय के बाद छूट नहीं दी जाएगी। आदेश में कहा गया कि एक जनवरी 2008 या इसके बाद खरीदे गए अनाज की पैकिंग के लिए जूट की बोरियों का इस्तेमाल अनिवार्य है। बताया जा रहा है कि यह छूट हाल ही में पंजाब सरकार द्वारा केंद्रीय उपभोक्ता मामलों और खाद्य और जनवितरण प्रणाली के मंत्रालय को लिखे पत्र के बाद दी जा रही है। इस पत्र में पंजाब सरकार ने लिखा था कि पहले के अनुमान से करीब 15 लाख टन ज्यादा धान पैदा होने की उम्मीद है। इस बार करीब 1.57 करोड़ टन धान पैदा होने की संभावना है। पंजाब का कहना था कि ऐसी हालत में जूट की करीब 80 हजार गांठों की कमी का अंदाजा है। इस पत्र में कहा गया था कि यदि जूट की बोरियां न खरीदी गई तो एचडीपीई या पीपी बोरियों को इस्तेमाल की छूट दी जानी चाहिए। पंजाब का तर्क था कि विशेष मामला मानते हुए इन बोरियों को खुली बोलियों के जरिए खरीदने की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि इससे धान की खरीद पर नकारात्मक असर न पड़े। बाद में उपभोक्ता मामले एवं खाद्य और जनवितरण प्रणाली मंत्रालय ने जूट आयुक्त के साथ हुई बैठक में पाया कि 5.6 लाख गांठों की तुलना में महज 5.11 गांठों की आपूर्ति हो पाई है। इस तरह इस बार करीब 58 हजार जूट गांठों की कमी होने का खतरा है जबकि जूट के करीब 80 हजार गांठ और चाहिए। जूट आयुक्त कार्यालय के मुताबिक, जूट उद्योग के पास करीब 2.43 लाख का ऑर्डर लंबित पड़ा है। जूट उद्योग की उत्पादन क्षमता इस समय करीब 2.20 लाख गांठें हैं। जूट आयुक्त के मुताबिक, अतिरिक्त उत्पादन के लिए जूट उद्योग को अतिरिक्त समय चाहिए।लेकिन हालत यह है कि यह उद्योग 16 नवंबर से पहले जूट की बोरियों का अतिरिक्त उत्पादन करने की स्थिति में बिल्कुल ही नहीं है। इस बीच पंजाब सरकार ने सूचित किया कि इस बार धान के ज्यादा उत्पादन के चलते जूट की बोरियों की किल्लत हो जाएगी क्योंकि कम से कम 16 नवंबर तक जूट उद्योग अतिरिक्त बोरियों की आपूर्ति करने में असमर्थ है। (BS Hindi)
काली मिर्च की मांग सुस्त और आपूर्ति भी!
कोच्चि October 30, 2008
काली मिर्च के कारोबार में इस समय एक मजेदार चीज देखा जा रहा है। अभी इसका निर्यात जहां भंडार की कमी के चलते सुस्त पड़ चुका है, वहीं इसकी कीमत में भी खासी कमी हुई है।
होना तो यह चाहिए था कि आपूर्ति घटने से इसकी कीमत में वृद्धि हो जाती पर हो इसके उल्टा रहा है। कारोबारियों के मुताबिक, इस घटना की मुख्य वजह आर्थिक मंदी है जिसके चलते मांग में खासी कमी हो गई है। गौरतलब है कि इस समय देश में काली मिर्च का भंडार मुश्किल से 6,000 टन है जिसमें से 3,000 टन गोदामों में जमा है। हालांकि, निर्यातकों की ओर से लंबित पड़े विदेशी अनुबंधों का निपटान जोरों पर है।आशंका जताई जा रही है कि भारत के काली मिर्च निर्यात में रुकावट पैदा हो जाएगी। इसकी वजह काली मिर्च का अपर्याप्त भंडार होना है। आर्थिक मंदी के असर से विदेशों में इसकी मांग कम हो गई है जिसके चलते वायदा बाजार में इसका कारोबार सुस्त हो गया है। कोच्चि स्थित निर्यातकों ने भी पुष्टि की कि दिसंबर के बाद देश से काली मिर्च का निर्यात लगभग ठप ही पड़ जाता है। उनके मुताबिक, इस समय देश में काली मिर्च का भंडार बहुत ही कम है। इतना कि इससे केवल अगले दो महीने के लिए विदेशी और घरेलू मांग की पूर्ति हो सके। सामान्यत: देश में इस महत्वपूर्ण मसाले का सीजन दिसंबर से शुरू होता है लेकिन इस बार इसमें 3 से 4 हफ्ते और देर होने की उम्मीद है। प्रतिकूल मौसम के चलते केरल और तमिलनाडु में इसकी बुआई प्रभावित हुई है। आशंका है इसके चलते आगामी सीजन में काली मिर्च के कुल उत्पादन में तकरीबन 40 फीसदी की कमी हो सकती है। इस समय केवल कर्नाटक से ही काली मिर्च की आपूर्ति हो रही है। निर्यातकों का एक तबका मानता है कि अब केरल को पछाड़कर कर्नाटक काली मिर्च उत्पादन में पहला स्थान हासिल कर लेगा। इडुक्की और वायनाड जिले के काली मिर्च उत्पादकों ने बिानेस स्टैंडर्ड को बताया कि असमय बरसात के चलते फसल को काफी नुकसान पहुंचा है। इसके चलते उत्पादन में खासी कमी की गुंजाइश है।अनुमान है कि इस बार काली मिर्च का उत्पादन पिछले एक दशक में सबसे कम हो सकता है। किसानों ने बताया कि फसल की हार्वेस्टिंग जनवरी से शुरू होगी और उम्मीद है कि बाजार में इसकी सतत आपूर्ति तभी से बरकरार रह पाएगी। एक निर्यातक के मुताबिक, अमेरिकी आयातकों की नजर जनवरी से शुरू होने जा रहे अगले सीजन पर है। उन्हें लगता है कि जनवरी के बाद कम से कम अगले दो महीनों तक काली मिर्च की आपूर्ति निर्बाध रहेगी। इस निर्यातक के मुताबिक, अभी का समय खरीदारी के लिहाज से सही समय है। फिलहाल इंडोनेशिया छोड़ सभी उत्पादक देशों में काली मिर्च की कीमत काफी नीचे चल रही है। एमजी-1 किस्म की कीमत 2,400 डॉलर तक लुढ़ककर 2,550 डॉलर प्रति टन पर चल रही है।काली मिर्च के कारोबार से जुड़ी मजेदार चीज तो यह कि इसकी आपूर्ति पिछले 4 से 5 हफ्तों से मंद तो है ही इसका पूरा कारोबार भी मंद पड़ा है। इसकी वजह पूरी दुनिया में फैला आर्थिक मंदी का साया है जिसने अमेरिकी और यूरोपीय देशों में मसाले की मांग गिरा दी है। अप्रैल की तुलना में सितंबर में काली मिर्च के निर्यात में 33 फीसदी की कमी हो चुकी है। अप्रैल में इसका निर्यात जहां 19,165 टन था वहीं सितंबर में यह महज 12,750 टन ही रह गया। इसके चलते निर्यात से होने वाली आय भी 279 करोड़ रुपये से घटकर महज 216 करोड़ रुपये रह गई। (BS Hindi)
काली मिर्च के कारोबार में इस समय एक मजेदार चीज देखा जा रहा है। अभी इसका निर्यात जहां भंडार की कमी के चलते सुस्त पड़ चुका है, वहीं इसकी कीमत में भी खासी कमी हुई है।
होना तो यह चाहिए था कि आपूर्ति घटने से इसकी कीमत में वृद्धि हो जाती पर हो इसके उल्टा रहा है। कारोबारियों के मुताबिक, इस घटना की मुख्य वजह आर्थिक मंदी है जिसके चलते मांग में खासी कमी हो गई है। गौरतलब है कि इस समय देश में काली मिर्च का भंडार मुश्किल से 6,000 टन है जिसमें से 3,000 टन गोदामों में जमा है। हालांकि, निर्यातकों की ओर से लंबित पड़े विदेशी अनुबंधों का निपटान जोरों पर है।आशंका जताई जा रही है कि भारत के काली मिर्च निर्यात में रुकावट पैदा हो जाएगी। इसकी वजह काली मिर्च का अपर्याप्त भंडार होना है। आर्थिक मंदी के असर से विदेशों में इसकी मांग कम हो गई है जिसके चलते वायदा बाजार में इसका कारोबार सुस्त हो गया है। कोच्चि स्थित निर्यातकों ने भी पुष्टि की कि दिसंबर के बाद देश से काली मिर्च का निर्यात लगभग ठप ही पड़ जाता है। उनके मुताबिक, इस समय देश में काली मिर्च का भंडार बहुत ही कम है। इतना कि इससे केवल अगले दो महीने के लिए विदेशी और घरेलू मांग की पूर्ति हो सके। सामान्यत: देश में इस महत्वपूर्ण मसाले का सीजन दिसंबर से शुरू होता है लेकिन इस बार इसमें 3 से 4 हफ्ते और देर होने की उम्मीद है। प्रतिकूल मौसम के चलते केरल और तमिलनाडु में इसकी बुआई प्रभावित हुई है। आशंका है इसके चलते आगामी सीजन में काली मिर्च के कुल उत्पादन में तकरीबन 40 फीसदी की कमी हो सकती है। इस समय केवल कर्नाटक से ही काली मिर्च की आपूर्ति हो रही है। निर्यातकों का एक तबका मानता है कि अब केरल को पछाड़कर कर्नाटक काली मिर्च उत्पादन में पहला स्थान हासिल कर लेगा। इडुक्की और वायनाड जिले के काली मिर्च उत्पादकों ने बिानेस स्टैंडर्ड को बताया कि असमय बरसात के चलते फसल को काफी नुकसान पहुंचा है। इसके चलते उत्पादन में खासी कमी की गुंजाइश है।अनुमान है कि इस बार काली मिर्च का उत्पादन पिछले एक दशक में सबसे कम हो सकता है। किसानों ने बताया कि फसल की हार्वेस्टिंग जनवरी से शुरू होगी और उम्मीद है कि बाजार में इसकी सतत आपूर्ति तभी से बरकरार रह पाएगी। एक निर्यातक के मुताबिक, अमेरिकी आयातकों की नजर जनवरी से शुरू होने जा रहे अगले सीजन पर है। उन्हें लगता है कि जनवरी के बाद कम से कम अगले दो महीनों तक काली मिर्च की आपूर्ति निर्बाध रहेगी। इस निर्यातक के मुताबिक, अभी का समय खरीदारी के लिहाज से सही समय है। फिलहाल इंडोनेशिया छोड़ सभी उत्पादक देशों में काली मिर्च की कीमत काफी नीचे चल रही है। एमजी-1 किस्म की कीमत 2,400 डॉलर तक लुढ़ककर 2,550 डॉलर प्रति टन पर चल रही है।काली मिर्च के कारोबार से जुड़ी मजेदार चीज तो यह कि इसकी आपूर्ति पिछले 4 से 5 हफ्तों से मंद तो है ही इसका पूरा कारोबार भी मंद पड़ा है। इसकी वजह पूरी दुनिया में फैला आर्थिक मंदी का साया है जिसने अमेरिकी और यूरोपीय देशों में मसाले की मांग गिरा दी है। अप्रैल की तुलना में सितंबर में काली मिर्च के निर्यात में 33 फीसदी की कमी हो चुकी है। अप्रैल में इसका निर्यात जहां 19,165 टन था वहीं सितंबर में यह महज 12,750 टन ही रह गया। इसके चलते निर्यात से होने वाली आय भी 279 करोड़ रुपये से घटकर महज 216 करोड़ रुपये रह गई। (BS Hindi)
फेडरल रिजर्व की कटौती के बाद कच्चे तेल में तेजी
सिंगापुर October 30, 2008
अमेरिकी ब्याज दरों में कटौती और वैश्विक शेयर बाजारों में आई तेजी के चलते एशियाई बाजार में गुरुवार को कच्चे तेल में तेजी देखी गई।
इसके चलते बीते एक हफ्ते में पहली बार कच्चे तेल की कीमत 70 डॉलर प्रति बैरल के पार चली गई। हालांकि बाद में इसमें थोड़ी नरमी रही। खबर मिलने तक न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज में कच्चे तेल का नवंबर महीने का वायदा 68.45 डॉलर प्रति बैरल तक जा चुका था। कल के मुकाबले भाव में 1.41 फीसदी यानाी 95 सेंट की मजबूती आई। वहीं ब्रेंट कच्चे तेल के हाजिर भाव में 1.62 फीसदी यानी 1.04 डॉलर की तेजी हुई और भाव 65.28 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए। बुधवार को कच्चे तेल में 4.77 डॉलर यानी 7.6 फीसदी की तेजी हुई थी और भाव 67.5 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए थे। याद दिला दें कि 11 जुलाई को कच्चा तेल 147 डॉलर तक पहुंच गया था तब से इसकी कीमत में अब तक करीब 52 फीसदी की गिरावट हो चुकी है। साल भर पहले की तुलना में तेल के भाव में अब तक 22 फीसदी की नरमी आ चुकी है। गौरतलब है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व की ओर से ब्याज दर में और 0.5 फीसदी की कटौती करने के बाद वैश्विक स्टॉक बाजार में फिर से तेजी लौट आई। इसके चलते कच्चे तेल की कीमतों में मजबूती आई। इस तरह, बीते एक महीने में कच्चे तेल में दो दिनों की सबसे बड़ी तेजी देखी गई। यही नहीं चीन और ताईवान ने भी अपनी ब्याज दरों में कटौती कर ली है। जापान के बारे में अनुमान लगाया जा रहा है कि वह कल अपनी बेंचमार्क ब्याज दर में कटौती कर सकता है। यूरोपीय केंद्रीय बैंक के बारे में भी अनुमान लगाया जा रहा है कि वह बहुत ही जल्द अपनी ब्याज दरें घटा सकता है। अमेरिका के साथ-साथ चीन द्वारा ब्याज दरों में कटौती किए जाने से सट्टेबाजी हलकों में इस बात की अटकलें हैं कि कच्चे तेल की मांग में तेजी आएगी। सिडनी स्थित एक संस्था के सलाहकार टोबी हसेल ने बताया कि अमेरिकी फेडरल ने अनुमान के मुताबिक ही ब्याज दरों में कटौती की है। संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था के लिए यह उपाय निश्चित तौर पर गति देने वाला है। एक विश्लेषक ने बताया कि लोग इक्विटी बाजार के सतह तक जाने का इंतजार कर रहे हैं लिहाजा अमेरिकी और विश्व अर्थव्यवस्था में स्थिरता आने के संकेत मिल रहे हैं। इस विश्लेषक के मुताबिक, शेयर बाजार में एक बार फिर से हो रहा उछाल एक अच्छा संकेत है जबकि इससे बाजार थोड़ा स्थिर हो रहा है। निवेशकों को लग रहा है कि वित्तीय संकट के चलते पैदा हुई नगदी की समस्या के चलते निकट भविष्य में तेल उत्पादन पर असर पड़ सकता है। इससे तेल के महंगे होने के आसार हैं जबकि ओपेक पहले ही तेल उत्पादन में कटौती का निर्णय ले चुका है। गौरतलब है कि ओपेक के सदस्य देशों की हाल में हुई बैठक में तय हुआ कि 1 नवंबर से कच्चे तेल के उत्पादन में 15 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की जाएगी। ऐसे में कच्चे तेल की कीमतों का बढ़ना स्वाभाविक माना जा रहा है।जानकारों के अनुसार, कच्चे तेल में कटौती की एक अन्य वजह डॉलर में हुई कमजोरी भी है। उल्लेखनीय है कि कल के गिरावट के साथ ही अमेरिकी डॉलर यूरो की तुलना में पिछले एक हफ्ते के निचले स्तर तक चला गया है। फिलहाल एक यूरो का भाव 1.3170 अमेरिकी डॉलर चल रहा है। निवेशकों के मुताबिक, डॉलर में गिरावट होने से कच्चा तेल सहित उन सभी जिंसों की खरीदारी तेज हो जाती है। इसकी वजह यह कि सुरक्षित निवेश के लिहाज से इन जिंसों की मांग बढ़ जाती है। (BS Hindi)
अमेरिकी ब्याज दरों में कटौती और वैश्विक शेयर बाजारों में आई तेजी के चलते एशियाई बाजार में गुरुवार को कच्चे तेल में तेजी देखी गई।
इसके चलते बीते एक हफ्ते में पहली बार कच्चे तेल की कीमत 70 डॉलर प्रति बैरल के पार चली गई। हालांकि बाद में इसमें थोड़ी नरमी रही। खबर मिलने तक न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज में कच्चे तेल का नवंबर महीने का वायदा 68.45 डॉलर प्रति बैरल तक जा चुका था। कल के मुकाबले भाव में 1.41 फीसदी यानाी 95 सेंट की मजबूती आई। वहीं ब्रेंट कच्चे तेल के हाजिर भाव में 1.62 फीसदी यानी 1.04 डॉलर की तेजी हुई और भाव 65.28 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए। बुधवार को कच्चे तेल में 4.77 डॉलर यानी 7.6 फीसदी की तेजी हुई थी और भाव 67.5 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए थे। याद दिला दें कि 11 जुलाई को कच्चा तेल 147 डॉलर तक पहुंच गया था तब से इसकी कीमत में अब तक करीब 52 फीसदी की गिरावट हो चुकी है। साल भर पहले की तुलना में तेल के भाव में अब तक 22 फीसदी की नरमी आ चुकी है। गौरतलब है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व की ओर से ब्याज दर में और 0.5 फीसदी की कटौती करने के बाद वैश्विक स्टॉक बाजार में फिर से तेजी लौट आई। इसके चलते कच्चे तेल की कीमतों में मजबूती आई। इस तरह, बीते एक महीने में कच्चे तेल में दो दिनों की सबसे बड़ी तेजी देखी गई। यही नहीं चीन और ताईवान ने भी अपनी ब्याज दरों में कटौती कर ली है। जापान के बारे में अनुमान लगाया जा रहा है कि वह कल अपनी बेंचमार्क ब्याज दर में कटौती कर सकता है। यूरोपीय केंद्रीय बैंक के बारे में भी अनुमान लगाया जा रहा है कि वह बहुत ही जल्द अपनी ब्याज दरें घटा सकता है। अमेरिका के साथ-साथ चीन द्वारा ब्याज दरों में कटौती किए जाने से सट्टेबाजी हलकों में इस बात की अटकलें हैं कि कच्चे तेल की मांग में तेजी आएगी। सिडनी स्थित एक संस्था के सलाहकार टोबी हसेल ने बताया कि अमेरिकी फेडरल ने अनुमान के मुताबिक ही ब्याज दरों में कटौती की है। संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था के लिए यह उपाय निश्चित तौर पर गति देने वाला है। एक विश्लेषक ने बताया कि लोग इक्विटी बाजार के सतह तक जाने का इंतजार कर रहे हैं लिहाजा अमेरिकी और विश्व अर्थव्यवस्था में स्थिरता आने के संकेत मिल रहे हैं। इस विश्लेषक के मुताबिक, शेयर बाजार में एक बार फिर से हो रहा उछाल एक अच्छा संकेत है जबकि इससे बाजार थोड़ा स्थिर हो रहा है। निवेशकों को लग रहा है कि वित्तीय संकट के चलते पैदा हुई नगदी की समस्या के चलते निकट भविष्य में तेल उत्पादन पर असर पड़ सकता है। इससे तेल के महंगे होने के आसार हैं जबकि ओपेक पहले ही तेल उत्पादन में कटौती का निर्णय ले चुका है। गौरतलब है कि ओपेक के सदस्य देशों की हाल में हुई बैठक में तय हुआ कि 1 नवंबर से कच्चे तेल के उत्पादन में 15 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की जाएगी। ऐसे में कच्चे तेल की कीमतों का बढ़ना स्वाभाविक माना जा रहा है।जानकारों के अनुसार, कच्चे तेल में कटौती की एक अन्य वजह डॉलर में हुई कमजोरी भी है। उल्लेखनीय है कि कल के गिरावट के साथ ही अमेरिकी डॉलर यूरो की तुलना में पिछले एक हफ्ते के निचले स्तर तक चला गया है। फिलहाल एक यूरो का भाव 1.3170 अमेरिकी डॉलर चल रहा है। निवेशकों के मुताबिक, डॉलर में गिरावट होने से कच्चा तेल सहित उन सभी जिंसों की खरीदारी तेज हो जाती है। इसकी वजह यह कि सुरक्षित निवेश के लिहाज से इन जिंसों की मांग बढ़ जाती है। (BS Hindi)
समय से पहले शुरू हुई गेहूं की बुआई
नई दिल्ली October 30, 2008
अनुकूल मौसम के कारण हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में अक्टूबर के तीसरे हफ्ते में रबी फसल की बुआई की शुरुआत हो चुकी है।
वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक का कहना है कि समय से पहले बुआई की शुरुआत मौसम की अनुकूलता की वजह से हुई है। करनाल स्थित गेहूं अनुसंधान केंद्र के निदेशक बी. मिश्रा ने कहा कि अच्छी नमी और मौसम के अनुकूल होने के चलते कुछ राज्यों में समय से पहले गेहूं की बुआई शुरू हो गई है। उन्होंने कहा कि हरियाणा में गेहूं की बुआई छह दिन पहले शुरू हुई जबकि महाराष्ट्र और गुजरात ने भी इस साल समय से पहले बुआई शुरू कर दी है। सामान्य तौर पर गेहूं की बुआई 30 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच शुरू होती है। मिश्रा ने कहा कि गेहूं के सबसे बड़े उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश के केवल पश्चिमी भाग में ही इस समय बुआई शुरू हुई है। उन्होंने कहा कि यूपी के केंद्रीय इलाके में गेहूं की बुआई में देरी हो सकती है क्योंकि वहां किसी और फसल के लगे होने की वजह से समय लग सकता है। उधर, पंजाब के किसान शुक्रवार से गेहूं की बुआई शुरू करने की योजना बना रहे हैं।बी. मिश्रा ने कहा कि गेहूं उत्पादक राज्य मसलन उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में इस साल औसत से ज्यादा बारिश हुई है। इस वजह से जमीन की नमी में बढ़ोतरी हुई है। नमी में हुई बढ़ोतरी गेहूं की बुआई में काफी सहायक साबित होगा। फिलहाल इन राज्यों का तापमान रात में लगभग 19 से 25 डिग्री सेल्सियस के बीच है।उन्होंने कहा कि इस साल गेहूं की बुआई करीब 2.9 करोड़ हेक्टेयर में होने की उम्मीद है और इसकी पैदावार में 20 लाख टन की बढ़ोतरी हो सकती है। हालांकि उन्होंने कहा कि उत्पादकता में बढ़ोतरी विभिन्न इलाकों में अलग-अलग और मौसम पर निर्भर करेगी।मिश्रा ने कहा कि इस साल गेहूं की बुआई के लिए इसकी सात किस्मों की पहचान की गई है। उन्होंने कहा कि पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में डीबीडब्ल्यू-17 किस्म की मांग सबसे ज्यादा है। उन्होंने कहा कि इनके अलावा बुआई के लिए पीबीडब्ल्यू-550 और एचडी-2687 किस्म के गेहूं की भी मांग है। पिछले साल भारत में 7.84 करोड़ टन गेहूं की पैदावार हुई थी। हालांकि सरकार ने 2008-09 में एक लाख टन ज्यादा गेहूं की पैदावार का लक्ष्य रखा है। हाल में हुए रबी सम्मेलन में विभिन्न राज्यों ने पैदावार बढाने के लिए समय पर गेहूं की बुआई व इसे नवंबर के अंत तक समाप्त करना सुनिश्चित किया था। (BS Hindi)
अनुकूल मौसम के कारण हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में अक्टूबर के तीसरे हफ्ते में रबी फसल की बुआई की शुरुआत हो चुकी है।
वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक का कहना है कि समय से पहले बुआई की शुरुआत मौसम की अनुकूलता की वजह से हुई है। करनाल स्थित गेहूं अनुसंधान केंद्र के निदेशक बी. मिश्रा ने कहा कि अच्छी नमी और मौसम के अनुकूल होने के चलते कुछ राज्यों में समय से पहले गेहूं की बुआई शुरू हो गई है। उन्होंने कहा कि हरियाणा में गेहूं की बुआई छह दिन पहले शुरू हुई जबकि महाराष्ट्र और गुजरात ने भी इस साल समय से पहले बुआई शुरू कर दी है। सामान्य तौर पर गेहूं की बुआई 30 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच शुरू होती है। मिश्रा ने कहा कि गेहूं के सबसे बड़े उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश के केवल पश्चिमी भाग में ही इस समय बुआई शुरू हुई है। उन्होंने कहा कि यूपी के केंद्रीय इलाके में गेहूं की बुआई में देरी हो सकती है क्योंकि वहां किसी और फसल के लगे होने की वजह से समय लग सकता है। उधर, पंजाब के किसान शुक्रवार से गेहूं की बुआई शुरू करने की योजना बना रहे हैं।बी. मिश्रा ने कहा कि गेहूं उत्पादक राज्य मसलन उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में इस साल औसत से ज्यादा बारिश हुई है। इस वजह से जमीन की नमी में बढ़ोतरी हुई है। नमी में हुई बढ़ोतरी गेहूं की बुआई में काफी सहायक साबित होगा। फिलहाल इन राज्यों का तापमान रात में लगभग 19 से 25 डिग्री सेल्सियस के बीच है।उन्होंने कहा कि इस साल गेहूं की बुआई करीब 2.9 करोड़ हेक्टेयर में होने की उम्मीद है और इसकी पैदावार में 20 लाख टन की बढ़ोतरी हो सकती है। हालांकि उन्होंने कहा कि उत्पादकता में बढ़ोतरी विभिन्न इलाकों में अलग-अलग और मौसम पर निर्भर करेगी।मिश्रा ने कहा कि इस साल गेहूं की बुआई के लिए इसकी सात किस्मों की पहचान की गई है। उन्होंने कहा कि पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में डीबीडब्ल्यू-17 किस्म की मांग सबसे ज्यादा है। उन्होंने कहा कि इनके अलावा बुआई के लिए पीबीडब्ल्यू-550 और एचडी-2687 किस्म के गेहूं की भी मांग है। पिछले साल भारत में 7.84 करोड़ टन गेहूं की पैदावार हुई थी। हालांकि सरकार ने 2008-09 में एक लाख टन ज्यादा गेहूं की पैदावार का लक्ष्य रखा है। हाल में हुए रबी सम्मेलन में विभिन्न राज्यों ने पैदावार बढाने के लिए समय पर गेहूं की बुआई व इसे नवंबर के अंत तक समाप्त करना सुनिश्चित किया था। (BS Hindi)
खरीदारी से उछला सोना
नई दिल्ली October 30, 2008
अंतरराष्ट्रीय बाजार के रुख का पीछा करते हुए देसी सर्राफा बाजार गुरुवार को गुलजार रहा और सोने में 560 रुपये प्रति 10 ग्राम की तेजी दर्ज की गई।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में आई तेजी के साथ-साथ आगामी त्योहारी और शादी-विवाह सीजन के लिए खुदरा ग्राहकों द्वारा की गई खरीदारी से सोने की तेजी को बल मिला। सोना स्टैंडर्ड 320 रुपये प्रति 10 ग्राम की तेजी के साथ 12750 रुपये प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया जबकि जूलरी में 560 रुपये का उछाल आया और यह 12420 रुपये प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया। बाजार का जानकारों का कहना है कि त्योहारी सीजन में सोने की मांग जारी रही और अब शादी-विवाह के लिए खरीदारी हो रही है, लिहाजा देसी सर्राफा बाजार धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रहा है। चूंकि देश के प्रमुख सर्राफा बाजार मुंबई में भैया-दूज के मौके पर सर्राफा बाजार बंद रहे, इसलिए तमाम खरीदारी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सर्राफा बाजार में हुई।सर्राफा बाजार में इसलिए भी तेजी आई क्योंकि सटोरिया खरीदारी के चलते जिंस बाजार में काफी तेजी देखी गई। साथ ही अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में की गई कटौती से भी इस बाजार में उफान देखा गया। एशियाई बाजार में सोने में 2.1 फीसदी का उछाल आया और यह 770.93 डॉलर प्रति आउंस पर पहुंच गया।उधर, चांदी में भी 3.6 सेंट की तेजी दर्ज की गई और यह 10.23 डॉलर प्रति आउंस पर पहुंच गया। एशियाई बाजार में कीमती धातु सोने में लगातार तीसरे दिन तेजी आई क्योंकि यूरो के मुकाबले डॉलर कमजोर रहा। इस वजह से निवेशकों ने वैकल्पिक साधन के रूप में सोने में निवेश किया। फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में की गई कटौती इसमें काफी सहायक रही।देसी सर्राफा बाजार में चांदी 900 रुपये की तेजी के साथ 17300 रुपये प्रति किलोग्राम पर पहुंच गया। जिंस एक्सचेंज के बंद होने के चलते हालांकि साप्ताहिक डिलिवरी के लिए चांदी का कारोबार नहीं हो पाया। चांदी का सिक्का खरीदारी के लिए 26800 रुपये प्रति सैंकड़ा और बिक्री के लिए 26900 रुपये प्रति सैंकड़ा के स्तर पर रहा। (BS Hindi)
अंतरराष्ट्रीय बाजार के रुख का पीछा करते हुए देसी सर्राफा बाजार गुरुवार को गुलजार रहा और सोने में 560 रुपये प्रति 10 ग्राम की तेजी दर्ज की गई।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में आई तेजी के साथ-साथ आगामी त्योहारी और शादी-विवाह सीजन के लिए खुदरा ग्राहकों द्वारा की गई खरीदारी से सोने की तेजी को बल मिला। सोना स्टैंडर्ड 320 रुपये प्रति 10 ग्राम की तेजी के साथ 12750 रुपये प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया जबकि जूलरी में 560 रुपये का उछाल आया और यह 12420 रुपये प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया। बाजार का जानकारों का कहना है कि त्योहारी सीजन में सोने की मांग जारी रही और अब शादी-विवाह के लिए खरीदारी हो रही है, लिहाजा देसी सर्राफा बाजार धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रहा है। चूंकि देश के प्रमुख सर्राफा बाजार मुंबई में भैया-दूज के मौके पर सर्राफा बाजार बंद रहे, इसलिए तमाम खरीदारी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सर्राफा बाजार में हुई।सर्राफा बाजार में इसलिए भी तेजी आई क्योंकि सटोरिया खरीदारी के चलते जिंस बाजार में काफी तेजी देखी गई। साथ ही अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में की गई कटौती से भी इस बाजार में उफान देखा गया। एशियाई बाजार में सोने में 2.1 फीसदी का उछाल आया और यह 770.93 डॉलर प्रति आउंस पर पहुंच गया।उधर, चांदी में भी 3.6 सेंट की तेजी दर्ज की गई और यह 10.23 डॉलर प्रति आउंस पर पहुंच गया। एशियाई बाजार में कीमती धातु सोने में लगातार तीसरे दिन तेजी आई क्योंकि यूरो के मुकाबले डॉलर कमजोर रहा। इस वजह से निवेशकों ने वैकल्पिक साधन के रूप में सोने में निवेश किया। फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में की गई कटौती इसमें काफी सहायक रही।देसी सर्राफा बाजार में चांदी 900 रुपये की तेजी के साथ 17300 रुपये प्रति किलोग्राम पर पहुंच गया। जिंस एक्सचेंज के बंद होने के चलते हालांकि साप्ताहिक डिलिवरी के लिए चांदी का कारोबार नहीं हो पाया। चांदी का सिक्का खरीदारी के लिए 26800 रुपये प्रति सैंकड़ा और बिक्री के लिए 26900 रुपये प्रति सैंकड़ा के स्तर पर रहा। (BS Hindi)
30 अक्तूबर 2008
गन्ना बुवाई की नई तकनीक से लागत घटेगी
स्विटजरलैंड की एग्रोकेमिकल कंपनी सिंजेंटा ने गन्ना बुवाई की नई तकनीका का इजाद किया है। इस तकनीक वाली मशीन के इस्तेमाल से कम लागत में गन्ने की बुवाई की जा सकती है। कंपनी ने मुख्य रूप से यह तकनीक ब्राजील के लिए ईजाद की है। कंपनी के मुताबिक सिंजेंटा गन्ने की बुवाई लागत कम करने की कोशिश में बहुत पहले से लगी हुई थी। जिस पर अब सफलता हासिल हुई है। इस तकनीक की शुरूआत साल 2010 तक होने की उम्मीद है। कंपनी के मुताबिक इसके इस्तेमाल से 2015 तक करीब 30 करोड़ डॉलर रोजाना की बचत की जा सकेगी। मौजूदा समय में मजदूरी और दूसरी वजहों से गन्ने की बुवाई काफी महंगी बैठती है। वहीं कटाई 30-40 सेमी ऊपर से करनी पड़ती है। जबकि सिंजेंटा की तकनीक से कटाई की लंबाई काफी कम हो जाएगी। इस तकनीकी से उन किसानों को ज्यादा फायदा हो सकता है, जो कई बार गन्ने की बुवाई करते हैं। वहीं इसके इस्तेमाल से उत्पादकता में भी करीब 15 फीसदी की बढ़त होने की संभावना जताई जा रही है। कंपनी ने इस तकनीक को विकसित करने के लिए कुछ अमेरिकी कंपनियों का भी सहारा लिया है। ब्राजील दुनिया का प्रमुख गन्ना उत्पादक देश है। वैश्विक बाजारों में कच्चे तेल की बढ़ी कीमतों के मद्देनजर आने वाले दिनों में एथनॉल की मांग बढ़ने की संभावना जताई जा रही है। चूंकि एथनॉल गन्ने से बनता है, लिहाजा ब्राजील में दुनिया के दूसरे देश भी ठेके पर गन्ने की खेती करने की पहल कर चुके हैं। इस साल यहां करीब 80 लाख हैक्टेयर में गन्ने की खेती हुई है। जबकि मौजूदा गन्ना उत्पादन करीब 50 करोड़ टन है। (Business Bhaskar)
विदेशी तेजी से बेसमेटल्स वायदा उछले
वैश्विक बाजारों में बेस मेटल्स की कीमतों में आई तेजी का असर घरलू वायदा बाजारों पर भी देखा गया। इस दौरान मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (एमसीएक्स) में कॉपर, अल्यूमीनियम, लेड और निकिल वायदा में तगड़ी तेजी देखी गई। दीवाली के बाद हुए कारोबार के दौरान पिछले दो महीनों से मंदी में चल रहे बेस मेटल्स में उछाल देखा गया है। बुधवार को मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज में कॉपर नवंबर वायदा करीब 2.50 फीसदी की बढ़त के साथ 217.50 रुपये प्रति किलो के भाव पर पहुंच गया। वहीं अल्युमीनियम अक्टूबर वायदा में करीब चार फीसदी की उछाल आने से भाव 105 रुपये प्रति किलो हो गए। लेड अक्टूबर वायदा करीब सात फीसदी की तगड़ी तेजी के साथ 74.30 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गए। जबकि एमसीएक्स में निकिल अक्टूबर वायदा सबसे ज्यादा करीब 7.15 फीसदी की बढ़त के साथ 618 रुपये प्रति किलो पर आ गया। पिछले दो महीनों के कारोबार के दौरान इन धातुओं की कीमतों में करीब 40 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आ चुकी है। इस दौरान हाजिर बाजारों में कामकाज नहीं होने की वजह से वायदा में बढ़त का असर वहां नहीं दिख सका है। मुंबई में मेटल प्राइड के मनोज भुथड़ा के मुताबिक दरअसल वैश्विक बाजारों में भाव बढ़ने की वजह से घरलू वायदा में भी तेजी देखी गई है। उन्होंने बताया कि दिवाली और भैयादूज की वजह से बुधवार को हाजिर में कामकाज नहीं हुआ। हालांकि अगले दिनों में बाजार खुलने पर उन्होंने हाजिर भावों पर भी असर पड़ने की उम्मीद जताई है। इस सप्ताह सोमवार को मुंबई में कॉपर वायर 278 रुपये किलो, अल्यूमीनियम इंगट 121 रुपये किलो, लेड 91 रुपये किलो और निकिल कैथोड का भाव करीब 700 रुपये प्रति किलो रहा था। बुधवार को महज कोलकाता में हाजिर कारोबार होने से यहां कॉपर वायर का भाव 325 रुपये किलो और लेड का भाव 89 रुपये किलो रहा। उधर पिछले दो दिनों के कारोबार के दौरान लंदन मेटल एक्सचेंज में कॉपर का भाव करीब 450 डॉलर बढ़ चुका है। बुधवार को एलएमई में कॉपर करीब 4135 डॉलर प्रति टन के भाव पर रहा। इस दौरान सबसे ज्यादा 2080 डॉलर की बढ़त निकिल में होने से यह 11780 डॉलर प्रति टन पर बंद हुआ। एलएमई में अल्यूमीनियम 2054 डॉलर प्रति टन पर बंद हुआ। जानकारों के मुताबिक अमेरिकी फेडरल बैंक द्वारा अगले महीने ब्याज दरों में कटौती की संभावना और पूंजी बाजारों में बढ़त से एलएमई में बेस मेटल्स के भाव बढ़े हैं। (Business Bhaskar)
आवक बढ़ने से गुड़ के भाव में गिरावट
उत्तर प्रदेश की प्रमुख उत्पादक मंडियों में गुड़ की आवक बढ़ने और खपत केंद्रों की मांग घटने से गुड़ के भावों में पिछले तीन-चार दिनों में 200 से 250 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट देखी गई। जानकारों के अनुसार हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व गुजरात की कमजोर मांग से इसके भावों में और भी 100 से 150 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट तो आ सकती है लेकिन नवंबर के मध्य तक चीनी मिलें चालू हो जाएंगी इसलिए ज्यादा मंदी के आसार नहीं हैं। मुजफ्फरनगर मंडी के गुड़ व्यापारी हरी शंकर मुंदड़ा ने बिजनेस भास्कर को बताया कि चालू सप्ताह के शुरू में मंडी में गुड़ की आवक बढ़कर 15000 हजार कट्टा (एक कट्टा 40 किलो) की हो गई जबकि खपत केंद्र की मांग में कमी आने से गुड़ चाकू के भावों में 100 रुपये की गिरावट आकर भाव 650 से 660 रुपये प्रति कट्टा व खुरपा पाड़ गुड़ के भावों में 70 रुपये की गिरावट आकर भाव 580 से 615 रुपये प्रति कट्टा रह गए। उन्होंने बताया कि मुजफ्फरनगर मंडी में पुराने गुड़ का स्टॉक मात्र 11 हजार कट्टे का ही बचा हुआ है जबकि बीते वर्ष की समान अवधि में मंडी में पुराना स्टॉक करीब 1.31 लाख कट्टे का बचा था। अत: एक तो पुराने स्टॉक में कमी व दूसरा गन्ने के बुवाई क्षेत्रफल में कमी को देखते हुए गुड़ के मौजूदा भावों में 25 से 50 रुपये प्रति मन का मंदा तो आ सकता है लेकिन इससे ज्यादा गिरावट के आसार नहीं है। उन्होंने बताया कि नवंबर के मध्य तक चीनी मिलें चालू हो जाएंगी। ऐसे में गन्ने के भाव बढ़ने की संभावना भी है। चालू वर्ष 2008-09 में देश में गन्ने की बुवाई 44.15 लाख हैक्टेयर में ही हुई है जबकि बीते वर्ष की समान अवधि में देश में गन्ने की बुवाई 52.95 लाख हैक्टेयर में हुई थी। उत्तर प्रदेश जो कि गन्ना उत्पादन में देश का अग्रणी राज्य है,में चालू वर्ष में गन्ने की बुवाई मात्र 18.80 लाख हैक्टेयर में ही हुई है जा ेकि गत वर्ष के मुकाबले करीब 3 लाख हैक्टेयर कम है।खारी बावली स्थित मैसर्स देशराज राजेंद्र कुमार के देशराज ने बताया कि दीपावली की मांग पूरी हो चुकी है जबकि उत्पादक मंडियों में गुड़ की दैनिक आवक में बढ़ोतरी हो रही है। उन्होंने बताया कि पिछले तीन-चार दिनों में मांग में कमी आने से दिल्ली बाजार में गुड़ चाकू के भाव में 250 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आकर भाव 1750 से 1800 रुपये प्रति क्विंटल रह गए। गुड़ लड्डूके भावों में भी इस दौरान 200 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आकर भाव 1750 से 1800 रुपये प्रति क्विंटल बोले गए। (Business Bhaskar.............R S Rana)
कॉटन के भाव में मंदी का रुख
आवक बढ़ने की वजह से मध्य भारत की मंडियों में कॉटन की कीमतों में तगड़ी गिरावट देखी गई है। चालू महीने के दौरान उत्तर और मध्य भारत की मंडियों में कॉटन की आवक बढ़ गई है। कीमतों में आ रही लगातार गिरावट की वजह से मिल वाले भी खरीदारी से बच रहे हैं। ऐसे में मंडियों में हो रहा सुस्त कारोबार गिरावट में और मदद कर रहा है। दक्षिण भारत कॉटन संघ की रिपोर्ट के मुताबिक अगले महीने में मंडियों में कॉटन की आवक और बढ़ सकती है। ऐसे में कीमतों में और गिरावट होना तय है। इस दौरान पंजाब, राजस्थान और गुजरात की मंडियों में कॉटन लिंट बंगाल देसी वेरायटी का भाव करीब 2350-2370 रुपये और जे-34 का भाव करीब 2450-2500 रुपये प्रति मन (40 किलो) रहा। वहीं गुजरात की मंडियों में भी कीमतों में गिरावट देखी गई है। यहां शंकर कपास का भाव करीब 22000-22500 रुपये, और वी797 का भाव करीब 17000-17300 रुपये प्रति कैंडी (375 किलो) है। इस दौरान मध्य प्रदेश की मंडिया में भी कॉटन गिरावट के साथ 23500-24000 रुपये और 30 एमएम कॉटन का भाव 23000-24000 रुपये प्रति कैंडी रहा। साथ ही आंध्र प्रदेश की मंडियों में एमसीयू5 कॉटन का भाव करीब 23000-24500 रुपये प्रति कैंडी रहा। जबकि डीसीएच 32 का भाव करीब 30000-31000 रुपये प्रति कैंडी रहा। (Business Bhaskar)
संकट में है समुद्री खाद्य पदार्थ से जुड़ा उद्योग
कोच्चि October 29, 2008
वर्तमान वैश्विक वित्तीय उठापटक के कारण समुद्री खाद्य पदार्थों (सी फूड) के निर्यात से जुड़ा उद्योग भी गहरे संकट के दौर से गुजर रहा है।
आयात करने वाले प्रमुख देशों द्वारा माल कम मंगवाने, माल-भाड़ा दरों में वृध्दि तथा बिजली, पैकेजिंग तथा बर्फ आदि जैसे अन्य लागत-मूल्यों में बढ़ोतरी होने के कारण हाल के दिनों में निर्यातकों की चिंताएं बढ़ी हैं। वैश्विक आर्थिक संकट का तत्काल असर शायद समुद्री उत्पादों के निर्यात के क्षेत्र पर पड़ा है। निर्यातकों ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि पिछले कुछ महीनों में निर्यात के परिमाण में आई कमी और ऑर्डर रद्द किए जाने से इस उद्योग की आशाओं पर पानी फिर गया है।भारत से भेजे जाने वाले प्राय: हर केंद्र तक के माल-भाड़ों में 15 से 30 फीसदी या डॉलर के रूप में उससे कहीं अधिक की बढ़ोतरी हुई है। प्रमुख आयातक केंद्र जैसे अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और जापान फ्रोजेन झींगा, फ्रोजेन मछली तथा समुद्रफेनी जैसे निर्यात किए जाने वाले प्रमुख उत्पादों की दरों पर फिर से बातचीत शरू कर दी है। साल 2008-09 की पहली तिमाही में समुद्री उत्पादों के निर्यात में मामूली 1.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और यह 1,02,767 टन रहा जिसकी कीमत 1,542.72 करोड़ रुपये थी। रुपये के हिसाब से देखा जाए तो बढ़ोतरी 2.45 प्रतिशत की रही जबकि डॉलर के रूप में यह वृध्दि 5.26 प्रतिशत (3,801.1 लाख डॉलर) रही। साल 2006-07 में भारत का सी फूड निर्यात सर्वाधिक रहा। इस अवधि में 6,12,641 टन सीफूड की निर्यात किया गया जिसकी कीमत 8,363.53 करोड़ रुपये थी। लेकिन इसके अगले साल परिमाण में 11.58 प्रतिशत की गिरावट हुई और कीमतों में 8.88 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। कुल निर्यात 5,41,701 टन रहा और इसकी कीमत 7,620.92 करोड़ रुपये रही।अग्रणी निर्यातकों के अनुसार इस साल कई कारणों से निर्यात में आने वाली कमी काफी गंभीर होगी। उनका मानना है कि पहली तिमाही में निर्यात में हुई मामूली वृध्दि कोई खास उत्साहजनक नहीं है क्योंकि अगस्त के बाद से विदेशी बाजारों में काफी बदलाव आया है। शहर के एक निर्यातक ने कहा, 'सी फूड उद्योग के लिए यह पिछले दो दशकों का सबसे कठिन समय साबित हो सकता है क्योंकि डॉलर में मजबूती जैसे सकारात्मक कारण उद्योग के सामने सीमित हैं।' जापान के अलावा भारतीय सी फूड के सभी महत्वपूर्ण बाजारों ने अप्रैल से जून की अवधि के दौरान अपनी हिस्सेदारी में कमी की है।जापान की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत से बढ़ कर 22 प्रतिशत हो गई जबकि अमेरिका का 13 प्रतिशत से घट कर 10 प्रतिशत, यूरोपियन यूनियन का 35 प्रतिशत से घट कर 34 प्रतिशत और चीन की हिस्सेदारी 13 प्रतिशत से कम होकर 11 प्रतिशत हो गई।यद्यपि फ्रोजेन झिंगा भारत से निर्यात किया जाने वाला प्रमुख उत्पाद बना रहा लेकिन पिछले वित्त वर्ष में कुल निर्यात में इसकी हिस्सेदारी 52 प्रतिशत से घट कर 42 प्रतिशत हो गई। फ्रोजेन समुद्रफेनी के मामले में पिछले साल 5 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई जबकि फ्रोजेन मछलियों की हिस्सेदारी 17 प्रतिशत से घट कर 14 प्रतिशत तथा कट्ल फिश की 10 प्रतिशत से कम होकर 6 प्रतिशत हो गई। समुद्री उत्पादों के निर्यात के मामले में पहले स्थान पर आने वाले कोच्चि की जगह पिपावाव ने ले ली। (BS Hindi)
वर्तमान वैश्विक वित्तीय उठापटक के कारण समुद्री खाद्य पदार्थों (सी फूड) के निर्यात से जुड़ा उद्योग भी गहरे संकट के दौर से गुजर रहा है।
आयात करने वाले प्रमुख देशों द्वारा माल कम मंगवाने, माल-भाड़ा दरों में वृध्दि तथा बिजली, पैकेजिंग तथा बर्फ आदि जैसे अन्य लागत-मूल्यों में बढ़ोतरी होने के कारण हाल के दिनों में निर्यातकों की चिंताएं बढ़ी हैं। वैश्विक आर्थिक संकट का तत्काल असर शायद समुद्री उत्पादों के निर्यात के क्षेत्र पर पड़ा है। निर्यातकों ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि पिछले कुछ महीनों में निर्यात के परिमाण में आई कमी और ऑर्डर रद्द किए जाने से इस उद्योग की आशाओं पर पानी फिर गया है।भारत से भेजे जाने वाले प्राय: हर केंद्र तक के माल-भाड़ों में 15 से 30 फीसदी या डॉलर के रूप में उससे कहीं अधिक की बढ़ोतरी हुई है। प्रमुख आयातक केंद्र जैसे अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और जापान फ्रोजेन झींगा, फ्रोजेन मछली तथा समुद्रफेनी जैसे निर्यात किए जाने वाले प्रमुख उत्पादों की दरों पर फिर से बातचीत शरू कर दी है। साल 2008-09 की पहली तिमाही में समुद्री उत्पादों के निर्यात में मामूली 1.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और यह 1,02,767 टन रहा जिसकी कीमत 1,542.72 करोड़ रुपये थी। रुपये के हिसाब से देखा जाए तो बढ़ोतरी 2.45 प्रतिशत की रही जबकि डॉलर के रूप में यह वृध्दि 5.26 प्रतिशत (3,801.1 लाख डॉलर) रही। साल 2006-07 में भारत का सी फूड निर्यात सर्वाधिक रहा। इस अवधि में 6,12,641 टन सीफूड की निर्यात किया गया जिसकी कीमत 8,363.53 करोड़ रुपये थी। लेकिन इसके अगले साल परिमाण में 11.58 प्रतिशत की गिरावट हुई और कीमतों में 8.88 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। कुल निर्यात 5,41,701 टन रहा और इसकी कीमत 7,620.92 करोड़ रुपये रही।अग्रणी निर्यातकों के अनुसार इस साल कई कारणों से निर्यात में आने वाली कमी काफी गंभीर होगी। उनका मानना है कि पहली तिमाही में निर्यात में हुई मामूली वृध्दि कोई खास उत्साहजनक नहीं है क्योंकि अगस्त के बाद से विदेशी बाजारों में काफी बदलाव आया है। शहर के एक निर्यातक ने कहा, 'सी फूड उद्योग के लिए यह पिछले दो दशकों का सबसे कठिन समय साबित हो सकता है क्योंकि डॉलर में मजबूती जैसे सकारात्मक कारण उद्योग के सामने सीमित हैं।' जापान के अलावा भारतीय सी फूड के सभी महत्वपूर्ण बाजारों ने अप्रैल से जून की अवधि के दौरान अपनी हिस्सेदारी में कमी की है।जापान की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत से बढ़ कर 22 प्रतिशत हो गई जबकि अमेरिका का 13 प्रतिशत से घट कर 10 प्रतिशत, यूरोपियन यूनियन का 35 प्रतिशत से घट कर 34 प्रतिशत और चीन की हिस्सेदारी 13 प्रतिशत से कम होकर 11 प्रतिशत हो गई।यद्यपि फ्रोजेन झिंगा भारत से निर्यात किया जाने वाला प्रमुख उत्पाद बना रहा लेकिन पिछले वित्त वर्ष में कुल निर्यात में इसकी हिस्सेदारी 52 प्रतिशत से घट कर 42 प्रतिशत हो गई। फ्रोजेन समुद्रफेनी के मामले में पिछले साल 5 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई जबकि फ्रोजेन मछलियों की हिस्सेदारी 17 प्रतिशत से घट कर 14 प्रतिशत तथा कट्ल फिश की 10 प्रतिशत से कम होकर 6 प्रतिशत हो गई। समुद्री उत्पादों के निर्यात के मामले में पहले स्थान पर आने वाले कोच्चि की जगह पिपावाव ने ले ली। (BS Hindi)
बेहतर पैदावार से ग्वार व इसके उत्पाद हुए सस्ते
मुंबई October 29, 2008
मौजूदा सीजन में ग्वार उत्पादन में वृद्धि की उम्मीद के चलते बाजार में ग्वार की कीमतों में कमी का अनुमान है। राजस्थान के कारोबारियों ने ये अनुमान लगाए हैं।
वैसे पहले से ही ग्वार के अगले महीने के वायदा अनुबंध का भाव 1,500 रुपये प्रति क्विंटल के नीचे चल रहा है। घरेलू बाजार में ग्वार की कम मांग और विदेशी बाजारों से सामान्य खपत के कारण ग्वार बीजों और ग्वारगम की कीमतों में तेजी नहीं हो रही है। जुलाई-अगस्त में ग्वार की बुआई के समय कमोडिटी मामलों के जानकारों का कहना था कि ग्वार बीजों के कारोबार में तेजी जारी रहेगी। जानकारों का तो यहां तक कहना था कि कीमतें कभी भी 1,500 रुपये प्रति क्विंटल के नीचे नहीं आएगी। बहरहाल, मौजूदा हालात नरमी के संकेत दे रहे हैं।ग्वार के मुख्य उत्पादक क्षेत्र जैसे राजस्थान में कम बारिश की उम्मीद के चलते ग्वार के उत्पादन सीमित रहने की बात कही गई थी। हालांकि बाद में अच्छी बारिश होने से ग्वार का उत्पादन पिछले साल के 75 हजार टन की तुलना में इस साल करीब एक लाख टन होने का अनुमान व्यक्त किया गया। कमोडिटी विश्लेषकों के मुताबिक, उत्पादन में अच्छी-खासी बढ़ोतरी होने से ग्वारबीजों की कीमतों में कमी आई है। एग्रीवाच कमोडिटीज के एक विश्लेषक ने बताया कि इसकी कीमतों में अभी और कमी होगी। उम्मीद है कि कीमतें 100 रुपये नीचे गिरकर 1,380 रुपये प्रति क्विंटल तक चली जाएगी। ग्वारगम के मुख्य उत्पादों जैसे-चूरी और कुर्मा की मांग मुख्यत: खाड़ी के देशों से हुआ करती है। (BS Hindi)
मौजूदा सीजन में ग्वार उत्पादन में वृद्धि की उम्मीद के चलते बाजार में ग्वार की कीमतों में कमी का अनुमान है। राजस्थान के कारोबारियों ने ये अनुमान लगाए हैं।
वैसे पहले से ही ग्वार के अगले महीने के वायदा अनुबंध का भाव 1,500 रुपये प्रति क्विंटल के नीचे चल रहा है। घरेलू बाजार में ग्वार की कम मांग और विदेशी बाजारों से सामान्य खपत के कारण ग्वार बीजों और ग्वारगम की कीमतों में तेजी नहीं हो रही है। जुलाई-अगस्त में ग्वार की बुआई के समय कमोडिटी मामलों के जानकारों का कहना था कि ग्वार बीजों के कारोबार में तेजी जारी रहेगी। जानकारों का तो यहां तक कहना था कि कीमतें कभी भी 1,500 रुपये प्रति क्विंटल के नीचे नहीं आएगी। बहरहाल, मौजूदा हालात नरमी के संकेत दे रहे हैं।ग्वार के मुख्य उत्पादक क्षेत्र जैसे राजस्थान में कम बारिश की उम्मीद के चलते ग्वार के उत्पादन सीमित रहने की बात कही गई थी। हालांकि बाद में अच्छी बारिश होने से ग्वार का उत्पादन पिछले साल के 75 हजार टन की तुलना में इस साल करीब एक लाख टन होने का अनुमान व्यक्त किया गया। कमोडिटी विश्लेषकों के मुताबिक, उत्पादन में अच्छी-खासी बढ़ोतरी होने से ग्वारबीजों की कीमतों में कमी आई है। एग्रीवाच कमोडिटीज के एक विश्लेषक ने बताया कि इसकी कीमतों में अभी और कमी होगी। उम्मीद है कि कीमतें 100 रुपये नीचे गिरकर 1,380 रुपये प्रति क्विंटल तक चली जाएगी। ग्वारगम के मुख्य उत्पादों जैसे-चूरी और कुर्मा की मांग मुख्यत: खाड़ी के देशों से हुआ करती है। (BS Hindi)
पंजाब का 145 लाख टन धान खरीदने का लक्ष्य
चंडीगढ़ October 29, 2008
सोमवार को 100 लाख टन धान खरीदने के बाद पंजाब प्रति दिन 4 से 5 लाख टन की खरीद कर कुल 145 लाख टन धान की खरीद की उम्मीद कर रहा है।
पंजाब ने साल 2004-05 में सबसे अधिक 140 लाख टन धान की खरीद की थी। एक अधिकारी ने आज बताया कि कुल खरीद में आधिकारिक एजेंसियों की हिस्सेदारी इस साल अधिक होगी क्योंकि इस साल बंपर फसल हुई है तथा कारोबारियों की हिस्सेदारी पिछले साल के 18.3 प्रतिशत से घट कर 7.4 प्रतिशत हो गई है। उन्होंने पंजाब सरकार के निश्चय को दोहराते हुए कहा कि सरकार किसानों द्वारा मंडी में लाए गए धान के आखिरी दाने तक की खरीद कर उन्हें 48 घंटे के भीतर भुगतान करेगी। पंजाब के दो जिले की मंडियों में इस साल खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री आदेश प्रताप सिंह द्वारा इलेक्ट्रॉनिक क्लियरिंग सिस्टम और तथा पूरे राज्य में ऑनलाइन मॉनिटरिंग सिस्टम की व्यवस्था किए जाने से किसानों को भुगतान करने में काफी सफलता मिली है। सोमवार तक किसानों को 7,763.31 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। आरबीआई द्वारा खरीफ सीजन के दौरान राज्य की एजेंसियों द्वारा धान की खरीद के लिए 12,623.62 करोड़ रुपये की नकदी ऋण सीमा का अनुमोदन किया गया है। (BS Hindi)
सोमवार को 100 लाख टन धान खरीदने के बाद पंजाब प्रति दिन 4 से 5 लाख टन की खरीद कर कुल 145 लाख टन धान की खरीद की उम्मीद कर रहा है।
पंजाब ने साल 2004-05 में सबसे अधिक 140 लाख टन धान की खरीद की थी। एक अधिकारी ने आज बताया कि कुल खरीद में आधिकारिक एजेंसियों की हिस्सेदारी इस साल अधिक होगी क्योंकि इस साल बंपर फसल हुई है तथा कारोबारियों की हिस्सेदारी पिछले साल के 18.3 प्रतिशत से घट कर 7.4 प्रतिशत हो गई है। उन्होंने पंजाब सरकार के निश्चय को दोहराते हुए कहा कि सरकार किसानों द्वारा मंडी में लाए गए धान के आखिरी दाने तक की खरीद कर उन्हें 48 घंटे के भीतर भुगतान करेगी। पंजाब के दो जिले की मंडियों में इस साल खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री आदेश प्रताप सिंह द्वारा इलेक्ट्रॉनिक क्लियरिंग सिस्टम और तथा पूरे राज्य में ऑनलाइन मॉनिटरिंग सिस्टम की व्यवस्था किए जाने से किसानों को भुगतान करने में काफी सफलता मिली है। सोमवार तक किसानों को 7,763.31 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। आरबीआई द्वारा खरीफ सीजन के दौरान राज्य की एजेंसियों द्वारा धान की खरीद के लिए 12,623.62 करोड़ रुपये की नकदी ऋण सीमा का अनुमोदन किया गया है। (BS Hindi)
शेयर बाजार में बढ़त से कच्चे तेल ने भरी उड़ान
October 29, 2008
अमेरिकी और एशियाई शेयर बाजारों में आई तेजी और ओपेक द्वारा दिसंबर से पहले की बैठक में उत्पादन में दोबारा कटौती करने पर विचार करने की घोषणा के बाद चार दिनों में पहली बार कच्चे तेल की कीमतों में बढ़त देखने को मिली।
विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जापान द्वारा ब्याज दरों में कटौती किए जाने की आशाओं के कारण एशियाई बाजार में तेजी दिखी। वेनेजुएला के तेल मंत्री रफैल रमिरेज ने कहा कि भंडार में बढोतरी को देखते हुए ओपेक 'संभवत:' कोटा में कटौती करेगा।इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की ड्राफ्ट रिपोर्ट के हवाले से फाइनैंशियल टाइम्स में छपी खबर कि कच्चे तेल के वैश्विक उत्पदन में अनुमान से अधिक तेजी से कमी आ रही है, के कारण भी तेल की कीमतों में बढ़ोतरी हुई।सिडनी स्थित कॉमनवेल्थ बैंक ऑफ ऑस्ट्रेलिया लिमिटेड के कमोडिटी स्ट्रेटजिस्ट डेविड मूर ने कहा, 'इक्विटी बाजारों में आने वाली तेजी आर्थिक समस्याओं के आसान होने की तरफ इशारा करता है और यह तेल की कीमतों के लिए समर्थनकारी है। अगर ओपेक उत्पादन में कटौती करने की बात पर कायम रहता है तो बाजार में थोड़ी मजबूती दिखनी चाहिए।'दिसंबर डिलिवरी वाले कच्चे तेल में 3.98 डॉलर या 6.3 प्रतिशत की बढ़त हुई और इसकी कीमत न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज पर 66.71 डॉलर प्रति बैरल हो गई। सिंगापुर समयानुसार दोपहर के 3.45 बजे इसकी कीमत 64.84 डॉलर प्रति बैरल थी। उल्लेखनीय है कि 11 जुलाई को तेल की कीमतें 147.27 डॉलर के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थीं। कल कच्चे तेल के वायदा मूल्यों में 49 सेंट या 0.8 प्रतिशत की कमी देखी गई और इसकी कीमत 62.73 डॉलर प्रति बैरल थी जो 16 मई 2007 के बाद की सबसे कम कीमत थी। 23 सालों के न्यूनतम मूल्यांकनों को देखकर आकर्षित हुए निवेशकों के कारण अमेरिकी शेयरों में तेजी आई और कमर्शियल पेपरों की बिक्री से संकेत मिले कि ऋण बाजार में नरमी आ रही है। डाउ जोंस इंडस्ट्रियल एवरेज ने 23 सालों में दूसरी सबसे अच्छी बढ़त दर्ज की, यह 889.35 अंक या 11 प्रतिशत चढ़ कर 9,065.12 के स्तर पर पहुंच गया। आपूर्ति में कमीजापान के सबसे बडे ज़िंस परिसंपत्ति प्रबंधक एस्टमैक्स लिमिटेड के फंड प्रबंधक तेत्सु इमोरि ने कहा, 'लोग मांग के मजबूत होने की आशा कर रहे हैं। पिछली रात एस ऐंड पी की बढ़त सकारात्मक थी, इसलिए लोगों के लिए इस कहानी पर भरोसा करना आसान था और फलस्वरूप कीमतों में तेजी आई।' फाइनैंशियल टाइम्स के अनुसार इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य की रिपोर्ट में कहा गया है कि अतिरिक्त निवेश के अभाव में वार्षिक उत्पादन में 9.1 प्रतिशत की कमी आने के आसार हैं। इसमें कहा गया है कि निवेश के बावजूद उत्पादन में सालाना 6.4 प्रतिशत की कमी आएगी। अखबार में कहा गया है कि कीमतों में गिरावट और निवेश संबंधी निर्णय लेने में होते विलंब को देखते हुए उत्पादन में यह कमी और अधिक हो सकती है। आईए की भविष्यवाणी है कि चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों की बढ़ती खपत को देखते हुए साल 2030 तक सालाना 360 अरब डॉलर के निवेश की जरूरत है। (BS Hindi)
अमेरिकी और एशियाई शेयर बाजारों में आई तेजी और ओपेक द्वारा दिसंबर से पहले की बैठक में उत्पादन में दोबारा कटौती करने पर विचार करने की घोषणा के बाद चार दिनों में पहली बार कच्चे तेल की कीमतों में बढ़त देखने को मिली।
विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जापान द्वारा ब्याज दरों में कटौती किए जाने की आशाओं के कारण एशियाई बाजार में तेजी दिखी। वेनेजुएला के तेल मंत्री रफैल रमिरेज ने कहा कि भंडार में बढोतरी को देखते हुए ओपेक 'संभवत:' कोटा में कटौती करेगा।इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की ड्राफ्ट रिपोर्ट के हवाले से फाइनैंशियल टाइम्स में छपी खबर कि कच्चे तेल के वैश्विक उत्पदन में अनुमान से अधिक तेजी से कमी आ रही है, के कारण भी तेल की कीमतों में बढ़ोतरी हुई।सिडनी स्थित कॉमनवेल्थ बैंक ऑफ ऑस्ट्रेलिया लिमिटेड के कमोडिटी स्ट्रेटजिस्ट डेविड मूर ने कहा, 'इक्विटी बाजारों में आने वाली तेजी आर्थिक समस्याओं के आसान होने की तरफ इशारा करता है और यह तेल की कीमतों के लिए समर्थनकारी है। अगर ओपेक उत्पादन में कटौती करने की बात पर कायम रहता है तो बाजार में थोड़ी मजबूती दिखनी चाहिए।'दिसंबर डिलिवरी वाले कच्चे तेल में 3.98 डॉलर या 6.3 प्रतिशत की बढ़त हुई और इसकी कीमत न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज पर 66.71 डॉलर प्रति बैरल हो गई। सिंगापुर समयानुसार दोपहर के 3.45 बजे इसकी कीमत 64.84 डॉलर प्रति बैरल थी। उल्लेखनीय है कि 11 जुलाई को तेल की कीमतें 147.27 डॉलर के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थीं। कल कच्चे तेल के वायदा मूल्यों में 49 सेंट या 0.8 प्रतिशत की कमी देखी गई और इसकी कीमत 62.73 डॉलर प्रति बैरल थी जो 16 मई 2007 के बाद की सबसे कम कीमत थी। 23 सालों के न्यूनतम मूल्यांकनों को देखकर आकर्षित हुए निवेशकों के कारण अमेरिकी शेयरों में तेजी आई और कमर्शियल पेपरों की बिक्री से संकेत मिले कि ऋण बाजार में नरमी आ रही है। डाउ जोंस इंडस्ट्रियल एवरेज ने 23 सालों में दूसरी सबसे अच्छी बढ़त दर्ज की, यह 889.35 अंक या 11 प्रतिशत चढ़ कर 9,065.12 के स्तर पर पहुंच गया। आपूर्ति में कमीजापान के सबसे बडे ज़िंस परिसंपत्ति प्रबंधक एस्टमैक्स लिमिटेड के फंड प्रबंधक तेत्सु इमोरि ने कहा, 'लोग मांग के मजबूत होने की आशा कर रहे हैं। पिछली रात एस ऐंड पी की बढ़त सकारात्मक थी, इसलिए लोगों के लिए इस कहानी पर भरोसा करना आसान था और फलस्वरूप कीमतों में तेजी आई।' फाइनैंशियल टाइम्स के अनुसार इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य की रिपोर्ट में कहा गया है कि अतिरिक्त निवेश के अभाव में वार्षिक उत्पादन में 9.1 प्रतिशत की कमी आने के आसार हैं। इसमें कहा गया है कि निवेश के बावजूद उत्पादन में सालाना 6.4 प्रतिशत की कमी आएगी। अखबार में कहा गया है कि कीमतों में गिरावट और निवेश संबंधी निर्णय लेने में होते विलंब को देखते हुए उत्पादन में यह कमी और अधिक हो सकती है। आईए की भविष्यवाणी है कि चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों की बढ़ती खपत को देखते हुए साल 2030 तक सालाना 360 अरब डॉलर के निवेश की जरूरत है। (BS Hindi)
मंदी के बावजूद कपास, चीनी व तिल में उछाल
मुंबई October 29, 2008
चौतरफा आर्थिक संकट के बीच महंगे होने से निर्यात किए जाने वाले जिंसों का प्रदर्शन बेहतर रहा है।
डॉलर की तुलना में रुपये के कमजोर होने से कपास की संकर-6 किस्म की कीमत में 18.42, चीनी में 27.19 और तिल में 87.14 फीसदी की मजबूती हुई है। इस साल की शुरुआत में कपास ने 7,958 रुपये प्रति क्विंटल के स्तर को छू लिया था। देश में कपास के रकबे में 20 फीसदी की कमी और अमेरिका में भी इसके उत्पादन घटने के अनुमानों की वजह से यह तेजी हुई थी। तब शंकर-6 किस्म के कपास के बेंचमार्क भाव 6,327 रुपये प्रति क्विंटल तक चले गए थे। इसी प्रकार, गन्ने के रकबे में बड़े पैमाने पर हुई कमी से मौजूदा सीजन में एम-30 चीनी 1,847 रुपये तक चली गई। अप्रैल में तो चीनी की कीमतों ने रिकॉर्ड बनाया था जब एक क्विंटल चीनी की कीमत 2,014 रुपये हो गई थी। एक जानकार ने बताया कि बायोडीजल के लिए गन्ने की मांग बढ़ने से चीनी की कीमतों में वृद्धि हुई थी। हालांकि आर्थिक मंदी के चलते इसकी कीमतें कम हुई हैं। इसकी प्रमुख वजह कच्चे तेल की कीमतों में खासी कमी होना भी है। एक समय तो कच्चे तेल ने 147 डॉलर प्रति बैरल की सीमा छू ली थी। ऐसी स्थिति में ज्यादातर यूरोपीय देशों और ब्राजील ने एथेनॉल उत्पादन बढ़ाने पर अपना ध्यान केंद्रित किया था। भारत भी इस भेड़चाल में शामिल हो गया जब इसने पेट्रोल में 5 फीसदी एथेनॉल मिलाने की इजाजत दे दी। फिलहाल कच्चा तेल 63 डॉलर प्रति बैरल तक गिर चुका है। ऐसे में एक बार फिर एथेनॉल उत्पादन बढ़ाने की योजना अव्यावहारिक होने के चलते ठंडे बस्ते में जा चुकी है। जानकारों के मुताबिक, मौजूदा परिस्थितियों में चीनी तैयार करना ज्यादा उचित है क्योंकि चीनी की मांग काफी बढ़ चुकी है। इस साल अनाजों के भाव में खासी बढ़ोतरी होने के चलते किसानों ने गन्ने की बजाय अनाजों को पैदा करना ज्यादा मुनासिब समझा है। वैसे भी गन्ना साल में एक बार ही उपजता है जबकि अनाज की साल में कम से कम दो उपज तो मिल ही जाती है। कपास का रकबा भी इस साल 5 फीसदी घटा है। वैसे वैश्विक रुख का अनुसरण करते हुए देश में खाद्य तेलों की कीमत में कमी हुई है। दुनिया में पाम और सोया तेल के तीन सबसे बड़े उत्पादक देशों मलयेशिया, इंडोनेशिया और अर्जेंटीना में रकबा बढ़ने से इन तेलों की कीमतों पर फर्क पड़ा है। इनकी कीमतें नीचे की ओर लुढ़की हैं।हालांकि भारतीय मुद्रा के कमजोर होने से देश में इन तेलों की कीमतें थोड़ी ही सस्ती हुई हैं। फिलहाल एक डॉलर के बदले लगभग 50 रुपये मिल रहे हैं जबकि पिछले साल इस समय एक डॉलर की कीमत महज 39.33 रुपये थी। इराक में राजनीतिक अस्थिरता और परमाणु कार्यक्रम जारी रखने को लेकर ईरान के अक्खड़ रवैये के साथ ही अमेरिकी और यूरोपीय देशों पर आर्थिक संकट के असर ने कमोडिटी बाजार को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। बहरहाल जानकारों का कहना है कि डॉलर की तुलना में रुपये में मजबूती हुई तो इसका लाभ निर्यातकों को ही मिलेगा क्योंकि सारे विदेशी अनुबंध डॉलर में ही किए जाते हैं।कीमत के लिहाज से आधारभूत और कीमती धातुओं के लिए पिछला एक साल काफी बुरा बीता। आधारभूत धातुओं की कीमतों में तो तेजी से गिरावट हुई है। साल भर पहले ज्यादातर औद्योगिक जिंसों की कीमत अपने सर्वोच्च स्तर पर चल रही थी। जानकारों के अनुसार, ऐसी हालत में कीमतों में हुई कमी कोई आश्चर्य नहीं बल्कि बहुत हद तक अनुमानित कहा जा सकता है। एक उदाहरण देखिए कि तांबे की उत्पादन लागत महज 3,000 डॉलर प्रति टन होती है पर साल भर पहले यह 7,000 डॉलर प्रति टन की दर से बिक रहा था। साल भर पहले की तुलना में अब इसमें 47 फीसदी की कमी हो गई है। फिलहाल बाजार में तांबा 3,720 डॉलर प्रति टन की दर से बिक रहा है। ठीक इसी प्रकार अल्युमीनियम की कीमत 27 फीसदी घटकर 1,876 डॉलर, जस्ता 61 फीसदी लुढ़ककर 1,062 डॉलर और सीसा 68 फीसदी कम होकर 1,140 डॉलर प्रति टन तक चली गई है। सबसे ज्यादा कमी तो निकल में हुई है जो साल भर में 73 फीसदी कम होकर 8,810 डॉलर प्रति टन तक चली गई है। हालांकि आयात पर निर्भर रहने वाले सोने की कीमत रुपये में साल भर में 14 फीसदी तेज हुई। (BS Hindi)
चौतरफा आर्थिक संकट के बीच महंगे होने से निर्यात किए जाने वाले जिंसों का प्रदर्शन बेहतर रहा है।
डॉलर की तुलना में रुपये के कमजोर होने से कपास की संकर-6 किस्म की कीमत में 18.42, चीनी में 27.19 और तिल में 87.14 फीसदी की मजबूती हुई है। इस साल की शुरुआत में कपास ने 7,958 रुपये प्रति क्विंटल के स्तर को छू लिया था। देश में कपास के रकबे में 20 फीसदी की कमी और अमेरिका में भी इसके उत्पादन घटने के अनुमानों की वजह से यह तेजी हुई थी। तब शंकर-6 किस्म के कपास के बेंचमार्क भाव 6,327 रुपये प्रति क्विंटल तक चले गए थे। इसी प्रकार, गन्ने के रकबे में बड़े पैमाने पर हुई कमी से मौजूदा सीजन में एम-30 चीनी 1,847 रुपये तक चली गई। अप्रैल में तो चीनी की कीमतों ने रिकॉर्ड बनाया था जब एक क्विंटल चीनी की कीमत 2,014 रुपये हो गई थी। एक जानकार ने बताया कि बायोडीजल के लिए गन्ने की मांग बढ़ने से चीनी की कीमतों में वृद्धि हुई थी। हालांकि आर्थिक मंदी के चलते इसकी कीमतें कम हुई हैं। इसकी प्रमुख वजह कच्चे तेल की कीमतों में खासी कमी होना भी है। एक समय तो कच्चे तेल ने 147 डॉलर प्रति बैरल की सीमा छू ली थी। ऐसी स्थिति में ज्यादातर यूरोपीय देशों और ब्राजील ने एथेनॉल उत्पादन बढ़ाने पर अपना ध्यान केंद्रित किया था। भारत भी इस भेड़चाल में शामिल हो गया जब इसने पेट्रोल में 5 फीसदी एथेनॉल मिलाने की इजाजत दे दी। फिलहाल कच्चा तेल 63 डॉलर प्रति बैरल तक गिर चुका है। ऐसे में एक बार फिर एथेनॉल उत्पादन बढ़ाने की योजना अव्यावहारिक होने के चलते ठंडे बस्ते में जा चुकी है। जानकारों के मुताबिक, मौजूदा परिस्थितियों में चीनी तैयार करना ज्यादा उचित है क्योंकि चीनी की मांग काफी बढ़ चुकी है। इस साल अनाजों के भाव में खासी बढ़ोतरी होने के चलते किसानों ने गन्ने की बजाय अनाजों को पैदा करना ज्यादा मुनासिब समझा है। वैसे भी गन्ना साल में एक बार ही उपजता है जबकि अनाज की साल में कम से कम दो उपज तो मिल ही जाती है। कपास का रकबा भी इस साल 5 फीसदी घटा है। वैसे वैश्विक रुख का अनुसरण करते हुए देश में खाद्य तेलों की कीमत में कमी हुई है। दुनिया में पाम और सोया तेल के तीन सबसे बड़े उत्पादक देशों मलयेशिया, इंडोनेशिया और अर्जेंटीना में रकबा बढ़ने से इन तेलों की कीमतों पर फर्क पड़ा है। इनकी कीमतें नीचे की ओर लुढ़की हैं।हालांकि भारतीय मुद्रा के कमजोर होने से देश में इन तेलों की कीमतें थोड़ी ही सस्ती हुई हैं। फिलहाल एक डॉलर के बदले लगभग 50 रुपये मिल रहे हैं जबकि पिछले साल इस समय एक डॉलर की कीमत महज 39.33 रुपये थी। इराक में राजनीतिक अस्थिरता और परमाणु कार्यक्रम जारी रखने को लेकर ईरान के अक्खड़ रवैये के साथ ही अमेरिकी और यूरोपीय देशों पर आर्थिक संकट के असर ने कमोडिटी बाजार को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। बहरहाल जानकारों का कहना है कि डॉलर की तुलना में रुपये में मजबूती हुई तो इसका लाभ निर्यातकों को ही मिलेगा क्योंकि सारे विदेशी अनुबंध डॉलर में ही किए जाते हैं।कीमत के लिहाज से आधारभूत और कीमती धातुओं के लिए पिछला एक साल काफी बुरा बीता। आधारभूत धातुओं की कीमतों में तो तेजी से गिरावट हुई है। साल भर पहले ज्यादातर औद्योगिक जिंसों की कीमत अपने सर्वोच्च स्तर पर चल रही थी। जानकारों के अनुसार, ऐसी हालत में कीमतों में हुई कमी कोई आश्चर्य नहीं बल्कि बहुत हद तक अनुमानित कहा जा सकता है। एक उदाहरण देखिए कि तांबे की उत्पादन लागत महज 3,000 डॉलर प्रति टन होती है पर साल भर पहले यह 7,000 डॉलर प्रति टन की दर से बिक रहा था। साल भर पहले की तुलना में अब इसमें 47 फीसदी की कमी हो गई है। फिलहाल बाजार में तांबा 3,720 डॉलर प्रति टन की दर से बिक रहा है। ठीक इसी प्रकार अल्युमीनियम की कीमत 27 फीसदी घटकर 1,876 डॉलर, जस्ता 61 फीसदी लुढ़ककर 1,062 डॉलर और सीसा 68 फीसदी कम होकर 1,140 डॉलर प्रति टन तक चली गई है। सबसे ज्यादा कमी तो निकल में हुई है जो साल भर में 73 फीसदी कम होकर 8,810 डॉलर प्रति टन तक चली गई है। हालांकि आयात पर निर्भर रहने वाले सोने की कीमत रुपये में साल भर में 14 फीसदी तेज हुई। (BS Hindi)
देर से शुरू होगी यूपी में गन्ना पेराई
नई दिल्ली October 29, 2008
उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों में गन्ने की पेराई नवंबर के तीसरे सप्ताह से शुरू होगी। इस विलंब के लिए मिलों ने गन्ने की गुणवत्ता की कमी और विशेषज्ञों ने अधिक राज्य समर्थित मूल्य को जिम्मेदार ठहराया है।
उत्तर प्रदेश चीनी मिल संघ के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा कि चीनी मिलें नवंबर के तीसरे हफ्ते से पेराई का काम शुरू करेंगी। मिलों के मुताबिक, आम तौर पर अक्टूबर में शुरू होने वाली पेराई में विलंब की मुख्य वजह गन्ने की गुणवत्ता है जो मध्य उत्तर प्रदेश में बैमौसम बारिश तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कम वर्षा के कारण प्रभावित हुई है। अधिकारी ने कहा कि गन्ने से चीनी प्राप्ति की दर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। सांविधिक न्यूनतम मूल्य अथवा समर्थित मूल्य तब भुगतान योग्य है जब गन्ने पर प्राप्ति की दर न्यूनतम नौ प्रतिशत की हो। इसका मतलब हुआ कि प्रति क्विंटल गन्ने पर कम से कम नौ किलो चीनी का उत्पादन होना चाहिए। अगर प्राप्ति की दर अधिक हो तो किसानों को गन्ने की कीमतें अच्छी मिल जाती हैं। उद्योग सूत्रों ने कहा कि चालू सत्र में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने से चीनी प्राप्ति की दर पिछले साल के मुकाबले एक से डेढ़ प्रतिशत कम होगी। 2007-08 (अक्तूबर से सितंबर) के दौरान इस क्षेत्र में प्राप्ति की दर 9 से 9.5 प्रतिशत थी। विशेषज्ञों का कहना है कि पेराई में विलंब की मुख्य वजह प्राप्ति दर नहीं बल्कि राज्य समर्थित मूल्य का अधिक यानी 140 रुपये प्रति क्विंटल होना है, जिसका निर्धारण उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किया गया है। एक प्रमुख चीनी कंपनी के अधिकारी ने बताया कि उत्तर प्रदेश की मिलों को अदालत से कुछ छूट प्राप्त होने की उम्मीद है, इसलिए वे गन्ने की पेराई में विलंब कर रही हैं। पिछले हफ्ते उद्योग सूत्रों ने कहा था कि मिलें नवंबर में उच्च न्यायालय जाएंगी जहां सरकार के राज्य समर्थित मूल्य को चुनौती दी जाएगी। (BS Hindi)
उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों में गन्ने की पेराई नवंबर के तीसरे सप्ताह से शुरू होगी। इस विलंब के लिए मिलों ने गन्ने की गुणवत्ता की कमी और विशेषज्ञों ने अधिक राज्य समर्थित मूल्य को जिम्मेदार ठहराया है।
उत्तर प्रदेश चीनी मिल संघ के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा कि चीनी मिलें नवंबर के तीसरे हफ्ते से पेराई का काम शुरू करेंगी। मिलों के मुताबिक, आम तौर पर अक्टूबर में शुरू होने वाली पेराई में विलंब की मुख्य वजह गन्ने की गुणवत्ता है जो मध्य उत्तर प्रदेश में बैमौसम बारिश तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कम वर्षा के कारण प्रभावित हुई है। अधिकारी ने कहा कि गन्ने से चीनी प्राप्ति की दर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। सांविधिक न्यूनतम मूल्य अथवा समर्थित मूल्य तब भुगतान योग्य है जब गन्ने पर प्राप्ति की दर न्यूनतम नौ प्रतिशत की हो। इसका मतलब हुआ कि प्रति क्विंटल गन्ने पर कम से कम नौ किलो चीनी का उत्पादन होना चाहिए। अगर प्राप्ति की दर अधिक हो तो किसानों को गन्ने की कीमतें अच्छी मिल जाती हैं। उद्योग सूत्रों ने कहा कि चालू सत्र में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने से चीनी प्राप्ति की दर पिछले साल के मुकाबले एक से डेढ़ प्रतिशत कम होगी। 2007-08 (अक्तूबर से सितंबर) के दौरान इस क्षेत्र में प्राप्ति की दर 9 से 9.5 प्रतिशत थी। विशेषज्ञों का कहना है कि पेराई में विलंब की मुख्य वजह प्राप्ति दर नहीं बल्कि राज्य समर्थित मूल्य का अधिक यानी 140 रुपये प्रति क्विंटल होना है, जिसका निर्धारण उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किया गया है। एक प्रमुख चीनी कंपनी के अधिकारी ने बताया कि उत्तर प्रदेश की मिलों को अदालत से कुछ छूट प्राप्त होने की उम्मीद है, इसलिए वे गन्ने की पेराई में विलंब कर रही हैं। पिछले हफ्ते उद्योग सूत्रों ने कहा था कि मिलें नवंबर में उच्च न्यायालय जाएंगी जहां सरकार के राज्य समर्थित मूल्य को चुनौती दी जाएगी। (BS Hindi)
सोना अब नहीं रहा निवेश का सुरक्षित विकल्प
मुंबई October 29, 2008
मंदी का असर सोने की कीमतों पर अब भी दिख रहा है। इसकी कीमतों में उठापटक होना अब भी जारी है। ऐसे में सोना निवेश का सुरक्षित विकल्प नहीं रह गया है।
जानकारों के मुताबिक, साल भर में पैदा हुए मुश्किल आर्थिक हालात की वजह से सोना अब सुरक्षित निवेश की कसौटियों पर खरा नहीं उतर रहा। अभी-अभी खत्म हुए संवत 2064 में आर्थिक अस्थिरता और तरलता संकट के चलते पूरी दुनिया के शेयर बाजार और वित्तीय बाजार लुढ़के हैं। ऐसे में सोने की अंतरराष्ट्रीय कीमत 14 फीसदी से ज्यादा घटी है। गौरतलब है कि संवत 2063 के दौरान सोना 42 फीसदी चढ़ा था। बीते संवत में हालात कितने मुश्किल हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2001 में जब अमेरिका पर आतंकवादी हमले हुए थे तब भी सोने में महज 5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी।1997 में जब दक्षिण एशिया की कई मुद्राओं में खासी गिरावट हुई थी तब सोना केवल 19.22 फीसदी ही गिरा था। समझा जा सकता है कि हालात तब की तुलना में कितने गंभीर हैं। वैसे डॉलर की तुलना में रुपये की कमजोरी ने हालात को थोड़ा संभाला है। गौरतलब है कि संवत 2064 में भारतीय रुपये अमेरिकी डॉलर की तुलना में करीब 27 फीसदी लुढ़का है। बीते संवत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई गिरावट के बावजूद देश में सोने की कीमत में करीब 12 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। मौजूदा परिस्थिति में एक चीज जो साफ हुई वह यह कि कठिन आर्थिक हालात में पूंजी का प्रवाह अमेरिकी डॉलर की ओर बढ़ जाता है। कोटक महिन्द्रा कैपिटल के मुख्य परिचालन अधिकारी एस. रमेश के मुताबिक, मौजूदा मुश्किल हालात को ऐतिहासिक नजरिए से देखें तो पूंजी सुरक्षित करने की भागदौड़ से डॉलर मजबूत होता है।वैसे डॉलर मजबूत होने से देश में सोने का आयात खर्च काफी बढ़ गया है। मालूम हो कि भारत पूरी दुनिया में सोने का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। देश इसकी पूर्ति के लिए पूरी तरह से आयात पर ही निर्भर है। वैसे 1997 के दक्षिण एशियाई मुद्रा संकट के समय सेंसेक्स 27.73 फीसदी चढ़ा था जबकि रुपये में केवल 1.12 फीसदी की कमी हुई। (BS Hindi)
मंदी का असर सोने की कीमतों पर अब भी दिख रहा है। इसकी कीमतों में उठापटक होना अब भी जारी है। ऐसे में सोना निवेश का सुरक्षित विकल्प नहीं रह गया है।
जानकारों के मुताबिक, साल भर में पैदा हुए मुश्किल आर्थिक हालात की वजह से सोना अब सुरक्षित निवेश की कसौटियों पर खरा नहीं उतर रहा। अभी-अभी खत्म हुए संवत 2064 में आर्थिक अस्थिरता और तरलता संकट के चलते पूरी दुनिया के शेयर बाजार और वित्तीय बाजार लुढ़के हैं। ऐसे में सोने की अंतरराष्ट्रीय कीमत 14 फीसदी से ज्यादा घटी है। गौरतलब है कि संवत 2063 के दौरान सोना 42 फीसदी चढ़ा था। बीते संवत में हालात कितने मुश्किल हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2001 में जब अमेरिका पर आतंकवादी हमले हुए थे तब भी सोने में महज 5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी।1997 में जब दक्षिण एशिया की कई मुद्राओं में खासी गिरावट हुई थी तब सोना केवल 19.22 फीसदी ही गिरा था। समझा जा सकता है कि हालात तब की तुलना में कितने गंभीर हैं। वैसे डॉलर की तुलना में रुपये की कमजोरी ने हालात को थोड़ा संभाला है। गौरतलब है कि संवत 2064 में भारतीय रुपये अमेरिकी डॉलर की तुलना में करीब 27 फीसदी लुढ़का है। बीते संवत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई गिरावट के बावजूद देश में सोने की कीमत में करीब 12 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। मौजूदा परिस्थिति में एक चीज जो साफ हुई वह यह कि कठिन आर्थिक हालात में पूंजी का प्रवाह अमेरिकी डॉलर की ओर बढ़ जाता है। कोटक महिन्द्रा कैपिटल के मुख्य परिचालन अधिकारी एस. रमेश के मुताबिक, मौजूदा मुश्किल हालात को ऐतिहासिक नजरिए से देखें तो पूंजी सुरक्षित करने की भागदौड़ से डॉलर मजबूत होता है।वैसे डॉलर मजबूत होने से देश में सोने का आयात खर्च काफी बढ़ गया है। मालूम हो कि भारत पूरी दुनिया में सोने का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। देश इसकी पूर्ति के लिए पूरी तरह से आयात पर ही निर्भर है। वैसे 1997 के दक्षिण एशियाई मुद्रा संकट के समय सेंसेक्स 27.73 फीसदी चढ़ा था जबकि रुपये में केवल 1.12 फीसदी की कमी हुई। (BS Hindi)
29 अक्तूबर 2008
भाव गिरने के बावजूद राशन पर मिलता रहेगा खाद्य तेल
खाद्य तेलों के दामों में भारी गिरावट के बावजूद सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए खाद्य तेलों के वितरण की योजना को बंद नहीं करेंगी। खाद्य तेलों के आसमान छूते दामों से उपभोक्ताओं को बचाने के लिए सरकार ने अगस्त में यह योजना शुरू की थी। अपने उच्चतम स्तर से खाद्य तेलों के दाम 75-78 फीसदी तक गिर गये हैं। नाफेड के महानिदेशक यू. के. एस. चौहान ने बताया कि इस योजना को बंद करने का फिलहाल कोई विचार नहीं है। अभी तक सरकार की ओर से इस तरह का कोई फैसला नहीं लिया गया है। योजना के अनुसार खाद्य तेलों का पीडीएस के जरिये वितरण अगले साल मार्च तक जारी रखा जायेगा। इस योजना के अनुसार केंद्र सरकार को दस लाख टन सोया और पाम तेल का वितरण आयातित दाम से पंद्रह रुपये कम दाम पर करना है। इसके लिए केंद्र सरकार की चार एजेंसियों नाफेड, एमएमटीसी, एसटीसी और पीईसी को खाद्य तेलों के आयात की जिम्मेदारी दी है। दामों में भारी गिरावट को देखते हुए राज्यों की ओर से इस योजना के अंतर्गत खाद्य तेलों की मांग नहीं हो रही है। साथ ही पहले उन्होंने जो मांग की थी, उसको भी वे नहीं ले रहे हैं।जिससे इन एजेंसियों के पास आयातित तेल का स्टॉक बढ़ गया है। इस साल मार्च में खाद्य तेलों के दाम उच्चतम स्तर पर थे। उसके बाद से वैश्विक बाजारों के साथ ही घरेलू बाजार में भी इनके दाम लगातार कम हो रहे है। इस साल मार्च में पाम तेल के दाम 1400 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गए थे जो इस समय कम होकर 280 डॉलर प्रति टन पर है। साथ ही इसी अवधि में सोया तेल के दाम 1700 डॉलर प्रति टन से कम होकर 400 डॉलर पर पहुंच गये है। इसके बावजूद सरकार इस योजना को बंद करने पर कोई विचार नहीं कर रही है। घरेलू बाजार में जारी भारी गिरावट के चलते सोयाबीन के दाम काफी कम हो गये हैं। इसी समय किसान अपनी फसल को बेचने के लिए मंडियों में आते है।इस स्थिति को देखते हुए सरकार खाद्य तेलों पर आयात शुल्क लगाने पर विचार कर रही है। इस साल अप्रैल में सरकार ने कच्चे खाद्य तेलों में आयात शुल्क को पूरी तरह समाप्त कर दिया था। साथ ही रिफाइंड खाद्य तेलों पर आयात शुल्क कम करके 7.5 फीसदी कर दिया था। दीपक इंटरप्राइजेज के मैनेजिंग पार्टनर गोविंद भाई का मानना है कि घरेलू दामों में जारी गिरावट को रोकने के लिए जरूरी है कि सरकार कम से कम चालीस फीसदी आयात शुल्क लगाए। इसके बाद ही देश में तिलहन के किसानों को बेहतर दाम मिल सकेगें। (Business Bhaskar>)
निर्यातकों की मांग बढ़ने से पूसा 1121 धान में तेजी
पूसा 1121 और सुगंध धान में निर्यातकों और स्टॉकिस्ट के साथ-साथ मिलों की अच्छी मांग होने से पिछले दस दिनों में 400-600 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी आ चुकी है। नरेला व नजफगढ़ मंडी में धान की आवक बढ़कर सवा लाख बोरी की हो गई लेकिन इसमें अच्छे माल मात्र 30-35 फीसदी ही आ रहे हैं। बेहतर माल की कमी व निर्यातकों की मांग बढ़ने से इसमें आगे भी 150-200 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी आ सकती है।चावल के व्यापारी महेंद्र जैन ने बताया कि पूसा 1121 को बासमती का दर्जा मिलने से निर्यातकों की इसमें ज्यादा दिलचस्पी देखी जा रही है।उन्होंने बताया इसके दाने की लंबाई अन्य बासमती के मुकाबले ज्यादा होने से निर्यातक इसकी खरीद ज्यादा कर रहे हैं। नरेला मंडी स्थित मैसर्स रमेश कुमार एंड कंपनी के राजेश कुमार ने बताया कि सोमवार को नरेला मंडी में धान की आवक बढ़कर एक लाख बोरी की हो गई लेकिन बढ़िया मालों की आवक कम होने से पूसा 1121 के भावों में 600 रुपये की तेजी आकर भाव 2200 से 2700 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। पूसा 1121 की आवक बढ़कर 35 हजार बोरियों की हुई। उन्होंने बताया कि निर्यातकों की अच्छी मांग के साथ ही रुपये के मुकाबले डॉलर में आई तेजी को देखते अभी इसके भावों में तेजी का रुख बरकरार रह सकता है।सुंगध धान में भी स्टॉकिस्टों की अच्छी मांग से पिछले दस दिनों में 400 रुपये की तेजी आकर भाव 1500 से 1800 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। उन्होंने कहा कि हरियाणा के कई जिलों में धान की फसल में बीमारी लगने के कारण अज्छे मालों की आवक कम हो रही है। उनका मानना है कि अगले आठ-दस दिनों में मंडी में धान की आवक में बढ़ोतरी तो होगी लेकिन निर्यातकों के साथ ही मिलों की अच्छी मांग से इसके भावों में और भी 100 से 200 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी आ सकती है।डी पी धान की आवक सोमवार को मंडी में 20 हजार बोरियों की हुई तथा इसके भाव में पिछले दस दिनों में करीब 200 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी आकर 1800 से 2200 रुपये प्रति क्विंटल क्वालिटी के अनुसार बोले गए। शरबती के भाव 1000 से 1300 रुपये और एच आर 10 के भाव 1000 से 1250 रुपये प्रति क्विंटल में पिछले दस दिनों में 50 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी देखी गई। नजफगढ़ मंडी के धान व्यापारी प्रदीप कुमार गुप्ता ने बताया कि सोमवार को मंडी में धान की आवक बढ़कर 20 से 22 हजार बोरी की हुई। उन्होंने बताया कि अच्छे मालों की कमी होने से पूसा 1121 में मिलों के साथ-साथ स्टॉकिस्टों की मांग बढ़ने से पिछले आठ-दस दिनों में 600 रुपये की तेजी आकर भाव 2200 से 2751 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। डी पी धान के भाव यहां 1900 से 2100 रुपये व एच आर 10 क्वालिटी के धान के भाव 1000 से 1250 रुपये प्रति क्विंटल बोले गए। उन्होंने बताया कि आसपास के क्षेत्रों में धान की फसल को ब्लैक व ब्राउन होपर बीमारी से नुकसान हुआ है। इसलिए बीते वर्ष के मुकाबले मंडी में कम धान आने की आशंका है। धान की सरकारी खरीद 106 लाख टन के करीब पहुंची नई दिल्ली। सरकारी धान की खरीद में इस साल इजाफा देखा जा रहा है। सरकार ने चालू खरीफ विपणन सीजन में 27 अक्टूबर तक पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले करीब 10 फीसदी अधिक धान की खरीद कर चुकी है। केन्द्रीय खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ो के अनुसार सरकारी एजेंसियों द्वारा अब तक करीब 106 लाख टन धान की खरीद हो चुकी है। जबकि पिछले साल इस अवधि के दौरान करीब 98 लाख टन धान की खरीद हो पाई थी। इस साल अब तक हुए खरीद में सबसे ज्यादा खरीद 88 लाख टन पंजाब से हुई है। इसके अलावा हरियाणा से 15 लाख टन, तमिलनाडु से 1.54 लाख टन, उत्तर प्रदेश से 27.7 हजार टन धान की खरीद हुई है। (Business Bhaskar..............R S Rana)
खाद सब्सिडी को नियंत्रित करने की तैयारी
नई दिल्ली : सरकार इस समय राजकोषीय घाटे (फिस्कल डेफिसिट) पर लगाम कसने की पुरजोर कोशिश कर रही है। इसके तहत वह आसमान चूमते फर्टिलाइजर सब्सिडी बिलों पर नियंत्रण करने में लगी हुई है, क्योंकि बढ़ते हुए राजकोषीय घाटे में फटिर्लाइजर सेक्टर का बहुत बड़ा योगदान है। दरअसल, सरकार की पूरी सब्सिडी बास्केट में पिछले 3 साल में फर्टिलाइजर सेक्टर में सब्सिडी सबसे तेज बढ़ी है। सब्सिडी बिलों पर काबू पाने के लिए सरकार ने भारत को फर्टिलाइजर बेचने वाले अंतरराष्ट्रीय विक्रेताओं को सख्त इशारा कर दिया है कि अगर उन्होंने वाजिब कीमत पर खाद नहीं दिया तो वह इस साल फर्टिलाइजर आयात नहीं करेगी। भारत यूरिया का सबसे बड़ा खरीदार है। डिपार्टमेंट ऑफ फर्टिलाइजर (डीओएफ) और वित्त मंत्रालय के चालू आकलन के मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट की वजह से खाद और कच्चे माल की कीमतों में भारी गिरावट आई है, जिसके मद्देनजर सरकार खुद 1,20,000 करोड़ रुपए के सब्सिडी बिल पर लगभग 10,000 करोड़ रुपए बचा चुकी है। इतने सब्सिडी बिल के विरुद्ध बजटीय आवंटन महज 31,000 करोड़ रुपए का है। इससे केवल जून महीने तक की खाद की जरूरत पूरी हो सकती है। हाल ही में सरकार ने एसबीआई कंसोर्टियम से ऊंची ब्याज दरों पर 22,000 करोड़ रुपए का कर्ज लिया है, जिसको कंपनियों के बकाए के हिसाब में लगाया जाएगा। दूसरे और बकायों को चुकाने के लिए इस साल आगे चल कर 14,000 करोड़ रुपए तक के और फर्टिलाइजर बॉन्ड लाने की भी योजना है। एक बड़े सरकारी अधिकारी ने बताया कि अगर अगस्त, सितंबर और अक्टूबर में कच्चे तेल की कीमतें बढ़नी बरकरार रहतीं तो चालू साल में फटिर्लाइजर सब्सिडी 1,50,000 करोड़ रुपए तक हो सकती थी। यहां यह संकेत मिलता है कि कच्चे तेल में गिरावट और खाद बाजार की मंदी से किस तरह सरकार के फर्टिलाइजर सब्सिडी बिल में फायदा हो सकता था। मध्य अगस्त से लेकर मध्य अक्टूबर तक के दो महीनों में सल्फर की कीमत लगभग 850 डॉलर प्रति टन से गिरकर 65 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गई है। सल्फर खाद बनाने में इस्तेमाल होता है। इस दौरान मध्य अक्टूबर तक के 3 महीनों में यूरिया के अंतरराष्ट्रीय दाम भी 30 फीसदी गिर कर 250 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गए हैं। इसमें 50 डॉलर प्रति टन का भाड़ा भी जोड़ दिया जाए तो यूरिया की चालू कीमत 280-300 डॉलर प्रति टन पहुंचेगी, जबकि इस साल पहले इसकी कीमत 450 डॉलर प्रति टन चल रही थी। लेकिन दिक्कत की बात कहां है? दरअसल, सरकार इस बात को लेकर आशंकित है कि पिछले सप्ताहों में रुपया जिस कदर डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ है उससे सरकार को फर्टिलाइजर सब्सिडी के मोर्चे पर जो फायदे हो सकते थे वे सब खत्म हो जाएंगे। सूत्रों का कहना है कि अगर रुपया डॉलर के मुकाबले इस रफ्तार से कमजोर नहीं होता तो साल 2008-09 में सब्सिडी बिल एक लाख करोड़ या उससे थोड़ा कम पर रुक सकते थे। (ET Hindi)
आंध्र प्रदेश में चीनी का उत्पादन घटकर आधा रहने के आसार
हैदराबाद : आंध्र प्रदेश में चीनी का उत्पादन पिछले सीजन के 14.5 लाख टन के मुकाबले इस सीजन में घटकर आधा यानी 7.5 लाख टन रह सकता है। इसकी वजह गन्ने की फसल में भारी कमी आना है। गन्ने की कमी से शुगर मिल मालिक भी परेशान हैं। गन्ना नहीं मिलने से उनका कारोबार ठप पड़ जाएगा। इस हालत में वे गन्ने की खरीद के लिए 1,100 रुपए से लेकर 1,500 रुपए टन तक का भाव देने को तैयार हैं। गन्ना उगाने के लिए किसानों से आसान शर्तों पर 10,000 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से कर्ज देने के वादे भी किए जा रहे हैं। केंद्र सरकार ने गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य 811.80 रुपए प्रति टन तय किया है। राज्य सरकार इस एसएमपी से ज्यादा भाव नहीं देती है, लेकिन इसके बदले में चीनी मालिक 65 रुपए प्रति टन के परचेज टैक्स का फायदा उन्हें देते हैं। एक सरकारी अधिकारी ने बताया कि चीनी का उत्पादन घटने से इसके दाम में कम से कम 12 फीसदी का इजाफा होना तय है। ऐसे में चीनी की कीमतें मार्च, 09 तक 16.50 रुपए किलो से बढ़कर 18.50 रुपए हो सकती हैं। गन्ने की फसल का रकबा इस साल पिछले साल के 5 लाख एकड़ के मुकाबले घटकर 3 लाख एकड़ रह गया है। अच्छी-खासी तादाद में किसानों ने ज्यादा मुनाफे वाली दूसरी वाणिज्यिक फसलों का रुख कर लिया है। आंध्रप्रदेश के शुगर कमिश्नर के लक्ष्मणरमैया ने बताया कि किसान इस समय धान, मक्का और सूरजमुखी जैसी दूसरी मुनाफे वाली फसलों की खेती की तरफ जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि गन्ने की खेती पर मजदूरी की लागत भी बढ़ी है। (ET Hindi)
मुहूर्त कारोबार में 245 रुपये चमका सोना
मुंबई : ग्लोबल हलचल की वजह से पिछले कुछ दिनों से सोने में भले ही उतार-चढ़ाव दर्ज किया जा रहा हो, पर दीवाली के मौके पर मंगलवार कारोबार के दौरान इस मेटल के दाम में चमक देखने को मिली। दीवाली के दिन शुरू हुए नए संवत साल 2065 पर सोना 245 रुपये बढ़त के साथ बंद हुआ। निवेशकों की अच्छी दिलचस्पी और विदेशी बाजारों से तेजी की खबरें सोने को चमकीला बनाने में मददगार साबित हुईं। मुहूर्त कारोबार के दौरान चांदी में भी हल्की बढ़त दर्ज की गई। मुंबई में स्टैंडर्ड गोल्ड 245 रुपये ऊपर 12,100 रुपये पर बंद हुआ। सोमवार को इसकी क्लोजिंग प्राइस 11855 रुपये रही थी। इसी तरह प्योर गोल्ड के दाम में भी 235 रुपये की तेजी दर्ज की गई और यह 12160 रुपये पर बंद हुआ। चांदी हाजिर 95 रुपये ऊपर 17,370 रुपये पर बंद हुई। सोमवार को चांदी 17,275 रुपये पर बंद हुई थी। इधर, न्यू यॉर्क में गोल्ड की फ्यूचर प्राइस में करीब 4 डॉलर की तेजी की खबरें हैं। भारतीय समय के हिसाब से 5 बजे न्यू यॉर्क में गोल्ड की फ्यूचर प्राइस 747 डॉलर पर थी। (ET Hindi)
उड़ीसा में चावल के रेकॉर्ड उत्पादन की उम्मीद
बेरहामपुर October 27, 2008
बाढ़ की विभीषिका से राज्य के 30 जिलों में से अधिकतर के प्रभावित होने के बावजूद उड़ीसा सरकार को उम्मीद है कि इस साल चावल का रेकॉर्ड उत्पादन होगा।
एक अधिकारी के मुताबिक, उड़ीसा के 30 में से 17 जिलों में लगभग तीन लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फसल बाढ़ से जहां थोड़ी प्रभावित हुई है वहीं चार लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल पानी में डूब गई। राज्य के कृषि और खाद्य उत्पादन निदेशक अरविंद कुमार पाधी ने कहा कि इस नुकसान के बावजूद उन्हें आशा है कि चावल का रिकॉर्ड उत्पादन होगा। पाधी ने कहा कि राज्य के अन्य हिस्सों में फसल की स्थिति अच्छी होने से धान की बंपर पैदावार होगी और इससे लक्ष्य प्राप्ति में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि इस खरीफ सीजन में सरकार ने लगभग 72 लाख टन का लक्ष्य निर्धारित किया था जो बाढ़ के चलते घटकर 70 लाख टन तक जा सकता है।गौरतलब है कि पिछले वित्त वर्ष में राज्य में 76.14 लाख टन चावल का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था जिसमें 68.26 लाख टन खरीफ सीजन में तथा 7.88 लाख टन रबी सीजन में पैदा किया गया। हालांकि, रिकॉर्ड उत्पादन के बावजूद उड़ीसा पैदावार के मामले में राष्ट्रीय औसत से पिछड़ा हुआ है। आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि पैदावार का राष्ट्रीय औसत 2.1 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि उड़ीसा में यह महज 1.70 टन प्रति हेक्टेयर है। उड़ीसा की 4.09 करोड़ जनता के लिए 85.67 लाख टन खाद्यान्न की जरूरत होती है। पिछले साल यहां 92.13 लाख टन खाद्यान्न पैदा हुआ था। पाधी ने बताया कि इस तरह यहां जरूरत से 6.46 लाख टन ज्यादा अनाज का उत्पादन हुआ।पाधी के मुताबिक, पिछले साल राज्य में पहली बार जरूरत से अधिक खाद्यान्न का उत्पादन हुआ। खाद्यान्नों में चावल, मक्का, गेहूं, ज्वार और छोटा बाजरा तथा दालों जैसे मूंग, कुल्थी आदि शामिल हैं। पाधी ने कहा कि कृषि और खाद्यान्नों के उत्पादन के मामले में उड़ीसा आने वाले दिनों में आत्मनिर्भर हो जाएगा। राज्य ने पहले ही प्रगतिशील कृषि नीति-2008 अपना लिया है। उन्होंने कहा कि इससे न केवल किसानों को फायदा होगा बल्कि विभिन्न फसलों के पैदावार में भी इजाफा होगा।इसके अलावा, कृषि विभाग ने राज्य में चावल का उत्पादन बढ़ाने के लिए 'सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसीफिकेशन' के अपनाए जाने पर जोर दिया है। उल्लेखनीय है कि कई राष्ट्रीय प्रायोजित योजनाएं जैसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना को विभिन्न फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए पहले ही लागू किया जा चुका है। (BS Hindi)
बाढ़ की विभीषिका से राज्य के 30 जिलों में से अधिकतर के प्रभावित होने के बावजूद उड़ीसा सरकार को उम्मीद है कि इस साल चावल का रेकॉर्ड उत्पादन होगा।
एक अधिकारी के मुताबिक, उड़ीसा के 30 में से 17 जिलों में लगभग तीन लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फसल बाढ़ से जहां थोड़ी प्रभावित हुई है वहीं चार लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल पानी में डूब गई। राज्य के कृषि और खाद्य उत्पादन निदेशक अरविंद कुमार पाधी ने कहा कि इस नुकसान के बावजूद उन्हें आशा है कि चावल का रिकॉर्ड उत्पादन होगा। पाधी ने कहा कि राज्य के अन्य हिस्सों में फसल की स्थिति अच्छी होने से धान की बंपर पैदावार होगी और इससे लक्ष्य प्राप्ति में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि इस खरीफ सीजन में सरकार ने लगभग 72 लाख टन का लक्ष्य निर्धारित किया था जो बाढ़ के चलते घटकर 70 लाख टन तक जा सकता है।गौरतलब है कि पिछले वित्त वर्ष में राज्य में 76.14 लाख टन चावल का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था जिसमें 68.26 लाख टन खरीफ सीजन में तथा 7.88 लाख टन रबी सीजन में पैदा किया गया। हालांकि, रिकॉर्ड उत्पादन के बावजूद उड़ीसा पैदावार के मामले में राष्ट्रीय औसत से पिछड़ा हुआ है। आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि पैदावार का राष्ट्रीय औसत 2.1 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि उड़ीसा में यह महज 1.70 टन प्रति हेक्टेयर है। उड़ीसा की 4.09 करोड़ जनता के लिए 85.67 लाख टन खाद्यान्न की जरूरत होती है। पिछले साल यहां 92.13 लाख टन खाद्यान्न पैदा हुआ था। पाधी ने बताया कि इस तरह यहां जरूरत से 6.46 लाख टन ज्यादा अनाज का उत्पादन हुआ।पाधी के मुताबिक, पिछले साल राज्य में पहली बार जरूरत से अधिक खाद्यान्न का उत्पादन हुआ। खाद्यान्नों में चावल, मक्का, गेहूं, ज्वार और छोटा बाजरा तथा दालों जैसे मूंग, कुल्थी आदि शामिल हैं। पाधी ने कहा कि कृषि और खाद्यान्नों के उत्पादन के मामले में उड़ीसा आने वाले दिनों में आत्मनिर्भर हो जाएगा। राज्य ने पहले ही प्रगतिशील कृषि नीति-2008 अपना लिया है। उन्होंने कहा कि इससे न केवल किसानों को फायदा होगा बल्कि विभिन्न फसलों के पैदावार में भी इजाफा होगा।इसके अलावा, कृषि विभाग ने राज्य में चावल का उत्पादन बढ़ाने के लिए 'सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसीफिकेशन' के अपनाए जाने पर जोर दिया है। उल्लेखनीय है कि कई राष्ट्रीय प्रायोजित योजनाएं जैसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना को विभिन्न फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए पहले ही लागू किया जा चुका है। (BS Hindi)
गायब हुआ मिर्च की कीमतों से तीखापन
गुंटूर October 27, 2008
उत्तर भारतीय निर्यातकों की ओर से सुस्त खरीदारी और निर्यात में कमी के चलते गुंटूर मंडी के सरकारी काउंटर पर मिर्च की कीमतों में 200 से 300 रुपये प्रति क्विंटल दर्ज की गई।
मंडी में फिलहाल 30 हजार बोरियों की रोज आवक हो रही है। हालांकि किसानों को उम्मीद है कि दिवाली के बाद उन्हें मिर्च की अच्छी कीमत मिल सकेगी।अभी गैर-कोल्ड स्टोरज वाली सामान्य मिर्च की कीमत जहां 3,400 से 5,700 रुपये प्रति क्विंटल चल रही है, वहीं कोल्ड स्टोरेज वाली बेहतरीन मिर्च 5,900 से 7,400 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिक रही है। टालू मिर्च के भाव 800 से 1,500 रुपये प्रति क्विंटल पर चल रहे हैं। कारोबारियों ने बताया कि खाड़ी देशों से बढ़ती मांग के चलते तमिलनाडु के कारोबारियों ने मिर्च की जोरदारी खरीदारी की।दूसरी किस्मों में, बड़ीगी मिर्च की कीमत 7,000 से 7,400 रुपये, तेजा 7,000 से 7,300 और नंबर-5 की कीमत 6,000 से 6,400 रुपये प्रति क्विंटल के आसपास चल रही है। वैसे 275 नंबर की कीमत 6,000 से 6,300 रुपये और 334 नंबर की 5,800 से 6,000 रुपये के आसपास चल रही है। कारोबारियों ने बताया कि 25 से 35 लाख मिर्च की बोरियां कोल्ड स्टोरज में पड़ी हैं। किसानों और कारोबारियों का कहना है कि मंडियों में मिर्च लाने की उन्हें कोई जल्दबाजी नहीं है। (BS Hindi)
उत्तर भारतीय निर्यातकों की ओर से सुस्त खरीदारी और निर्यात में कमी के चलते गुंटूर मंडी के सरकारी काउंटर पर मिर्च की कीमतों में 200 से 300 रुपये प्रति क्विंटल दर्ज की गई।
मंडी में फिलहाल 30 हजार बोरियों की रोज आवक हो रही है। हालांकि किसानों को उम्मीद है कि दिवाली के बाद उन्हें मिर्च की अच्छी कीमत मिल सकेगी।अभी गैर-कोल्ड स्टोरज वाली सामान्य मिर्च की कीमत जहां 3,400 से 5,700 रुपये प्रति क्विंटल चल रही है, वहीं कोल्ड स्टोरेज वाली बेहतरीन मिर्च 5,900 से 7,400 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिक रही है। टालू मिर्च के भाव 800 से 1,500 रुपये प्रति क्विंटल पर चल रहे हैं। कारोबारियों ने बताया कि खाड़ी देशों से बढ़ती मांग के चलते तमिलनाडु के कारोबारियों ने मिर्च की जोरदारी खरीदारी की।दूसरी किस्मों में, बड़ीगी मिर्च की कीमत 7,000 से 7,400 रुपये, तेजा 7,000 से 7,300 और नंबर-5 की कीमत 6,000 से 6,400 रुपये प्रति क्विंटल के आसपास चल रही है। वैसे 275 नंबर की कीमत 6,000 से 6,300 रुपये और 334 नंबर की 5,800 से 6,000 रुपये के आसपास चल रही है। कारोबारियों ने बताया कि 25 से 35 लाख मिर्च की बोरियां कोल्ड स्टोरज में पड़ी हैं। किसानों और कारोबारियों का कहना है कि मंडियों में मिर्च लाने की उन्हें कोई जल्दबाजी नहीं है। (BS Hindi)
कपास का भंडार कुछ समय तक बनाए रखें किसान : वाघेला
अहमदाबाद October 27, 2008
केंद्रीय कपड़ा मंत्री शंकरसिंह वाघेला को उम्मीद है कि कपड़ा उद्योग में कुछ महीने के भीतर तेजी आएगी।
ऐसे में उन्होंने किसानों को सुझाव दिया है कि वे जनवरी 2008 तक कपास का भंडार बनाए रखें। अहमदाबाद में एक कार्यक्रम में वाघेला ने कहा कि इस बार भारतीय कपास निगम (सीसीआई) अब तक के सर्वाधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से कपास की खरीदारी कर सकती है। ऐसे में बेहतर होगा कि अच्छी कीमतें प्राप्त करने के लिए किसान कपास का भंडार जनवरी 2009 तक सुरक्षित बनाए रखें।वाघेला ने कहा कि मेरी किसानों से अपील है कि वे कुछ महीनें और इंतजार करें ताकि उद्योग के संतुलित होने के बाद सीसीआई और बाजार से उत्पादों की अच्छी कीमतें मिल सकें।उन्होंने कहा कि हमारा विश्वास है कि जनवरी 2009 में कपास की कीमतों में बढ़ोतरी होगी। वाघेला ने स्वीकार किया कि वैश्विक मंदी खास तौर से पश्चिमी देशों की मंदी का कपड़ा उद्योग पर प्रभाव पड़ा है। वाघेला ने बताया कि आर्थिक मंदी से निर्यात भी प्रभावित हुआ है। वाघेला के मुताबिक, वैश्विक आर्थिक मंदी के बीच पश्चिमी देशों के वस्त्र और परिधानों के आयात में कमी हुई है। इस कारण भारत से होने वाले निर्यात में पिछले कुछ समय से कमी देखने को मिली है।खैर ऐसी स्थिति छह महीने से ज्यादा नहीं चलेगी और बहुत जल्द बाजार में मजबूती आएगी। ऐसे में कपास का निर्यात भी बढ़ने की संभावना है।पश्चिमी देशों की ओर से मांग कम होने के बारे में वाघेला ने कहा कि पिछले दिनों में कोई नया डिजाइन तैयार नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, 'पश्चिमी देशों का कम आयात ही नहीं बल्कि नये डिजाइनों की मांग का न होना भी हमारे लिए चिंता का सबब है।' साल 2007-08 में देश में 315 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था जबकि उम्मीद है कि 2008-09 में कपास के 330 लाख गांठों का उत्पादन होगा। पिछले साल की उत्पादकता 300 से 400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी जबकि इस वर्ष उत्पादकता का राष्ट्रीय औसत 600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा है। गुजरात में तो कपास की उत्पादकता 750 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रही है। (BS Hindi)
केंद्रीय कपड़ा मंत्री शंकरसिंह वाघेला को उम्मीद है कि कपड़ा उद्योग में कुछ महीने के भीतर तेजी आएगी।
ऐसे में उन्होंने किसानों को सुझाव दिया है कि वे जनवरी 2008 तक कपास का भंडार बनाए रखें। अहमदाबाद में एक कार्यक्रम में वाघेला ने कहा कि इस बार भारतीय कपास निगम (सीसीआई) अब तक के सर्वाधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से कपास की खरीदारी कर सकती है। ऐसे में बेहतर होगा कि अच्छी कीमतें प्राप्त करने के लिए किसान कपास का भंडार जनवरी 2009 तक सुरक्षित बनाए रखें।वाघेला ने कहा कि मेरी किसानों से अपील है कि वे कुछ महीनें और इंतजार करें ताकि उद्योग के संतुलित होने के बाद सीसीआई और बाजार से उत्पादों की अच्छी कीमतें मिल सकें।उन्होंने कहा कि हमारा विश्वास है कि जनवरी 2009 में कपास की कीमतों में बढ़ोतरी होगी। वाघेला ने स्वीकार किया कि वैश्विक मंदी खास तौर से पश्चिमी देशों की मंदी का कपड़ा उद्योग पर प्रभाव पड़ा है। वाघेला ने बताया कि आर्थिक मंदी से निर्यात भी प्रभावित हुआ है। वाघेला के मुताबिक, वैश्विक आर्थिक मंदी के बीच पश्चिमी देशों के वस्त्र और परिधानों के आयात में कमी हुई है। इस कारण भारत से होने वाले निर्यात में पिछले कुछ समय से कमी देखने को मिली है।खैर ऐसी स्थिति छह महीने से ज्यादा नहीं चलेगी और बहुत जल्द बाजार में मजबूती आएगी। ऐसे में कपास का निर्यात भी बढ़ने की संभावना है।पश्चिमी देशों की ओर से मांग कम होने के बारे में वाघेला ने कहा कि पिछले दिनों में कोई नया डिजाइन तैयार नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, 'पश्चिमी देशों का कम आयात ही नहीं बल्कि नये डिजाइनों की मांग का न होना भी हमारे लिए चिंता का सबब है।' साल 2007-08 में देश में 315 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था जबकि उम्मीद है कि 2008-09 में कपास के 330 लाख गांठों का उत्पादन होगा। पिछले साल की उत्पादकता 300 से 400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी जबकि इस वर्ष उत्पादकता का राष्ट्रीय औसत 600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा है। गुजरात में तो कपास की उत्पादकता 750 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रही है। (BS Hindi)
17 महीने के न्यूनतम स्तर पर पहुंचा कच्चा तेल
सिंगापुर October 27, 2008
एशियाई बाजार में आज तेल की कीमतें कम होकर 17 महीने के न्यूनतम स्तर 63 डॉलर प्रति बैरल पर आ गईं।
गंभीर वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण कच्चे तेल की मांग कम होने की संभावनाओं को देखते हुए शुक्रवार को ऑर्गेनाइजेशन ऑफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज (ओपेक) द्वारा कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती की घोषणा की गई थी और निवेशकों ने भी इसे गंभीरता से लिया है। दिसंबर डिलिवरी वाले लाइट स्वीट क्रूड की कीमतों में 32 सेंट की गिरावट आई और न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज पर इसकी कीमतें 63.83 डॉलर प्रति बैरल रही।निवेशकों ने दैनिक उत्पादन में 15 लाख बैरल की कटौती की ओपेक द्वारा की गई घोषणा को तवज्जो नहीं दी है, उनका ध्यान विश्व भर की अर्थव्यवस्था पर ऋण संकट के प्रभावों के कारण कच्चे तेल की कम होती कीमतों पर अधिक है। शुक्रवार को तेल की कीमतों में 3.69 डॉलर प्रति बैरल की गिरावट दर्ज की गई और यह 64.15 डॉलर प्रति बैरल पर बंद हुआ। 11 जुलाई की रेकॉर्ड 147.27 डॉलर प्रति बैरल की कीमत से अभी तक 57 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।सिडनी स्थित कॉमनवेल्थ बैंक ऑफ ऑस्ट्रेलिया के कमोडिटी स्टे्रटजिस्ट डेविड मूर ने कहा, 'बाजार का मूड नकारात्मक है और यह अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्यों से संबंधित चिंताओं को प्रदर्शित करता है। अगर आगे भी यूरोप या अमेरिका से कमजोर आर्थिक आंकड़े ही प्राप्त हुए तो कीमतों पर दबाव और बढ़ेगा और उनमें कमी हो सकती है।'इरान में ओपेक के गवर्नर मोहम्मद अली खतिबी ने कल कहा कि कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती पर दिसंबर में अल्जीयर्स में होन वाली अगली बैठक में 'विचार किया जाएगा'। अगर आवश्यक हुआ तो ओपेक की यह बैठक पहले भी बुलाई जा सकती है।मूर ने कहा, 'मेरा खयाल है कि ओपेक ने परिस्थितियों को देखते हुए बेहतर निर्णय लिया है, लेकिन प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के मंदी की चपेट में आने की संभावनाएं अभी भी प्रबल हैं। ओपेक द्वारा उत्पादन में कटौती के लिए उठाया गया कदम बाजार की सुधार की दिशा में है।' (BS Hindi)
एशियाई बाजार में आज तेल की कीमतें कम होकर 17 महीने के न्यूनतम स्तर 63 डॉलर प्रति बैरल पर आ गईं।
गंभीर वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण कच्चे तेल की मांग कम होने की संभावनाओं को देखते हुए शुक्रवार को ऑर्गेनाइजेशन ऑफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज (ओपेक) द्वारा कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती की घोषणा की गई थी और निवेशकों ने भी इसे गंभीरता से लिया है। दिसंबर डिलिवरी वाले लाइट स्वीट क्रूड की कीमतों में 32 सेंट की गिरावट आई और न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज पर इसकी कीमतें 63.83 डॉलर प्रति बैरल रही।निवेशकों ने दैनिक उत्पादन में 15 लाख बैरल की कटौती की ओपेक द्वारा की गई घोषणा को तवज्जो नहीं दी है, उनका ध्यान विश्व भर की अर्थव्यवस्था पर ऋण संकट के प्रभावों के कारण कच्चे तेल की कम होती कीमतों पर अधिक है। शुक्रवार को तेल की कीमतों में 3.69 डॉलर प्रति बैरल की गिरावट दर्ज की गई और यह 64.15 डॉलर प्रति बैरल पर बंद हुआ। 11 जुलाई की रेकॉर्ड 147.27 डॉलर प्रति बैरल की कीमत से अभी तक 57 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।सिडनी स्थित कॉमनवेल्थ बैंक ऑफ ऑस्ट्रेलिया के कमोडिटी स्टे्रटजिस्ट डेविड मूर ने कहा, 'बाजार का मूड नकारात्मक है और यह अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्यों से संबंधित चिंताओं को प्रदर्शित करता है। अगर आगे भी यूरोप या अमेरिका से कमजोर आर्थिक आंकड़े ही प्राप्त हुए तो कीमतों पर दबाव और बढ़ेगा और उनमें कमी हो सकती है।'इरान में ओपेक के गवर्नर मोहम्मद अली खतिबी ने कल कहा कि कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती पर दिसंबर में अल्जीयर्स में होन वाली अगली बैठक में 'विचार किया जाएगा'। अगर आवश्यक हुआ तो ओपेक की यह बैठक पहले भी बुलाई जा सकती है।मूर ने कहा, 'मेरा खयाल है कि ओपेक ने परिस्थितियों को देखते हुए बेहतर निर्णय लिया है, लेकिन प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के मंदी की चपेट में आने की संभावनाएं अभी भी प्रबल हैं। ओपेक द्वारा उत्पादन में कटौती के लिए उठाया गया कदम बाजार की सुधार की दिशा में है।' (BS Hindi)
कपास किसानों के हिस्से में हताशा
नई दिल्ली October 27, 2008
कपास और सोयाबीन के किसान उम्मीद के मुताबिक कीमत न मिलने से काफी हताश और परेशान हैं।
अब जबकि सोयाबीन और कपास दोनों की नई फसल मंडी में आनी शुरू हो गई है तब उत्पादकों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम कीमत पर कपास बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है। सोयाबीन किसानों की हालत भी कुछ ऐसी है। इस बार बेहतर उत्पादन और अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोयाबीन की कीमतें घटने से इस बात की पूरी आशंका है कि सोयाबीन उत्पादकों को फसल की बेहतर कीमत नहीं मिल पाएगी।बाजार सूत्रों के मुताबिक, पंजाब की मंडियों में कपास की आवक शुरू हो गई है। फिलहाल यहां कपास 2,600 से 2,700 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिक रहा है। मालूम हो कि इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 2800 रुपये प्रति क्विंटल है। वैसे देखा जाए तो पिछले साल की तुलना में कपास का मौजूदा बाजार भाव करीब 500 रुपये ज्यादा है। पिछले साल इस समय कपास का बाजार भाव 2100-2200 रुपये प्रति क्विंटल था। कपास की नई फसल की आवक शुरू होते ही अंतरराष्ट्रीय बाजार की हालत और भी खराब हो गई है। इस बार कपड़ों के निर्यात में 10 फीसदी की कमी होने से कपास की मांग भी जस की तस बनी हुई है।उल्लेखनीय है कि किसान जिस समय कपास की बुआई कर रहे थे उस समय इस बात के कयास थे कि इस साल कपास की बिक्री की शुरुआत ही 3,500 रुपये प्रति क्विंटल की दर से होगी। लेकिन ये कयास अब गलत साबित हो रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कपास की मांग इस तरह घटी कि इसकी कीमत महज 2,600 से 2,700 रुपये प्रति क्विंटल के रेंज में चल रहे हैं। पिछले साल कपास की एमएसपी 1,950 रुपये प्रति क्विंटल थी, लेकिन चीन और अमेरिका का बाजार तेज होने से कपास की कीमतें जुलाई में 5,000 रुपये प्रति क्विंटल को भी पार कर गई।हालत तो ऐसी हो गई थी कि कपड़ा कारोबारी संघों ने कपास निर्यात पर पाबंदी की मांग करने लगे। कमोबेश यही हाल सोयाबीन का है। सोयाबीन की नई फसल की कीमत इन दिनों 1500-1600 रुपये प्रति क्विंटल पर है। पिछले साल की समान अवधि में सोयाबीन लगभग 2,000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचा जा रहा था। सूत्रों के मुताबिक, सोयाबीन की कीमत में तेजी की संभावना इसलिए भी नहीं है कि फिलहाल पाम तेल जमीन पर है। दो माह पहले 55-60 रुपये प्रति किलोग्राम तक बिकने वाला पाम तेल फिलहाल 36-37 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव बिक रहा है। दूसरी बात कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत लगातार कम हो रही है। इससे भी सोयाबीन को कोई समर्थन नहीं मिल रहा है। वैसे इस साल देश में सोयाबीन का उत्पादन भी पिछले साल की तुलना में ज्यादा है। तेल कारोबारियों के मुताबिक, सोयाबीन की कीमत में तेजी तभी आएगी जब कच्चे तेल के साथ पाम तेल में भी तेजी आए। (BS Hindi)
कपास और सोयाबीन के किसान उम्मीद के मुताबिक कीमत न मिलने से काफी हताश और परेशान हैं।
अब जबकि सोयाबीन और कपास दोनों की नई फसल मंडी में आनी शुरू हो गई है तब उत्पादकों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम कीमत पर कपास बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है। सोयाबीन किसानों की हालत भी कुछ ऐसी है। इस बार बेहतर उत्पादन और अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोयाबीन की कीमतें घटने से इस बात की पूरी आशंका है कि सोयाबीन उत्पादकों को फसल की बेहतर कीमत नहीं मिल पाएगी।बाजार सूत्रों के मुताबिक, पंजाब की मंडियों में कपास की आवक शुरू हो गई है। फिलहाल यहां कपास 2,600 से 2,700 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिक रहा है। मालूम हो कि इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 2800 रुपये प्रति क्विंटल है। वैसे देखा जाए तो पिछले साल की तुलना में कपास का मौजूदा बाजार भाव करीब 500 रुपये ज्यादा है। पिछले साल इस समय कपास का बाजार भाव 2100-2200 रुपये प्रति क्विंटल था। कपास की नई फसल की आवक शुरू होते ही अंतरराष्ट्रीय बाजार की हालत और भी खराब हो गई है। इस बार कपड़ों के निर्यात में 10 फीसदी की कमी होने से कपास की मांग भी जस की तस बनी हुई है।उल्लेखनीय है कि किसान जिस समय कपास की बुआई कर रहे थे उस समय इस बात के कयास थे कि इस साल कपास की बिक्री की शुरुआत ही 3,500 रुपये प्रति क्विंटल की दर से होगी। लेकिन ये कयास अब गलत साबित हो रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कपास की मांग इस तरह घटी कि इसकी कीमत महज 2,600 से 2,700 रुपये प्रति क्विंटल के रेंज में चल रहे हैं। पिछले साल कपास की एमएसपी 1,950 रुपये प्रति क्विंटल थी, लेकिन चीन और अमेरिका का बाजार तेज होने से कपास की कीमतें जुलाई में 5,000 रुपये प्रति क्विंटल को भी पार कर गई।हालत तो ऐसी हो गई थी कि कपड़ा कारोबारी संघों ने कपास निर्यात पर पाबंदी की मांग करने लगे। कमोबेश यही हाल सोयाबीन का है। सोयाबीन की नई फसल की कीमत इन दिनों 1500-1600 रुपये प्रति क्विंटल पर है। पिछले साल की समान अवधि में सोयाबीन लगभग 2,000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचा जा रहा था। सूत्रों के मुताबिक, सोयाबीन की कीमत में तेजी की संभावना इसलिए भी नहीं है कि फिलहाल पाम तेल जमीन पर है। दो माह पहले 55-60 रुपये प्रति किलोग्राम तक बिकने वाला पाम तेल फिलहाल 36-37 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव बिक रहा है। दूसरी बात कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत लगातार कम हो रही है। इससे भी सोयाबीन को कोई समर्थन नहीं मिल रहा है। वैसे इस साल देश में सोयाबीन का उत्पादन भी पिछले साल की तुलना में ज्यादा है। तेल कारोबारियों के मुताबिक, सोयाबीन की कीमत में तेजी तभी आएगी जब कच्चे तेल के साथ पाम तेल में भी तेजी आए। (BS Hindi)
फिर कसैला होगा गन्ना?
लखनऊ October 27, 2008
उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार की ओर से तय गन्ने की कीमत पर एक बार फिर विवाद खड़ा होता नजर आ रहा है।
राज्य समर्थित मूल्य (एसएपी) के विरूद्ध उत्तर प्रदेश शुगरकेन फेडरेशन ने उच्चतम न्यायालय के साथ-साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ बेंच में कैविएट याचिका दायर की है। उल्लेखनीय है राज्य सरकार की ओर से 18 अक्टूबर को गन्ने के समर्थन मूल्य में रिकॉर्ड 15 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की घोषणा की गई है।राज्य सरकार ने वर्ष 2008-09 पेराई सत्र के लिए निम् गुणवत्ता वाले गन्ने की कीमत 137.50 रुपये प्रति क्विंटल, जबकि सामान्य किस्म की 140 रुपये प्रति क्विंटल और अगौती किस्म के लिए 145 रुपये प्रति क्विंटल कीमत तय की है। पिछले वर्ष सामान्य किस्म के गन्ने की कीमत 125 रुपये प्रति क्विंटल थी। गन्ने की कीमत में अब तक सबसे ज्यादा बढ़ोतरी करीब 12 रुपये प्रति क्विंटल वर्ष 2004-05 में की गई थी।उधर, चीनी मिलों की ओर से भी राज्य समर्थित मूल्य का विरोध किया जा रहा है। उनका कहना है कि मिलें 112 रुपये प्रति क्विंटल कीमत देने को तैयार हैं।इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के सचिव सी.बी. पटौदिया ने बताया कि घरेलू चीनी उद्योग संकट के दौर से गुजर रहा है और मिलें गन्ने की इतनी ज्यादा कीमत देने में सक्षम नहीं हैं। चीनी उद्योग गन्ने की ऊंची कीमत देने का विरोध नहीं कर रहा है, लेकिन सरकार को इसके लिए 15 रुपये प्रति क्विंटल सब्सिडी देनी चाहिए। (BS Hindi)
उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार की ओर से तय गन्ने की कीमत पर एक बार फिर विवाद खड़ा होता नजर आ रहा है।
राज्य समर्थित मूल्य (एसएपी) के विरूद्ध उत्तर प्रदेश शुगरकेन फेडरेशन ने उच्चतम न्यायालय के साथ-साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ बेंच में कैविएट याचिका दायर की है। उल्लेखनीय है राज्य सरकार की ओर से 18 अक्टूबर को गन्ने के समर्थन मूल्य में रिकॉर्ड 15 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की घोषणा की गई है।राज्य सरकार ने वर्ष 2008-09 पेराई सत्र के लिए निम् गुणवत्ता वाले गन्ने की कीमत 137.50 रुपये प्रति क्विंटल, जबकि सामान्य किस्म की 140 रुपये प्रति क्विंटल और अगौती किस्म के लिए 145 रुपये प्रति क्विंटल कीमत तय की है। पिछले वर्ष सामान्य किस्म के गन्ने की कीमत 125 रुपये प्रति क्विंटल थी। गन्ने की कीमत में अब तक सबसे ज्यादा बढ़ोतरी करीब 12 रुपये प्रति क्विंटल वर्ष 2004-05 में की गई थी।उधर, चीनी मिलों की ओर से भी राज्य समर्थित मूल्य का विरोध किया जा रहा है। उनका कहना है कि मिलें 112 रुपये प्रति क्विंटल कीमत देने को तैयार हैं।इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के सचिव सी.बी. पटौदिया ने बताया कि घरेलू चीनी उद्योग संकट के दौर से गुजर रहा है और मिलें गन्ने की इतनी ज्यादा कीमत देने में सक्षम नहीं हैं। चीनी उद्योग गन्ने की ऊंची कीमत देने का विरोध नहीं कर रहा है, लेकिन सरकार को इसके लिए 15 रुपये प्रति क्विंटल सब्सिडी देनी चाहिए। (BS Hindi)
सोने की झालर से चमचमा उठे बाजार
मुंबई October 27, 2008
दुनिया भर में भले ही मंदी छाई हो, लेकिन भारत में सोने के प्रति लोगों की दीवानगी अब भी बरकरार है।
इसका पता धनतेरस के दिन हुई सोने की खरीदारी से चलता है। इस दिन लोग पारंपरिक तौर से बहुमूल्य धातुएं खरीदते हैं और इस साल तो सोने की खरीद ने रिकॉर्ड कायम कर दिया। इस दिन देशभर में करीब 90 टन सोने की बिक्री हुई, जबकि पिछले साल धनतेरस के दिन करीब 60 टन सोने की बिक्री हुई थी। वर्ल्ड गोल्ड कांउसिल के प्रबंध निदेशक (भारतीय उपमहाद्वीप) अजय मित्रा का कहना है कि धनतेरस के दिन बेचे गए कुल सोने की मात्रा का अभी ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है, लेकिन इतना तय है कि इस साल लोगों ने सोने की जमकर खरीदारी की है, जो पिछले साल से कहीं ज्यादा है।उन्होंने बताया कि एचडीएफसी बैंक ने इस बार सोने की बिक्री में रिकॉर्ड कायम किया है। हाल ही में इंडिया पोस्ट की ओर से शुरू की गई सोने की बिक्री में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है। पहले जहां इसके जरिए रोजाना एक किलो सोने की बिक्री होती थी, वहीं यह बढ़कर 9 किलो रोजाना हो गई है।मित्रा ने उम्मीद जताई कि सितंबर से दिसंबर तिमाही के दौरान सोने के आयात में तेजी आएगी और यह 108 टन तक पहुंचने का अनुमान है, जबकि पिछले साल इस अवधि में 54 टन सोना आयात किया गया था। उन्होंने बताया कि वित्तीय बाजार की अनिश्चितता की वजह से लोग सोने की ओर आकर्षित हुए हैं। ऑल इंडिया जेम्स एंड ज्वेलरी ट्रेड फेडरेशन के चेयरमैन अशोक मीनावाला का कहना है कि जहां शेयर बाजार और अन्य संपत्तियों में निवेश से लोगों को नुकसान हो रहा है, वहीं सोने ने 11 से 12 फीसदी तक रिटर्न दिया है। यही वजह है कि लोग सोने में निवेश कर रहे हैं। रुपये और डॉलर में उतार-चढ़ाव की वजह से भी निवेशक इसे हेज फंड के तौर पर देख रहे हैं।पुष्पक बुलियन प्राइवेट लिमिटेड के केतन श्रॉफ का कहना है कि त्योहारी मौसम में सोने की कीमतों में आई गिरावट की वजह से भी लोगों ने इसमें भारी निवेश किया है।14,105 रुपये प्रति दस ग्राम की रिकॉर्ड कीमत पर पहुंचने के बाद 10 अक्टूबर को सोने की कीमत गिरकर 12,030 रुपये प्रति दस ग्राम रह गई। इसकी वजह से भी लोगों ने इसकी खरीदारी की है। उन्हें उम्मीद है कि हाल के दिनों में सोने की कीमतों में और इजाफा होगा। मुंबई के विपुल ज्वेलर्स के विपुल सोनी ने बताया कि इस बार सोने के बिस्कुट और सिक्के की मांग आपूर्ति की तुलना में दोगुनी रही। इसकी वजह से कई ग्राहकों को खाली हाथ लौटना पड़ा, वहीं कुछ ग्राहकों को मंगलवार को इसकी आपूर्ति करने का वादा किया गया।सोने की बिक्री में 50 फीसदी का उछालधनतेरस के दिन 90 टन सोने की हुई बिक्रीआपूर्ति की तुलना में मांग अधिक होने से कई खरीदारों को लौटना पड़ा खाली हाथ (BS Hindi)
दुनिया भर में भले ही मंदी छाई हो, लेकिन भारत में सोने के प्रति लोगों की दीवानगी अब भी बरकरार है।
इसका पता धनतेरस के दिन हुई सोने की खरीदारी से चलता है। इस दिन लोग पारंपरिक तौर से बहुमूल्य धातुएं खरीदते हैं और इस साल तो सोने की खरीद ने रिकॉर्ड कायम कर दिया। इस दिन देशभर में करीब 90 टन सोने की बिक्री हुई, जबकि पिछले साल धनतेरस के दिन करीब 60 टन सोने की बिक्री हुई थी। वर्ल्ड गोल्ड कांउसिल के प्रबंध निदेशक (भारतीय उपमहाद्वीप) अजय मित्रा का कहना है कि धनतेरस के दिन बेचे गए कुल सोने की मात्रा का अभी ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है, लेकिन इतना तय है कि इस साल लोगों ने सोने की जमकर खरीदारी की है, जो पिछले साल से कहीं ज्यादा है।उन्होंने बताया कि एचडीएफसी बैंक ने इस बार सोने की बिक्री में रिकॉर्ड कायम किया है। हाल ही में इंडिया पोस्ट की ओर से शुरू की गई सोने की बिक्री में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है। पहले जहां इसके जरिए रोजाना एक किलो सोने की बिक्री होती थी, वहीं यह बढ़कर 9 किलो रोजाना हो गई है।मित्रा ने उम्मीद जताई कि सितंबर से दिसंबर तिमाही के दौरान सोने के आयात में तेजी आएगी और यह 108 टन तक पहुंचने का अनुमान है, जबकि पिछले साल इस अवधि में 54 टन सोना आयात किया गया था। उन्होंने बताया कि वित्तीय बाजार की अनिश्चितता की वजह से लोग सोने की ओर आकर्षित हुए हैं। ऑल इंडिया जेम्स एंड ज्वेलरी ट्रेड फेडरेशन के चेयरमैन अशोक मीनावाला का कहना है कि जहां शेयर बाजार और अन्य संपत्तियों में निवेश से लोगों को नुकसान हो रहा है, वहीं सोने ने 11 से 12 फीसदी तक रिटर्न दिया है। यही वजह है कि लोग सोने में निवेश कर रहे हैं। रुपये और डॉलर में उतार-चढ़ाव की वजह से भी निवेशक इसे हेज फंड के तौर पर देख रहे हैं।पुष्पक बुलियन प्राइवेट लिमिटेड के केतन श्रॉफ का कहना है कि त्योहारी मौसम में सोने की कीमतों में आई गिरावट की वजह से भी लोगों ने इसमें भारी निवेश किया है।14,105 रुपये प्रति दस ग्राम की रिकॉर्ड कीमत पर पहुंचने के बाद 10 अक्टूबर को सोने की कीमत गिरकर 12,030 रुपये प्रति दस ग्राम रह गई। इसकी वजह से भी लोगों ने इसकी खरीदारी की है। उन्हें उम्मीद है कि हाल के दिनों में सोने की कीमतों में और इजाफा होगा। मुंबई के विपुल ज्वेलर्स के विपुल सोनी ने बताया कि इस बार सोने के बिस्कुट और सिक्के की मांग आपूर्ति की तुलना में दोगुनी रही। इसकी वजह से कई ग्राहकों को खाली हाथ लौटना पड़ा, वहीं कुछ ग्राहकों को मंगलवार को इसकी आपूर्ति करने का वादा किया गया।सोने की बिक्री में 50 फीसदी का उछालधनतेरस के दिन 90 टन सोने की हुई बिक्रीआपूर्ति की तुलना में मांग अधिक होने से कई खरीदारों को लौटना पड़ा खाली हाथ (BS Hindi)
विदेशी बाजार के उलट भारतीय चाय में तेजी
कोलकाता October 27, 2008
वैश्विक अर्थव्यवस्था में अधिकांश सेक्टर का रुख अपने सहयोगियों की गतिविधियों पर निर्भर करता है, लेकिन भारतीय चाय उद्योग इसका अपवाद बनता दिख रहा है।
पूरी दुनिया में चाय की कीमतों में कमी हो रही है पर भारतीय चाय में तेजी लगातार तेजी हो रही है। ऐसा चाय की घरेलू मांग में जोरदार बढ़ोतरी के चलते हो रहा है। मालमू हो कि चाय उत्पादन में भारत के प्रतिद्वंद्वी रहे श्रीलंका और कई अफ्रीकी देशों में चाय की कीमतें लगातार नीचे की ओर जा रही हैं। भारतीय चाय उद्योग के अध्यक्ष आदित्य खेतान के मुताबिक, सितंबर महीने में चाय ने 101.83 रुपये प्रति किलो के स्तर को छू लिया जो पिछले साल की समान अवधि में 67.48 रुपये प्रति किलो पर थी। खेतान ने कहा कि हालांकि अभी चाय अपने रिकॉर्ड स्तर से नीचे उतर आया है। लेकिन उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इसमें एक बार फिर तेजी आएगी। उन्होंने आगे कहा कि चाय की खपत में होने वाली यह बढ़ोतरी घरेलू मांग के चलते होगी। खेतान ने कहा कि खराब मौसम के चलते इस बार चाय का उत्पादन पिछले साल से कम रहने की उम्मीद है। गौरतलब है कि असम के ऊपरी इलाकों में पहले ही चाय का उत्पादन गिर चुका है। खेतान ने यह भी कहा कि रूस और पाकिस्तान जैसे चाय आयातक देशों की आर्थिक स्थिति खराब होने और कच्चे तेल की कीमतों में हुई गिरावट का भारतीय चाय की कीमतों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। वह इसलिए कि घरेलू मांग में ही ज्यादा वृद्धि हुई है।गौरतलब है कि देश में चाय की सालना मांग 3 फीसदी की दर से बढ़ रही है। अप्रैल से जून के बीच उत्तर भारतीय चाय की कीमत पिछले साल के 75.27 रुपये प्रति किलो की तुलना में 95.21 रुपये प्रति किलो तक चली गई थी। (BS Hindi)
वैश्विक अर्थव्यवस्था में अधिकांश सेक्टर का रुख अपने सहयोगियों की गतिविधियों पर निर्भर करता है, लेकिन भारतीय चाय उद्योग इसका अपवाद बनता दिख रहा है।
पूरी दुनिया में चाय की कीमतों में कमी हो रही है पर भारतीय चाय में तेजी लगातार तेजी हो रही है। ऐसा चाय की घरेलू मांग में जोरदार बढ़ोतरी के चलते हो रहा है। मालमू हो कि चाय उत्पादन में भारत के प्रतिद्वंद्वी रहे श्रीलंका और कई अफ्रीकी देशों में चाय की कीमतें लगातार नीचे की ओर जा रही हैं। भारतीय चाय उद्योग के अध्यक्ष आदित्य खेतान के मुताबिक, सितंबर महीने में चाय ने 101.83 रुपये प्रति किलो के स्तर को छू लिया जो पिछले साल की समान अवधि में 67.48 रुपये प्रति किलो पर थी। खेतान ने कहा कि हालांकि अभी चाय अपने रिकॉर्ड स्तर से नीचे उतर आया है। लेकिन उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इसमें एक बार फिर तेजी आएगी। उन्होंने आगे कहा कि चाय की खपत में होने वाली यह बढ़ोतरी घरेलू मांग के चलते होगी। खेतान ने कहा कि खराब मौसम के चलते इस बार चाय का उत्पादन पिछले साल से कम रहने की उम्मीद है। गौरतलब है कि असम के ऊपरी इलाकों में पहले ही चाय का उत्पादन गिर चुका है। खेतान ने यह भी कहा कि रूस और पाकिस्तान जैसे चाय आयातक देशों की आर्थिक स्थिति खराब होने और कच्चे तेल की कीमतों में हुई गिरावट का भारतीय चाय की कीमतों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। वह इसलिए कि घरेलू मांग में ही ज्यादा वृद्धि हुई है।गौरतलब है कि देश में चाय की सालना मांग 3 फीसदी की दर से बढ़ रही है। अप्रैल से जून के बीच उत्तर भारतीय चाय की कीमत पिछले साल के 75.27 रुपये प्रति किलो की तुलना में 95.21 रुपये प्रति किलो तक चली गई थी। (BS Hindi)
27 अक्तूबर 2008
चीनी मिलों की जिद से आगे की पहल
देश में चीनी उद्योग अकेला ऐसा उद्योग है, जो यह चाहता है कि चीनी और उसके कच्चे माल गन्ने दोनों का मूल्य निर्धारित करने का अधिकार उसे मिले। गन्ने को 11 से 13 माह तक अपने खेत में तैयार करने वाले किसान को उद्योग यह हक देने के लिए तैयार नहीं है। यह काम उसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें करती हैं। लेकिन राज्यों की ओर से तय कीमत अगर मिलों के मुताबिक नहीं हैं तो उसे वह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देती रही हैं। इससे पहले मिलें राज्यों के दाम तय करने के अधिकार को भी चुनौती दे रही थीं और करीब आठ साल की कानूनी लड़ाई के बाद मई, 2004 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने राज्यों की ओर से राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) तय करने के अधिकार को वैधानिक रूप से जायज ठहरा दिया। इसलिए अब लड़ाई दाम तय करने की प्रक्रिया को लेकर चल रही है। इस लड़ाई में एक नया पेंच आ गया है जिसके चलते पलड़ा किसानों के पक्ष में झुकता दिख रहा है। करीब पांच दशक के गन्ना मूल्य नियंत्रण आदेश के इतिहास में पहली बार उत्तर प्रदेश सरकार ने चालू पेराई सीजन (2008-09) के लिए गन्ने का दाम चीनी मिलों को गन्ना क्षेत्र का रिजर्वेशन आर्डर देने के पहले तय कर दिया है। पिछले सप्ताह उत्तर प्रदेश सरकार ने गन्ने की सामान्य किस्म के लिए 140 रुपये प्रति क्विंटल, अगैती फसल के लिए 145 रुपये और निरस्त किस्म के लिए 137.50 रुपये प्रति क्विंटल का दाम तय किया है। दाम तय करना कोई बड़ी बात नहीं है। असली बात है गन्ना रिजर्वेशन आर्डर के पहले दाम घोषित करना।असल में राज्य सरकार से निर्धारित होने वाले दाम को सहमति दाम मानकर चीनी मिलों के लिए राज्य सरकार गन्ना रिजर्वेशन आर्डर जारी करती है। इसके लिए चीनी मिलों, राज्य के गन्ना आयुक्त और किसान गन्ना सहकारी समितियों के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता होता है जिसके तहत फार्म-6 नाम का एक प्रपत्र जारी होता है। गन्ना रिजर्वेशन के तहत क्षेत्र विशेष की चीनी मिल को ही उस क्षेत्र का किसान गन्ना बेच सकता है।उल्लंघन करने वाले किसानों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी होती रही है। 2004 में राज्य सरकारों को गन्ने का एसएपी तय करने का अधिकार सही साबित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद चीनी मिलों ने पहली बार 2006-07 के लिए निर्धारित एसएपी को चुनौती दी। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और उक्त साल के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 117 रुपये प्रति क्विंटल का एक अंतरिम दाम तय कर दिया है। वर्ष 2007-08 के लिए भी राज्य सरकार ने पिछले साल के बराबर दाम तय किया तो चीनी मिलें इसके खिलाफ भी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चली गईं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने इस कीमत को जायज ठहराया तो इलाहाबाद पीठ ने केंद्र की ओर से निर्धारित न्यूनतम वैधानिक मूल्य के भुगतान का आदेश देकर एसएपी के लिए एक समिति बनाने का आदेश दिया। यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट में है और 2007-08 के लिए 110 रुपये प्रति क्विंटल का अंतरिम मूल्य तय कर रखा है। दोनों साल का फैसला अभी आना बाकी है। विवादों के चलते चीनी मिलों का बकाया 1200करोड़ रुपये तक पहुंच गया जिसका भुगतान न्यायालयों के आदेश से होता रहा। लेकिन चालू पेराई सीजन 2008-09 के लिए किसानों ने राज्य सरकार के ऊपर दबाव बनाकर गन्ना मूल्य तय करने के पहले चीनी मिलों के लिए रिजर्वेशन आर्डर जारी नहीं करने दिये। किसानों से सहमति लेने के लिए हर साल होने वाली रस्मी बैठकें किसानों के लिए आंदोलन का मौका बन गई।राज्य सरकार ने भी मौके को समझते हुए दाम तय कर दिया। राज्य सरकार ने साफ तो नहीं कहा लेकिन उसने जिस तरह से रिजर्वेशन आर्डर जारी नहीं किये उससे संकेत दे दिया कि जिस चीनी मिल को इस दाम पर गन्ने की जरूरत है वह इस दाम को स्वीकार कर रिजर्वेशन आर्डर हासिल कर सकती है। इसका नतीजा यह होगा कि चीनी मिल को तय किया गया गन्ना मूल्य स्वीकार्य है या नहीं और इसके चलते न्यायालयों में इस विवाद के जाने का सिलसिला बंद हो सकता है। हालांकि जिस तरह इस साल चीनी की कीमतें फायदेमंद बनी हुई हैं। विश्व स्तर पर भी आपूर्ति के मुकाबले उत्पादन कम रहने का इंटरनेशनल शुगर आर्गेनाइजेशन का अनुमान उद्योग और किसानों के लिए बेहतर संकेत है। साथ ही घरेलू उत्पादन भी पिछले साल के 265 लाख टन से घटकर 200 लाख टन से भी कम रह जाने का अनुमान है। जिसके चलते कीमतें बेहतर रह सकती हैं। लेकिन सवाल एक साल का नहीं है, इस विवाद का अंत होना ही चाहिए। (Business Bhaskar)
मेटल है लंबे वक्त के निवेश का विकल्प
वैश्विक आर्थिक संकट के बाद पैदा हालात में दुनिया भर के शेयर बाजारों में सभी इंडेक्स में जबरदस्त गिरावट रही। इस समय यह तय कर पाना खासा मुश्किल हो रहा है कि किस इंडेक्स में पैसा लगाना बेहतर होगा या कम जोखिम भरा रहेगा। बंबई स्टॉक एक्सचेंज के मेटल इंडेक्स में भी गिरावट का ही माहौल रहा है। हालात कुछ ऐसे बन रहे हैं कि फिलहाल मेटल में निवेश करने से परहेज रखना ही बेहतर होगा। फिर भी विशेषज्ञों का कहना है कि अगर कोई निवेशक मेटल इंडेक्स में निवेश करना चाहता है तो लंबी अवधि के लिए ही निवेश कर। इस समय बड़ी-बड़ी मेटल कंपनियों के शेयर धरातल पर हैं। बड़ी कंपनियों के शेयरों की कीमतें भी खासी कम हो चुकी हैं। ऐसे में आप लंबी अवधि निवेश के नजरिए से बड़ी मेटल कंपनियों के स्टॉक को अपने पोर्टफोलियो में जोड़ सकते हैं।इस साल जनवरी के बाद से इस्पात कंपनियों के शेयर आधे से भी कम दाम पर आ गए हैं। दुनिया भर में छाई मंदी के माहौल में बीएसई मेटल इंडेक्स में 75 फीसदी से भी ज्यादा की गिरावट हो चुकी है। इस साल के दौरान टाटा स्टील, सेल, जेएसडब्ल्यू, इस्पात इंडस्ट्रीस और भूषण स्टील जैसी दिग्गज कंपनियों के शेयरों के दाम करीब 80 फीसदी तक टूट चुके हैं। पिछले सप्ताह शुक्रवार को टाटा स्टील पिछले एक साल के 930 रुपये से गिरकर 178.30 रुपये, सेल 287.55 रुपये से कम होकर 74.75 रुपये, जेएसडब्ल्यू 1016 रुपये से टूटकर 205.35 रुपये, इस्पात इंडस्ट्रीस 85 रुपये से लुढ़ककर 10.80 रुपये और इस्पात के सेकेंड्री उत्पादों बनाने वाली कंपनी भुषण स्टील के शेयर एक साल पहले के 1670 रुपये से टूटकर 555.05 रुपये पर कारोबार किए। पूर मेटल इंडेक्स की बात करें तो इस साल चार जनवरी को 20296.51 अंकों से गिरकर 24 अक्टूबर को यह 4393.88 अंक पर रह गया है। महज दस महीनों में करीब 15903 अंकों की गिरावट हो चुकी है। ऐसे में लोगों का इस्पात कंपनियों के शेयरों में निवेश के प्रति हिचकिचाहट लाजमी है। जर्जर हो चुकी इस्पात कंपनियां अब सरकार से मदद की गुहार लगाई है और सरकार भी इन कंपनियों के प्रति सकारात्मक दिख रही है। यानी सरकारी नीतियों से आने वाले दिनों में इस्पात कंपनियों और उनके शेयरों को राहत मिल सकती है। हालांकि इस दौरान भारतीय रिजर्व बैंक ने जहां सीआरआर दर में ढाई फीसदी की कटौती किया है। वहीं रपो रट को भी एक फीसदी घटाया है। लेकिन इसके बावजूद पिछले महज एक सप्ताह के दौरान मेटल इंडेक्स करीब 20 फीसदी तक टूटा है। स्टॉक एनॉलिस्ट अंकित अजमेरी के मुताबिक खपत वाले क्षेत्रों से इस्पात की मांग में आई कमी की वजह से कंपनियों पर उत्पादों की कीमतें घटाने का दबाव बढ़ा है। पिछले महज दो महीनों में घरलू कंपनियां अपने उत्पादों के दाम करीब 20 फीसदी घटा चुकी हैं। इस साल जनवरी के बाद से रियल एस्टेट और बुनियादी ढांचागत क्षेत्रों की हालत बदहाल है। जिसका असर इस्पात कंपनियों पर भी पड़ा रहा है। उन्होंने बताया कि बाजार के लिहाज इन कंपनियों के शेयरों में जल्दी सुधार की गुजाइश कम है। ऐसे में घरलू कंपनियां इस्पात के आयात को प्रतिबंधतित करने और निर्यात शुल्क में कटौती की मांग की हैं। दरअसल वैव्श्रिक बाजारों में इस्पात सस्ता होने की वजह से निर्माण और इंफ्रास्टक्चर कंपनियां इस्पात के आयात पर जोर दे रही हैं। पिछले महज तीन महीनों के दौरान अंतराष्ट्रीय बाजारों में इस्पात उत्पादों के दाम 50 फीसदी से ज्यादा टूट चुके हैं। लिहाजा घरलू बाजार में इस्पात का आयात बढ़ रहा है। पिछले साल करीब 60 लाख टन इस्पात उत्पादों का आयात हुआ था। जबकि इस साल 80 लाख टन से ज्यादा आयात होलने की उम्मीद है। आयातित इस्पात उत्पादों के दाम तुलनात्मक रुप से 10-15 फीसदी सस्ता होने की वजह से इस साल सितंबर तक आयात में करीब 33 फीसदी का इजाफा हुआ है। जबकि निर्यात के साथ घरलू इस्पात कंपनियों की मांग मेंकमी आई है। कंपनियों की मांग को देखते हुए सरकार टीएमटी और स्ट्रक्चरल उत्पादों के आयात पर भी 14 फीसदी डयूटी लगाने पर विचार कर रही है। उल्लेखनीय है कि इस साल मई में घरलू बाजरों में भाव बढ़ने की वजह से सरकार ने इस्पात के आयात को जहां सस्ता की थी। वहीं इस्पात के विभिन्न उत्पादों के निर्यात पर करीब 5-15 फीसदी का शुल्क लगाया था। जिसे बदले हालात में हटाने की मांग की गई है। कंपनियों का मानना है कि आयातित इस्पात किसी हालत में 800 डॉलर प्रति टन से नीचे नहीे बैठना चाहिए। जबकि विदेशी कंपनिंया 600 डॉलर प्रति टन के भाव बेचने को तैयार हैं। जानकारों का मानना है कि हाल फिलहाल में इस सेक्टर को अब सरकारी नीतियां ही एक मात्र सहारा हैं। उधर केंद्र सरकार ने भी कंपनियों की मांग को गंभीरता से लिया है। इस सप्ताह सरकार कुछ कदम उठा सकती है। बहरहाल मौजूदा हालात को देखते हुए सस्ते इस्पात शेयरों में लॉग टर्म के लिए निवेश किया जा सकता है। (Business Bhaskar)
वैव्श्रिक भाव कम होने से मक्के में निर्यात मांग का अभाव
केंद्र सरकार द्वारा मक्के पर निर्यात पर लगे प्रतिबंध को हटा लेने के बावजूद इसका निर्यात जोर नहीं पकड़ा पा रहा है। जिसका असर घरलू बाजारों में इसके कारोबार पर पड़ रहा है। वैव्श्रिक बाजारों में मक्के की कीमतों में आई गिरावट की वजह से इस साल मध्य अक्टूबर के बाद से गुजरात, राजस्थान और आंध्रप्रदेश की मंडियों में आढ़तिए भी बड़े सौदे करने से बच रहे हैं। भीलवाड़ा में मक्का के ब्रोकर विरेंद्र के मुताबिक मौजूदा समय में मक्के में निर्यातकों की मांग बिल्कुल नहीं है। लिहाजा कोई आढ़तिया माल उठाने से भी परहेज कर रहा है। ऐसे में मांग कम रहने की वजह से मंडियों में मक्के का भाव केंद्र सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे चल रहा है। पिछले सप्ताह कोटा मंडी में मक्का करीब 750 रुपये प्रति `िंटल बिका। जबकि केंद्र सरकार ने इस साल मक्के का 840 रुपये क्विंटल न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है। देश के दूसर हाजिर बाजारों मंे भी मक्का 750-835 रुपये `िवंटल के स्तर पर कारोबार कर रहा है। दरअसल इस साल अमेरिका में मक्के के उत्पादन में हुई बढ़त की वजह से वैव्श्रिक कीमतों में गिरावट आई है। मक्के के कारोबार पर कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट का भी असर देखा जा रहा है। इस साल जुलाई के बाद से कच्चे तेल की कीमतों में करीब 83 डॉलर की गिरावट हो चुकी है। जानकारों के मुताबिक कच्चे तेल की कीमतों में आई कमी की वजह से बायोफ्यूल की मांग बढ़ने को लेकर हो रही सट्टेबाजी में भी कमी आई है। पिछले सप्ताह शुक्रवार को शिकागो बोर्ड ऑफ ट्रेड में मक्का दिसंबर वायदा करीब साढ़े चार फीसदी की गिरावट के साथ 3.7275 डॉलर प्रति बुशल पर कारोबार किया। जुलाई में इसका भाव सात डॉलर प्रति बुशल से ऊपर था। घरलू बाजारों में कारोबारियों का कहना है कि रुपये के मुकाबले डॉलर में आई मजबुती से निर्यातकों को मुनाफा हो सकता था। लेकिन वैव्श्रिक बाजारों में तुलनात्मक रुप से कीमतें करीब 10-15 फीसदी नरम होने की वजह से निर्यात मांग नहीं के बराबर है। मौजूदा समय में अमेरिकी बंदरगाहों पर मक्के का एफओबी भाव भारतीय रुपये में करीब 740 रुपये प्रति `िंटल चल रहा है। उल्लेखनीय है कि पिछले सीजन के दौरान वैव्श्रिक बाजारों में बेहतर दाम मिलने से भारत से करीब 30 लाख टन मक्के का रिकॉर्ड निर्यात हुआ था। ऐसे में घरलू बाजाराें में मक्के का भाव एक हजार रुपये प्रति `िंटल के उच्च स्तर तक चला गया था। लेकिन अब निर्यात नहीं हरो पाने की वजह से कीमतें काफी नीचे चल रही हैं। ऐसे में चालू सीजन के दौरान यहां से होने वाले निर्यात में काफी गिरावट होने की आशंका जताई जा रही है। जानाकारों के मुताबिक ऐसे में चालू सीजन के दौराना यहां से करीब 10-15 लाख टन मक्के का निर्यात हो सकता है। (Business Bhsakar)
पंजाब में कॉटन का भाव एमएसपी ने नीचे
पंजाब के कॉटन किसानों को अपने उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे के भाव पर बेचना पड़ रहा है। कॉटन कापरेरशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) द्वारा पर्याप्त मात्रा में खरीद नहीं कर पाने की वजह से राज्य के किसान मंडी के बिचौलियों के हाथों सस्ती दरों पर कॉटन बेच रहे हैं। मानसा में कॉटन के किसान हरबिंदर सिंह ने बताया कि सरकारी खरीद के अभाव में क्षेत्र के किसान मंडी के बिचौलियों से को कॉटन बेच रहे हैं। किसानों के बीच आने वाले दिनों में कॉटन के भावों मंे और गिरावट होने से जुड़ी अफवाहें फैलाई जा रही है। श्री सिंह ने बताया कि पिछले दो दिनों से वे मंडी में सीसीआई को कॉटन बेचने का इंतजार करते रहे, लेकिन अंत में उन्हें कारोबारियों के हाथों अपने उत्पाद को 2750 रुपये `िंटल पर बेचना पड़ा। जबकि सरकार ने इस साल कॉटन का 2800 रुपये प्रति `िंटल एमएसपी तय किया है। एक अन्य किसान जो किराए पर ट्राली लेकर मंडी में कॉटन बेचने का इंतजार कर रहे हैं, उन्हें अभी अपनील बारी आने का इंतजार है। कई किसान यहां पिछले तीन-चार दिनों से अपनी बारी आने का इंताजर कर रहे हैं। इस दौरान सीसीआई ने ऐसी शिकायतों से इनकार किया है। सीासीआई के क्षेत्रीय अधिकारी के के धीर के मुताबिक राज्य में इस साल करीब 90 फीसदी खरीद हो चुकी है। हालांकि खरीद केंद्रों पर आवक बढ़ने की वजह से गुणवत और मात्रा नापने में मामूली तौर पर समस्या जरुर आई है। उन्होंने बताया कि किसानों को अपने उत्पादों को बेचने के लिए कम से कम दो दिनों का इंताजर करना पड़ सकता है। मानासा के मार्के कमेटी के सचिव जरनैल सिंह ने बताया कि यह बात सही है कि आवक बढ़ने पर कॉटन की गुणवत्ता और मात्रा को नापने में परशानी हो रही है। इस वजह से किसानों को अपने उत्पादों को बेचने के लिए कुछ ज्यादा दिनों का इंतजार करना पड़ रहा है। हालांकि इसके बावजूद मानासा में सीसीआई ज्यादातर कॉटन की खरीद कर चुकी है। अब यह सीासीआई करीब 1.3 लाख गांठ (एक गांठ में 170 किलो) कॉटन की खरीद कर चुकी है। उल्लेखनीय है कि इस साल देश भर में करीब 3.25 करोड़ गांठ कॉटन का उत्पादन होने की संभावना है। (Business Bhaskar)
खाद्य तेल आयात शुल्क पर उद्योग जगत में मतभेद
खाद्य तेलों के आयात शुल्क में बदलाव के मसले पर उद्योग जगत में दो राय देखा जा रहा है। भारतीय वनस्पति उत्पादक संघ के मुताबिक क्रूड पाम तेल के आयात शुल्क में कोई बदलाव नहीं किया जाना चाहिए। जबकि सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने सभी तरह के खाद्य तेलों के आयात शुल्क में बढ़त की मांग किया है। गौरतलब है कि पिछले सप्ताह केंद्रीय कृ षि मंत्री शरद पवार ने दिवाली के बाद खाद्य तेलों के आयात शुल्क की समीक्षा करने का संकेत दिया है। सरकारी सूत्रों के मुताबिक सरकार खाद्य तेतों के आयात पर कर लगा सकती है। ऐसे में भारतीय वनस्पति उत्पादक संघ ने वित्त मंत्री और कृषि मंत्री को पत्र लिख कर क्रूड पाम तेल और क्रूड सोयाबीन तेल के आयात शुल्क यथावत रखने की मांग किया है। उल्लेखनीय है कि इस साल बढ़ती महंगाई का हवाला देकर अप्रैल में केंद्र सरकार ने क्रूड खाद्य तेलों के आयात को शुल्क मुक्त कर दिया था। जबकि रिफाइंड तेल के आयात शुल्क को घटाकर 7.5 फीसदी कर दिया गया था। भारतीय वनस्पति उत्पादक संघ के मुताबिक केंद्र सरकार को आम उपभोक्ताओं और उद्योग जगत के लिए डयूटी में किसी तरह का बदलाव नहीं करना चाहिए। जबकि एसईए के मुताबिक वैव्श्रिक बाजारों से सस्ते तेलों के आयात से घरलू बाजरों में तिलहनों के दाम में काफी गिरावट हो चुकी है। लिहाजा सरकार को किसानों की भलाई के लिए आयात शुल्क बढ़ाना चाहिए। एसईए के अध्यक्ष अशोक सेतिया द्वारा वित्त मंत्री और कृषि मंत्री को भेजे गए प्रेजेंटेशन के मुताबिक सरकार यदि जल्द से जल्द कदम नहीं उठाती है तो आने वाले महीनों में सोयाबीन और मूंगफली की कीमतें समर्थन मूल्य से भी नीचे आ सकती हैं। ऐसे में खाद्य तेलों के निर्यात पर लगे प्रतिबंध को हटाने, तिलहनों पर लगे स्टॉक लिमिट और इसके वायदा कारोबार पर लगे प्रतिबंध को भी हटाने की मांग की कई है। सेतिया ने बताया कि मौजूदा समय में घरलू बाजारों में सोयाबीन का भाव 1525-1550 रुपये क्ंिवटल चल रहा है। इसमा एमएसपी 1390 रुपये `िंटल है। वहीं मूंगफली का भाव भी घटकर 2250 रुपये `िंटल आ गया है। इस दौरान वनस्पति उत्पादक संघ की दलील है कि वैव्श्रिक बाजारों में खाद्य तेलों की कीमतों में आई गिरावट का ज्यादा असर घरलू कारोबार पर नहीं पड़ा है। वैव्श्रिक बाजारों में क्रूड पाम तेल की कीमतों में करीब 56 फीसदी की गिरावट आने से यह घटकर 507 डॉलर प्रति टन और सोया तेल के भाव में 35 फीसदी की गिरावट होने से यह करीब 860 डॉलर प्रति टन पर आ गया है। जबकि घरलू बाजारों में अप्रैल-अक्टूबर के दौरान सोयातेल के भाव में महज 5.7 फीसदी की गिरावट होने से यह 4900 रुपये `िंटल है। मूंगफली और सूरजमुखी तेल के भाव में भी क्रमश: 7.6-9.6 फीसदी की गिरावट हुई है। वहीं सरसों तेल के भाव में करीब 9.7 फीासदी का इजाफा होने से यह करीब 6100 रुपये `िंटल चल रहा है। ऐसे में वनस्पति उत्पादक संघ का मानना है कि सरकार को खाद्य तेलों के आयात में कोई बदलाव नहीं करना चाहिए। (Business Bhaskar)
बेहतर उत्पादन से कॉफी में गिरावट
घरेलू बाजारों में काफी के भावों में गिरावट जारी है। उत्पादन बढ़ने की संभावना से पिछले चार महीनों के दौरान कॉफी की कीमतों मंे करीब 25 फीसदी की गिरावट हो चुकी है। हालांकि इस गिरावट के बावजूद कॉफी कारोबारियों के लिए अगला साल फायदेमंद साबित हो सकता है। क्योंकि दुनिया के दूसर देशों में कॉफी के उत्पादन में करीब एक करोड़ बोरी (60 किलो प्रति बोरी) कमी की आशंका जताई जा रही है। इस साल अक्टूबर से शुरू हुए नए सीजन में भारत में 2.93 लाख टन कॉफी उत्पादन का अनुमान है, जो पिछले वर्ष के 2.62 लाख से 10 फीसदी ज्यादा है। इस साल एक लाख टन अरबिका और 1.93 लाख टन रोबेस्टा कॉफी उत्पादन की संभावना है। कुल घरलू उत्पादन का करीब 80 फीसदी निर्यात हो जाता है। इस बीच, कॉफी की घरलू खपत भी अगले वर्ष बढ़कर 90000 टन होने की उम्मीद है। उधर, चालू वित्त वर्ष के 2.10 लाख टन कॉफी निर्यात के लक्ष्य के अनुरूप पहली छमाही के दौरान निर्यात 8 फीसदी बढ़कर 1.15 लाख टन हो गया है और वर्ष 2008-09 में निर्यात 2.20 लाख टन के पार होने की उम्मीद की जा रही है। यह भी महत्वपूर्ण है कि इस साल निर्यातकों को कॉफी के औसत दाम 112.4 रुपए प्रति किलो मिले हैं।जो पिछले वर्ष के 88.14 रुपए के मुकाबले 24 फीसदी ज्यादा है। वैश्विक कॉफी उत्पादन में भारत की भागीदारी केवल चार फीसदी है। लेकिन वैव्श्रिक कॉफी कारोबार में भारत दुनिया के दस बड़े देशों में शुमार है। ऐसे में दुनिया के दूसर देशों में यदि उत्पादन घटता है तो भारत को फायदा होना तय है। वियतनाम भी प्रमुख निर्यातक है लेकिन वियतनाम से हमारी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है क्योंकि भारतीय निर्यातक वियतनाम से आयातित कॉफी को प्रोसेस कर रूस भेज रहे हैं। रुपये के मुकाबले डॉलर में आई मजबुती भी कॉफी निर्यातकों के लिए एक सकारात्मक संकेत है। उभरते देशों से मांग निकलने से विश्व बाजार में कॉफी की मांग दो फीसदी बढ़ने की संभावना है। इस दौरान कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट की वजह से माल भाड़ा में भी कमी आने की संभावना जताई जा रही है। जानकारों के मुताबिक मौजूदा मंदी के माहौल में वैव्श्रिक बाजार में कॉफी कारोबार की स्थिति दूसरी जिंसों के मुकाबले बेहतर रह सकती है। भारत से 50 देशों को काफी का निर्यात किया जाता है। इनमें शामिल इटली को 25 फीसदी, रूस को 9 और जर्मनी को 8 फीसदी निर्यात किया जाता है। इस लिहाज से भारतीय निर्यातकों पर मंदी का असर कम होगा, क्योंकि कॉफी निर्यात में भारत मंदी से सर्वाधिक पीड़ित अमरीका पर निर्भर नहीं है। कॉफी के भावों में मौजूदा गिरावट का कारण वैश्विक वित्तीय संकट है। भारत में बढ़ रहे उत्पादन से भी कॉफी का वैव्श्रिक कारोबर प्रभावित हुआ है। ऐसे में पिछले सप्ताह के दौरान लिफ्फे में जनवरी के वायदा भावों में छह फीसदी की कमी देखी गई है, वहीं न्यूर्याक में पिछले सप्ताह कॉफी के भाव तीन फीसदी घटकर 1668 डॉलर प्रति टन रह गए। इस दौरान एनसीडीईएक्स में दिसंबर और मार्च वायदा के भावों में करीब चार फीसदी की गिरावट देखी गई है। (Business Bhskar)
एमएसपी की मृग मरीचिका नहीं लाभकारी मूल्य चाहिए किसान को
अंतत: सरकार ने धान के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 50 रुपये प्रति क्विंटल जोड़कर अंतिम फैसला दे दिया। अब किसानों को मौजूदा खरीफ सीजन के धान के लिए इसी भाव पर सरकार से भुगतान मिलेगा। पहले सरकार ने कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिश को धता बताकर सिर्फ 850 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी तय किया था। इससे किसान संतुष्ट नहीं थे, तो उन्हें खुश करने के लिए 50 रुपये का बोनस और दे दिया। सवाल है कि सीएसीपी ने 1000 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी करने की सिफारिश क्यों की थी। सरकार ने उसकी सिफारिश नहीं मानी, तो क्या माना जाए कि सीएसीपी ने वैज्ञानिक आधार नहीं अपनाया था और बिना सोचे-समझे ही अपनी सिफारिश दे दी। अगर सीएसीपी ने समुचित अध्ययन करने और सभी पक्षों को सुनने के बाद सिफारिश की तो उसकी सिफारिश मानी जानी चाहिए।कोई निष्कर्ष निकालने से पहले एमएसपी के तंत्र को समझना जरूरी है। किसान कोई फसल बोता है तो उसे तैयार करने में कई महीने लग जाते हैं। पूरे साल में आमतौर पर दो या ज्यादा से ज्यादा तीन फसलें ही ले पाता है। इस तरह उसे चार या छह महीने की कड़ी मेहनत के बाद फसल मिलती है। आमतौर पर किसी व्यापार में कम से कम दस फीसदी मार्जिन मिल ही जाता है। अगर कोई व्यापारी एक लाख रुपये पूंजी लगाता है तो निश्चित ही वह चार-पांच गुना यानि चार-पांच लाख का व्यवसाय कर लेता है। इस तरह उसका मार्जिन कम से कम 40-50 हजार रुपये हो गया। इस तरह उसकी पूंजी पर उसका न्यूनतम लाभ पचास फीसदी हो गया। अलग-अलग व्यापार में यह लाभ और ज्यादा भी हो सकता है। देखने वाली बात यह है कि क्या किसान को इस अनुपात में लाभ मिल पाता है। किसान व्यापार से ज्यादा लाभ पाने का हकदार है क्योंकि उसके सामने मौसम और दूसरे ऐसे जोखिमों का भी सामना करना पड़ता है जिन पर उसका कोई वश नहीं चलता है।इसके अलावा लगातार बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अन्न व अन्य खाद्य वस्तुएं उगाने के लिए प्रोत्साहित करना भी आवश्यक है। एमएसपी की मूल धारणा यही है कि किसानों को कम से कम इतना मूल्य तो मिलना ही चाहिए। बेहतर होगा कि किसानों को इससे अच्छा मूल्य मिले। सीएसीपी ने गहन अध्ययन करने के बाद एमएसपी की सिफारिश की है तो उसे सरकार को मानना ही चाहिए। खासकर उस स्थिति में जब एमएसपी ही घरेलू बाजार का बैंचमार्क मूल्य बन जाता है। अगर एमएसपी कम होगा तो खुले बाजार में भी भाव उससे ऊपर होगा। लेकिन एमएसपी किसानों के लिए मृग मरीचिका बन गया है। जिन फसलों की सरकार सीधे खरीद करती है, उसमें सरकार वित्तीय भार का ध्यान रखते हुए एमएसपी तय करते समय पूरी सावधानी बरतती है। लेकिन उन फसलों जैसे मक्का, बाजरा, कपास, दलहनों आदि में वह सीधे खरीद नहीं करती है तो उनमें एमएसपी बढ़ाने में उसे कोई गुरेज नहीं रहता है। पिछली रबी फसल और मौजूदा खरीफ फसल की दूसरी उपजों के लिए एमएसपी में खासी बढ़ोतरी कर दी। इससे इन वस्तुओं की सरकार द्वारा खरीद न किए जाने के कारण खुले बाजार में भाव एसएमपी ने काफी नीचे हैं। राजस्थान में बाजरा और पंजाब में कपास के भाव का यही हाल हो रहा है। राजस्थान में तो बाजरा की खरीद अभी तक शुरू नहीं हो पाई। इससे वहां एमएसपी के मुकाबले भाव तीस फीसदी तक नीचे चल रहे हैं। किसान अपनी फसल औने-पौने में बेचने को मजबूर है। एमएसपी के सवाल पर सरकार किसानों की अपेक्षाओं को पूरा करने में विफल ही रही है। इस मसले का दूसरा पहलू यह भी है कि किसानों को बाजार का पूरा लाभ भी नहीं मिल पाता है। अगर बाजार में कृषि वस्तुओं के मूल्य बढ़ने लगते हैं तो उपभोक्ता की दुहाई देकर नियंत्रणकारी कदम उठाने से भी सरकार को कोई परहेज नहीं है। हर साल कभी गेहूं, चावल या मक्का, तिलहन, दलहन के निर्यात पर रोक लगाई जाती रही है। इससे किसानों को फसल का बेहतर मूल्य मिलने की संभावना घट जाती है। लेकिन अगर सरकार की निर्यात-आयात संबंधी नीति में स्थिरता हो तो किसान दीर्घकालिक बाजार को ध्यान रखकर अपनी फसल बेचने का फैसला करे। साफ है कि अगर सरकार एमएसपी और नियंत्रणकारी निर्यात व्यापार नीति अपनाकर किसान व उपभोक्ताओं के बीच संतुलन बनाना चाहती है, तो उसे ईमानदारी से किसानों उचित नहीं बल्कि आकर्षक मूल्य देना होगा। नहीं तो किसानों को विश्व बाजार का लाभ लेने दीजिए। लेकिन इसके लिए भी किसानों के हितों की रक्षा करने वाले तंत्र की दरकार होगी। (Business Bhaskar)
भाव गिरने के बावजूद राशन पर मिलता रहेगा खाद्य तेल
खाद्य तेलों के दामों में भारी गिरावट के बावजूद सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए खाद्य तेलों के वितरण की योजना को बंद नहीं करेंगी। खाद्य तेलों के आसमान छूते दामों से उपभोक्ताओं को बचाने के लिए सरकार ने अगस्त में यह योजना शुरू की थी। अपने उच्चतम स्तर से खाद्य तेलों के दाम 75-78 फीसदी तक गिर गये हैं। नाफेड के महानिदेशक यू. के. एस. चौहान ने बताया कि इस योजना को बंद करने का फिलहाल कोई विचार नहीं है। अभी तक सरकार की ओर से इस तरह का कोई फैसला नहीं लिया गया है। योजना के अनुसार खाद्य तेलों का पीडीएस के जरिये वितरण अगले साल मार्च तक जारी रखा जायेगा। इस योजना के अनुसार केंद्र सरकार को दस लाख टन सोया और पाम तेल का वितरण आयातित दाम से पंद्रह रुपये कम दाम पर करना है। इसके लिए केंद्र सरकार की चार एजेंसियों नाफेड, एमएमटीसी, एसटीसी और पीईसी को खाद्य तेलों के आयात की जिम्मेदारी दी है। दामों में भारी गिरावट को देखते हुए राज्यों की ओर से इस योजना के अंतर्गत खाद्य तेलों की मांग नहीं हो रही है। साथ ही पहले उन्होंने जो मांग की थी, उसको भी वे नहीं ले रहे हैं।जिससे इन एजेंसियों के पास आयातित तेल का स्टॉक बढ़ गया है। इस साल मार्च में खाद्य तेलों के दाम उच्चतम स्तर पर थे। उसके बाद से वैश्विक बाजारों के साथ ही घरेलू बाजार में भी इनके दाम लगातार कम हो रहे है। इस साल मार्च में पाम तेल के दाम 1400 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गए थे जो इस समय कम होकर 280 डॉलर प्रति टन पर है। साथ ही इसी अवधि में सोया तेल के दाम 1700 डॉलर प्रति टन से कम होकर 400 डॉलर पर पहुंच गये है। इसके बावजूद सरकार इस योजना को बंद करने पर कोई विचार नहीं कर रही है। घरेलू बाजार में जारी भारी गिरावट के चलते सोयाबीन के दाम काफी कम हो गये हैं। इसी समय किसान अपनी फसल को बेचने के लिए मंडियों में आते है।इस स्थिति को देखते हुए सरकार खाद्य तेलों पर आयात शुल्क लगाने पर विचार कर रही है। इस साल अप्रैल में सरकार ने कच्चे खाद्य तेलों में आयात शुल्क को पूरी तरह समाप्त कर दिया था। साथ ही रिफाइंड खाद्य तेलों पर आयात शुल्क कम करके 7.5 फीसदी कर दिया था। दीपक इंटरप्राइजेज के मैनेजिंग पार्टनर गोविंद भाई का मानना है कि घरेलू दामों में जारी गिरावट को रोकने के लिए जरूरी है कि सरकार कम से कम चालीस फीसदी आयात शुल्क लगाए। इसके बाद ही देश में तिलहन के किसानों को बेहतर दाम मिल सकेगें। (Business Bhaskar)
एफसीआई को 30 हजार टन गेहूं की निविदाएं प्राप्त हरुइ
भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने खुले बाजार में गेहूं बेचने के लिए 30 हजार टन गेहूं की निविदांए मिल चुकी हैं। घरलू बाजरों में बढ़ती कीमतों में नकेल के लिए एफसीआई ने दिल्ली में 50 हजार टन गेहूं की बिक्री हेतु निविदाएं मांगी थी। जिसकी बिक्री के लिए 49 निविदाएं 1027.10 -1040 रुपये प्रति क्विंटल की दर से प्राप्त हुई है। केंद्र सरकार ने 17 सितंबर को 9.09 लाख टन गेहूं खुले बाजार की बिक्री योजना (ओएमएसएस) के तहत बेचने की घोषणा की थी तथा देश के विभिन्न राज्यों के लिए गेहूं की मात्रा और कीमत तय की गई थी। यह कीमत 1021 रुपये से 1358 रुपये प्रति क्विंटल थी। दिल्ली में 50 हजार टन गेहूं की बिक्री के लिए 1027 रुपये प्रति क्विंटल का भाव तय किया था। उक्त गेहूं की बिक्री त्यौहारों को देखते हुए सितंबर व अक्टूबर में होनी थी। ये अलग बात है कि दिल्ली की मिलों में इसकी आवक दीपावली के बाद यानि नवंबर में ही बन पायेगी। पिछले वर्ष तक एफसीआई राज्यवार गेहूं के भाव तय करती थी तथा मिलें अपनी जरुरत के हिसाब से गेहूं की खरीददारी कर लेती थी। चालू वर्ष में एफसीआई ने टेंडर के माध्यम से गेहूं बेचने का फैसला किया है।लारेंस रोड़ के गेहूं व्यापारी कमलेश जैन ने बताया कि दिल्ली की 13 मिलों व 36 चक्कियों ने निविदाएं भरी हैं। इसमें मिलों ने 1028 रुपये प्रति क्विंटल व चक्कियों ने 1027.10 रुपये से 1027.50 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से निविदाएं भरी हैं जबकि दिल्ली की एक बड़ी मिल ने 1040 रुपये प्रति क्विंटल की दर से निविदा भरी है। इसमें कम से कम 100 टन व ज्यादा से ज्यादा 1000 टन गेहूं के लिए निविदाएं भरी जानी थी। सूत्रों के अनुसार चूंकि एफसीआई ने 50 हजार टन गेहूं बेचने हेतु निविदाएं मांगी थी लेकिन मात्र 30 हजार टन की ही निविदाएं प्राप्त हुई है अत: एफसीआई मिलों को दिए जाने वाले गेहूं की मात्रा बढ़ा सकती है। नया बाजार के गेहूं व्यापारी राजीव कुमार ने बताया कि लारेंस रोड़ पर गेहूं के भाव शनिवार को 1110 रुपये प्रति क्विंटल व आवक करीब 8000 बोरियों की हुई। उन्होंने बताया कि एफसीआई द्वारा यह गेहूं मायापुरी व घेवरा गोदामों से दिया जाना है तथा इसमें भाव के अलावा करीब 50 रुपये प्रति क्विंटल का खर्चा आने से मिलों में पहुंच करीब 1078 रुपये प्रति क्विंटल बैठेगा। अत: उक्त गेहूं की आवक बनने के बाद दिल्ली बाजार में गेहूं के भावों में 30 से 40 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आ सकती है। चालू वर्ष 2007-08 में देश में गेहूं का उत्पादन 784 लाख टन का हुआ था तथा एफसीआई ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से रिकार्ड 225 लाख टन गेहूं की खरीद की थी। वर्ष 2008-09 में केंद्र सरकार ने गेहूं के उत्पादन का लक्ष्य 785 लाख टन का रखा है जबकि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने नई फसल हेतु गेहूं का एमएसपी 1080 रुपये प्रति क्विंटल तय करने की मांग की है। कई राज्यों में विधानसभा व फिर लोकसभा चुनाव को देखते हुए उम्मीद है कि केंद्र सरकार गेहूं का समर्थन मूल्य बढ़ाकर 1080 रुपये प्रति क्विंटल तय कर सकती है। जानकारों का मानना है कि उक्त गेहूं का उठाव नवंबर के प्रथम पखवाड़े में बनने से गेहूं के मौजूदा भावों में 30 से 40 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आ सकती है। (Business Bhaskar.............R S Rana)
सबके दौड़ने पर ही दौड़ेगी कमोडिटी
यह लेख के लिखे जाने के समय तक सोना 713 डॉलर प्रति ट्राय औंस तक गिर चुका था और जोरदार साप्ताहिक गिरावट की ओर बढ़ रहा था। कच्चा तेल पहले ही 63 डॉलर प्रति बैरल तक आ चुका है जबकि इसी साल जुलाई में यह अपने चरम स्तर 147 डॉलर प्रति बैरल पर था। हाल के दिनों में बेस मेटल्स का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है और इनकी कीमतें इस साल की शुरुआत से फिलहाल 40-50 फीसदी कम हो चुकी हैं। कई कमोडिटी की कीमतें वर्ष 2005 के स्तर तक आ चुकी हैं। इतने कम वक्त में कमोडिटी की कीमतों में इतनी अधिक गिरावट से इनके आगामी ढर्रे के बारे में तमाम सवाल उठने लगे हैं। 2005 से तेजी का दौर देख रहा कमोडिटी बाजार वैश्विक वित्तीय संकट और कर्ज की तंगी के असर से अछूता नहीं रह गया है। शेयर बाजारों में गिरावट का दौर जारी रहने के साथ कमोडिटी बाजारों में जोरदार बिकवाली सामने आई है। एक दूसरे से जुड़ी विभिन्न संपत्ति श्रेणियों में गिरावट का असर तमाम कमोडिटी पर भी पड़ा है। वित्तीय संपत्तियों में तेजी के पिछले दौर में शेयर सबसे आगे थे। यह दौर 2003-04 में शुरू हुआ था। ऊर्जा से लेकर कृषि कमोडिटी और आभूषण वाली धातुओं से लेकर औद्योगिक धातुओं तक, कोई ऐसा इलाका नहीं बचा जिस पर बाजार ने तेजड़ियों वाली निगाह न डाली हो। हरीकेन कैटरीना के बाद कच्चे तेल की ऊंची कीमतों, दुनिया के प्रमुख गेहूं उत्पादक क्षेत्रों में सूखे की स्थिति, विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ और सूखा लाने वाले अल निनो और ला निना प्रभाव ऐसे कारक थे जो कमोडिटी की कीमतें चढ़ा रहे थे। चीन ओलंपिक औद्योगिक उपयोग की कमोडिटी में तेजी की एक और बड़ी वजह साबित हुआ। चीन में जोरदार निर्माण गतिविधियों ने अधिकतर बेस मेटल्स के भाव चढ़ा दिए। लेकिन यह बात पुरानी पड़ चुकी है। सब-प्राइम संकट के बाद शेयर बाजारों के कमजोर पड़ते जाने से हालात नाटकीय ढंग से बदल गए जिसका असर कमोडिटी बाजारों पर भी पड़ा। सबसे पहला असर बेस मेटल्स और कृषि कमोडिटी पर आया। कच्चे तेल के प्रभाव वाली ऊर्जा मद और सोने की अगुवाई वाली आभूषण की धातुओं की मद ने तो यह झटका कुछ हद तक झेल लिया जबकि अन्य संपत्तियों की कीमतें ठंडी पड़नी शुरू हो गईं। वैश्विक शेयर बाजारों में मंदी हावी होने के बीच कच्चे तेल ने चरम स्तर छू लिया। इसकी एक वजह यह थी कि निवेश ने शेयरों का रास्ता छोड़ कर कच्चे तेल और सोने जैसी तरल कमोडिटी की राह चुन ली थी। हालांकि कच्चे तेल का बाजार निवेश को अधिक समय तक आकर्षित नहीं कर सका। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के कर्ज के संकट में फंसते जाने और दिग्गज वित्तीय संस्थानों के इसका शिकार बनते जाने के साथ फंड मैनेजरों को तेल बाजार से रकम हटानी पड़ी। कमोडिटी बाजारों के लिए अक्टूबर का महीना बेहद निराशाजनक रहा। एसएंडपी गोल्डमैन सैक्श कमोडिटी इंडेक्स ने सितंबर 2008 में खत्म हुए नौ महीनों के दौरान 1 फीसदी बढ़त दर्ज की थी लेकिन अब यह 27 फीसदी नुकसान के साथ लाल दायरे में है। इंडेक्स की वैल्यू 5000 से कुछ अधिक है और यह अब 2005 के शुरुआती समय के स्तर पर है। तो क्या कमोडिटी में यह गिरावट लंबे समय चली आ रही तेजी में अपवाद का दौर है या तीन साल की तेजी का अंत है? अब निवेश की अतिरिक्त मात्रा बाहर निकल चुकी है और बाजारों के उचित फंडामेंटल वैल्यू के आसपास स्थिर होने की संभावना है। संभवत: शेयर बाजारों में उछाल से कमोडिटी बाजार में फिर दाखिल होने का संकेत मिल सकता है। लेकिन निवेशक निश्चित तौर पर अब और सतर्कता बरतेंगे। (ET Hindi)
तय है इस्पात के आयात व निर्यात शुल्क में फेरबदल
नई दिल्ली October 27, 2008
इस्पात की अंतरराष्ट्रीय कीमतें घटने के बाद सरकार इसके आयात और निर्यात शुल्कों में फेरबदल करने का मन बना रही है।
कयास लगाए जा रहे हैं कि घरेलू इस्पात कंपनियों को सुरक्षित करने के लिए जहां इस्पात के आयात पर 10 फीसदी का शुल्क लग सकता है, वहीं इस्पात के कुछ उत्पादों से निर्यात शुल्क हटाया जा सकता है।आर्थिक मंदी के दौर में मांग घटने से इस्पात भंडार में हो रही बढ़ोतरी के मद्देनजर निर्माताओं की परेशानी बढ़ गई है।लिहाजा सरकार इसका निर्यात बढ़ाने के उपाय तलाश रही है। एक सरकारी अधिकारी ने बताया कि इस्पात मंत्रालय से रॉलबैक की अनुमति मिल गई है। उम्मीद है कि अगले सात दिन में अधिसूचना जारी कर दी जाएगी। आयात शुल्क थोपे जाने के प्रस्ताव पर फिलहाल विचार-विमर्श जारी है। क्योंकि आयातित इस्पात का लैंडिग मूल्य घरेलू इस्पात की तुलना में 10 से 15 फीसदी सस्ता पड़ रहा है। अधिकारी ने बताया कि इस बारे में जल्द ही कोई फैसला ले लिया जाएगा। गौरतलब है कि इस साल की शुरुआत में इस्पात की कीमतें बढ़ जाने से परेशान उपभोक्ताओं को राहत देने के लिए इस्पात पर से 5 फीसदी का आयात शुल्क हटा लिया गया था।इस्पात उद्योग के अधिकारियों ने बिानेस स्टैंडर्ड को बताया कि सितंबर से अक्टूबर के दौरान विदेशों में हुए इस्पात के ज्यादातर अनुबंध घरेलू बाजार की तुलना में काफी सस्ते रहे। आशंका है कि अगले तीन महीनों में जब इन अनुबंधित सौदों की देश में डिलीवरी होगी तब घरेलू इस्पात उद्योग की हालत काफी बुरी हो जाएगी। सितंबर से अब तक इस्पात की कीमतें करीब 10 फीसदी गिर चुकी है। टाटा स्टील को उम्मीद है कि अगले दो महीनों में यह और 10 फीसदी गिरेगी।मालूम हो कि 10 मई को सरकार ने महंगाई कम करने की कोशिशों के तहत निर्यात हतोत्साहित करने के लिए इस्पात और इस्पात उत्पादों पर लगने वाले शुल्क को 5 फीसदी से बढ़ाकर 15 फीसदी कर दिया गया था। इसके एक महीने बाद तय किया गया कि फ्लैट उत्पादों पर निर्यात शुल्क को खत्म कर दिया जाए जबकि लॉन्ग उत्पादों पर निर्यात शुल्क 10 की बजाय 15 फीसदी कर दिया गया।परिणाम यह हुआ कि अप्रैल से सितंबर के बीच निर्यात तेजी से घटा और आयात तेजी से बढ़ा। जेएसडब्ल्यू जैसी इस्पात कंपनियों ने तय किया कि घरेलू उद्योगों के हित में निर्यात अनुबंधों में कटौती कर दी जाए। हालांकि इस दौरान इस्पात की घरेलू मांग भी खासी सुस्त हुई है।इस्पात कारोबार से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मांग घटने से सभी इस्पात कंपनियों का भंडार तेजी से बढ़ा है। ऐसे में क्षमता का दोहन करने और कीमतों में कमी को लेकर भारी दबाव है। टाटा स्टील ने अभी हाल ही में कहा था कि ट्रकों और बसों की मांग घटी है जबकि कार जैसे दूसरे हल्के वाहनों की मांग जस की तस बनी हुई है। अधिकारी के मुताबिक, घरेलू इस्पात निर्माता प्रति टन इस्पात की कीमत 800 डॉलर ऑफर कर रहे हैं जबकि अंतरराष्ट्रीय निर्माता महज 600 से 700 डॉलर की दर से ही इस्पात बेच रहे हैं। घरेलू कंपनियों की उत्पादन लागत भी इससे कहीं अधिक है। (BS Hindi)
इस्पात की अंतरराष्ट्रीय कीमतें घटने के बाद सरकार इसके आयात और निर्यात शुल्कों में फेरबदल करने का मन बना रही है।
कयास लगाए जा रहे हैं कि घरेलू इस्पात कंपनियों को सुरक्षित करने के लिए जहां इस्पात के आयात पर 10 फीसदी का शुल्क लग सकता है, वहीं इस्पात के कुछ उत्पादों से निर्यात शुल्क हटाया जा सकता है।आर्थिक मंदी के दौर में मांग घटने से इस्पात भंडार में हो रही बढ़ोतरी के मद्देनजर निर्माताओं की परेशानी बढ़ गई है।लिहाजा सरकार इसका निर्यात बढ़ाने के उपाय तलाश रही है। एक सरकारी अधिकारी ने बताया कि इस्पात मंत्रालय से रॉलबैक की अनुमति मिल गई है। उम्मीद है कि अगले सात दिन में अधिसूचना जारी कर दी जाएगी। आयात शुल्क थोपे जाने के प्रस्ताव पर फिलहाल विचार-विमर्श जारी है। क्योंकि आयातित इस्पात का लैंडिग मूल्य घरेलू इस्पात की तुलना में 10 से 15 फीसदी सस्ता पड़ रहा है। अधिकारी ने बताया कि इस बारे में जल्द ही कोई फैसला ले लिया जाएगा। गौरतलब है कि इस साल की शुरुआत में इस्पात की कीमतें बढ़ जाने से परेशान उपभोक्ताओं को राहत देने के लिए इस्पात पर से 5 फीसदी का आयात शुल्क हटा लिया गया था।इस्पात उद्योग के अधिकारियों ने बिानेस स्टैंडर्ड को बताया कि सितंबर से अक्टूबर के दौरान विदेशों में हुए इस्पात के ज्यादातर अनुबंध घरेलू बाजार की तुलना में काफी सस्ते रहे। आशंका है कि अगले तीन महीनों में जब इन अनुबंधित सौदों की देश में डिलीवरी होगी तब घरेलू इस्पात उद्योग की हालत काफी बुरी हो जाएगी। सितंबर से अब तक इस्पात की कीमतें करीब 10 फीसदी गिर चुकी है। टाटा स्टील को उम्मीद है कि अगले दो महीनों में यह और 10 फीसदी गिरेगी।मालूम हो कि 10 मई को सरकार ने महंगाई कम करने की कोशिशों के तहत निर्यात हतोत्साहित करने के लिए इस्पात और इस्पात उत्पादों पर लगने वाले शुल्क को 5 फीसदी से बढ़ाकर 15 फीसदी कर दिया गया था। इसके एक महीने बाद तय किया गया कि फ्लैट उत्पादों पर निर्यात शुल्क को खत्म कर दिया जाए जबकि लॉन्ग उत्पादों पर निर्यात शुल्क 10 की बजाय 15 फीसदी कर दिया गया।परिणाम यह हुआ कि अप्रैल से सितंबर के बीच निर्यात तेजी से घटा और आयात तेजी से बढ़ा। जेएसडब्ल्यू जैसी इस्पात कंपनियों ने तय किया कि घरेलू उद्योगों के हित में निर्यात अनुबंधों में कटौती कर दी जाए। हालांकि इस दौरान इस्पात की घरेलू मांग भी खासी सुस्त हुई है।इस्पात कारोबार से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मांग घटने से सभी इस्पात कंपनियों का भंडार तेजी से बढ़ा है। ऐसे में क्षमता का दोहन करने और कीमतों में कमी को लेकर भारी दबाव है। टाटा स्टील ने अभी हाल ही में कहा था कि ट्रकों और बसों की मांग घटी है जबकि कार जैसे दूसरे हल्के वाहनों की मांग जस की तस बनी हुई है। अधिकारी के मुताबिक, घरेलू इस्पात निर्माता प्रति टन इस्पात की कीमत 800 डॉलर ऑफर कर रहे हैं जबकि अंतरराष्ट्रीय निर्माता महज 600 से 700 डॉलर की दर से ही इस्पात बेच रहे हैं। घरेलू कंपनियों की उत्पादन लागत भी इससे कहीं अधिक है। (BS Hindi)
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