नई दिल्ली January 31, 2010
चीनी उद्योग की मांग-आपूर्ति का मामला पहली नजर में सामान्य सा नजर आता है। भारत चीनी का बड़ा वैश्विक उपभोक्ता है। यहां चीनी की मांग लगभग 230 लाख टन है। भारत चीनी का सबसे बड़ा उपभोक्ता होने के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ा उत्पादक भी है। आय बढऩे से घरेलू मांग बढ़ी है। वैश्विक स्तर पर चीनी की कीमतें भी भारत के मांग-आपूर्ति समीकरण से प्रभावित होती है। आने वाले वर्षों में अगर भारत में चीनी का उत्पादन मांग के अनुरूप होगा तो सब ठीक रहेगा। हालांकि, कई कारकों से भारत में चीनी का उत्पादन 145 लाख टन से 220 लाख टन के बीच रहता है। मॉनसून के प्रभावों के अलावा गन्ने के रकबे में भी घट-बढ़ होती रहती है। चीनी आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में आती है और इसका उत्पादन एक समान नहीं रहता है। कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव के बावजूद मूल मांंग स्थिर रहती है और मांग-आपूर्ति में अगले सीजन तक अंतर बना रहता है। इसका मतलब हुआ कि अगर चीनी की आपूर्ति पर्याप्त रही तो कीमतों में कमी आएगी पर अगर इसमें थोड़ी भी कमी आई तो कीमतें आसमान छुएंगी। किसानों के नजरिए से देखें तो अगर रिकॉर्ड उत्पादन हुआ तो गन्ने का खरीद मूल्य कम होता है। इसलिए अगर गन्ने की खेती अच्छी हुई तो किसान अगले सीजन में गन्ने का रकबा घटा देते हैं। लेकिन अगर सीजन गन्ने के उत्पादन में कमी का रहा तो खरीद मूल्य बढ़ जाता है और किसान गन्ने का रकबा बढ़ा देते हैं।व्यावहारिक तौर पर हमने दो अच्छे सीजन के बाद दो बुरे सीजन देखे हैं लेकिन इनमें बदलाव हो सकता है। अच्छे या बुरे की परिभाषा इस बात पर निर्भर करती है कि आप उत्पादन पर गौर फरमा रहे हैं या कीमतों पर। मिलों के नजरिए से अतिरिक्त चीनी को तब तक भंडार में रखा जा सकता है जब तक बेहतर कीमतें नहीं मिलती। मूल्य-संवद्र्धन भी संभव है। चीनी से मिठाई या कन्फेक्शनरी बनाने पर मार्जिन बेहतर मिल जाता है। चीनी से अल्कोहल भी बनाया जा सकता है जिसका इस्तेमाल औद्योगिक या खपत के नजरिए से किया जा सकता है।चीनी के मामले में राजनीतिक दखलंदाजी भी होती है। राज्य सरकारें गन्ने का खरीद मूल्य तय करती हैं। मिलें इससे कम कीमतों पर गन्ना नहीं खरीद सकतीं हालांकि जब गन्ने का उत्पादन कम होता है तो उन्हें तय कीमतों से कहीं अधिक मूल्य पर गन्ना खरीदना होता है। यहा वजह है कि जब गन्ने की खेती जबरदस्त होती है तो मिलें पूरी फसल नहीं खरीदतीं। मिलों पर कई पाबंदियां होती हैं। बेहतर प्राप्तियों के लिए कटाई से 24 घंटों के भीतर पेराई करनी होती है। इसलिए परिवहन सुविधाओं को देखते हुए गन्ने का खरीद-क्षेत्र निर्धारित होता है। लेकिन, गन्ने का खरीद क्षेत्र राज्य सरकारें तय करती हैं, मिलेंं एक खास सीमा क्षेत्र में ही गन्ने की खरीद कर सकती हैं। इसके अलावा, राज्य सरकारें कभी-कभी गन्ना, शीरा आदि को सीमा से बाहर भेजने पर पाबंदी लगा देती हैं।कीमत, बिक्री कोटा और मूल्यवद्र्धन के मामले में और भी पाबंदियां हैं। अल्कोहल का उत्पादन शुरू करने के लिए विभिन्न अधिकारियों और विभागों से अनुमति लेनी होती है। मिलों को नियंत्रित लेवी कीमतों पर चीनी की एक निश्चित मात्रा बेचनी होती है। शेष चीनी की बिक्री खुले बाजार की कीमतों पर की जा सकती है। हालांकि, किसी महीने में खुले बाजार में कितनी चीनी बेची जानी है वह भी नियंत्रित होती है। इसलिए, कीमतों के अधिक होने पर अधिक चीनी बेच कर मिलें अधिक मुनाफा नहीं कमा सकतीं। इस प्रकार के नियंत्रण से बाजार और जटिल हो जाता है। भारत सरकार कभी आयात पर पाबंदी लगाती है और कभी इसकी अनुमति देती है। कमोडिटी एक्सचेंजों पर चीनी के वायदा कारोबार पर भी प्रतिबंध लगा दिया जाता है। आने वाले कई सीजन में संभवत: कीमतों का बढऩा जारी रहेगा। मांग बढ़ रही है और वैश्विक मांग-आपूर्ति में भारी अंतर है। इस साल भारत में चीनी की खपत अनुमानत: 230 लाख टन रहेगी जबकि घरेलू उत्पादन 150 से 160 लाख टन रहेगा। वैश्विक स्तर पर उत्पादन 1,600 लाख टन और खपत 1,670 लाख टन रहने की उम्मीद है। चीनी का इस्तेमाल ऊर्जा उत्पादन में भी किया जाता है। उदाहरण के तौर पर ब्राजील चीनी आधारित अल्कोहल का इस्तेमाल इंजनों में करता है। इससे भी चीनी की मांग बढ़ रही है।चीनी का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से आता है। अन्य राज्यों के साथ ही तमिलनाडु भी एक प्रमुख उत्पादक है। अधिकांश गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में चीनी उद्योग प्रमुख है और इसलिए यह खेतिहर मजदूर से लेकर मिल में काम करने वाले कर्मचारियों तक को रोजगार उपलब्ध कराता है। पिछली तिमाही में सूचीबद्ध कंपनियों के लाभ में 80 प्रतिशत का इजाफा हुआ। आपूर्ति में 35 प्रतिशत की कमी आने से कीमतों में 100 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। उच्च कीमतों का रुझान साल 2010 के उत्तराद्र्ध और उससे आगे भी बना रह सकता है। (बीएस हिन्दी)
01 फ़रवरी 2010
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