27 फ़रवरी 2010
आम आदमी पर बढ़ेगा बोझ
केंद्रीय बजट को किसी अकाउंटेंट की आंकड़ों की बाजीगरी के तौर पर नहीं देखा जा सकता। प्रणब मुखर्जी के बजट को एक अकाउंटेंट का बजट कहना मुनासिब होगा क्योंकि उन्होंने सिर्फ आंकड़ों का खेल खेला है। इन्फ्रास्ट्रक्चर के तहत ग्रामीण विकास और ग्रामीण विकास के तहत नरगा को जोड़ कर उन्होंने 1,73,552 करोड़ रुपये का खर्च खड़ा कर दिया। आंकड़ों की बाजीगरी में आम आदमी पिट गया है।प्रणब अपनी भूमिका को राजकोषीय घाटे और विकास दर में संतुलन कायम करने वाले के तौर पर देख रहे हैं। घाटे की एक अहम वजह पिछले साल घोषित राहत पैकेज हैं। आम धारणा है कि सरकार ने ये राहत पैकेज आम आदमी के लिए लाए। सरकार ने इसके जरिये विकास दर को रफ्तार देने का सेहरा अपने माथे बांध लिया। लेकिन आप को किसी आदमी से यह पूछ कर देखना चाहिए कि क्या इससे उसकी तनख्वाह, कारोबार या बचत में इजाफा हुआ है।2009-10 में जीडीपी में 7।2 फीसदी की वृद्धि दर के अनुमान का आपकी असल जिंदगी में क्या असर हुआ है? अगर इससे आपकी जिंदगी में कोई बेहतरी नहीं दिख रही है,तो समझ लीजिये कि आपने मामले की नब्ज पकड़ ली है। दरअसल केंद्रीय बजट सरकार और आला कंपनियों के बीच का संवाद बनता जा रहा है। आम आदमी इस दायर से पूरी तरह बाहर है। ऐसा लगता कि बजट आला कंपनियों के लिए ही लिखा जा रहा है। वही लोग इस पर बहस करते हैं और उन्हीं की राय मायने भी रखती है। वित्त मंत्री के बजट भाषण में इस रिश्ते की साफ झलक दिखती है। वह सार्वजनिक कंपनियों के बाजार पूंजीकरण का हवाला देते हैं। जैसे यह उनकी उपलब्धि हो। लेकिन क्या सार्वजनिक कंपनियों का मार्के ट कैपिटलाइजेशन बढ़ने से आम आदमी की कमाई पर कोई फर्क पड़ा है। बिल्कुल नहीं। हर बार बजट के बाद आम जनता को महंगाई बढ़ने की ही आशंका सताने लगती है। इस बार भी यही होने वाला है। इस बार का बजट पूरी तरह महंगाई बढ़ाने वाला बजट है, जिसमें विकास की कोई दृष्टि नहीं दिखती। अगर हम आज की तारीख में एक आम आदमी के बजट पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि खाने में उसकी आमदनी का बड़ा हिस्सा खर्च हो रहा है। कुछ शहरों में रहने से ज्यादा खाने पर खर्च हो रहा है। अगर हम आमदनी के हिसाब से सबसे निचले पायदान पर खड़े 20 फीसदी लोगों के खर्चे का जायजा लें तो पाएंगे कि उसका साठ फीसदी कमाई भोजन पर खर्च हो जाता है। यह वल्र्ड बैंक का आकलन है। क्या केंद्रीय बजट में इस तकलीफ को कम करने की कोशिश हुई है। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ है। प्रणब मुखर्जी का कहना है कि सरकार विकास और आर्थिक सुधारों की दिशा में एक मददगार की भूमिका निभा रही है। सरकार की भूमिका इसके लिए माकूल मुहैया कराना है। पिछले दो साल के दौरान अमेरिका में हम माकूल मुहैया कराने की भूमिका अदा करने वालों का प्रदर्शन देख चुके हैं। सरकार ने मदद मुहैया कराने वाले संसाधनों को वापस ले लिया और बाजार की ताकतों को खुला छोड़ दिया। इन ताकतों ने दुनिया की बड़ी इकोनॉमी को जमीन पर घसीट मारा और इसे दिवालियेपन के हालात में पहुंचा दिया। प्रणब कहते हैं कि बेहतरी का माहौल मुहैया कराने वाली सरकारें जरूरतमंदों को हर चीज सीधे मुहैया नहीं कराती। अगर केंद्र को अपने नागरिकों को सीधे तौर पर कुछ देना ही नहीं है तो फिर केंद्रीय कर ढांचे का क्या मतलब है? जीएसटी की बात क्यों हो रही है? एक्साइज डयूटी में बढ़ोतरी क्यों? क्या यह विशाल ब्यूरोक्रेसी का पेट भरने के लिए है? अगर ऐसा ही है तो शहरों और राज्यों के हाथों में इसकी कमान सौंपे दे।वित्त मंत्री का कहना है कि अर्थव्यवस्था में रिकवरी काफी उत्साह बढ़ाने वाली है। यह रिकवरी कृषि क्षेत्र के नकारात्मक प्रदर्शन के बावजूद हुई है। मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर ने इकोनॉमी को रफ्तार देने में अहम भूमिका निभाई है। क्या मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की बेहतरी ने नई नौकरियां पैदा हुई हैं। क्या मैन्यूफै क्चरिंग सेक्टर की यह तरक्की आपको खाद्य सुरक्षा दे सकती है। वित्त मंत्री का कहना है वह खाद्य सुरक्षा के मामले पर बेहद सजग हैं। उनका कहना है कि मुख्यमंत्रियों की मदद से अगले कुछ महीनों में वह महंगाई को नीचे ले आएंगे। अगर महंगाई कम करने की जिम्मेदारी राज्यों पर ही डालनी है तो कृषि मंत्रालय का क्या काम है? खत्म कर दीजिये इस मंत्रालय को। समर्थन मूल्य तय करने की पूरा अधिकार राज्यों के हाथ में दे दीजिये। वित्त मंत्री ने बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा तक हरित क्रांति पहुंचाने के लिए सिर्फ 400 करोड़ रुपये का इंतजाम किया है। छत्तीसगढ़ में इस सप्ताह की शुरुआत में बजट पेश किया गया है।लेकिन वहां भी इसके लिए इससे ज्यादा रकम का इंतजाम किया गया है। वित्त मंत्री कहते हैं कि खाद्यान्नों के भंडारण और सप्लाई चेन के परिचालन में खामियों की वजह से जो अनाज बरबाद होता है, उसे बचाना जरूरी है। वह प्रधानमंत्री का हवाला देते हैं। पीएम की नजर में बाजार में प्रतिस्पर्धा की जरूरत है। लिहाजा रिटेल कारोबार के लिए अपने बाजार को खोलने के प्रति हम दृढ़ रवैया अपनाना होगा। उनका मानना है कि इससे खेत से बाजार तक आने तक खाद्यान्नों के दाम में होने वाली बढ़ोतरी कम हो जाएगी। क्या आपने कभी सोचा है कि वाल मार्ट जैसी कंपनियां जब हमारा सारा अनाज खरीद लेगी तो क्या होगा? दामों पर किसका नियंत्रण रहेगा। खरीदार का या छोटे किसानों का। उपभोक्ताओं को जरूर फायदा होगा लेकिन क्या किसानों को फायदा होगा?राहत पैकेजों के बार में वित्त मंत्री का कहना है कि इनसे लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा आएगा। अप्रत्यक्ष करों में कटौती, मनरगा और ग्रामीण इलाकों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास का यही मकसद है। यही वजह है कि सरकार ने नरगा पर 4000 करोड़ रुपये खर्च किए। इसके जरिये वह उपभोग पर आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ाना चाहती थी। राहत पैकेजों का पैसा गया कहां। क्या मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में। यह कंपनियों के मुनाफे और बिक्री में तब्दील हो गया? क्या वित्त मंत्री यह स्वीकार करेंगे कि राहत पैकेजों की उनकी स्कीम गांवों में रहने वाले गरीबों तक पहुंचने में नाकाम रही है। क्या यह प्रशासनिक कड़ी में मौजूद सिस्टम के जेब में चली गई है? अगर यह पैसा ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीबों के पास पहुंचता तो खाने पर खर्च होता। अगर यह योजना नाकाम रही है और उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था को रफ्तार दे रही है तो इसे बंद कर देना चाहिए। राहत पैकेजों की राशि राज्यों को दे दी जाए ताकि रोजगार पैदा हो और इसमें रफ्तार आए।बजट में समावेशी विकास की कई घोषणाएं हैं। वित्त वर्ष 2010-11 की कुल आयोजना में 1,37,674 करोड़ रुपये सामाजिक सेक्टर के लिए निर्धारित है। यानी 37 फीसदी। इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए 1,73,552 करोड़ रुपये निर्धारित हैं। यानी आयोजना व्यय का 46 फीसदी। लेकिन इसमें ओवरलैपिंग हो गई है। दोनों योजनाओं में ग्रामीण क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के प्रावधान है। ग्रामीण विकास की पूरी आयोजना ही 66,100 करोड़ रुपये का है और यह अर्थव्यवस्था को रफ्तार दे सकती है। वित्त मंत्री ने महात्मा गांधी का हवाला दिया। उन्होंने कहा था जैसे ब्र±ामंड खुद के अंदर समाया हुआ है वैसे ही भारत भी गांवों के भीतर है। गांधी जी का कहना सच था। 2010 में यह स्थिति नहीं है। अगले दस साल में 25 करोड़ लोग शहरी आबादी में जुड़ जाएंगे। गांवों से शहर की ओर कूच करने वालों की तादाद बेहिसाब तेजी से बढ़ रही है। लेकिन यह बेहद अचरज की बात है कि इस बार बजट में जेएनएनयूआर का पत्ता साफ हो गया है, जबकि यह यूपीए सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं में से एक थी। क्या यह स्कीम पूरी तरह खत्म कर दी गई है? क्योंकि इस स्कीम का कोई इस्तेमाल ही नहीं हुआ। गांधी की बात कर नेहरू के नाम की स्कीम खत्म कर दी गई। मझोले और छोटे उद्योग सबसे ज्यादा रोजगार पैदा करते हैं। इसे सरकार के समर्थन की ज्यादा जरूरत है। सरकार ने इस सेक्टर के लिए ऋण प्रवाह पूरी तरह ठप कर दिया है। अब भी इस क्षेत्र को बहुत कम कर्ज मिल पा रहा है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है सरकार ने इस सेक्टर के लिए सिर्फ 2400 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। क्या इतना काफी है? याद रखिये यह भारतीय अर्थव्यवस्था की लाइफलाइन है। इस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। छोटे और मझोले उद्योगों के लिए कर्ज की सप्लाई बनाए रखनी होगी।वित्त मंत्री ने टैक्स स्लैब में कुछ दिखावटी परिवर्तन किए हैं। लेकिन इसका कोई फायदा नहीं होने वाला क्योंकि कीमतें बढ़ने और अप्रत्यक्ष करों का दवाब टैक्स स्लैब से दिखने वाले लाभों को कुतर जाएगा। बजट ने अप्रत्यक्ष करों के तौर पर 43500 करोड़ रुपये का लेवी थोप दिया है। वित्त मंत्री का कहना है कि यह आम आदमी का बजट है। यह सच है कि यह बजट आम आदमी पर एक बोझ है। उनका कहना कि यह किसानों, खेती-बाड़ी उद्मियों, आम उद्यमियों और निवेशकों का बजट है। लगता है वह अपने नम्र लहजे में व्यंग्य कर रहे हैं। उन्हें इसकी परवाह नहींे है कि यह इन वर्गो पर पर सकारात्मक असर डालता या नकारात्मक। (बिज़नस भास्कर)
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