नई दिल्ली [अश्विनी महाजन]। पिछले कई वर्षो से यह चिंता जताई जा रही है कि बजट में कृषि क्षेत्र की अनदेखी की जा रही है। हालांकि इस बजट में सरकार ने कृषि पर जुबानी चिंता चताई है, लेकिन आंकड़ों में यह चिंता केवल आम जनता को धोखा देती साबित हो रही है।
पिछले वर्ष कृषि के लिए कुल योजना व्यय का संशोधित अनुमान 2.37 प्रतिशत था, इस बार 2.34 प्रतिशत है। दलहन और तिलहन उगाने के लिए और अधिक सहायता देने की बात हो रही है, लेकिन यह केवल मुंह से खर्चे जमा है। देश के सामने खाद्यान्न संकट की जो समस्या है, वह प्रत्यक्ष रूप से कृषि की अनदेखी के कारण हैं। यह सरकार की कृषि क्षेत्र से जुड़ी असंवेदनशीलता का परिचायक है। कृषि क्षेत्र में चिंता का एक बड़ा ही हास्यास्पद नमूना सरकार ने इस बजट में दिया है।
सरकार का कहना है कि खाद्यान्नों की बर्बादी एक बड़ा संकट है, इसे संभालने के लिए रीटेल कंपनियों को प्रोत्साहन देना बहुत जरूरी है, क्योंकि वे चेन बनाकर सामानों को सस्ता बेचती हैं, जिससे बर्बादी से बचा जा सकता है। इसी बहाने सरकार विदेशी कंपनियों को भारत का टिकट दे रही है। न तो इस बारे में अभी तक कोई शोध आया है और न ही कोई अध्ययन ताकि रीटेल कंपनियों को बढ़ावा देने से खाद्यान्न की बरबादी से बचा जा सके।
वास्तव में सरकार की यह सोच बन गई है कि विदेशी निवेश के बगैर किसी भी क्षेत्र में सुधार नहींकिया जा सकता और रीटेल कंपनियों को न्यौता देने की बात इसी सोच का नतीजा है।
दूसरा संकट है राजकोषीय घाटा। पिछले बजट में राजकोषीय घाटा 6.8 प्रतिशत पहुंच गया था, हालांकि तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें बहुत ज्यादा थीं। तब राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी होना लाजिमी था, लेकिन अब तेल मूल्य पर काफी हद तक नियंत्रण पा लिया गया है। बावजूद इसके वित्तीय घाटे में मामूली-सी कमी अर्जित की गई है। 6.07 प्रतिशत का जो राजकोषीय घाटा दिखाया गया है, उसमें तेल कंपनियों के घाटे को नहीं जोड़ा गया है। और राजकोषीय घाटा में कमी की गई है तो दूसरी ओर पूंजीगत व्यय में भी तो कमी आई है। जो खर्च बढ़े भी हैं, वे रेवेन्यू एकाउंट में हैं। कृषि पर खर्च मात्रात्मक रूप से ज्यादा है, लेकिन नियोजित खर्च तो 3.45 प्रतिशत ही है।
बजट घाटा कम रखा गया है, क्योंकि प्रत्यक्ष करों से रेवेन्यू बढ़ने की उम्मीद जताई जा रही है। करों के संबंध में जो एक बात ठीक दिख रही है, वह यह कि जीएसटी को एक वर्ष के लिए और टाल दिया गया है। जिससे कीमतों को कम करने में मदद मिलेगी।
तीसरा मुद्दा है बेरोजगारी का। बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। नरेगा को जो विकल्प बनाया गया, वह अस्थाई समाधान है। स्थाई समाधान के लिए जरूरी है कि रोजगार के नए साधन मुहैया कराए जाएं। श्रमप्रधान तकीनीकों को बढ़ावा दिया जाए, लेकिन सरकार ने इस दिशा मे भी कोई बड़े प्रावधान नहीं किए हैं। इसी से जु़ड़ा हुआ है ढांचागत विकास। ढांचागत विकास आम आदमी के जीवन और आर्थिक समृद्धि के लिए बेहद आवश्यक है। इसके लिए भी इस बजट में कम प्रयास हुए है।
2008-09 में यह 5.5 प्रतिशत था, जबकि इसमें और अधिक निवेश की दरकार है। इस दिशा में एक अच्छी बात दिखाई दी कि सरकार ने प्रतिदिन 20 किमी सड़क बनाने की बात की है, जो सराहनीय है। इससे संसाधनों पर पैसा भी खर्च होगा, निवेश बढ़ेगा और रोजगार की संभावना भी बढ़ेगी।
महंगाई की बात की जाए तो इसके दो प्रमुख कारण हैं। कृषि क्षेत्र की अनदेखी और राजकोषीय घाटा। हालांकि तेल के दामों में बढ़ोतरी कर सरकार ने इस बात के संकेत दे दिए हैं कि महंगाई में फिलहाल कोई कमी नहींहोने जा रही है। सरकार यह कह तो रही है कि राजकोषीय घाटे को कम करके महंगाई को कम किया जाएगा, लेकिन इसके लिए जिस तरह के राजनीतिक अनुशासन की जरूरत होती है, उसमें यह सरकार अभी तक असफल रही है।
सोशल सेक्टर की बात की जाए तो इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, महिला और बाल विकास और आर्थिक और सामाजिक विकास को शामिल किया जाता है। पेयजल में लगाए गए धन में 1,300 करोड़ का इजाफा किया गया है, जिसे संतोषजनक कहा जा सकता है। सामाजिक और आर्थिक विकास में निवेश 2600 करोड़ से बढ़ाकर 45,00 करोड़ किया गया है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण में भी लगभग इतना ही इजाफा हुआ है।
इस तरह देखा जाए तो सोशल सेक्टर के लिए किए गए प्रयास संतोषजनक हैं, लेकिन यहां गौर करने वाली बात तो यह है कि सोशल सेक्टर के लिए पिछले वर्र्षो में जो राशि खर्च दी गई है, वह पूरी खर्च नहीं हो पाती। इसलिए इस मद में खर्च करने वाले पैसे के पीछे भी सरकार की लापरवाही ही झलकती है।
इस तरह इस बजट में सरकार ने लगभग सभी क्षेत्रों में यह दिखाने की कोशिश की है कि इस बजट में सभी का ख्याल रखा गया है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि हाशिए पर खड़े व्यक्ति को और पीछे धकेल दिया गया है। हर वह वस्तुएं महंगी हुई है, जो आम आदमी से जुड़ी है और ऐसी वस्तुएं जो प्रत्यक्ष रूप से आम आदमी से नहीं जुड़ीं, लेकिन उनके दामों में बढ़ोत्तरी हुई है। वे भी कहींन कहीं से महंगाई में बढ़ोत्तरी करने वाले कारकों के लिए जिम्मेदार हैं।
एक हाथ से दिया, दूसरे से लिया
परंजय गुहा ठाकुरता [आर्थिक विश्लेषक]। प्रणब मुखर्जी ने जो बजट पेश किया है, वह आम आदमी की उम्मीदों पर कुठाराघात करने वाला बजट है। आम आदमी ही क्यों, हर वर्ग महंगाई से त्रस्त है और इस सरकार ने जो बजट पेश किया, उसमें महंगाई से कहीं राहत मिलती नहीं दिखती। सबसे बड़ी उम्मीद तो यह थी कि खाद्यान्नों के दामों में कमी आएगी, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि अपरोक्ष रूप से खाद्यान्नों का दाम बढ़ेगा। तेल कंपनियों पर जो एक्साइज और कस्टम ड्यूटी बढ़ाई गई है, वह अप्रत्यक्ष रूप से महंगाई को बढ़ाएगा ही।
उधर, बजट पेश हुआ और इधर पेट्रोल के दाम बढ़ गए। इस तरह सरकार के बजट पेश करते ही महंगाई बढ़ने की शुरुआत हो गई।
सरकार कह रही है कि हमने आयकर में कमी की है, लेकिन सरकार ने ऐसा करके एक हाथ से दिया तो दूसरे हाथ से लिया है। अब 1.6 से पांच लाख रुपये तक की आय वाले 10 प्रतिशत कर के दायरे में आए हैं। इस तरह उनके लगभग 4,000 रुपये बचा रहे हैं, लेकिन यहां भी उन्हें फायदा हुआ है, जिनका वेतन ज्यादा है।
यही हाल आठ लाख से ऊपर वाले स्लैब में भी है। इस तरह वित्त मंत्री ने आयकर स्लैब में बढ़ोतरी करके जो पैसा जनता की जेब में डाला, वह दूसरे माध्यमों से निकाल लिया।
वित्त मंत्री कह रहे हैं कि ग्रामीण विकास, महिला विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य के मदों में धन की बढ़ोत्तरी की गई है। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले वित्तीय वर्ष में जो रकम शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के मद में दी गई थी, वह भी पूरी खर्च नहींहो पाई। फिर इस बजट में इन पर राशि बढ़ाने का क्या मतलब है।
सरकार ने कम किया है वित्तीय घाटा। इसे घटाकर 6.7 फीसदी से 5.5 फीसदी कर दिया गया है, लेकिन वित्तीय घाटे के कम होने से आम जनता को क्या मतलब है? सरकार यह समझ रही है कि अभी तो चुनाव होने में साढ़े चार वर्ष बाकी है, तब तक जनता को दूसरे मुद्दों से बहका लिया जाएगा।
वित्तमंत्री ने खुद माना कि यह बजट सिर्फ एक का खर्चा चलाने वाला बजट नहीं है। इसमें राजनीति और अर्थनीति दोनों ही समाहित है, लेकिन मैं कहूंगा यह न तो अच्छी अर्थनीति है न ही अच्छी राजनीति।
आम आदमी के लिए कुछ नहीं खास
घनेंद्र सिंह सरोहा। सरकार की हिम्मत की दाद देनी होगी। आम आदमी बीते छह महीने से त्राहि-त्राहि कर रहा है। सरकार से रोज उम्मीद कर रहा है कि वह महंगाई घटाने के लिए कुछ करेगी, लेकिन लोकसभा में बजट पेश करते समय वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने उसकी उम्मीदों पर न सिर्फ पानी फेर दिया, बल्कि उसकी पसलियों के जख्मों पर नमक लगाने का काम किया।
महंगाई पर चर्चा को संसद के दोनों सदनों में खत्म हुए अभी कुछ घटे भी नहीं बीते थे कि वित्तमंत्री ने बजट प्रस्ताव में पेट्रोल और डीजल के सीमा शुल्क एवं उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी करने की बात कर दी। वित्तमंत्री का इतना कहना था कि संपूर्ण विपक्ष बीजेपी, सपा, राष्ट्रीय जनता दल, भाकपा, माकपा ने सदन का बहिष्कार कर दिया।
बीते छह महीने से अपनी थाली में दाल, सब्जी, खाद्य तेल, चीनी लाने के लिए जूझ रही जनता उम्मीद कर रही थी कि वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी उसके लिए कुछ राहत की घोषणा करेंगे, लेकिन वित्तमंत्री ने जून 2008 में कच्चे तेल की 112 डालर प्रति बैरल कीमतों का हवाला देते हुए कहा कि चूंकि उस समय सरकार ने कच्चे तेल पर से सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क हटा लिया था, इसलिए अब तेल की कीमतें 64 डालर के आस-पास होने पर इसे वे फिर से बहाल करने जा रहे हैं। वित्तमंत्री के लिए यह राजकोषीय घाटा कम करने की कवायद भर होगी, लेकिन वित्तमंत्री के इस प्रस्ताव ने आम आदमी की कमर तोड़ कर रख दी है। अब उसे सरकार से कोई उम्मीद नहीं बची है। क्योंकि कल तक स्वयं वित्तमंत्री लोकसभा में मान रहे थे कि देश में महंगाई बढ़ी है, लेकिन अब उन्होंने फिर से मंहगाई बढ़ाने का काम कर दिया।
माना जा रहा है कि वित्तमंत्री के प्रस्ताव से तेल और डीजल की कीमतों में तीन से पांच रुपये का इजाफा होगा। दिल्ली में तो यह हो भी गया है। और ऐसा होने पर लाजमी है खाने के अलावा जरूरत की सभी चीजों, बस, आटो के किराए में इजाफा होगा।
माकपा सासद बृंदा करात बताती हैं कि सरकार ने खाद्य पदार्थो में 400 करोड़ रुपये की कमी कर दी। यूरिया के दामों में 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी कर दी। दाल, चीनी, सब्जी, दूध, खाद्य तेल के दाम आसमान पर हैं। ऐसे में पेट्रोल-डीजल के दामों में बढ़ोत्तरी का सीधी असर आम-आदमी, किसान और मजदूरों पर पड़ेगा।
और सरकार को अगर कच्चे तेल की कीमतों का इतना ही ध्यान है तो जब कच्चे तेल की कीमतें 148 डालर प्रति बैरल चली गई थीं, तब क्यों नहीं इसके दामों में बढ़ोत्तरी की थी। इसलिए नहीं, क्योंकि तब कई राच्यों में विधानसभा और बाद में लोकसभा चुनाव थे। सरकार तब क्यों नहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार के अनुसार चली। आज अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 74 डालर प्रति बैरल [160 लीटर] है। इस हिसाब से भारत में इसकी कीमत करीब 21.46 रुपये प्रति लीटर बैठती है। 10 फीसदी इसमें प्रोसेसिंग चार्ज भी लगा दिया जाए तो यह दोगुना यानी 48 रुपये तो नहीं बैठना चाहिए और यही हाल डीजल का है। जो बाजार में 32 रुपये प्रति लीटर में मिल रहा है।
पेट्रोल पर खर्च होने वाले हरेक एक रुपये में से 51.36 पैसे सरकार करों के रूप में वसूलती है। इसमें से सीमा एवं उत्पाद शुल्क 34.69 पैसे और राच्य कर 16.67 पैसे होते हैं। तय है कि इन तेल उत्पादों से सबसे ज्यादा कमाई केंद्र सरकार ही करती है। और सरकार ने अभी हाल ही में तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे का बहाना बनाते हुए पेट्रोल और डीजल की कीमतों में पांच रुपये तक का इजाफा किया था, जबकि उस समय कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 65 डालर प्रति बैरल से ज्यादा नहीं थी।
जब सरकार के सामने चुनाव थे तो 148 डालर प्रति बैरल पर भी पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफा नहीं किया और अब आने वाले एक साल में बिहार को छोड़ कहीं चुनाव नहीं है तो सरकार को अपना राजकोषीय घाटा दिखने लगा, लेकिन अब इन हालात में आम आदमी के सामने स्थिति खराब हो चली है। सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं कि वह कुछ करेगी नहीं। और विपक्ष अब जाकर आवेश में आकर एकजुट हुआ है।
बहरहाल, खेती और मंहगाई के सच बहुतेरे हैं। कोई सुनना चाहे तब न। देश में अस्सी के दशक के बाद से खेती में निवेश नहीं के बराबर हुआ है। जब निवेश ही नहीं हुआ तो उत्पादकता और रकबा बढ़ने की बात तो भूल ही जाइए। चीन, जापान यहा तक की उत्तरी कोरिया तक से अपनी कृषि उत्पादकता की तुलना करना बेमानी है। क्योंकि वह कम है और काफी कम है।
वित्तमंत्री ने देश में दूसरी हरित क्राति पूर्वोत्तर राज्यों से शुरू करने की घोषणा की है। इसके लिए सरकार ने 400 करोड़ रुपये का फंड रखा है। इन पूर्वोत्तर राज्यों में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल को भी रखा गया है।
हालाकि यह सोच काफी पुरानी है, लेकिन देर से ही सही सरकार ने इसके बारे में सोचा तो है। लेकिन अभी का क्या। वित्तमंत्री ने तो स्थिति को और बिगाड़ दिया है। पेट्रोल-डीजल के अलावा सीमेंट और स्टील के दामों में इजाफा होने के प्रस्ताव के बाद आम आदमी की अब सोचने की शक्ति भी नहीं बची है कि वह आने वाले दिनों में कैसे जा पाएगा। उसकी आखिरी उम्मीद अब एकजुट विपक्ष ही है। और विपक्ष भी कुछ नहीं कर सका तो उसके पास एफसीआई के गोदामों और आईओसी के टैंकरों पर हमला करने के अलावा और कोई उपाय नहीं रह जाएगा। (दैनिक जागरण)
27 फ़रवरी 2010
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