11 अक्तूबर 2012
चीनी के चक्रव्यूह में फंसे किसान
चीनी के विनियंत्रण पर गठित सी रंगराजन समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंप दी है। समिति ने कहा है कि केंद्र सरकार की ओर से घोषित किए जाने वाले उचित व लाभकारी मूल्य, यानी एफआरपी को गन्ने का आधार मूल्य तय किया जाए। समिति की सबसे अहम सिफारिश यह है कि किसानों को चीनी मिलों के मुनाफे में साझेदार बनाया जाए। मिल से उत्पादित चीनी की कीमत का 70 फीसदी और खोई व एथेनॉल जैसे उप उत्पादों की कीमत का पांच फीसदी भाग लेकर हर तिमाही में गन्ने की कीमत का आकलन किया जाए।
अगर यह रकम एफआरपी से ज्यादा होती है, तो अधिक अंतराल की रकम किसानों को दी जाए। किसी तिमाही में समिति के फॉरमूले से तय होने वाली रकम यदि एफआरपी से कम हो, तब भी किसानों को न्यूनतम राशि के तौर पर एफआरपी की रकम मिलेगी, क्योंकि किसान के साथ घाटा साझा नहीं किया जा सकता। मिल की आमदनी में हिस्सेदारी देने वाला यह फॉरमूला किसानों के लिए फायदेमंद है, लेकिन इसमें राज्य सरकार के हाथ से गन्ने की कीमत तय करने का अधिकार छिन जाता है। इसी कारण गन्ना किसानों की राजनीति करने वाले इन सिफारिशों का विरोध कर रहे हैं।
उदारीकरण की बयार में सरकार ने सीमेंट और स्टील जैसे उद्योगों का तो विनियंत्रण कर दिया, पर चीनी पर सरकारी शिकंजा कसता ही गया। नतीजतन किसानों को जहां गन्ने की कम कीमत मिलती है, वहीं उपभोक्ताओं को लागत से दोगुनी कीमत पर चीनी खरीदनी पड़ती है। चीनी पर नियंत्रण की कवायद गन्ने की बिक्री पर लागू गन्ना क्षेत्र आरक्षित नियम (केन रिजर्व एरिया) से शुरू होती है, जो कहता है कि किसान को गन्ना अपने खेत के 15 किलोमीटर के दायरे में स्थित चीनी मिल को ही बेचना होगा, चाहे दूसरी मिलें गन्ने की ज्यादा कीमत दे रही हों। चीनी मिलें किसानों से गन्ना लेकर पेराई शुरू कर देती हैं, मगर भुगतान के लिए सरकार की घोषणा का इंतजार करती हैं। वे गन्ने की सरकारी कीमत देने से भी कतराती हैं और हरेक साल कीमतों की यह जंग अदालत की चौखट पर पहुंच जाती है।
रंगराजन समिति ने किसानों के खेत पर मिल के एकाधिकार को मजबूती देने वाले भेदभावपूर्ण नियम को समाप्त करने की सिफारिश की है। चीनी मिलें किसानों का पैसा लटकाए रखती हैं। मिल मालिकों का कहना है कि सरकार ने लेवी कानून चीनी उत्पादकों पर लाद रखा है, लिहाजा चीनी मिलों को मुनाफा नहीं होता। लेवी चीनी मिलों के कुल चीनी उत्पादन का एक तयशुदा हिस्सा (फिलहाल उत्पादन का 10 फीसदी) होती है और सरकार बाजार भाव से कम पर (फिलवक्त 18 रुपये प्रति किलो) लेवी चीनी खरीदती है। इसका इस्तेमाल वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली में करती है।
चीनी मिलों की याचिका पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने सरकार को लेवी चीनी बाजार भाव पर खरीदने का आदेश दिया था। सरकार ने इस फैसले की मार से बचने के लिए उचित व लाभकारी मूल्य के रूप में एक नया फॉरमूला ईजाद कर डाला। गन्ने का एफआरपी बेहद कम रखा जाता है, क्योंकि इसी दर से लेवी चीनी का भुगतान करना होता है। केंद्र सरकार एफआरपी पूरे देश में गन्ने की लागत के आधार पर तय करती है, लेकिन इस कवायद में उत्तर भारत के किसान ठगे जाते हैं।
दरअसल गन्ना उष्णकटिबंधीय जलवायु की फसल है और इसकी खेती के लिए दक्षिण भारत व महाराष्ट्र बेहद उम्दा हैं। इन राज्यों में गन्ने की उत्पादकता 100 से 110 टन प्रति हेक्टेयर है, जबकि उपउष्णकटिबंधीय उत्तर भारत में गन्ने की उत्पादकता 40 से 60 टन प्रति हेक्टेयर है। एफआरपी से गन्ना किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती, इसलिए राज्य सरकारें राज्य समर्थित मूल्य (एसएपी) की घोषणा करती हैं।
किसानों के शोषण की प्रक्रिया में चीनी मिलों के आधुनिकीकरण, उद्योग में नए निवेश, गन्ने की नई किस्मों पर अनुसंधान, फसल के रकबे में बढ़ोतरी, बेहतर रिकवरी और गन्ने की फसल में पानी की खपत कम करने जैसे कई सवाल नेपथ्य में चले गए हैं। अगर सरकार उद्योग, किसान व उपभोक्ताओं का भला चाहती है, तो रंगराजन समिति की सिफारिश मानते हुए चीनी उद्योग के विनियंत्रण की दिशा में आगे बढ़े। (Amar Ujala)
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