11 अक्तूबर 2012
चीनी उद्योग के विनियंत्रण
चीनी उद्योग के विनियंत्रण को लेकर कई दशकों से जद्दोजहद होती रही है। लेकिन बात समितियां बनाने और उनकी आधी अधूरी सिफारिशों को लागू करने से आगे नहीं बढ़ी है। इसमें महाजन समिति की सिफारिशें हों या फिर टुटेजा समिति की। चीनी मिलों पर लागू लेवी को घटाने और मिलों की स्थापना से संबंधित लाइसेंस प्रक्रिया में जरूर कुछ बदलाव हुए हैं। लेकिन जो मु्द्दे ज्यादा विवादास्पद समझे जाते हैं उनको लेकर कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है।
एक बार फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की है। इस समिति को लेकर कुछ उम्मीदें बन रही हैं क्योंकि माना जा रहा है कि खुद पीएम इसमें रुचि ले रहे हैं। लेकिन जनवरी में गठित हुई यह समिति आगामी साल के बजट के पहले सिफारिशें दे सकेगी उसे लेकर संदेह है। बेहतर हो कि समिति ऐसा कर सके अन्यथा 16 मार्च को पेश होने वाले बजट में कम से कम वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी इस समिति की सिफारिशों को अमल में लाने के कुछ संकेत दे सकें तो अच्छा है।
असल में चीनी उद्योग उन गिने चुने क्षेत्रों में हैं जो 1991 के आर्थिक उदारीकण के बाद के लाइसेंस परमिट राज से मुक्ति के अवसर से अछूता रह गया है। हालांकि अब कुछ शर्तों के साथ चीनी मिल स्थापना के लिए लाइसेंस लेने की बजाय केवल 'लेटर ऑफ इंटेट लेना होता है। लेकिन गन्ना उत्पादन और उसकी चीनी मिलों को इसकी आपूर्ति से लेकर चीनी और उसके बायप्रोडक्ट्स की बिक्री तक सभी स्तरों के लिए नियम कायदे तय है।
यही वजह है कि देश में चीनी के उत्पादन में उतार- चढ़ाव का चक्रीय क्रम जारी है जो किसान, उद्योग और उपभोक्ता किसी के हित में नहीं हैं।
जहां तक उद्योग की बात है तो वह पिछले कई दशकों से लगातार एक ही तरह की मांगें सरकार के सामने रखता रहा है। मसलन गन्ने के लिए राज्यों द्वारा दाम तय की व्यवस्था को खत्म कर दी जाए।
गन्ना मूल्य को चीनी की बिक्री से होने वाली आय के साथ जोड़ दिया जाए। चीनी पर सरकार को दी जाने वाली 10 फीसदी उत्पादन की लेवी समाप्त कर दी जाए। हर माह जारी होने वाला खुले बाजार की बिक्री की कोटा व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाए। निर्यात के लिए दीर्घकालिक नीति हो और जरूरत पडऩे पर रॉ शुगर के निर्बाध आयात की अनुमति उद्योग को मिले।
पहली नजर में देखने में ये मांगें सामान्य लगती हैं।
लेकिन चीनी उद्योग को करीब छह महीने तक गन्ने की सतत आपूर्ति की जरूरत होती है। जिसके लिए उद्योग गन्ना क्षेत्र के रिजर्वेशन की व्यवस्था को बरकरार रखना चाहता है। वहीं दो चीनी मिलों के बीच की दूरी को मौजूदा 15 किलोमीटर से बढ़ाकर 25 किलोमीटर या जरूरत पडऩे पर उससे भी अधिक करने का प्रावधान चाहता है।
इसकी वजह गन्ना आपूर्ति को सुनिश्चित करना है। या यूं कहें कि किसानों के लिए गन्ना बेचने के लिए खरीदारों के बीच कम प्रतिस्पर्धा की स्थिति रहे। जहां तक 10 फीसदी लेवी चीनी का मुद्दा है तो उसके लिए उद्योग का तर्क साफ है। उसका कहना है कि सरकार राशन प्रणाली के तहत समाज के कमजोर वर्ग को चीनी वितरित करने के लिए उद्योग से यह चीनी लेती है और उसकी कीमत लागत से काफी कम होती है। जिसका असर उद्योग द्वारा किसानों को गन्ना मूल्य भुगतान करने की क्षमता पर भी पड़ता है।
सरकार खाद्यान्न की सीधे खरीद करती है और इसका राशन प्रणाली के तहत कम कीमत पर वितरण करती है। चीनी के मामले में भी उसे ऐसा ही करना चाहिए। लेकिन यहां एक पेंच है। चीनी उद्योग को शुगर डेवलपमेंट फंड (एसडीएफ) से चार फीसदी की सस्ती दर से कर्ज मिलता है। यह पैसा चीनी की बिक्री के समय उत्पाद शुल्क के साथ ग्राहकों से वसूला जाता है। ऐसे में उद्योग की सामाजिक जिम्मेदारी भी बनती है। यही वजह है कि टुटेजा समिति के समय चीनी उद्योग ने स्वीकारा था कि लेवी में चीनी देकर पर अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करता है। लेकिन अब शायद इस मुद्दे पर उद्योग की राय बदल गई है।
हां यह बात बिलकुल सही है कि पिछले सीजन और चालू सीजन में चीनी की बेहतर उपलब्धता को देखते हुए सरकार को चीनी उद्योग को खुले बाजार की मासिक कोटा बिक्री की व्यवस्था से मुक्त कर देना चाहिए। साथ ही निर्यात के मोर्चे पर भी व्यावहारिक रवैया अपनाना चाहिए। असल में जिस तरह से सरकार ने चीनी को राजनैतिक रूप से संवेदशील कमोडिटी बना रखा है उसका कोई औचित्य नहीं है।
चीनी से कहीं अधिक ज्यादा आर्थिक असर डालने वाले और जरूरी उत्पाद दूध की कीमत पर सरकार का कोई खास नियंत्रण नहीं है। दूध की कीमतों में पिछले कुछ साल में बेतहाशा बढ़ोतरी भी हुई है लेकिन चीनी की कीमत पर सरकार सबसे अधिक संवेदनशील हो जाती है। हालांकि इसके पीछे थोक मूल्य सूचकांक में चीनी के वेटेज का मुद्दा मुख्य वजह रहा है लेकिन अब इसमें भी बदलाव हो चुका है।
लेकिन इसमें सबसे संवेदनशील मुद्दा गन्ने की कीमत को तय करने का है। तीन साल पहले केंद्र सरकार ने फेयर एंड रिम्यूनिरेटिव प्राइस (एफआरपी) की व्यवस्था लागू कर एक अव्यावहारिक कदम उठाया था। भारी विरोध के बात इस व्यवस्था में ं बदलाव कर राज्यों के दाम तय करने अधिकार को बरकरार रखा गया। इस मामले में उद्योग का लालच भी जिम्मेदार है जिसके चलते गन्ना मूल्य का मुद्दा बार-बार न्यायालय में भी जाता रहा है और अभी भी यह सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी बैंच के सामने विचाराधीन है।
एक समय था जब मिलें केवल चीनी ही बेचती थी या फिर शीरा से कुछ कमाई करती थी। लेकिन अब चीनी मिलें बिजली निर्यात कर रही हैं, शीरा से अल्कोहल और एथनॉल बना रही हैं। प्रेसमड से उर्वरक बना रही हैं। उनको देखना होगा कि आय के इन नये स्रोतों में भी किसान को कुछ हिस्सेदारी दें। इससे गन्ना मूल्य के विवाद पर काफी हद तक अंकुश लग सकेगा क्योंकि इन सब उत्पादों के मूूल में गन्ना ही रॉ मैटीरियल है।
इसके साथ ही अगर केंद्र सरकार वाकई बदलाव लाना चाहती है तो वह चीनी मिलों को गन्ना के जूस से सीधे अल्कोहल और एथनॉल बनाने की इजाजत दे। यह विकल्प किस तरह से उद्योग और किसान दोनों के हित में है इस बारे में अगले लेख में जानकारी दी जाएगी। प्रधानमंत्री द्वारा गठित समिति को यह समझना होगा कि चीनी उद्योग को विनियंत्रित करना समय की जरूरत तो है लेकिन उसके साथ जुड़े सभी पक्षों के हितों के बीच संतुलन बनाकर ही यह काम करना होगा।
(Business Bhaskar)
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