29 अप्रैल 2010
सोयामील के निर्यात में भारत को कड़ी टक्कर
निर्यातकों की मांग कमजोर होने से सोयामील की कीमतों में लगातार गिरावट का रुख बना हुआ है। भारत के मुकाबले अमेरिका, अर्जेटीना और ब्राजील की सोयामील के दाम कम हैं। इसीलिए भारत के मुकाबले इन देशों से निर्यात मांग बढ़ रही है।इस समय भारत में बंदरगाह पर सोयामील का भाव 370-375 डॉलर प्रति टन है जबकि अर्जेटीना की सोयमील का भाव 280-282 डॉलर प्रति टन (एफओबी) चल रहा है। भारत से इंडानेशिया और मलेशिया का शिपमेंट खर्च 45 डॉलर और अर्जेंटीना से 65 डॉलर प्रति टन पड़ता है। इस लिहाज से आयातक देशों को अर्जेटीना का सोयामील सस्ता पड़ रहा है।सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के प्रवक्ता राजेश अग्रवाल ने बताया कि भारत के मुकाबले अर्जेटीना, अमेरिका और ब्राजील की सोयामील के दाम कम हैं इसीलिए भारत से निर्यात मांग कमजोर बनी हुई है। मार्च महीने में भारत से सोयामील के निर्यात में 23।78 फीसदी की गिरावट आकर कुल निर्यात 1,69,861 टन रहा। जबकि पिछले साल मार्च में 2,22,639 टन निर्यात हुआ था। वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान निर्यात में करीब 50.31 फीसदी की भारी गिरावट दर्ज की गई। इस दौरान कुल निर्यात मात्र 21.35 लाख टन का ही हुआ जबकि पिछले साल 42.45 लाख टन का निर्यात हुआ था। राजेश अग्रवाल ने कहा कि भारत के मुकाबले अर्जेटीना की सोया खली के दामों में अंतर ज्यादा है। जिसका असर भारत से निर्यात मांग पर पड़ रहा है। हमार यहां अभी सिर्फ 40-45 फीसदी सोयाबीन की ही पेराई हो पाई है। सोयामील और तेल की मांग कम होने के कारण प्लांटों को भी पड़ते नहीं लग रहे हैं। नीचे दाम पर स्टॉकिस्टों और किसानों की बिकवाली न आने से सोयाबीन की मौजूदा कीमतों में और गिरावट की संभावना भी कम है। इंदौर में सोयाबीन के दाम करीब 2025 रुपये प्रति `िंटल चल रहे हैं। साई सिमरन फूड लि. के डायरक्टर नरश गोयनका ने बताया कि जनवरी में सोयामील के दाम बंदरगाह पर पहुंच 413 डॉलर प्रति टन थे, जो घटकर 370-375 डॉलर प्रति टन रह गए हैं। चूंकि अर्जेटीना व ब्राजील में सोयाबीन के उत्पादन में भारी बढ़ोतरी हुई है इसलिए इनकी बिकवाली कम भाव पर आ रही है। अर्जेटीना में सोयाबीन का उत्पादन पिछले साल के 380 लाख टन से बढ़कर 525 लाख टन और ब्राजील में 470 लाख टन से 675 लाख टन होने की संभावना है। हालांकि चीन जो अर्जेटीना से सोया तेल का सबसे ज्यादा आयात करता है, क्वालिटी को लेकर नए आयात सौदे नहीं कर रहा है।चीन ने मई महीने के लिए अर्जेटीना से कोई भी आयात सौदा नहीं किया है। ऐसे में अब चीन की खरीद अमेरिका व ब्राजील से होने की संभावना है। इसीलिए अमेरिका और ब्राजील में सोयाबीन के दाम बढ़े हैं। इसका आंशिक असर घरलू बाजार में भी सोयाबीन और सोया तेल की कीमतों पर देखा जा सकता है। लेकिन सोया खली कीमतों में तेजी की संभावना नहीं है। (बिज़नस भास्कर......आर अस राणा)
विदेशी बाजार के दबाव से मक्का एमएसपी से नीचे
अमेरिका, अर्जेटीना और ब्राजील में ज्यादा उत्पादन होने के कारण मक्का के दाम भारतीय बाजार के मुकाबले कम चल रहे हैं। भारत से मक्का का निर्यात ठंडा पड़ने के कारण उत्पादक राज्यों बिहार, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र की मंडियों में मक्का के दाम घटकर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से भी नीचे आ गए हैं। चालू फसल सीजन के लिए सरकार ने मक्का का एमएसपी 840 रुपये प्रति `िंटल तया किया है। जबकि बिहार की मंडियों में भाव घटकर 740-750 रुपये, आंध्र प्रदेश की मंडियों में 810-820, कर्नाटक में 800-810 और महाराष्ट्र में 825-830 रुपये प्रति `िंटल रह गए। अमेरिकी ग्रेन काउंसिल में भारत के प्रतिनिधि अमित सचदेव ने बताया कि मक्का के अन्य प्रमुख उत्पादक देशों अमेरिका, अर्जेटीना व ब्राजील में उत्पादन ज्यादा होने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में भाव कम हैं। जबकि रुपये के मुकाबले डॉलर भी कमजोर होकर 44।64 के स्तर पर आ गया है। इसलिए मौजूदा भावों में भारत से मक्का निर्यातकों को निर्यात पड़ते नहीं लग रहे हैं। उधर शिकागो बोर्ड ऑफ ट्रेर्ड (सीबीओटी) में जुलाई वायदा अनुबंध में पिछले सप्ताह 2.58 फीसदी की गिरावट आई। सीबॉट में भाव 142.11 डॉलर प्रति टन रह गए। भारत से थोड़ा बहुत निर्यात इंडोनेशिया और मलेशिया को 225 डॉलर प्रति टन (सीएंडएफ) की दर से हो रहा है। बिहार की नौगछिया मंडी के मक्का व्यापारी पवन अग्रवाल ने बताया कि राज्य की मंडियों में मक्का की आवक बढ़कर 60-70 हजार बोरी की हो गई है। गोपाल ट्रेडिंग कंपनी के प्रोपराइटर राजेश अग्रवाल ने बताया कि बिहार से उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा तथा दिल्ली के लिए हर सप्ताह 12 से 15 हजार बोरी मक्का की सप्लाई हो रही है। लेकिन पोल्ट्री और स्टार्च मिलों की मांग कमजोर बनी हुई है। जिससे कीमतों में गिरावट का रुख बना हुआ है। दिल्ली बाजार में पिछले एक सप्ताह में कीमतों में 80 रुपये की गिरावट आकर बुधवार को भाव 970 रुपये प्रति `िंटल रह गए। उधर आंध्र प्रदेश की मंडियों में भाव घटकर 810-820 रुपये, कर्नाटक में 800-810 रुपये और महाराष्ट्र की मंडियों में 825-830 रुपये प्रति `िंटल रह गए। कृषि मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2009-10 में भारत में मक्का के उत्पादन का अनुमान 173 लाख टन का है जोकि वर्ष 2008-09 के 197 लाख टन से कम है। हालांकि रबी में मक्का का उत्पादन 56.40 लाख टन होने का अनुमान है जोकि पिछले साल के 56.10 लाख टन से थोड़ा ज्यादा है। उत्पादक राज्यों में मौसम अनुकूल रहा है। जिससे प्रति हैक्टेयर पैदावार में बढ़ोतरी होने की संभावना है।बात पते कीअमेरिका, अर्जेटीना व ब्राजील में उत्पादन ज्यादा होने से विश्व बाजार में भाव कम हैं। रुपया मजबूत हो रहा है। भारतीय मक्का 225 डॉलर जबकि अमेरिकी मक्का 142 डॉलर प्रति टन पर बिक रहा है। (बिज़नस भास्कर....आर अस राणा)
फिर बढ़ सकते हैं चीनी के दाम
चीनी फिर महंगी हो सकती है। सरकार ने इसके लिए पूरी तैयारी कर ली है। चीनी मिलों के लिए कोटे की चीनी बेचने की एक समय सीमा होती है। सरकार इसे बढ़ाने जा रही है। इससे बाजार में चीनी की उपलब्धता कम हो सकती है। अगर उपलब्धता घटी तो दाम बढ़ना लाजिमी है। चीनी निदेशालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि मिलों को कोटे की चीनी बेचने के लिए मई से एक महीने का समय दिया जायेगा। पिछले दो दिनों में दिल्ली थोक बाजार में चीनी की कीमतों में 200 रुपये की तेजी आई है और भाव 3,000 रुपये प्रति `िंटल हो गए हैं। जानकारों के अनुसार हाल के दिनों में चीनी की कीमतों में लगातार आई गिरावट से उद्योग की चिंता बढ़ गई थी। इसलिए उद्योग प्रतिनिधि सरकार से चीनी बिक्री नियमों में ढील की मांग कर रहे थे। सूत्रों का कहना है कि भले ही आम उपभोक्ता को अभी चीनी 32-33 रुपये प्रति किलो की दर से खरीदनी पड़ रही हो, लेकिन सरकार ने मान लिया है कि चीनी के दाम न्यूनतम स्तर से भी नीचे आ गए हैं। इसीलिए सरकार मिलों को बिक्री नियमों में छूट देने जा रही है। चीनी की कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र सरकार ने फरवरी से मिलों को नॉन लेवी (फ्री-सेल) चीनी की बिक्री साप्ताहिक कोटे के अनुसार करने का निर्देश दिया था। अगर मिलें साप्ताहिक अवधि में निर्धारित कोटा बाजार में नहीं बेच पातीं तो बची हुई चीनी को लेवी चीनी (सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत आवंटित चीनी के दाम) में तब्दील कर दिया जाता था। लेवी चीनी और खुले बाजार में चीनी की कीमतों में करीब 2,000 रुपये प्रति `िंटल का अंतर होने से मिलों पर चीनी की साप्ताहिक बिकवाली का दबाव बढ़ गया था और तभी कीमतों में गिरावट आई थी। (उसिएन्स्स भास्कर...आर अस राणा)
रबर की बढ़ी कीमतें बनीं मुसीबत
कोच्चि April 28, 2010
प्राकृतिक रबर पर आधारित इकाइयों को इस समय गंभीर वित्तीय संकट का सामना करना पड़ रहा है।
खासकर छोटी और मझोली इकाइयों को संकट ज्यादा है, क्योंकि प्राकृतिक रबर की कीमतों में जोरदार तेजी आई है। पंजाब और केरल जैसे प्रमुख राज्यों के उद्योग जगत के सूत्रों के अनुमान के मुताबिक करीब 200-300 छोटी इकाइयां पहले ही बंद हो चुकी हैं और करीब 500 इकाइयां बंदी के कगार पर हैं।
महज 4 महीनों के दौरान प्राकृतिक रबर की कीमतों में 25 प्रतिशत तेजी के बाद गैर टायर क्षेत्र में काम करने वाली 5000 इकाइयों को गंभीर आथक संकट का सामना करना पड़ रहा है। आरएसएस-4 ग्रेड के रबर की कीमतें पिछले सप्ताह 170 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गईं, जो इस साल के पहले सप्ताह में 138 रुपये किलो थीं।
इस समय प्राकृतिक रबर का बाजार बहुत तेज है और छोटी इकाइयों के सामने अब उत्पादन रोक देने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। मझोली और छोटी इकाइयां करीब 3500 विभिन्न उत्पाद बनाती हैं और इसकी आपूर्ति बड़ी कंपनियों और रेलवे जैसे सार्वजनिक क्षेत्र को माल की आपूर्ति करती हैं। वे पहले से हो चुके सौदों की दरों के मुताबिक माल की आपूर्ति नहीं कर पा रही हैं। सिर्फ रेल विभाग ही 2000 इकाइयों से विभिन्न उत्पादों की खरीदारी करता है।
कोट्टायम के एक एसएसआई विनिर्माता ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि रबर के साथ अन्य कच्चे माल जैसे केमिकल्स, धातुओं और रंगों की कीमतों में पिछले 6 से 9 महीने के दौरान 25-35 प्रतिशत की तेजी आई है। उन्होंने कहा- हम रोज बढ़ रही कीमतों के मुताबिक अपने उत्पादों के दाम नहीं बढ़ा सकते, क्योंकि बड़ी इकाइयों से कड़ी प्रतिस्पर्धा है।
छोटी इकाइयां मुख्य रूप से मॉडयूल्ड आयटम, डिप्ड गुड्स, शीटिंग्स, विभिन्न रबर गास्केट, फुट वियर, केबल, रबर बैंड सहित तमाम उत्पाद बनाती हैं। देश में कुल रबर उत्पादन में केरल की हिस्सेदारी 92 प्रतिशत है और इसमें से 60 प्रतिशत से ज्यादा रबर उत्तर भारत, खासकर पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में भेजा जाता है। इन इकाइयों के असंगठित होने के चलते उत्पादन के वास्तविक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
कुछ विनिर्माताओं के पास उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक छोटी इकाइयों में करीब 5,00,000 श्रमिक काम करते हैं। इन इकाइयों के बंद होने से बेरोजगारी का संकट भी है। कोचीन रबर मर्चेंट्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष एन राधाकृष्णन ने कहा कि रबर के कुल उत्पादन का 15-20 प्रतिशत उपभोग छोटी इकाइयों में होता है और प्राकृतिक रबर की कीमतों में तेज बढ़ोतरी की वजह से इन इकाइयों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
उन्होंने कहा कि कीमतें 170 रुपये प्रति किलो तक पहुंच जाने के चलते पिछले दो महीने से उत्तर भारत से रबर की मांग भी कम हुई है। रबर का बाजार अब 200 रुपये प्रति किलो की ओर बढ़ रहा है।
अन ब्रांडेड फुट वियर बनाने वाले केजी पॉल ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि ब्रांडेड माल की कीमतें कच्चे माल की कीमतों के साथ बढ़ सकती हैं। हम लोग कीमतें एक सीमा तक ही बढ़ा सकते हैं, क्योंकि चप्पल पहनने वाले हमारे समाज के लोग गरीब तबके से आते हैं। अगर एक निश्चित सीमा के आगे हम कीमतें बढ़ाते हैं तो खरीदारों का एक बड़ा तबका ब्रांडेड माल की ओर चला जाएगा।
छोटी और मझोली विनिर्माण इकाइयां बंदी के कगार पर
करीब 200-300 रबर आधारित छोटी इकाइयां बंद, 500 बंदी के कगार परमहज 4 महीने में रबर की कीमतें 25 प्रतिशत बढ़ींगैर टायर क्षेत्र की 5000 इकाइयां आर्थिक संकट मेंबड़ी उत्पादक इकाइयों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहे हैं छोटे व मझोले विनिर्माता (बीएस हिंदी)
प्राकृतिक रबर पर आधारित इकाइयों को इस समय गंभीर वित्तीय संकट का सामना करना पड़ रहा है।
खासकर छोटी और मझोली इकाइयों को संकट ज्यादा है, क्योंकि प्राकृतिक रबर की कीमतों में जोरदार तेजी आई है। पंजाब और केरल जैसे प्रमुख राज्यों के उद्योग जगत के सूत्रों के अनुमान के मुताबिक करीब 200-300 छोटी इकाइयां पहले ही बंद हो चुकी हैं और करीब 500 इकाइयां बंदी के कगार पर हैं।
महज 4 महीनों के दौरान प्राकृतिक रबर की कीमतों में 25 प्रतिशत तेजी के बाद गैर टायर क्षेत्र में काम करने वाली 5000 इकाइयों को गंभीर आथक संकट का सामना करना पड़ रहा है। आरएसएस-4 ग्रेड के रबर की कीमतें पिछले सप्ताह 170 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गईं, जो इस साल के पहले सप्ताह में 138 रुपये किलो थीं।
इस समय प्राकृतिक रबर का बाजार बहुत तेज है और छोटी इकाइयों के सामने अब उत्पादन रोक देने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। मझोली और छोटी इकाइयां करीब 3500 विभिन्न उत्पाद बनाती हैं और इसकी आपूर्ति बड़ी कंपनियों और रेलवे जैसे सार्वजनिक क्षेत्र को माल की आपूर्ति करती हैं। वे पहले से हो चुके सौदों की दरों के मुताबिक माल की आपूर्ति नहीं कर पा रही हैं। सिर्फ रेल विभाग ही 2000 इकाइयों से विभिन्न उत्पादों की खरीदारी करता है।
कोट्टायम के एक एसएसआई विनिर्माता ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि रबर के साथ अन्य कच्चे माल जैसे केमिकल्स, धातुओं और रंगों की कीमतों में पिछले 6 से 9 महीने के दौरान 25-35 प्रतिशत की तेजी आई है। उन्होंने कहा- हम रोज बढ़ रही कीमतों के मुताबिक अपने उत्पादों के दाम नहीं बढ़ा सकते, क्योंकि बड़ी इकाइयों से कड़ी प्रतिस्पर्धा है।
छोटी इकाइयां मुख्य रूप से मॉडयूल्ड आयटम, डिप्ड गुड्स, शीटिंग्स, विभिन्न रबर गास्केट, फुट वियर, केबल, रबर बैंड सहित तमाम उत्पाद बनाती हैं। देश में कुल रबर उत्पादन में केरल की हिस्सेदारी 92 प्रतिशत है और इसमें से 60 प्रतिशत से ज्यादा रबर उत्तर भारत, खासकर पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में भेजा जाता है। इन इकाइयों के असंगठित होने के चलते उत्पादन के वास्तविक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
कुछ विनिर्माताओं के पास उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक छोटी इकाइयों में करीब 5,00,000 श्रमिक काम करते हैं। इन इकाइयों के बंद होने से बेरोजगारी का संकट भी है। कोचीन रबर मर्चेंट्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष एन राधाकृष्णन ने कहा कि रबर के कुल उत्पादन का 15-20 प्रतिशत उपभोग छोटी इकाइयों में होता है और प्राकृतिक रबर की कीमतों में तेज बढ़ोतरी की वजह से इन इकाइयों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
उन्होंने कहा कि कीमतें 170 रुपये प्रति किलो तक पहुंच जाने के चलते पिछले दो महीने से उत्तर भारत से रबर की मांग भी कम हुई है। रबर का बाजार अब 200 रुपये प्रति किलो की ओर बढ़ रहा है।
अन ब्रांडेड फुट वियर बनाने वाले केजी पॉल ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि ब्रांडेड माल की कीमतें कच्चे माल की कीमतों के साथ बढ़ सकती हैं। हम लोग कीमतें एक सीमा तक ही बढ़ा सकते हैं, क्योंकि चप्पल पहनने वाले हमारे समाज के लोग गरीब तबके से आते हैं। अगर एक निश्चित सीमा के आगे हम कीमतें बढ़ाते हैं तो खरीदारों का एक बड़ा तबका ब्रांडेड माल की ओर चला जाएगा।
छोटी और मझोली विनिर्माण इकाइयां बंदी के कगार पर
करीब 200-300 रबर आधारित छोटी इकाइयां बंद, 500 बंदी के कगार परमहज 4 महीने में रबर की कीमतें 25 प्रतिशत बढ़ींगैर टायर क्षेत्र की 5000 इकाइयां आर्थिक संकट मेंबड़ी उत्पादक इकाइयों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहे हैं छोटे व मझोले विनिर्माता (बीएस हिंदी)
बनी रहेगी जिसों में वैश्विक तेजी
मुंबई April 28, 2010
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अनुमान लगाया है कि उभरते बाजारों की ओर से मांग बढ़ने की वजह से जिंसों की मांग में तेजी बनी रहेगी।
यह धातुओं, कच्चे तेल, यहां तक कि कृषि जिंसों के लिए भी सही है। दीर्घावधि के हिसाब से देखें तो इन तीनों जिंसों में तेजी जारी रहेगी। आईएमएफ वर्ल्ड इकोनॉमिक रिपोर्ट के मुताबिक यह उत्पादकों पर निर्भर होगा कि वे अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग किस तरह से करते हैं।
जिंसों की कीमतें, खासकर रिर्सोस जिंसों की कीमतें चालू कैलेंडर वर्ष में भी तेज बनी रहेंगी। लौह अयस्क और निकल की कीमतें 40 प्रतिशत तक बढ़ी हैं, वहीं कोयले के दाम 10 प्रतिशत, स्टील के दाम 22-26 प्रतिशत बढ़े हैं। जनवरी के बाद से कच्चे तेल और पेट्रोकेमिकल्स- जैसे पीवीसी की कीमतों में 10 प्रतिशत तक की तेजी आई है।
उभरते बाजारों में चीन द्वारा जिंसों का आयात जारी है। इस समय चीन का आयात 2008 की आखिर में आई मंदी के बाद सर्वोच्च स्तर पर है। चीन द्वारा बडे पैमाने पर आयात जारी है और पिछले मार्च महीने के आंकड़ों से भी यह स्पष्ट होता है।
बार्कलेज की रिपोर्ट के मुताबिक- इस साल मार्च में चीन द्वारा तांबे, तेल और स्टीम कोल का आयात उसके सर्वोच्च आयात के दूसरे स्थान पर रहा। वहीं प्लैटिनम का आयात सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया है, जो पिछले उच्च स्तर से बहुत ज्यादा है। चीन ने सोयाबीन और कपास जैसे कृषि जिंसों का भी आयात बड़े पैमाने पर किया है।
आईएमएफ ने अपने वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक में कहा है कि उभरते हुए देशों में मांग तेज है। 2009 में जिंस संबंधित संपत्तियों में निवेश की रफ्तार तेज हुई है। अनुमानों के मुताबिक 2009 के अंत तक जिंस संबंधित संपत्ति में निवेश 257 अरब डॉलर पहुंच गया है, जो 2008 के सर्वोच्च स्तर से ही कम है।
अमेरिका के जिंस वायदा नियामक कमोडिटी फ्यूचर्स ट्रेडिंग कमीशन (सीएफटीसी) के आंकड़ों से भी संकेत मिलता है कि निवेशकों ने कीमतें बढ़ने के अनुमान से हेजिंग की है। डेलोटे टच तोहमात्सु इंडिया प्राइवेट लिमिटेड की वरिष्ठ निदेशक कल्पना जैन ने कहा, 'जिंसों की कीमतें बढ़ने से संकेत मिल रहा है कि अर्थव्यवस्था में मजबूती आ रही है और विकास की रफ्तार ठीक है। कीमतें बढ़ने से महंगाई दर पर कुछ असर पड़ने की उम्मीद है।' (बीएस हिंदी)
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अनुमान लगाया है कि उभरते बाजारों की ओर से मांग बढ़ने की वजह से जिंसों की मांग में तेजी बनी रहेगी।
यह धातुओं, कच्चे तेल, यहां तक कि कृषि जिंसों के लिए भी सही है। दीर्घावधि के हिसाब से देखें तो इन तीनों जिंसों में तेजी जारी रहेगी। आईएमएफ वर्ल्ड इकोनॉमिक रिपोर्ट के मुताबिक यह उत्पादकों पर निर्भर होगा कि वे अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग किस तरह से करते हैं।
जिंसों की कीमतें, खासकर रिर्सोस जिंसों की कीमतें चालू कैलेंडर वर्ष में भी तेज बनी रहेंगी। लौह अयस्क और निकल की कीमतें 40 प्रतिशत तक बढ़ी हैं, वहीं कोयले के दाम 10 प्रतिशत, स्टील के दाम 22-26 प्रतिशत बढ़े हैं। जनवरी के बाद से कच्चे तेल और पेट्रोकेमिकल्स- जैसे पीवीसी की कीमतों में 10 प्रतिशत तक की तेजी आई है।
उभरते बाजारों में चीन द्वारा जिंसों का आयात जारी है। इस समय चीन का आयात 2008 की आखिर में आई मंदी के बाद सर्वोच्च स्तर पर है। चीन द्वारा बडे पैमाने पर आयात जारी है और पिछले मार्च महीने के आंकड़ों से भी यह स्पष्ट होता है।
बार्कलेज की रिपोर्ट के मुताबिक- इस साल मार्च में चीन द्वारा तांबे, तेल और स्टीम कोल का आयात उसके सर्वोच्च आयात के दूसरे स्थान पर रहा। वहीं प्लैटिनम का आयात सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया है, जो पिछले उच्च स्तर से बहुत ज्यादा है। चीन ने सोयाबीन और कपास जैसे कृषि जिंसों का भी आयात बड़े पैमाने पर किया है।
आईएमएफ ने अपने वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक में कहा है कि उभरते हुए देशों में मांग तेज है। 2009 में जिंस संबंधित संपत्तियों में निवेश की रफ्तार तेज हुई है। अनुमानों के मुताबिक 2009 के अंत तक जिंस संबंधित संपत्ति में निवेश 257 अरब डॉलर पहुंच गया है, जो 2008 के सर्वोच्च स्तर से ही कम है।
अमेरिका के जिंस वायदा नियामक कमोडिटी फ्यूचर्स ट्रेडिंग कमीशन (सीएफटीसी) के आंकड़ों से भी संकेत मिलता है कि निवेशकों ने कीमतें बढ़ने के अनुमान से हेजिंग की है। डेलोटे टच तोहमात्सु इंडिया प्राइवेट लिमिटेड की वरिष्ठ निदेशक कल्पना जैन ने कहा, 'जिंसों की कीमतें बढ़ने से संकेत मिल रहा है कि अर्थव्यवस्था में मजबूती आ रही है और विकास की रफ्तार ठीक है। कीमतें बढ़ने से महंगाई दर पर कुछ असर पड़ने की उम्मीद है।' (बीएस हिंदी)
नहीं बढ़ेगा खेती का रकबा
मुंबई April 28, 2010
मॉनसूनी बारिश पहले होने से खरीफ की फसलों- धान, सोयाबीन या मूंगफली की बुआई का रकबा नहीं बढ़ेगा।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अगर मॉनसून सामान्य रहता है और हर इलाके में सामान्य बारिश होती है तो चालू सत्र में निश्चित रूप से बुआई का रकबा बढ़ने की उम्मीद है। पिछले साल भी मौसम विभाग ने सामान्य मॉनसून का अनुमान लगाया था। लेकिन पिछले साल दक्षिण पश्चिमी मॉनसून कमजोर होने की वजह से सामान्य से कम बारिश हुई।
इस साल भी मौसम विभाग ने कमोबेश सामान्य मॉनसून का अनुमान लगाया है, जिसके मुताबिक 98 प्रतिशत सामान्य बारिश होने की उम्मीद है। साथ ही अनुमान है कि इस साल भारत में 7-10 दिन पहले मॉनसून आ जाएगा।
केयर रेटिंग के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा- पहली बात तो यह है कि शुरुआती मॉनसून केरल और आसपास के इलाकों में आएगा, जहां धान और तिलहन की खेती नहीं होती। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश में इससे कोई फायदा नहीं होगा। महाराष्ट्र में जुलाई में धान की बुआई होती है और केरल में अगस्त में होती है, जिससे इन राज्यों को फायदे की उम्मीद नहीं है।
संभव है कि इसका फायदा कर्नाटक या आंध्र प्रदेश को थोड़ा बहुत मिल जाए। उत्तर भारत में कोई खास फायदा नहीं होगा। साथ ही उन इलाकों में पहले बुआई हो सकती है, जहां किसान साल में एक फसल उगाते हैं। शेष इलाकों में रबी की फसल का काम मई के अंत में खत्म होता है।
जियोजीत कॉमट्रेड के मुख्य विश्लेषक आनंद जेम्स ने कहा, 'मॉनसून के जल्दी आने को खेती के लिए बेहतर माना जाता है, लेकिन इससे बुआई के क्षेत्रफल पर मामूली प्रभाव होगा, खासकर ऐसी स्थिति में जब ज्यादातर फसलों का किसानों को उचित दाम नहीं मिला। बहरहाल, सस्ते बीज, बेहतर घरेलू मांग और निर्यात बाजार में सुधार की वजह से कृषि का रकबा बढ़ सकता है।'
केयर रेटिंग की रिपोर्ट के मुताबिक सामान्य मॉनसून का कोई खास असर महंगाई दर पर नहीं पड़ेगा, क्योंकि बाजार धारणा के मुताबिक आपूर्ति की स्थिति बेहतर नहीं है। बहरहाल मॉनसून सामान्य रहना अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर संकेत है।
कोटक कमोडिटीज सर्विसेज लिमिटेड के एक विश्लेषक अमोल तिलक ने कहा कि मूंगफली और सोयाबीन का क्षेत्रफल इस बात पर निर्भर करेगा कि बुआई के समय इनकी कीमतें कैसी रहती हैं, हालांकि धान की बुआई का क्षेत्रफल बढ़ने की उम्मीद है। (बीएस हिंदी)
मॉनसूनी बारिश पहले होने से खरीफ की फसलों- धान, सोयाबीन या मूंगफली की बुआई का रकबा नहीं बढ़ेगा।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अगर मॉनसून सामान्य रहता है और हर इलाके में सामान्य बारिश होती है तो चालू सत्र में निश्चित रूप से बुआई का रकबा बढ़ने की उम्मीद है। पिछले साल भी मौसम विभाग ने सामान्य मॉनसून का अनुमान लगाया था। लेकिन पिछले साल दक्षिण पश्चिमी मॉनसून कमजोर होने की वजह से सामान्य से कम बारिश हुई।
इस साल भी मौसम विभाग ने कमोबेश सामान्य मॉनसून का अनुमान लगाया है, जिसके मुताबिक 98 प्रतिशत सामान्य बारिश होने की उम्मीद है। साथ ही अनुमान है कि इस साल भारत में 7-10 दिन पहले मॉनसून आ जाएगा।
केयर रेटिंग के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा- पहली बात तो यह है कि शुरुआती मॉनसून केरल और आसपास के इलाकों में आएगा, जहां धान और तिलहन की खेती नहीं होती। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश में इससे कोई फायदा नहीं होगा। महाराष्ट्र में जुलाई में धान की बुआई होती है और केरल में अगस्त में होती है, जिससे इन राज्यों को फायदे की उम्मीद नहीं है।
संभव है कि इसका फायदा कर्नाटक या आंध्र प्रदेश को थोड़ा बहुत मिल जाए। उत्तर भारत में कोई खास फायदा नहीं होगा। साथ ही उन इलाकों में पहले बुआई हो सकती है, जहां किसान साल में एक फसल उगाते हैं। शेष इलाकों में रबी की फसल का काम मई के अंत में खत्म होता है।
जियोजीत कॉमट्रेड के मुख्य विश्लेषक आनंद जेम्स ने कहा, 'मॉनसून के जल्दी आने को खेती के लिए बेहतर माना जाता है, लेकिन इससे बुआई के क्षेत्रफल पर मामूली प्रभाव होगा, खासकर ऐसी स्थिति में जब ज्यादातर फसलों का किसानों को उचित दाम नहीं मिला। बहरहाल, सस्ते बीज, बेहतर घरेलू मांग और निर्यात बाजार में सुधार की वजह से कृषि का रकबा बढ़ सकता है।'
केयर रेटिंग की रिपोर्ट के मुताबिक सामान्य मॉनसून का कोई खास असर महंगाई दर पर नहीं पड़ेगा, क्योंकि बाजार धारणा के मुताबिक आपूर्ति की स्थिति बेहतर नहीं है। बहरहाल मॉनसून सामान्य रहना अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर संकेत है।
कोटक कमोडिटीज सर्विसेज लिमिटेड के एक विश्लेषक अमोल तिलक ने कहा कि मूंगफली और सोयाबीन का क्षेत्रफल इस बात पर निर्भर करेगा कि बुआई के समय इनकी कीमतें कैसी रहती हैं, हालांकि धान की बुआई का क्षेत्रफल बढ़ने की उम्मीद है। (बीएस हिंदी)
त्योहारी मांग और कीमतों में स्थिरता से सोने में चमकेगी मांग
मुंबई April 28, 2010
सोने की कीमतों में स्थिरता, अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये में उछाल और त्योहारी मौसम आने से विश्लेषकों का मानना है कि भारत में सोने की मांग मजबूत रह सकती है।
ग्रीस के लिए यूरोपीय संघ की आर्थिक सहानुभूति की वजह से सोने की कीमतें सीमित दायरे में 1090-1167 डॉलर प्रति औंस के बीच रही। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार आने से दूसरी परिसंपत्तियों जिनमें रियल एस्टेट, बॉन्ड और अमेरिकी ट्रेजरी शामिल है, में भरोसा कायम हुआ जिससे सोने की कीमतों में भी थोड़ी कमी आई।
वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूजीसी) की हालिया रिपोर्ट से संकेत मिलते हैं कि सोने की औसत कीमत में बढ़ोतरी हुई और मौजूदा साल की पहली तिमाही में पिछली तिमाही के 1,099.63 डॉलर प्रति औंस के मुकाबले 1,109.12 डॉलर प्रति औंस हो गया। पूरी तिमाही के दौरान सोने का कारोबार 1,058 डॉलर प्रति औंस और 1,153 डॉलर प्रति औंस के बीच रहा।
कुछ कारकों की वजह से कीमतों को समर्थन मिला लेकिन दूसरी वजहों ने कीमतों में बढ़ोतरी पर लगाम लगाई। वैश्विक कंसंल्टेंसी कंपनी जीएफएमएस ने इस महीने के शुरू में यह घोषणा की है कि इस दशक के अंत तक सोने की कीमतें 3000 डॉलर प्रति औंस को छू लेगी। रुपये के लिहाज से सोना इस साल की शुरुआत से 16200-16900 प्रति 10 ग्राम के सीमित दायरे में रहा।
एक सर्राफा कारोबारी पुष्पक बुलियन के केतन श्रॉफ का कहना है, 'सामान्य तौर पर ग्राहक उतार-चढ़ाव के दौर में खरीदारी करने से बचते हैं। कीमतों में अचानक तेजी आई और यह लगभग 17,000 रुपये प्रति 10 ग्राम हो गया है ऐसे में ग्राहक खरीदारी करने से बचते हैं। लेकिन अगर कीमत इस स्तर पर बनी रही तो मांग में फिर से तेजी आएगी।'
इस बीच डब्ल्यूजीसी ने आने वाले त्योहारी मौसम के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं। डब्ल्यूजीसी के दक्षिण पश्चिम एशिया और भारत के प्रबंध निदेशक अजय मित्रा का कहना है, 'इस साल हमने बैसाखी, पोइला बैसाख, गुडी पडवा, लोहड़ी, उगाडी, तमिलनाडु का नया साल, विशु और गुरुपुष्य अमृत के लिए तैयारी की है। भविष्य में हमारी योजना अक्षय तृतीया जैसे त्योहारों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने की है। (बीएस हिंदी)
सोने की कीमतों में स्थिरता, अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये में उछाल और त्योहारी मौसम आने से विश्लेषकों का मानना है कि भारत में सोने की मांग मजबूत रह सकती है।
ग्रीस के लिए यूरोपीय संघ की आर्थिक सहानुभूति की वजह से सोने की कीमतें सीमित दायरे में 1090-1167 डॉलर प्रति औंस के बीच रही। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार आने से दूसरी परिसंपत्तियों जिनमें रियल एस्टेट, बॉन्ड और अमेरिकी ट्रेजरी शामिल है, में भरोसा कायम हुआ जिससे सोने की कीमतों में भी थोड़ी कमी आई।
वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूजीसी) की हालिया रिपोर्ट से संकेत मिलते हैं कि सोने की औसत कीमत में बढ़ोतरी हुई और मौजूदा साल की पहली तिमाही में पिछली तिमाही के 1,099.63 डॉलर प्रति औंस के मुकाबले 1,109.12 डॉलर प्रति औंस हो गया। पूरी तिमाही के दौरान सोने का कारोबार 1,058 डॉलर प्रति औंस और 1,153 डॉलर प्रति औंस के बीच रहा।
कुछ कारकों की वजह से कीमतों को समर्थन मिला लेकिन दूसरी वजहों ने कीमतों में बढ़ोतरी पर लगाम लगाई। वैश्विक कंसंल्टेंसी कंपनी जीएफएमएस ने इस महीने के शुरू में यह घोषणा की है कि इस दशक के अंत तक सोने की कीमतें 3000 डॉलर प्रति औंस को छू लेगी। रुपये के लिहाज से सोना इस साल की शुरुआत से 16200-16900 प्रति 10 ग्राम के सीमित दायरे में रहा।
एक सर्राफा कारोबारी पुष्पक बुलियन के केतन श्रॉफ का कहना है, 'सामान्य तौर पर ग्राहक उतार-चढ़ाव के दौर में खरीदारी करने से बचते हैं। कीमतों में अचानक तेजी आई और यह लगभग 17,000 रुपये प्रति 10 ग्राम हो गया है ऐसे में ग्राहक खरीदारी करने से बचते हैं। लेकिन अगर कीमत इस स्तर पर बनी रही तो मांग में फिर से तेजी आएगी।'
इस बीच डब्ल्यूजीसी ने आने वाले त्योहारी मौसम के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं। डब्ल्यूजीसी के दक्षिण पश्चिम एशिया और भारत के प्रबंध निदेशक अजय मित्रा का कहना है, 'इस साल हमने बैसाखी, पोइला बैसाख, गुडी पडवा, लोहड़ी, उगाडी, तमिलनाडु का नया साल, विशु और गुरुपुष्य अमृत के लिए तैयारी की है। भविष्य में हमारी योजना अक्षय तृतीया जैसे त्योहारों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने की है। (बीएस हिंदी)
28 अप्रैल 2010
मानसून बदल देगा कमोडिटी के विदेश व्यापार की दिशा
देश में बेहतर मानसून चीनी और अनाज के विदेश व्यापार का रुख बदल देगा। अच्छे मानसून से जहां चीनी आयात कम हो सकता है, वहीं सरकार गेहूं और चावल (गैर बासमती) के आयात पर पाबंदी हटा सकती है। अच्छी बारिश होने से अर्थव्यवस्था की रफ्तार सुधरगी तो सोने का आयात बढ़ने की पूरी संभावना है।जून से सितंबर के दौरान होने वाली बारिश से अर्थव्यवस्था की विकास दर तेज होने की उम्मीद है। भारत चीनी, गेहूं, चावल और खाद्य तेलों के सबसे बड़े उत्पादक और उपभोक्ता देशों में से एक है। सोने के आयात में भी भारत का पहला नंबर आता है। भारत से चीनी आयात में कोई कमी आती है तो न्यूयॉर्क रॉ शुगर फ्यूचर पर दबाव बन सकता है। पिछले शुक्रवार को रॉ शुगर के दाम 10 माह के निचले स्तर पर चले गए। मानसून बेहतर रहता है तो निश्चित ही भारत में चीनी का आयात कम होगा। इसी तरह भारत से गेहूं का निर्यात खुलने की संभावना से शिकागो गेहूं फ्यूचर गिर सकता है। इसके दाम सोमवार को सात सप्ताह के उच्च स्तर पर पहुंच गए।कोच्चि के जेआरजी वैल्थ मैनेजमेंट के रिसर्च प्रमुख हरीश गेलीपेल्ली का कहना है कि निश्चित ही अच्छे मानसून सप्लाई की चिंता दूर होगा और खाद्य वस्तुओं की महंगाई कम होगी। देश में चीनी और सोयाबीन का बेहतर सुधरता है तो खाद्य तेल और चीनी का आयात कम होगा।हालांकि मानसून को लेकर अनिश्चितता पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। पिछले साल भी शुरूआत में सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की गई थी लेकिन बाद में 1972 के बाद का सबसे भयंकर सूखा पड़ा। इसके कारण चावल और गन्ने का उत्पादन गिर गया। देश में चीनी का आयात बढ़कर 50 लाख टन तक पहुंच गया तो विश्व बाजार में इसके भाव तीन दशक के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गए। इसके विपरीत अमेरिकी कृषि विभाग (यूएसडीए) ने अनुमान लगाया है कि अगले सीजन में भारत का चीनी उत्पादन 27 फीसदी बढ़कर 247 लाख टन तक पहुंच सकता है क्योंकि चालू सीजन में अच्छे दाम मिलने के कारण किसान गन्ने की खेती ज्यादा एरिया में करेंगे।उधर सूखे से पहले ही महंगाई से परशान सरकार ने गेहूं और चावल के निर्यात पर रोक लगा दी थी। इसके अलावा इन वस्तुओं का वायदा व्यापार भी निलंबित कर दिया गया था। पिछले साल सरकार ने आम चुनाव से पहले खाद्य वस्तुओं की सप्लाई सुधारने के मकसद से रोक लगाई थी। निर्यात रोक के कारण सूखे के दौर में गैर बासमती चावल की घरलू बाजार में सप्लाई सुधारने में मदद मिली। पिछले साल सरकार ने चावल आयात की भी कोशिश की। आयात के लिए टेंडर भी जारी कर दिए गए लेकिन काफी ऊंचे भाव पर बिड मिलने के कारण आयात का फैसला टाल दिया गया।कारोबारियों और विश्लेषकों का मानना है कि अच्छे मानसून से इस साल चावल का उत्पादन बढ़ सकता है। इससे सामान्य किस्म के चावल के निर्यात पर लगी रोक हटाई जा सकती है। अचानक गर्मी बढ़ने से पहले देश में गेहू का उत्पादन भी बढ़कर 820 लाख टन तक पहुंचने की संभावना है। (बिज़नस भास्कर)
औद्योगिक मांग से केमिकल महंगे
कोल्ड ड्रिंक, वाहन, डिटर्जेट और फूड प्रोसेसिंग कंपनियों की ओर से पिछले एक माह के दौरान केमिकलों की मांग लगातार बढ़ रही है। इन तमाम उद्योगों की केमिकल खरीद बढ़ने के अलग-अलग कारण हैं।केमिकलों की मांग बढ़ने के कारण इसकी कीमतों में 10 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है। कारोबारियों के अनुसार बाजार में केमिकलों की सप्लाई मांग के अनुरूप नहीं बढ़ी है। इस वजह से आगे भी इसकी कीमतों में तेजी बरकरार रह सकती है। बाजार में एक माह के दौरान अमोनियम क्लोराइड के दाम 1700-2500 रुपये प्रति 50 किलोग्राम, सिट्रिक एसिड 2650-3050 रुपये प्रति 50 किलोग्राम, हाइड्रोजन पर ऑक्साइड के दाम 33-35 रुपये प्रति किलो और कास्टिक सोडा के दाम 100-120 रुपये बढ़कर 1100-115क् रुपये प्रति 50 किलो हो गए हैं। महीने भर में इनकी कीमतों में 10त्न की बढ़ोतरी हो चुकी है। केमिकल मर्चेट्स एसोसिएशन दिल्ली के चेयरमैन राजंेद्र कुमार गुप्ता ने बिजनेस भास्कर को बताया कि बाजार में केमिकल की सप्लाई कम हो रही है। वहीं इसकी मांग अच्छी चल रही है। यही कारण है कि केमिकल की कीमतों में तेजी आई है। उनका कहना है कि केमिकल बनाने में उपयोग होने वाले कच्चे माल के महंगा होने के कारण भी कीमतों में तेजी को बल मिला है। कारोबारी विनोद कुमार का कहना है कि गर्मियों में कोल्ड ड्रिंक कंपनियों व अचार निर्माताआंे की ओर से सिट्रिक एसिड की मांग बढ़ने लगी है। ऑटो उद्योग में भी तेजी से सिट्रिक एसिड की मांग बढ़ी है। सिट्रिक एसिड का उपयोग टेक्सटाइल उद्योग में धाग-धब्बों का साफ करने, ऑटो उद्योग में कल-पुर्जो में लगने वाली जंग को साफ करने, शीतल पेय पदार्थो और अचार बनाने में स्वाद के लिए किया जाता है। कारोबारियों के मुताबिक डिटर्जेट निर्माताओं की मांग से कास्टिक सोडा और स्टॉकिस्टों की मांग से मेंथा तेल की कीमतों में वृद्धि हुई है। केंद्रीय बजट 2010-11 में उत्पाद शुल्क बढ़ने और भाड़ा महंगा होने से केमिकल की कीमतों में इजाफा हुआ था। उत्पाद शुल्क दो फीसदी बढ़ने और पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ने से भाड़ा महंगा हो गया था। इस वजह से पिछले माह केमिकल की कीमतों में पांच फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है। देश में चीन से केमिकल का आयात काफी किया जाता है। (बिज़नस भास्कर)
म्यांमार की बिकवाली घटने से उड़द, अरहर और मूंग में तेजी
म्यांमार के निर्यातकों की बिकवाली घटने और घरेलू स्टॉकिस्टों की ख्ररीद के चलते दालों के दाम और बढ़ गए हैं। रबी सीजन की दालों की घरेलू सप्लाई समाप्ति पर होने से भी तेजी को बल मिल रहा है। चालू माह में आयातित दलहन की कीमतों में 50 से 75 डॉलर प्रति टन की तेजी आ चुकी है। इस दौरान घरेलू बाजार भी दालों के दाम 200 से 400 रुपये प्रति क्विंटल तक बढ़ चुके हैं। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अगर मानसून बेहतर रहता है तो दालों में उपभोक्ताओं को राहत मिल सकती है। बारिश में कमी होने पर तेजी फिर बेलगाम हो सकती है। ग्लोबल दाल इंडस्ट्रीज के मैनेजिंग डायरक्टर चंद्रशेखर एस. नादर ने बताया कि म्यांमार के निर्यातकों की बिकवाली कम आने से आयातित दलहनों के दाम बढ़ रहे हैं। हालांकि घरेलू बाजार में दालों की मांग कमजोर है लेकिन स्टॉकिस्टों की सक्रियता से तेजी आई है। लेमन अरहर की कीमतों में चालू महीने में करीब 75 डॉलर की तेजी आकर भाव 1275 डॉलर प्रति टन हो गए। उड़द और मूंग पेड़ी सेवा की कीमतों में इस दौरान 50-50 डॉलर की तेजी आकर भाव क्रमश: 1200 और 1550 डॉलर प्रति टन हो गए। भारत में उड़द, अरहर और मूंग का उत्पादन मांग के मुकाबले कम होने का अनुमान है, इसीलिए म्यांमार के निर्यातक भाव बढ़ाकर बोल रहे हैं। बंदेवार दाल एंड बेसन मिल के डायरक्टर एस. बी. बंदेवार ने बताया कि घरेलू बाजार में मूंग की कीमतों में 400 रुपये की तेजी आकर भाव 5000 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। इस दौरान अरहर की कीमतोंे में 200 रुपये की तेजी आकर भाव 4600 रुपये और मूंग की कीमतों में 150 रुपये की तेजी आकर भाव 6600-6800 रुपये प्रति `िंटल हो गए। दलहन के एक थोक कारोबारी ने बताया कि दिल्ली थोक बाजार में उड़द दाल की कीमतों में पिछले एक सप्ताह में ही करीब 200 रुपये की तेजी आकर भाव 5650-5700 रुपये और अरहर दाल की कीमतें 6500 रुपये से बढ़कर 6650 तथा मूंग धुली की कीमतें 8300 रुपये से बढ़कर 8450 रुपये प्रति क्विंटल हो गई। आगे मांग निकलने से मौजूदा कीमतों में और भी 150-200 रुपये प्रति `िंटल की तेजी के आसार हैं। घरेलू बाजार में दालों की सप्लाई बढ़ाने के लिए सरकारी कंपनियों एमएमटीसी, एसटीसी, पीईसी और नेफेड ने 5.84 लाख टन दलहन आयात के सौदे किए हैं तथा इसमें से 5.79 लाख टन दालों की खेप भारत पहुंच चुकी है। जिसमें से 5.61 लाख टन दालों की सप्लाई बाजार में हो चुकी है। कृषि मंत्रालय द्वारा जारी अग्रिम अनुमान के अनुसार वर्ष 2009-10 में देश में दलहन का 147.4 लाख टन का उत्पादन होने का अनुमान है जबकि वर्ष 2008-09 में 145.7 लाख टन उत्पादन रहा था। हालांकि देश में दालों की सालाना खपत करीब 170-180 लाख टन की होती है। इस तरह 23 से 33 लाख टन दालों की मांग आयात से ही पूरी करनी होगी।बात पते कीमानसून बेहतर रहता है तो दालों में उपभोक्ताओं को राहत मिल सकती है। निर्यातक व घरेलू स्टॉकिस्टों की सक्रियता घट जाएगी। लेकिन बारिश में कमी होने पर तेजी फिर बेलगाम हो सकती है। (बिज़नस भास्कर...आर अस राणा)
जीएम फसलों के लिए अस्थायी पंजीकरण
नया सीड बिल संसद में गरमा-गरम बहस का एक और मुद्दा बन सकता है। इसमें स्टैंडिंग कमेटी की कई महत्वपूर्ण सिफारिशों को नकार दिया गया है। नए प्रावधानों से न सिर्फ कंपनियां मनमाफिक दामों पर बीज बेचने के लिए स्वतंत्र होंगी, बल्कि उनके लिए जुर्माने की रकम भी घटा दी गई है। बिल को सीड्स एक्ट-2010 नाम दिया गया है और इसे अभी राज्यसभा में पेश किया जाएगा।बिल में आनुवांशिक रूप से परिवर्तित यानि जीएम फसलों की किस्मों के लिए अस्थायी पंजीकरण भी बड़े विवाद का विषय बन सकता है। इसके द्वारा उन जीएम फसलों को भी बाजार में लाने का रास्ता खुल सकता है जिनके परीक्षण पूर नहीं हुए हैं। बिल में बीज पंजीकरण की अवधि को बढ़ा दिया गया है। वार्षिक फसलों के बीजों के पंजीकरण मान्य होने की अवधि दस से बढ़ाकर 15 वर्ष कर दी गई है। द्विवाषिर्क फसलों के बीजों के मामले में इसे 12 से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया है। बिल में बीजों के दाम नियंत्रित करने के लिए किसी भी नियामक संस्था का प्रावधान नहीं किया गया है। इससे कंपनियां मनमाफिक दामों पर बीज बेचने में कामयाब होंगी। बीज शुद्धता की कसौटी पर खरा न उतरने की सूरत में या फिर सही रिकार्ड न रखने पर जुर्माने की अधिकतम सीमा को 30,000 रुपये से घटाकर 25,000 रुपये कर दिया गया है। इसी प्रकार बीज के संबंध में गलत जानकारी देने पर भी जुर्माने की अधिकतक सीमा को एक लाख से घटाकर 50,000 रुपये कर दिया गया है। बिल में किसान को किसी प्रकार के बीज के लेनदेन से नहीं रोका गया है, हालांकि उन्हें बीज को किसी ब्रांड के नाम पर बेचने का अधिकार नहीं होगा।बिल में निजी कंपनियों द्वारा स्थापित प्रयोगशालाओं को भी बीजों की टेस्टिंग के लिए मान्यता देने का प्रावधान है। इसके अनुसार केंद्र या राज्य सरकारें मानकों को पूरा करने वाली किसी भी प्रयोगशाला को केंद्रीय या राज्य टेस्टिंग लैबोरटरी घोषित कर सकती हैं। (बिज़नस भास्कर)
60 फीसदी तक गिरा लीची उत्पादन
नई दिल्ली April 27, 2010
लीची भी समय से पहले की गर्मी का शिकार बन गई। झुलसा देने वाली धूप एवं नमी की भारी कमी से लीची के फल सूख कर नीचे गिर रहे हैं।
उत्तराखंड से लेकर बिहार तक लीची के उत्पादन में 50-70 फीसदी तक की गिरावट है। उत्तराखंड के लीची उत्पादक इसे 10 साल का सबसे बड़ा नुकसान बता रहे हैं। वहीं मुजफ्फरपुर में अब लीची की रखवाली करने की जरूरत नहीं समझी जा रही है।
बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र (लीची) के अधिकारी कौशल किशोर कुमार के मुताबिक 40-45 फीसदी लीची अब तक नष्ट हो चुकी है। बिहार में पिछले साल 1.60 लाख टन लीची का उत्पादन था जो कि इस साल घट कर 1 लाख टन तक रह सकता है।
हालांकि किसान सिर्फ 40 फीसदी उत्पादन का अनुमान लगा रहे हैं। 20 एकड़ में लीची की खेती करने वाले मुजफ्फरपुर के किसान केशव नंदन कहते हैं, 'शाही लीची 80 फीसदी तक बर्बाद हो चुकी है वहीं चाइना 60 फीसदी तक। किसान हर छठे दिन बागों में पानी पटा रहा है, लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा है। लीची के फल लगातार टूट कर गिर रहे हैं।'
वे बताते हैं कि पिछले साल उनके बागान में 3 टन लीची का उत्पादन हुआ था। इस साल 50 क्विंटल से अधिक की उम्मीद नहीं है। कुमार कहते हैं, 'इलाके में नमी मात्र 14 फीसदी तक है। तापमान जरूरत से 5-6 डिग्री सेल्सियस अधिक है। ऐसे में नुकसान लाजिमी है। हमलोग अब अधिक तापमान में भी लीची की खेती को कारगार बनाने पर काम कर रहे हैं।'
बिहार से समस्तीपुर इलाके के बागवानी अधिकारी नागेश्वर ठाकुर कहते हैं, 'कुछ इलाकों में लीची के पेड़ भी गर्मी से सूख रहे हैं। इस प्रकार की गर्मी लगातार जारी रही तो बाजार में लीची की आवक में वाकई आधी कमी हो जाएगी।' मुजफ्फरपुर में लीची तोड़ने का काम 11-13 मई से शुरू होता है।
उत्तराखंड के लीची किसान पिछले साल के मुकाबले मात्र 30-40 फीसदी लीची उत्पादन का अनुमान लगा रहे हैं। गर्म हवा बहने से लीची की फसल में बीमारी लग गई है। उत्तराखंड लीची उत्पादक संघ के पदाधिकारियों के मुताबिक इस साल लीची की कीमत थोक मंडी में 70 रुपये प्रति किलोग्राम से शुरू हो सकती है और 100 रुपये प्रति किलोग्राम तक जा सकती है।
गत वर्ष उत्तराखंड में 7 जून को लीची की पहली खेप मंडी में आई थी और इसकी कीमत 55 रुपये प्रति किलोग्राम तय हुई थी।
भारी गर्मी और नमी की कमी से फसल चौपट
उत्तराखंड से लेकर बिहार तक लीची उत्पादन में 50-70 फीसदी तक उत्पादन गिरा उत्तराखंड में 10 साल का सबसे बड़ा नुकसानबिहार में पिछले साल 1.6 लाख टन लीची का उत्पादन हुआ था, जो इस साल 1 लाख टन तक सिमटेगाइलाके में नमी 14 फीसदी कम, तापमान जरूरत से 4-5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा
लीची उत्पादन
2007 403000 टन2007-08 418,000 टन 2008-09 423,000 टनस्त्रोत : एनएचबी (बीएस हिंदी)
लीची भी समय से पहले की गर्मी का शिकार बन गई। झुलसा देने वाली धूप एवं नमी की भारी कमी से लीची के फल सूख कर नीचे गिर रहे हैं।
उत्तराखंड से लेकर बिहार तक लीची के उत्पादन में 50-70 फीसदी तक की गिरावट है। उत्तराखंड के लीची उत्पादक इसे 10 साल का सबसे बड़ा नुकसान बता रहे हैं। वहीं मुजफ्फरपुर में अब लीची की रखवाली करने की जरूरत नहीं समझी जा रही है।
बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र (लीची) के अधिकारी कौशल किशोर कुमार के मुताबिक 40-45 फीसदी लीची अब तक नष्ट हो चुकी है। बिहार में पिछले साल 1.60 लाख टन लीची का उत्पादन था जो कि इस साल घट कर 1 लाख टन तक रह सकता है।
हालांकि किसान सिर्फ 40 फीसदी उत्पादन का अनुमान लगा रहे हैं। 20 एकड़ में लीची की खेती करने वाले मुजफ्फरपुर के किसान केशव नंदन कहते हैं, 'शाही लीची 80 फीसदी तक बर्बाद हो चुकी है वहीं चाइना 60 फीसदी तक। किसान हर छठे दिन बागों में पानी पटा रहा है, लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा है। लीची के फल लगातार टूट कर गिर रहे हैं।'
वे बताते हैं कि पिछले साल उनके बागान में 3 टन लीची का उत्पादन हुआ था। इस साल 50 क्विंटल से अधिक की उम्मीद नहीं है। कुमार कहते हैं, 'इलाके में नमी मात्र 14 फीसदी तक है। तापमान जरूरत से 5-6 डिग्री सेल्सियस अधिक है। ऐसे में नुकसान लाजिमी है। हमलोग अब अधिक तापमान में भी लीची की खेती को कारगार बनाने पर काम कर रहे हैं।'
बिहार से समस्तीपुर इलाके के बागवानी अधिकारी नागेश्वर ठाकुर कहते हैं, 'कुछ इलाकों में लीची के पेड़ भी गर्मी से सूख रहे हैं। इस प्रकार की गर्मी लगातार जारी रही तो बाजार में लीची की आवक में वाकई आधी कमी हो जाएगी।' मुजफ्फरपुर में लीची तोड़ने का काम 11-13 मई से शुरू होता है।
उत्तराखंड के लीची किसान पिछले साल के मुकाबले मात्र 30-40 फीसदी लीची उत्पादन का अनुमान लगा रहे हैं। गर्म हवा बहने से लीची की फसल में बीमारी लग गई है। उत्तराखंड लीची उत्पादक संघ के पदाधिकारियों के मुताबिक इस साल लीची की कीमत थोक मंडी में 70 रुपये प्रति किलोग्राम से शुरू हो सकती है और 100 रुपये प्रति किलोग्राम तक जा सकती है।
गत वर्ष उत्तराखंड में 7 जून को लीची की पहली खेप मंडी में आई थी और इसकी कीमत 55 रुपये प्रति किलोग्राम तय हुई थी।
भारी गर्मी और नमी की कमी से फसल चौपट
उत्तराखंड से लेकर बिहार तक लीची उत्पादन में 50-70 फीसदी तक उत्पादन गिरा उत्तराखंड में 10 साल का सबसे बड़ा नुकसानबिहार में पिछले साल 1.6 लाख टन लीची का उत्पादन हुआ था, जो इस साल 1 लाख टन तक सिमटेगाइलाके में नमी 14 फीसदी कम, तापमान जरूरत से 4-5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा
लीची उत्पादन
2007 403000 टन2007-08 418,000 टन 2008-09 423,000 टनस्त्रोत : एनएचबी (बीएस हिंदी)
बीबीए और आईसीएक्स के बीच होगा करार
नई दिल्ली April 27, 2010
बॉम्बे बुलियन एसोसिएशन (बीबीए) और इंडियन कमोडिटी एक्सचेंज (आईसीईएक्स) बुधवार को सोने और चांदी के सौदे आईसीईएक्स के मंच पर शिफ्ट करने के लिए समझौता करने जा रहे हैं।
बीबीए के इस कदम से एमसीएक्स के बुलियन वायदा कारोबार पर खासा असर पड़ने की संभावना जताई जा रही है। बॉम्बे बुलियन एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश हुंडिया ने इसकी पुष्टि की है।
उन्होंने कहा - एसोसिएशन अपने सदस्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए यह समझौता करने जा रहा है। यह पूछे जाने पर कि बीबीए के सदस्य काफी समय से एमसीएक्स के प्लैटफॉर्म का इस्तेमाल कर रहे थे और अब अचानक इस तरह का फैसला लेने के पीछे आखिर क्या वजह है।
इसके जवाब में हुंडिया ने कहा कि हमारा एसोसिएशन किसी का एकाधिकार बर्दाश्त नहीं करेगा और हमारे सदस्यों को जहां भी उचित नजर आएगा, वह वहां से खरीद-फरोख्त करेगा। हुंडिया को उम्मीद है कि बीबीए के इस कदम से सदस्यों का कारोबार बढ़ेगा।
सूत्र बताते हैं कि इसके पहले भी बीबीए एडीएजी समूह, बीएसई, एनसीडीईएक्स और एनएमसीई के साथ इसी तरह का करार की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली थी। बीबीए के एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि बीबीए के आईसीईएक्स के साथ हाथ मिलाने से बीबीए के काफी सदस्यों ने नाराजगी जताई है।
उन्होंने कहा - हम एमसीएक्स पर 2005 से सौदा कर रहे हैं और एक्सचेंज से साथ हमारा कारोबार भी बढ़ा है। सोने की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव के दौरान हमने एमसीएक्स पर हेज करके लाभ कमाया है। बीबीए के अध्यक्ष एमसीएक्स के साथ हमारे लंबे रिश्तों में पता नहीं क्यों खटास लाना चाहते हैं।
एमसीएक्स पर हो रहे दैनिक कारोबार में बीबीए का सोने व चांदी के टर्नओवर में तकरीबन 0।29 फीसदी हिस्सा है। बीबीए के 90 से ज्यादा सदस्य हैं और उनमें से सिर्फ एक दर्जन ही एमसीएक्स के मंच पर सक्रिय हैं। एमसीएक्स पर रोजाना 27000 से 30,000 करोड़ रुपये के सोने के सौदे होते हैं जबकि आईसीईएक्स पर केवल 1700 से 2000 करोड़ रुपये के सौदे होते हैं। (बीएस हिंदी)
बॉम्बे बुलियन एसोसिएशन (बीबीए) और इंडियन कमोडिटी एक्सचेंज (आईसीईएक्स) बुधवार को सोने और चांदी के सौदे आईसीईएक्स के मंच पर शिफ्ट करने के लिए समझौता करने जा रहे हैं।
बीबीए के इस कदम से एमसीएक्स के बुलियन वायदा कारोबार पर खासा असर पड़ने की संभावना जताई जा रही है। बॉम्बे बुलियन एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश हुंडिया ने इसकी पुष्टि की है।
उन्होंने कहा - एसोसिएशन अपने सदस्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए यह समझौता करने जा रहा है। यह पूछे जाने पर कि बीबीए के सदस्य काफी समय से एमसीएक्स के प्लैटफॉर्म का इस्तेमाल कर रहे थे और अब अचानक इस तरह का फैसला लेने के पीछे आखिर क्या वजह है।
इसके जवाब में हुंडिया ने कहा कि हमारा एसोसिएशन किसी का एकाधिकार बर्दाश्त नहीं करेगा और हमारे सदस्यों को जहां भी उचित नजर आएगा, वह वहां से खरीद-फरोख्त करेगा। हुंडिया को उम्मीद है कि बीबीए के इस कदम से सदस्यों का कारोबार बढ़ेगा।
सूत्र बताते हैं कि इसके पहले भी बीबीए एडीएजी समूह, बीएसई, एनसीडीईएक्स और एनएमसीई के साथ इसी तरह का करार की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली थी। बीबीए के एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि बीबीए के आईसीईएक्स के साथ हाथ मिलाने से बीबीए के काफी सदस्यों ने नाराजगी जताई है।
उन्होंने कहा - हम एमसीएक्स पर 2005 से सौदा कर रहे हैं और एक्सचेंज से साथ हमारा कारोबार भी बढ़ा है। सोने की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव के दौरान हमने एमसीएक्स पर हेज करके लाभ कमाया है। बीबीए के अध्यक्ष एमसीएक्स के साथ हमारे लंबे रिश्तों में पता नहीं क्यों खटास लाना चाहते हैं।
एमसीएक्स पर हो रहे दैनिक कारोबार में बीबीए का सोने व चांदी के टर्नओवर में तकरीबन 0।29 फीसदी हिस्सा है। बीबीए के 90 से ज्यादा सदस्य हैं और उनमें से सिर्फ एक दर्जन ही एमसीएक्स के मंच पर सक्रिय हैं। एमसीएक्स पर रोजाना 27000 से 30,000 करोड़ रुपये के सोने के सौदे होते हैं जबकि आईसीईएक्स पर केवल 1700 से 2000 करोड़ रुपये के सौदे होते हैं। (बीएस हिंदी)
भिंडी, बैगन व करेला के निर्यात में भारी उछाल
नई दिल्ली April 27, 2010
हरी सब्जी बेचने के लिए किसानों को अब सिर्फ स्थानीय मंडी पर ही निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है।
वे अब अपनी भिंडी, करेला एवं बैगन जैसी सब्जियों को सिंगापुर से लेकर खाड़ी देशों में भी बेच सकते हैं। निर्यातकों के मुताबिक पिछले दो साल में हरी सब्जियों के निर्यात में 100-200 फीसदी तक की उछाल आई है।
राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के अधिकारी भी इस बात से सहमति जताते हैं। हरी सब्जियों के बढ़ते बाजार से इनके उत्पादन रकबे में भी लगातार बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के मुताबिक वर्ष 2007 में 7581,000 हेक्टेयर, वर्ष 2007-08 में 7848,000 एवं 08-09 में 7981,000 हेक्टेयर क्षेत्र में सब्जियों की खेती की गई।
महाराष्ट्र एवं चेन्नई के निर्यातकों के मुताबिक इन दिनों सिर्फ भिंडी का निर्यात रोजाना 10 टन तक हो रहा है। सबसे अधिक बैगन का निर्यात हो रहा है। इसके अलावा करेले की भी विदेश में अच्छी मांग निकल रही है।
चेन्नई स्थित हरी सब्जियों केनिर्यातक वाई. देवेथस्वरे बताते हैं, 'मैं इन दिनों हर सप्ताह 1 टन भिंडी का निर्यात कर रहा हूं। पिछले साल इस दौरान सप्ताह में 300 क्विंटल भिंडी का निर्यात कर रहा था। करेले का निर्यात प्रति सप्ताह 7 क्विंटल कर रहा हूं।'
निर्यात में बढ़ोतरी से दक्षिण भारत के सब्जी किसानों को अच्छी कीमत भी मिल रही है। चेन्नई पोर्ट पर भिंडी की कीमत 27 रुपये प्रति किलोग्राम चल रही है तो करेले की 28 रुपये प्रति किलोग्राम। पिछले तीन वर्षों से पश्चिम एशिया एवं खाड़ी देशों में हरी सब्जियों का निर्यात किया जा रहा है। कड़े नियमों के कारण निर्यातक यूरोप एवं अमेरिका में रुचि नहीं ले रहे हैं।
राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के उप निदेशक ब्रजेंद्र सिंह कहते हैं, 'कद्दू का निर्यात तो अमेरिका तक हो रहा है। लेकिन यूरोप एवं अमेरिका में निर्यात के लिए कई नियमों का सख्ती से पालन करना पड़ता है। कीटनाशक के उपयोग की मात्रा से लेकर सब्जी को तोड़ने तक में सावधानी बरतने की जरूरत होती है। धीरे-धीरे हम इस दिशा में बढ़ रहे हैं। निश्चित रूप से हरी सब्जियों के निर्यात में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और अब सब्जी का उत्पादन व्यावसायिक दृष्टिकोण से शुरू हो चुका है।'
सब्जी उत्पादक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष गढहवे शिवनेरी के मुताबिक इन दिनों सिर्फ मुंबई से रोजाना 20 टन विभिन्न प्रकार की सब्जियों का निर्यात हो रहा है। पिछले तीन वर्षों में निर्यात में 100-200 फीसदी की बढ़ोतरी है। पुणे के आसपास के किसान अब पारंपरिक खेती को छोड़ सब्जियों की खेती करने लगे हैं।
सब्जी का उत्पादन
वर्ष उत्पादन2007 114993,0002008 128449,0002009 129077,000सभी उत्पादन टन मेंस्त्रोत : राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड (बीएस हिंदी)
हरी सब्जी बेचने के लिए किसानों को अब सिर्फ स्थानीय मंडी पर ही निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है।
वे अब अपनी भिंडी, करेला एवं बैगन जैसी सब्जियों को सिंगापुर से लेकर खाड़ी देशों में भी बेच सकते हैं। निर्यातकों के मुताबिक पिछले दो साल में हरी सब्जियों के निर्यात में 100-200 फीसदी तक की उछाल आई है।
राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के अधिकारी भी इस बात से सहमति जताते हैं। हरी सब्जियों के बढ़ते बाजार से इनके उत्पादन रकबे में भी लगातार बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के मुताबिक वर्ष 2007 में 7581,000 हेक्टेयर, वर्ष 2007-08 में 7848,000 एवं 08-09 में 7981,000 हेक्टेयर क्षेत्र में सब्जियों की खेती की गई।
महाराष्ट्र एवं चेन्नई के निर्यातकों के मुताबिक इन दिनों सिर्फ भिंडी का निर्यात रोजाना 10 टन तक हो रहा है। सबसे अधिक बैगन का निर्यात हो रहा है। इसके अलावा करेले की भी विदेश में अच्छी मांग निकल रही है।
चेन्नई स्थित हरी सब्जियों केनिर्यातक वाई. देवेथस्वरे बताते हैं, 'मैं इन दिनों हर सप्ताह 1 टन भिंडी का निर्यात कर रहा हूं। पिछले साल इस दौरान सप्ताह में 300 क्विंटल भिंडी का निर्यात कर रहा था। करेले का निर्यात प्रति सप्ताह 7 क्विंटल कर रहा हूं।'
निर्यात में बढ़ोतरी से दक्षिण भारत के सब्जी किसानों को अच्छी कीमत भी मिल रही है। चेन्नई पोर्ट पर भिंडी की कीमत 27 रुपये प्रति किलोग्राम चल रही है तो करेले की 28 रुपये प्रति किलोग्राम। पिछले तीन वर्षों से पश्चिम एशिया एवं खाड़ी देशों में हरी सब्जियों का निर्यात किया जा रहा है। कड़े नियमों के कारण निर्यातक यूरोप एवं अमेरिका में रुचि नहीं ले रहे हैं।
राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के उप निदेशक ब्रजेंद्र सिंह कहते हैं, 'कद्दू का निर्यात तो अमेरिका तक हो रहा है। लेकिन यूरोप एवं अमेरिका में निर्यात के लिए कई नियमों का सख्ती से पालन करना पड़ता है। कीटनाशक के उपयोग की मात्रा से लेकर सब्जी को तोड़ने तक में सावधानी बरतने की जरूरत होती है। धीरे-धीरे हम इस दिशा में बढ़ रहे हैं। निश्चित रूप से हरी सब्जियों के निर्यात में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और अब सब्जी का उत्पादन व्यावसायिक दृष्टिकोण से शुरू हो चुका है।'
सब्जी उत्पादक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष गढहवे शिवनेरी के मुताबिक इन दिनों सिर्फ मुंबई से रोजाना 20 टन विभिन्न प्रकार की सब्जियों का निर्यात हो रहा है। पिछले तीन वर्षों में निर्यात में 100-200 फीसदी की बढ़ोतरी है। पुणे के आसपास के किसान अब पारंपरिक खेती को छोड़ सब्जियों की खेती करने लगे हैं।
सब्जी का उत्पादन
वर्ष उत्पादन2007 114993,0002008 128449,0002009 129077,000सभी उत्पादन टन मेंस्त्रोत : राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड (बीएस हिंदी)
26 अप्रैल 2010
कभी भी गिरावट आ सकती है जीर के मूल्य में
जीर में निर्यातकों के साथ ही घरेलू मसाला निर्माताओं की मांग कमजोर है। लेकिन निवेशकों की खरीद बढ़ने से वायदा बाजार में पिछले दस दिनों में इसके दाम करीब 2।8 फीसदी बढ़े हैं। इसका असर हाजिर बाजार में भी आया है। ऊंझा मंडी में जीर की कीमतों में पिछले एक सप्ताह में ही करीब 50 रुपये की तेजी आकर भाव 2250 रुपये प्रति 20 किलो हो गए। चालू सीजन में देश में जीर की पैदावार पिछले साल के मुकाबले करीब सात फीसदी ज्यादा होने का अनुमान है। जून-जुलाई में सीरिया और टर्की में जीर की नई फसल आ जाएगी। ऐसे में घरेलू बाजार में मुनाफावसूली से कभी भी जीर की कीमतों में मंदे का रुख बन सकता है। जून-जुलाई में टर्की और सीरिया में जीर की नई फसल की आवक शुरू हो जाएगी। इसीलिए खाड़ी देशों के साथ ही यूरोप के आयातकों की मांग भारत से पहले की तुलना में कम हो गई है। इस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय जीर के दाम 2200-2250 डॉलर, टर्की के जीर का भाव 2400-2450 और सीरिया के जीर का भाव 2300-2350 डॉलर प्रति टन चल रहे हैं। एक तो रुपये के मुकाबले डॉलर कमजोर बना हुआ है, दूसरा आयातक देशों की मांग घटने से पिछले एक महीने में अंतरराष्ट्रीय बाजार में जीर के दाम भी करीब 100 डॉलर प्रति टन तक घट चुके हैं। अत: दाम घटने से भारतीय निर्यातक को पड़ते भी नहीं लग रहे हैं। भारतीय मसाला बोर्ड के अनुसार वित्त वर्ष 2009-10 के अप्रैल से फरवरी के दौरान जीरा निर्यात में 14 फीसदी की कमी आकर कुल निर्यात 42,500 टन का ही हुआ है। जबकि पिछले साल की समान अवधि में 49,500 टन का निर्यात हुआ था। फरवरी महीने में ही निर्यात में 17 फीसदी की कमी आकर कुल निर्यात 2500 टन का ही हुआ है। चालू फसल सीजन में देश में जीर का उत्पादन पिछले साल के 28 लाख बोरी (प्रति बोरी 55 किलो) से बढ़कर 29-30 लाख बोरी होने का अनुमान है। ऊंझा मंडी में जीर की दैनिक आवक करीब 10-12 हजार बोरी की हो रही है लेकिन स्टॉकिस्टों की खरीद कमजोर है। माना जा रहा है निवेशकों की खरीद से एनसीडीईएक्स के वेयर हाउसों में जीर का स्टॉक बढ़कर करीब चार-पांच लाख बोरी का हो चुका है। ऐसे में वायदा में मुनाफावसूली आने से कीमतों में गिरावट आने की आशंका है। हाजिर बाजार में भी करीब 2.5 लाख बोरी का स्टॉक होने की संभावना है। एनसीडीईएक्स पर निवेशकों की खरीद से मई महीने के वायदा अनुबंध में पिछले दस दिनों में जीर के दाम करीब 2.8 फीसदी बढ़े हैं। पंद्रह अप्रैल को मई महीने के वायदा अनुबंध में जीर का दाम 11,753 रुपये प्रति `िंटल था जोकि सप्ताहांत तक बढ़कर 12,085 रु. प्रति `िंटल हो गया। - rana@businessbhaskar.netहाजिर बाजारऊंझा मंडी में 50 रुपये बढ़कर 2,500 रु. प्रति 20 किलो हो गया जीरामंडी में दैनिक आवक 10-12 हजार बोरी हो रही है इन दिनोंबात पते कीआयातक देशों की मांग घटने से पिछले एक महीने में विश्व बाजार में जीरा 100 डॉलर प्रति टन सस्ता हो चुका है। ऐसे मंे भारतीय निर्यातकों के लिए फिलहाल सौदों में पड़ता नहीं लग रहा है। (बिज़नस भास्कर....आर अस राणा)
मार्च में 27 टन सोने का आयात हुआ देश में
इस साल मार्च के दौरान देश में 27।8 लाख टन सोने का आयात किया गया जबकि पिछले वर्ष मार्च में आयात शून्य रहा था। पिछले साल की तुलना में सोने के दामों में आई गिरावट के कारण निर्यात में सुधार हुआ है। बीते वर्ष दिसंबर में सोने का भाव रिकॉर्ड स्तर पर ख्8,म्क्क् रुपये प्रति दस ग्राम हो गया था, जबकि इन दिनों सोने के दाम गिरकर ख्स्त्र,क्क्क् रुपये प्रति दस ग्राम रह गए हैं। विशेषज्ञों के अनुसार सोने में निवेश बढ़ने के कारण आयात में वृद्धि हुई है। बांबे बुलियन एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरश हुंडिया ने बताया कि सोने का आयात मूल्य के अनुसार हो रहा है। मार्च में सोने का दाम ख्स्त्र,फ्क्क् रुपये प्रति दस ग्राम रहा था। ऐसे में आयात ज्यादा रहा लेकिन जैसे ही अप्रैल में सोने के दाम चढ़ने लगे, वैसे ही इस महीने सोने के आयात में गिरावट आने का अनुमान है।इसी साल फरवरी में मार्च की तुलना में एक टन अधिक फ्8.8 टन सोने का आयात हुआ था। एसोसिएशन के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल फ्क्क्9 से मार्च फ्क्ख्क् के दौरान आयात में ख्ब् फीसदी की बढ़ोतरी हुई। आगामी ख्स्त्र मई को अक्षय तृतीया पर सोने की मांग पर हुंडिया ने कहा कि ज्वैलर्स अपने स्टॉक को तभी बढ़ाते है, जब बाजार में दाम कम होते हैं। वैले त्यौहारों के मौके पर मांग बढ़ जाती है। बाजार के विश्लेषकों का मानना है कि अक्षय तृतीया के मौके पर सोने के व्यापार में ब्क् प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। शनिवार को हाजिर बाजार में सोने की कीमत ख्स्त्र,म्क्क् रुपये प्रति दस ग्राम पर थी जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम ख्,ख्म्8.भ् डॉलर प्रति औंस था। (बिज़नस भास्कर)
लगातार बढ़ रही है गुड़ निर्यात की मांग
नई दिल्ली April 26, 2010
भारत में आयातित चीनी की मांग बढ़ रही है, लेकिन गुड़ के मामले में हालात विपरीत है। इस साल पिछले साल के मुकाबले गुड़ के निर्यात में 10 फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी है।
गुड़ की निर्यात कीमत 4300-5000 रुपये प्रति क्विंटल बताई गई जबकि पिछले साल यह कीमत 2500-3200 रुपये प्रति क्विंटल थी। जैविक गुड़ का निर्यात भाव 6000 रुपये प्रति क्विंटल तक चला गया। गुड़ में तेजी की वजह से निर्यात मांग में अधिक बढ़ोतरी नहीं हो सकी।
भारत यूरोप, कनाडा, सउदी अरब, मलेशिया, सिंगापुर जैसे देशों में गुड़ का निर्यात करता है। अब गुड़ के भाव में फरवरी के मुकाबले 400-600 रुपये प्रति क्विंटल तक की गिरावट आ चुकी है। गुड़ उत्पादन के लिए देश भर में मशहूर कोल्हापुर के उत्पादकों ने बताया कि अब तक सिर्फ उनके इलाके में 200 करोड़ रुपये का गुड़ उत्पादन हो चुका है। इनमें से कम से कम 25 फीसदी का निर्यात किया गया है।
कोल्हापुर में छोटी-बड़ी 1000 इकाइयां गुड़ उत्पादन में जुटी हैं और उत्पादन के चरम पर यहां रोजाना 500-700 टन गुड़ का उत्पादन होता है। कोल्हापुर स्थित साहू सहकारी गुल खरेदी विक्री संघ के अध्यक्ष राजा राम पाटिल कहते हैं, 'हर वर्ष विदेश में गुड़ की मांग बढ़ती जा रही है खास कर जैविक गुड़ की अच्छी मांग निकल रही है।'
मुंबई स्थित गुड़ निर्यातक निम्बलकर कहते हैं, 'मैं जैविक गुड़ का निर्यात सिंगापुर करता हूं और सिंगापुर से इस गुड़ का फिर से अन्य देशों में ऊंची कीमत पर निर्यात किया जाता है। वे कहते हैं इस साल पिछले साल के मुकाबले गुड़ के निर्यात में कम से कम 10 फीसदी की बढ़ोतरी है।'
गुड़ की कीमतों में 5-7 रुपये प्रति किलोग्राम तक की गिरावट का लाभ निर्यातकों को नहीं मिल रहा है। गुड़ निर्यात का ऑर्डर मुख्य रूप से सितंबर-अक्टूबर में आता है। कोल्हापुर के गुड़ निर्यातक किशोर मलकोडे कहते हैं, 'इस मौसम में गुड़ के पिघलने की आशंका रहती है इसलिए अब कीमत कम होने से कोई फायदा नहीं है। अक्टूबर-नवंबर में वर्तमान स्तर पर गुड़ की कीमत होती तो निर्यात इससे कही ज्यादा होता।'
उन्होंने यह भी बताया कि मुख्य रूप से जिन देशों में भारतीय रहते हैं गुड़ की मांग उन्हीं देशों से अधिक निकलती है। इस साल चीनी के भाव बढ़ने से महाराष्ट्र के गुड़ उत्पादकों को उत्तर प्रदेश के गुड़ उत्पादकों की तुलना में काफी लाभ हुआ। कोल्हापुर के अधिकतर गुड़ उत्पादक खुद ही गन्ने का उत्पादन करते हैं इसलिए उन्हें ऊंची कीमत पर गन्ने की खरीदारी नहीं करनी पड़ी।
जबकि उत्तर प्रदेश के गुड़ उत्पादक 250 रुपये प्रति क्विंटल की दर से गन्ने की खरीदारी की। ऐसे में उनकी लागत पिछले साल के मुकाबले काफी ऊंची रही। अब चीनी के दाम घटने से उत्तर प्रदेश में गुड़ की कीमत भी घटकर 2500 रुपये प्रति क्विंटल हो गई है। इससे उत्तर प्रदेश के गुड़ उत्पादकों को परेशानी हो रही है। (बीएस हिंदी)
भारत में आयातित चीनी की मांग बढ़ रही है, लेकिन गुड़ के मामले में हालात विपरीत है। इस साल पिछले साल के मुकाबले गुड़ के निर्यात में 10 फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी है।
गुड़ की निर्यात कीमत 4300-5000 रुपये प्रति क्विंटल बताई गई जबकि पिछले साल यह कीमत 2500-3200 रुपये प्रति क्विंटल थी। जैविक गुड़ का निर्यात भाव 6000 रुपये प्रति क्विंटल तक चला गया। गुड़ में तेजी की वजह से निर्यात मांग में अधिक बढ़ोतरी नहीं हो सकी।
भारत यूरोप, कनाडा, सउदी अरब, मलेशिया, सिंगापुर जैसे देशों में गुड़ का निर्यात करता है। अब गुड़ के भाव में फरवरी के मुकाबले 400-600 रुपये प्रति क्विंटल तक की गिरावट आ चुकी है। गुड़ उत्पादन के लिए देश भर में मशहूर कोल्हापुर के उत्पादकों ने बताया कि अब तक सिर्फ उनके इलाके में 200 करोड़ रुपये का गुड़ उत्पादन हो चुका है। इनमें से कम से कम 25 फीसदी का निर्यात किया गया है।
कोल्हापुर में छोटी-बड़ी 1000 इकाइयां गुड़ उत्पादन में जुटी हैं और उत्पादन के चरम पर यहां रोजाना 500-700 टन गुड़ का उत्पादन होता है। कोल्हापुर स्थित साहू सहकारी गुल खरेदी विक्री संघ के अध्यक्ष राजा राम पाटिल कहते हैं, 'हर वर्ष विदेश में गुड़ की मांग बढ़ती जा रही है खास कर जैविक गुड़ की अच्छी मांग निकल रही है।'
मुंबई स्थित गुड़ निर्यातक निम्बलकर कहते हैं, 'मैं जैविक गुड़ का निर्यात सिंगापुर करता हूं और सिंगापुर से इस गुड़ का फिर से अन्य देशों में ऊंची कीमत पर निर्यात किया जाता है। वे कहते हैं इस साल पिछले साल के मुकाबले गुड़ के निर्यात में कम से कम 10 फीसदी की बढ़ोतरी है।'
गुड़ की कीमतों में 5-7 रुपये प्रति किलोग्राम तक की गिरावट का लाभ निर्यातकों को नहीं मिल रहा है। गुड़ निर्यात का ऑर्डर मुख्य रूप से सितंबर-अक्टूबर में आता है। कोल्हापुर के गुड़ निर्यातक किशोर मलकोडे कहते हैं, 'इस मौसम में गुड़ के पिघलने की आशंका रहती है इसलिए अब कीमत कम होने से कोई फायदा नहीं है। अक्टूबर-नवंबर में वर्तमान स्तर पर गुड़ की कीमत होती तो निर्यात इससे कही ज्यादा होता।'
उन्होंने यह भी बताया कि मुख्य रूप से जिन देशों में भारतीय रहते हैं गुड़ की मांग उन्हीं देशों से अधिक निकलती है। इस साल चीनी के भाव बढ़ने से महाराष्ट्र के गुड़ उत्पादकों को उत्तर प्रदेश के गुड़ उत्पादकों की तुलना में काफी लाभ हुआ। कोल्हापुर के अधिकतर गुड़ उत्पादक खुद ही गन्ने का उत्पादन करते हैं इसलिए उन्हें ऊंची कीमत पर गन्ने की खरीदारी नहीं करनी पड़ी।
जबकि उत्तर प्रदेश के गुड़ उत्पादक 250 रुपये प्रति क्विंटल की दर से गन्ने की खरीदारी की। ऐसे में उनकी लागत पिछले साल के मुकाबले काफी ऊंची रही। अब चीनी के दाम घटने से उत्तर प्रदेश में गुड़ की कीमत भी घटकर 2500 रुपये प्रति क्विंटल हो गई है। इससे उत्तर प्रदेश के गुड़ उत्पादकों को परेशानी हो रही है। (बीएस हिंदी)
तेज गर्मी की चपेट में आई गेहूं की फसल
देश का अधिकांश इलाका इन दिनों भीषण गर्मी की चपेट में है। इस बार गर्मी ज्यादा पड़ सकती है इसका कुछ-कुछ अहसास तो होली के बाद ही होने लगा था। लेकिन सबसे बुरी खबर यह है कि तेज गर्मी ने रबी की प्रमुख फसल गेहूं को अपनी चपेट में ले लिया है। फसल पकने के समय अचानक गर्मी बढ़ जाने से दाने ठीक से तैयार नहीं हो सके। इस वजह से देश में गेहूं का उत्पादन सरकार के अनुमान, 820 लाख टन से कम रहने की आशंका बन गई है।उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्य हैं। यहां उपज प्रति हैक्टेयर 10 से 15 फीसदी कम रह सकता है। पंजाब के कृषि विभाग के संयुक्त निदेशक गुरदयाल सिंह के मुताबिक मार्च में ही तेज गर्मी के चलते मालवा अंचल में फसल को जरूरत के मुताबिक सिंचाई का पानी उपलब्ध नहीं हो सका। इसमें बठिंडा, मुक्तसर व संगरूर के इलाके शामिल हैं। नहरों में पानी कम होने से भी किसानों को दिक्कत आई है। सूत्रों के मुताबिक पंजाब में इस बार उत्पादन में डेढ़ से दो क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की कमी आई है। हरियाणा के कृषि विभाग के संयुक्त निदेशक आरएस सोलंकी के मुताबिक उत्पादन पांच से सात फीसदी तक घट सकता है।हालांकि करनाल स्थित गेहूं अनुसंधान निदेशालय के परियोजना निदेशक डॉ। एस.एस. सिंह का कहना है कि नवंबर के आखिर में बोई गई फसल पर जरूर मौसम का प्रभाव पड़ा है। लेकिन एक तो रकबा बढ़ा है, दूसरा इस बार कहीं बीमारी नहीं लगी। मार्च के आखिरी में जब तापमान बढ़ने लगा था तब कटाई शुरू हो चुकी थी। इसीलिए उत्पादन में कमी की आशंका नहीं है। देश में गेहूं का उत्पादन 820 लाख टन के आसपास ही रहेगा। लेकिन किसान गेहूं अनुसंधान निदेशालय से इत्तेफाक नहीं रखते। दिल्ली में नरला के किसान अजय मान ने बताया कि पिछले साल प्रति एकड़ उत्पादन 18 `िंटल हुआ था, लेकिन इस बार यह16 `िंटल प्रति एकड़ रह गया है। उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में सामंता की गढ़ी गांव के गेहूं किसान लखपत सिंह ने बताया कि पिछले साल प्रति बीघा 8 से 10 मन (एक मन-40 किलो) गेहूं का उत्पादन हुआ था। लेकिन पकाई प्रभावित होने से इस बार उत्पादन पांच से सात मन बैठ रहा है। हरियाणा के सोनीपत जिले के कुमासपुर गांव के गेहूं किसान कृष्ण आंतिल ने बताया कि पिछले साल म् एकड़ में 240 मन गेहूं का उत्पादन हुआ था। इस बार यह घटकर सिर्फ 190 मन रह गया है।यही हाल राजस्थान का है। यहां गेहूं उत्पादकता में दस फीसदी तक गिरावट की आशंका है। यहां तो गेहूं का रकबा भी 21.97 लाख से घटकर 18.76 लाख हैक्टेयर रह गया। इन दोनों कारणों से इस साल पैदावार लगभग बीस फीसदी घटकर 55 लाख टन रहने के आसार हैं। पिछले साल राज्य में 70 लाख टन गेहूं का उत्पादन हुआ था। हालांकि किसानों के अनुसार गिरावट ज्यादा रहेगी। श्रीगंगानगर के किसान सुरेंद्र सोमानी का कहना कि पानी की कमी के चलते इस बार दाना छोटा रह जाने से उत्पादन पिछले साल के 14 क्विंटल से घटकर आठ-नौ क्विंटल प्रति बीघा ही बैठ रही है। अलवर के किसान हीरा लाल ने बताया इस बार पैदावार सात क्विंटल बीघा रह गई, जो पिछले वर्ष लगभग आठ बीधा थी। भरतपुर के किसानों की भी यही शिकायत है। मध्य प्रदेश कृषि विभाग के मुताबिक प्रदेश में गेहूं की फसल इस बार बीते वर्ष के मुकाबले बेहतर है। विभाग प्रति हेक्टेयर 19 से 20 क्विंटल उत्पादन का अनुमान जता रहा है। कृषि विभाग के संचालक डीएन शर्मा के अनुसार प्रदेश में इस बार 42.5 लाख हैक्टेयर में गेहूं की फसल बोई गई और विभाग का अनुमान करीब 80 लाख टन पैदावार का है। बेहतर मौसम में इसमें सर्वाधिक निर्णायक भूमिका निभाई है। (लुधियाना से नरश बातिश, चंडीगढ़ से हरीश मानव, नई दिल्ली से आरएस राणा, जयपुर से प्रमोद शर्मा, भोपाल से धर्मेन्द्र ¨सह भदौरिया) (उसिएन्स्स भास्कर)
24 अप्रैल 2010
कम सिंचाई में उगने वाली धान की किस्म
मानसून की अनिश्चितता के दौर में किसान को सबसे ज्यादा चिंता धान को लेकर होती है। उड़ीसा में कटक स्थित केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (सीआरआरआई) ने उत्तर भारत के राज्य पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश के लिए एक ऐसी किस्म सीआर-धान 501 विकसित की हैं जिन्हें काफी कम सिंचाई की आवश्यकता होगी। इसके अलावा सीआरआरआई के वैज्ञानिकों ने एरोबिक पद्धति भी विकसित की है, जिसके जरिये धान की खेती करने के लिए पचास फीसदी कम सिंचाई की आवश्यकता होगी। इस विधि से की गई प्रायोगिक खेती के काफी अच्छे परिणाम सामने आए हैं।सीआरआरआई के निदेशक डॉ. टी. के. आध्या ने बिजनेस भास्कर को बताया कि उत्तर भारत के लिए जारी सीआर धान-501 किस्म समान गुण वाली मौजूदा किस्मों सबिता और पूरनेंदू की तुलना में काफी अच्छी पैदावार देती है। उनका कहना है कि कम पानी में सीआर धान-501 किस्म से चार टन प्रति हैक्टेयर की पैदावार हो सकती है। यह किस्म तैयार होने में 155 से 160 दिनों का समय लेती है। इसके चावल के दानों का आकार लंबा और मोटा होता है। डॉ. आध्या के मुताबिक इस किस्म को मौजूदा किस्मों जलप्रिया और बादल की जगह अपनाकर किसान अधिक पैदावार ले सकते हैं। डॉ. आध्या ने बताया कि संस्थान ने मानसून में जारी उतार-चढाव से निपटने में सक्षम एरोबिक धान उगाने की नई तकनीक भी विकसित की है, जिससे पानी की हर बूंद का उपयोग करके पैदावार ली जा सकती है। डॉ. आध्या ने बताया कि एरोबिक धान में पानी की आवश्यकता पारंपरिक पद्धति की तुलना में करीब आधी रहती है। इसके अलावा खेत की खेत को तैयार करने में लगने वाली लागत में भी काफी कमी आ जाती है। डॉ. आध्या के मुताबिक संस्थान में किए गए प्रयोगों से पता चला कि जहां पारंपरिक तरीके से 0.25 से 0.30 ग्राम धान उगाने में एक लीटर पानी के जरूरत होती है।, वहीं एरोबिक पद्धति एक लीटर पानी से 0.40 से 0.50 ग्राम धान उगाया जा सकता है। इस तरह पानी की खपत के लिहाज से एरोबिक पद्धति से दोगुना उत्पादन होगा। इस पद्धति के उपयोग के लिए धान की एपो, सहभागी और आनंदा किस्में उपयुक्त रहती हैं। सीआरआरआई द्वारा इस नई विधि की ट्रेनिंग भी किसानों को दी जा रही है। (बिज़नस भास्कर)
हरियाणा के आटा मिल मालिक मंगा रहे हैं दूसरे राज्यों से गेहूं
चंडीगढ़ April 23, 2010
हरियाणा में बहुतायत मात्रा में गेहूं के उत्पादन के बावजूद वहां के आटा मिल मालिक दूसरे राज्यों से गेहूं खरीद रहे हैं। इसकी वजह यह है कि राज्य सरकार करों के ढांचे को सरल नहीं बना रही है।
हरियाणा में इस समय 40 आटा मिलें चल रही हैं जिनमें से अधिकतर अपनी क्षमता का चौथाई हिस्सा ही उपयोग में ला रही हैं। इसका कारण करों का ढांचा इन मिल मालिकों के कारोबार के अनुकूल नहीं होना है। आटा मिलों की औसत दैनिक क्षमता 100 टन है।
हरियाणा आटा मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सी पी गुप्ता ने बताया कि राज्य में निजी मिल मालिकों को गेहूं की खरीदारी के लिए सभी राज्यों से ज्यादा कर देना पड़ता है। गौरतलब है कि राज्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य 1100 रुपये प्रति क्विंटल है और इस पर सरकार 12.75 फीसदी कर ले रही है।
इस कर में 2 फीसदी बाजार शुल्क, 2.5 फीसदी वैट, 5 प्रतिशत वैट पर अधिशुल्क, 2.5 फीसदी कच्चा आढ़ती कमीशन, 1 फीसदी पक्का आढ़ती कमीशन और 2 फीसदी ग्रामीण विकास फंड शामिल है।
गुप्ता ने बताया कि इन सब करों के बाद आटा मिल मालिकों को 1300 रुपये में गेहूं खरीदना पड़ता है। इसके विपरीत उत्तरप्रदेश से गेहूं खरीदने के लिए मिल मालिकों को माल भाड़े और कर सहित प्रति क्ंविटल 1140 रुपये ही चुकाने पड़ रहे हैं। इससे प्रति क्ंविटल गेहूं खरीद में 160 रुपये का अंतर आ रहा है।
गुप्ता ने बताया कि हरियाणा सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए गेहूं की भंडारण योजना लागू करने में अन्य उत्तरी राज्यों से पीछे है। इस योजना में मिल मालिकों को गेहूं को आटे में बदलने के लिए आरक्षण दिया जाता है।
पंजाब और चंडीगढ़ में ऐसा किया जा रहा है। अगर हरियाणा में इसे अपनाया जाता है तो राज्य अपनी क्षमताओं का पूरा उपयोग कर सकेगा। गुप्ता ने बताया कि मिल मालिकों ने सही समय पर राज्य के अधिकारियों के सामने यह मुद्दा उठाया है लेकिन अभी तक इस पर किसी तरह का कोई निर्णय नहीं आया है।
उल्लेखनीय है कि गर्मी बढ़ने का भी कोई खास असर गेहूं के उत्पादन पर नहीं पडा है। इससे स्थिति यह हो गई है कि गेहूं के भंडारण का संकट हो गया है। (बीएस हिंदी)
हरियाणा में बहुतायत मात्रा में गेहूं के उत्पादन के बावजूद वहां के आटा मिल मालिक दूसरे राज्यों से गेहूं खरीद रहे हैं। इसकी वजह यह है कि राज्य सरकार करों के ढांचे को सरल नहीं बना रही है।
हरियाणा में इस समय 40 आटा मिलें चल रही हैं जिनमें से अधिकतर अपनी क्षमता का चौथाई हिस्सा ही उपयोग में ला रही हैं। इसका कारण करों का ढांचा इन मिल मालिकों के कारोबार के अनुकूल नहीं होना है। आटा मिलों की औसत दैनिक क्षमता 100 टन है।
हरियाणा आटा मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सी पी गुप्ता ने बताया कि राज्य में निजी मिल मालिकों को गेहूं की खरीदारी के लिए सभी राज्यों से ज्यादा कर देना पड़ता है। गौरतलब है कि राज्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य 1100 रुपये प्रति क्विंटल है और इस पर सरकार 12.75 फीसदी कर ले रही है।
इस कर में 2 फीसदी बाजार शुल्क, 2.5 फीसदी वैट, 5 प्रतिशत वैट पर अधिशुल्क, 2.5 फीसदी कच्चा आढ़ती कमीशन, 1 फीसदी पक्का आढ़ती कमीशन और 2 फीसदी ग्रामीण विकास फंड शामिल है।
गुप्ता ने बताया कि इन सब करों के बाद आटा मिल मालिकों को 1300 रुपये में गेहूं खरीदना पड़ता है। इसके विपरीत उत्तरप्रदेश से गेहूं खरीदने के लिए मिल मालिकों को माल भाड़े और कर सहित प्रति क्ंविटल 1140 रुपये ही चुकाने पड़ रहे हैं। इससे प्रति क्ंविटल गेहूं खरीद में 160 रुपये का अंतर आ रहा है।
गुप्ता ने बताया कि हरियाणा सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए गेहूं की भंडारण योजना लागू करने में अन्य उत्तरी राज्यों से पीछे है। इस योजना में मिल मालिकों को गेहूं को आटे में बदलने के लिए आरक्षण दिया जाता है।
पंजाब और चंडीगढ़ में ऐसा किया जा रहा है। अगर हरियाणा में इसे अपनाया जाता है तो राज्य अपनी क्षमताओं का पूरा उपयोग कर सकेगा। गुप्ता ने बताया कि मिल मालिकों ने सही समय पर राज्य के अधिकारियों के सामने यह मुद्दा उठाया है लेकिन अभी तक इस पर किसी तरह का कोई निर्णय नहीं आया है।
उल्लेखनीय है कि गर्मी बढ़ने का भी कोई खास असर गेहूं के उत्पादन पर नहीं पडा है। इससे स्थिति यह हो गई है कि गेहूं के भंडारण का संकट हो गया है। (बीएस हिंदी)
गेहूं बंपर, आटा-मैदा मिलें टॉप पर
मुंबई April 23, 2010
लगातार दो सीजन से गेहूं की बंपर पैदावार से इसे रखने को लेकर भले ही सरकार कठिनाई में हो, लेकिन इस जिंस ने देश भर की फ्लोर मिलों की गतिविधियां तेज कर दी है।
देश में 800 गेहूं प्रसंस्करण मिलें हैं, जिन्होंने अपनी क्षमता में 15 प्रतिशत का विस्तार किया है। मिलें जून में बढ़ने वाली मांग का फायदा उठाना चाहती हैं। इस समय मिलों का क्षमता उपयोग बढ़कर 40-45 प्रतिशत हो गया है, जो एक साल पहले 30-35 प्रतिशत था।
महाराष्ट्र रोलर फ्लोर मिल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष गोपाल लाल सेठ ने कहा, 'इस साल स्थिति बिल्कुल अलग है। फ्लोर मिलें अपने उपकरणों को दुरुस्त कर रही हैं, साथ ही अन्य सहायक उपकरण लगा रही हैं, जिससे पूरी क्षमता का उपयोग हो सके। पिछले साल सरकार ने गेहूं की आपूर्ति को लेकर नियम बनाए थे, जबकि उत्पादन ज्यादा हुआ था। इसके चलते प्रसंस्करण क्षेत्र में क्षमता विस्तार को लेकर भय पैदा हो गया था।'
उन्होंने कहा- इस समय गेहूं की पर्याप्त उपलब्धता है, जिसके चलते यह उद्योग अपनी क्षमता का बेहतर इस्तेमाल कर रहा है। साथ ही सरकार की नीतियों से भी प्रसंस्करणकर्ताओं को मदद मिली है। सामान्यतया गेहूं से बने उत्पादों, जैसे आटा, सूजी, मैदा की मांग मॉनसून शुरू होने के बाद बढ़ती है और सामान्य से ज्यादा खपत होती है। इसके चलते फ्लोर मिलों ने अप्रैल से ही तैयारी शुरू कर दी है।
क्षमता विस्तार के पीछे गोपाल दो कारणों को बताते हैं। पहला- हाजिर बाजार से गेहूं की खरीदारी सस्ती दरों पर हो रही है, क्योंकि पिछले साल जब सरकार ने आपूर्ति का नियमन किया जो कृत्रिम कमी की स्थिति बन गई और कीमतें बढ़ गईं। इस समय गेहूं के दाम 10 रुपये किलो है जबकि पिछले साल इस दौरान कीमतें 16-18 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गई थीं।
कीमतों में गिरावट के चलते प्रसंस्करणकर्ताओं के मुनाफे में भी बढ़ोतरी हुई है। दूसरा कारण है कि सरकार के हस्तक्षेप का खतरा नहीं है, जिससे प्रसंस्करणकर्ताओं को क्षमता विस्तार के लिए प्रोत्साहन मिल रहा है।
भारत गेहूं उत्पादन के 820 लाख टन के नए रिकॉर्ड की ओर इस साल बढ़ रहा है, जबकि पिछले साल 807 लाख टन उत्पादन हुआ था। पिछले साल के बचे अग्रिम स्टॉक के साथ इस साल के रिकॉर्ड उत्पादन के चलते सरकार की खरीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को भंडारण में दिक्कतें आ रही हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि एफसीआई गेहूं की खरीद सुस्त कर देगी, क्योंकि इस समय उसकेपास आवश्यक बफर स्टॉक की तुलना में तीन गुना संग्रह हो गया है। 1 अप्रैल को यह 50 लाख टन था। शिवाजी रोलर फ्लोर मिल के प्रबंध निदेशक अजय गोयल ने कहा कि गेहूं प्रसंस्करणकर्ताओं को गेहूं की उपलब्धता को लेकर कोई संकट नहीं आने वाला है, साथ ही कीमतों पर भी दबाव बना रहेगा।
अनुमान के मुताबिक चल रही करीब 400 फ्लोर मिलें करीब 7-8 लाख टन गेहूं की खपत प्रति माह करती हैं और इनकी सालाना खपत 78-80 लाख टन है। इसके अलावा संचालन के लिए पूंजी के अभाव में करीब 400 मिलें बंद पड़ी हैं। जाड़े के समय में प्रसंस्करण गतिविधियां सुस्त रही थीं।
सिर्फ महाराष्ट्र में ही 40 मिलें अपनी कुल क्षमता का 50 प्रतिशत चल रही हैं और 1 लाख टन गेहूं का मासिक प्रसंस्करण कर रही हैं। गोपाल ने कहा कि प्रसंस्करणकर्ताओं ने इस समय बहुराष्ट्रीय कंपनियों से गेहूं खरीदना बंद कर दिया है, क्योंकि हाजिर बाजार में कीमतें कम हैं।
इसके साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मात्रा को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है। विकल्प के रूप में इस समय मिलें हाजिर बाजार से माल उठा रही हैं। इसके पहले करीब 10 प्रतिशत खरीदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से होती थी, जिन्हें मिलें किस्तों में भुगतान करती थीं। (बीएस हिंदी)
लगातार दो सीजन से गेहूं की बंपर पैदावार से इसे रखने को लेकर भले ही सरकार कठिनाई में हो, लेकिन इस जिंस ने देश भर की फ्लोर मिलों की गतिविधियां तेज कर दी है।
देश में 800 गेहूं प्रसंस्करण मिलें हैं, जिन्होंने अपनी क्षमता में 15 प्रतिशत का विस्तार किया है। मिलें जून में बढ़ने वाली मांग का फायदा उठाना चाहती हैं। इस समय मिलों का क्षमता उपयोग बढ़कर 40-45 प्रतिशत हो गया है, जो एक साल पहले 30-35 प्रतिशत था।
महाराष्ट्र रोलर फ्लोर मिल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष गोपाल लाल सेठ ने कहा, 'इस साल स्थिति बिल्कुल अलग है। फ्लोर मिलें अपने उपकरणों को दुरुस्त कर रही हैं, साथ ही अन्य सहायक उपकरण लगा रही हैं, जिससे पूरी क्षमता का उपयोग हो सके। पिछले साल सरकार ने गेहूं की आपूर्ति को लेकर नियम बनाए थे, जबकि उत्पादन ज्यादा हुआ था। इसके चलते प्रसंस्करण क्षेत्र में क्षमता विस्तार को लेकर भय पैदा हो गया था।'
उन्होंने कहा- इस समय गेहूं की पर्याप्त उपलब्धता है, जिसके चलते यह उद्योग अपनी क्षमता का बेहतर इस्तेमाल कर रहा है। साथ ही सरकार की नीतियों से भी प्रसंस्करणकर्ताओं को मदद मिली है। सामान्यतया गेहूं से बने उत्पादों, जैसे आटा, सूजी, मैदा की मांग मॉनसून शुरू होने के बाद बढ़ती है और सामान्य से ज्यादा खपत होती है। इसके चलते फ्लोर मिलों ने अप्रैल से ही तैयारी शुरू कर दी है।
क्षमता विस्तार के पीछे गोपाल दो कारणों को बताते हैं। पहला- हाजिर बाजार से गेहूं की खरीदारी सस्ती दरों पर हो रही है, क्योंकि पिछले साल जब सरकार ने आपूर्ति का नियमन किया जो कृत्रिम कमी की स्थिति बन गई और कीमतें बढ़ गईं। इस समय गेहूं के दाम 10 रुपये किलो है जबकि पिछले साल इस दौरान कीमतें 16-18 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गई थीं।
कीमतों में गिरावट के चलते प्रसंस्करणकर्ताओं के मुनाफे में भी बढ़ोतरी हुई है। दूसरा कारण है कि सरकार के हस्तक्षेप का खतरा नहीं है, जिससे प्रसंस्करणकर्ताओं को क्षमता विस्तार के लिए प्रोत्साहन मिल रहा है।
भारत गेहूं उत्पादन के 820 लाख टन के नए रिकॉर्ड की ओर इस साल बढ़ रहा है, जबकि पिछले साल 807 लाख टन उत्पादन हुआ था। पिछले साल के बचे अग्रिम स्टॉक के साथ इस साल के रिकॉर्ड उत्पादन के चलते सरकार की खरीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को भंडारण में दिक्कतें आ रही हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि एफसीआई गेहूं की खरीद सुस्त कर देगी, क्योंकि इस समय उसकेपास आवश्यक बफर स्टॉक की तुलना में तीन गुना संग्रह हो गया है। 1 अप्रैल को यह 50 लाख टन था। शिवाजी रोलर फ्लोर मिल के प्रबंध निदेशक अजय गोयल ने कहा कि गेहूं प्रसंस्करणकर्ताओं को गेहूं की उपलब्धता को लेकर कोई संकट नहीं आने वाला है, साथ ही कीमतों पर भी दबाव बना रहेगा।
अनुमान के मुताबिक चल रही करीब 400 फ्लोर मिलें करीब 7-8 लाख टन गेहूं की खपत प्रति माह करती हैं और इनकी सालाना खपत 78-80 लाख टन है। इसके अलावा संचालन के लिए पूंजी के अभाव में करीब 400 मिलें बंद पड़ी हैं। जाड़े के समय में प्रसंस्करण गतिविधियां सुस्त रही थीं।
सिर्फ महाराष्ट्र में ही 40 मिलें अपनी कुल क्षमता का 50 प्रतिशत चल रही हैं और 1 लाख टन गेहूं का मासिक प्रसंस्करण कर रही हैं। गोपाल ने कहा कि प्रसंस्करणकर्ताओं ने इस समय बहुराष्ट्रीय कंपनियों से गेहूं खरीदना बंद कर दिया है, क्योंकि हाजिर बाजार में कीमतें कम हैं।
इसके साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मात्रा को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है। विकल्प के रूप में इस समय मिलें हाजिर बाजार से माल उठा रही हैं। इसके पहले करीब 10 प्रतिशत खरीदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से होती थी, जिन्हें मिलें किस्तों में भुगतान करती थीं। (बीएस हिंदी)
बढ़ेगी प्लैटिनम की मांग
मुंबई April 23, 2010
अंतरराष्ट्रीय शोध संस्था गोल्ड फील्ड मिनरल सर्विसेज (जीएफएमएस) ने कहा है कि प्लैटिनम और पैलेडियम की कीमतें भी मांग बढ़ने के चलते आने वाले दिनों में बढ़ेंगी।
दोनों धातुएं कीमती धातुओं की श्रेणी में आती हैं, जो जीएफएमएस के अनुमान आने के बाद गुरुवार को लंदन मेटल एक्सचेंज में दो साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं।
जीएफएमएस लिमिटेड ने कहा कि प्लैटिनम की मांग ऑटो निर्माताओं की ओर से है, जो इस धातु का सबसे ज्यादा प्रयोग करते हैं। ऑटो उद्योग में प्लैटिनम की मांग पिछले साल गिरकर 26 लाख औंस रह गई थी, जो 2001 के बाद सबसे कम थी। (बीएस हिंदी)
अंतरराष्ट्रीय शोध संस्था गोल्ड फील्ड मिनरल सर्विसेज (जीएफएमएस) ने कहा है कि प्लैटिनम और पैलेडियम की कीमतें भी मांग बढ़ने के चलते आने वाले दिनों में बढ़ेंगी।
दोनों धातुएं कीमती धातुओं की श्रेणी में आती हैं, जो जीएफएमएस के अनुमान आने के बाद गुरुवार को लंदन मेटल एक्सचेंज में दो साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं।
जीएफएमएस लिमिटेड ने कहा कि प्लैटिनम की मांग ऑटो निर्माताओं की ओर से है, जो इस धातु का सबसे ज्यादा प्रयोग करते हैं। ऑटो उद्योग में प्लैटिनम की मांग पिछले साल गिरकर 26 लाख औंस रह गई थी, जो 2001 के बाद सबसे कम थी। (बीएस हिंदी)
गन्ने का एफआरपी 7फीसदी बढ़ा
आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) ने पेराई सीजन 2010-11 के लिए गन्ने की फेयर एंड रिम्यूनरटिव प्राइस (एफआरपी)139।12 रुपये प्रति क्विंटल तय की है। सीसीईए द्वारा स्वीकृत यह मूल्य न्यूनतम 9.5 फीसदी रिकवरी वाले गन्ने के लिए होगी। दिलचस्प है कि मौजूदा सीजन में प्रचलित रहे गन्ने के मूल्य करीब 275-300 रुपये प्रति क्विंटल के मुकाबले एफआरपी आधे से भी कम तय किया गया है। वैसे तो पिछले साल के एफआरपी 129.84 रुपये के मुकाबले इस साल इसमें सात फीसदी बढ़ोतरी की गई है, लेकिन किसान संगठनों ने एफआरपी में की गई बढ़ोतरी को नाकाफी बताते हुए कहा है कि डीजल और खाद की कीमतें बढ़ने से किसानों की लागत काफी ज्यादा बढ़ चुकी है।इसके मुकाबले एफआरपी में बढ़ोतरी मामूली है, जो गन्ना किसानों के साथ अन्याय है। पेराई सीजन 2009-10 के लिए गन्ने का एफआरपी 129.84 रुपये प्रति क्विंटल 9.5 फीसदी रिकवरी के आधार पर था। इससे ज्यादा रिकवरी होने पर 1.37 रुपये प्रति क्विंटल प्रति 0.1 फीसदी रिकवरी प्रीमियम देने की व्यवस्था थी, जबकि पेराई सीजन 2010-11 के लिए ज्यादा रिकवरी होने पर 1.46 रुपये प्रति क्विंटल प्रति 0.1 फीसदी रिकवरी प्रीमियम तय किया गया है। गन्ने का पेराई सीजन अक्टूबर से सिंतबर तक चलता है। राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वी. एम. सिंह ने कहा कि गन्ने के एफआरपी में मात्र सात फीसदी की बढ़ोतरी करके सरकार ने किसानों के साथ अन्याय किया है। (बिज़नस भास्कर)
गन्ने की अगली फसल के दाम तय
नई दिल्ली April 23, 2010
मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति की बैठक में वर्ष 2010-11 के लिए गन्ने का एफआरपी 139.12 रुपये क्विंटल तय करने के प्रस्ताव को आज मंजूरी दे दी गई।
पिछले साल की तुलना में इसमें 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है। यह भुगतान 9.5 प्रतिशत रिकवरी पर किया जाएगा। अगर इससे ज्यादा रिकवरी होती है तो रिकवरी में 0.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी पर 1.46 रुपये प्रीमियम का भुगतान किया जाएगा।
गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य वह मूल्य है जो गन्ना किसानों को कानूनी तौर पर मिलना चाहिए। हालांकि इसमें यह भी व्यवस्था है कि चीनी मिलें गन्ना किसानों को इस दाम से ऊपर कोई भी दाम देने के लिए स्वतंत्र हैं। गन्ने का रिकवरी रेट उस गन्ने से बनने वाली चीनी के आधार पर तय होता है। 9.5 प्रतिशत रिकवरी रेट का बेहतर माना जाता है।
मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति ने 2010-11 सत्र के लिए गन्ने का एफआरपी खाद्य मंत्रालय द्वारा की गई 140 रुपये प्रति क्विंटल की सिफारिश के अनुरूप ही तय किया है। सरकार का मानना है कि गन्ने का एफआरपी किसानों की गन्ना उत्पादन लागत, उसके जोखिम और मुनाफा तथा उसकी परिवहन लागत सभी कुछ को ध्यान में रखते हुए तय किया गया है।
सरकार ने इस मामले में कुल मिलाकर 45 प्रतिशत का मार्जिन रखा है। इसमें गन्ने की मिल गेट तक की परिवहन लागत, अखिल भारतीय स्तर पर गन्ना उत्पादन की औसत समायोजित लागत, जोखिम और किसान का मुनाफा सभी कुछ शामिल किया गया है।
जूट के एमएसपी में 14 प्रतिशत की बढ़ोतरी
केंद्र ने जूट का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2010-11 के लिए 14.54 प्रतिशत ऊंचा कर 1,575 रुपये प्रति क्विंटल किया है। पिछली बार यह मूल्य 1,375 रुपये प्रति क्विंटल था। टीडी-5 ग्रेड पटसन का एमएसपी बढ़ाने का निर्णय लिया गया है।
सरकारी वक्तव्य में कहा गया है कि,'कच्ची पटसन के एमएसपी में बढ़ोतरी से किसान इसकी खेती के लिए प्रोत्साहित होंगे और देश की पटसन उत्पादन क्षमता बढेगी।'
पिछली फसल में पटसन का उत्पादन 96. 98 लाख गांठ होने का अनुमान है जबकि इससे पिछले साल 180-180 किलो ग्राम की कुल 96.34 लाख गांठ पटसन का उत्पादन हुआ था। इसकी खेती मुख्यत: पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, ओडिसा, आंध्र प्रदेश और त्रिपुरा में होती है।
तूतीकोरिन के लिए कार्गो बर्थ
बुनियादी ढांचे पर बनी कैबिनेट समिति ने नॉर्थ कार्गो बर्थ-2 के विकास की अनुमति दे दी है, जिससे तूतीकोरिन बंदरगाह से बड़े कार्गो का संचालन हो सके।
इस डिजाइन बिल्ड, फाइनैंस और ट्रांसफर आधार पर 30 साल के लिए अनुमानित खर्च 332.16 करोड़ रुपये आने का अनुमान है। इसकी क्षमता 70 लाख टन प्रति साल होगी। उम्मीद है कि यह परियोजना 24 माह के भीतर पूरी हो जाएगी।
समुचित नहीं है गन्ने का यह मूल्य : किसान संगठन
किसान संगठनों ने केंद्र द्वारा आज घोषित गन्ने की दर को 'बहुत कम' बताते हुए कहा कि सरकार ने यह फैसला करते हुए खेती में बढते खर्च की भरपाई करना भी उचित नहीं समझा है।
संगठनों ने मांग की है कि कृषि उपजों का मूल्य तय करते समय सरकार उनसे राय मशविरा कर के फैसला करे। केंद्र के इस निर्णय पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भारतीय कृषक समाज के अध्यक्ष कृष्णबीर चौधरी ने कहा, 'यह बहुत कम है। इसे लाभप्रद या उचित मूल्य कतई नहीं कहा जा सकता। यह उन किसानों के साथ धोखा है जो डीजल, खाद, बीज और मजदूरी के बढते खर्च से तबाह हो रहे हैं।'
चौधरी ने कहा, 'मिलों ने इस बार किसानों से 280 रुपये क्विंटल के भाव पर गन्ना खरीदा, सरकार उसके आधे से भी कम मूल्य तय कर अपनी पीठ थपथपा रही है। यह मिल लॉबी के दबाव में लिया गया फैसला है।' (बीएस हिंदी)
मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति की बैठक में वर्ष 2010-11 के लिए गन्ने का एफआरपी 139.12 रुपये क्विंटल तय करने के प्रस्ताव को आज मंजूरी दे दी गई।
पिछले साल की तुलना में इसमें 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है। यह भुगतान 9.5 प्रतिशत रिकवरी पर किया जाएगा। अगर इससे ज्यादा रिकवरी होती है तो रिकवरी में 0.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी पर 1.46 रुपये प्रीमियम का भुगतान किया जाएगा।
गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य वह मूल्य है जो गन्ना किसानों को कानूनी तौर पर मिलना चाहिए। हालांकि इसमें यह भी व्यवस्था है कि चीनी मिलें गन्ना किसानों को इस दाम से ऊपर कोई भी दाम देने के लिए स्वतंत्र हैं। गन्ने का रिकवरी रेट उस गन्ने से बनने वाली चीनी के आधार पर तय होता है। 9.5 प्रतिशत रिकवरी रेट का बेहतर माना जाता है।
मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति ने 2010-11 सत्र के लिए गन्ने का एफआरपी खाद्य मंत्रालय द्वारा की गई 140 रुपये प्रति क्विंटल की सिफारिश के अनुरूप ही तय किया है। सरकार का मानना है कि गन्ने का एफआरपी किसानों की गन्ना उत्पादन लागत, उसके जोखिम और मुनाफा तथा उसकी परिवहन लागत सभी कुछ को ध्यान में रखते हुए तय किया गया है।
सरकार ने इस मामले में कुल मिलाकर 45 प्रतिशत का मार्जिन रखा है। इसमें गन्ने की मिल गेट तक की परिवहन लागत, अखिल भारतीय स्तर पर गन्ना उत्पादन की औसत समायोजित लागत, जोखिम और किसान का मुनाफा सभी कुछ शामिल किया गया है।
जूट के एमएसपी में 14 प्रतिशत की बढ़ोतरी
केंद्र ने जूट का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2010-11 के लिए 14.54 प्रतिशत ऊंचा कर 1,575 रुपये प्रति क्विंटल किया है। पिछली बार यह मूल्य 1,375 रुपये प्रति क्विंटल था। टीडी-5 ग्रेड पटसन का एमएसपी बढ़ाने का निर्णय लिया गया है।
सरकारी वक्तव्य में कहा गया है कि,'कच्ची पटसन के एमएसपी में बढ़ोतरी से किसान इसकी खेती के लिए प्रोत्साहित होंगे और देश की पटसन उत्पादन क्षमता बढेगी।'
पिछली फसल में पटसन का उत्पादन 96. 98 लाख गांठ होने का अनुमान है जबकि इससे पिछले साल 180-180 किलो ग्राम की कुल 96.34 लाख गांठ पटसन का उत्पादन हुआ था। इसकी खेती मुख्यत: पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, ओडिसा, आंध्र प्रदेश और त्रिपुरा में होती है।
तूतीकोरिन के लिए कार्गो बर्थ
बुनियादी ढांचे पर बनी कैबिनेट समिति ने नॉर्थ कार्गो बर्थ-2 के विकास की अनुमति दे दी है, जिससे तूतीकोरिन बंदरगाह से बड़े कार्गो का संचालन हो सके।
इस डिजाइन बिल्ड, फाइनैंस और ट्रांसफर आधार पर 30 साल के लिए अनुमानित खर्च 332.16 करोड़ रुपये आने का अनुमान है। इसकी क्षमता 70 लाख टन प्रति साल होगी। उम्मीद है कि यह परियोजना 24 माह के भीतर पूरी हो जाएगी।
समुचित नहीं है गन्ने का यह मूल्य : किसान संगठन
किसान संगठनों ने केंद्र द्वारा आज घोषित गन्ने की दर को 'बहुत कम' बताते हुए कहा कि सरकार ने यह फैसला करते हुए खेती में बढते खर्च की भरपाई करना भी उचित नहीं समझा है।
संगठनों ने मांग की है कि कृषि उपजों का मूल्य तय करते समय सरकार उनसे राय मशविरा कर के फैसला करे। केंद्र के इस निर्णय पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भारतीय कृषक समाज के अध्यक्ष कृष्णबीर चौधरी ने कहा, 'यह बहुत कम है। इसे लाभप्रद या उचित मूल्य कतई नहीं कहा जा सकता। यह उन किसानों के साथ धोखा है जो डीजल, खाद, बीज और मजदूरी के बढते खर्च से तबाह हो रहे हैं।'
चौधरी ने कहा, 'मिलों ने इस बार किसानों से 280 रुपये क्विंटल के भाव पर गन्ना खरीदा, सरकार उसके आधे से भी कम मूल्य तय कर अपनी पीठ थपथपा रही है। यह मिल लॉबी के दबाव में लिया गया फैसला है।' (बीएस हिंदी)
इस बार आएगी 'बरखा बहार'
नई दिल्ली April 23, 2010
इस साल सामान्य मॉनसून रहने के जो संकेत मिले हैं उसके आधार पर भारतीय मौसम विभाग ने कहा कि देश भर में होने वाली 89 सेंटीमीटर की औसत बारिश की 98 फीसदी बारिश जून से लेकर सितंबर के दौरान ही होगी। यह अनुमान 5 फीसदी ऊपर या नीचे हो सकता है।
हालांकि मॉनसून कब तक आएगा इसके अभी तक कोई संकेत नहीं मिले हैं। आमतौर पर 1 जून तक मॉनसून केरल तट या फिर उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में दस्तक दे देता है। यहां से मॉनसून 10 जून तक मुंबई और कोलकाता पहुंचता हैं जबकि दिल्ली में इसका आगमन 29 जून के आसपास ही होता है। जुलाई के मध्य तक देश भर में बारिश होने लगती है।
2010 मॉनसून का पूर्वानुमान 5 मानकों वाले सांख्यिकी मॉडल पर आधारित है। जून में इसे और पक्का करने के लिए 6 मानकों वाले सांख्यिकी मॉडल से भी जांचा जाएगा। मौसम विभाग ने बताया कि इन दोनों मॉडलों में 3 मानक समान हैं। इस जानकारी को मौसम विभाग जून में मॉनसून के आने के बाद जारी करेगा।
पिछले साल 17 अप्रैल को भी मौसम विभाग ने 96 फीसदी की सामान्य बारिश होने का अनुमान जताया था। लेकिन विभाग का यह अनुमान गलत निकला और सिर्फ 77 फीसदी बारिश ही हुई, जिससे देश के कई हिस्सों में सूखा पड़ गया था। यहीं नहीं इसके बाद 24 जून को जारी किये गए नए अनुमान में विभाग ने 93 फीसदी बारिश की संभावना जताई, जो गलत निकली।
दरअसल 2007 से ही मौसम विभाग मॉनसून के अनुमान के लिए दो मॉडलों का इस्तेमाल कर रहा है। एक मॉडल के इस्तेमाल से वह लंबी अवधि के लिए मॉनसून का अंदाजा लगाते हैं और दूसरे मॉडल से जून में सुधार के साथ आंकड़े घोषित किये जाते हैं। लेकिन पिछले दो-तीन साल से इस्तेमाल किये जा रहे इन मॉडलों के आधार पर लगाया गया मॉनसून का अनुमान गलत हो रहा है, जिससे इन मॉडलों की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में है।
हालांकि मौसम विश्लेषकों का मानना है कि इस बार मौसम विभाग का अनुमान सही हो सकता है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मौसम संगठनों ने भी इस बार सामान्य मॉनसून रहने की उम्मीद जताई है। इसके साथ ही मौसम विभाग अल नीनो (प्रशांत महासागर के गर्म होने की प्रक्रिया) पर भी लगातार नजर रखे हुए है।
मौसम विभाग ने कहा, 'दिसंबर के अंत से अल नीनो कमजोर होने लगा है। कई आंकड़ों से यही संकेत मिल रहे हैं कि देश में मॉनसून की शुरुआत तक अल नीनो कमजोर ही रहने के आसार हैं। इसके बाद के महीनों में इसमें और गिरावट की उम्मीद है।'
कुछ मॉडलों से ला नीना (इसका प्रभाव अल नीनो के विपरीत होता है और यह भारतीय मॉनसून के लिये अच्छा माना जाता है) के बनने के संकेत मिल रहे हैं। पिछले साल से मौसम विभाग प्रयोगात्मक मॉनसून अनुमानों के लिए विकसित देशों के मौसम संस्थानों द्वारा अपनाए गए तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है।
अबके बरस सावन में...
देश भर में जून से सितंबर तक होगी 98 फीसदी बारिश अंतरराष्ट्रीय मौसम संगठनों ने भी जताई यही उम्मीदअभी पता नहीं कि मॉनसून कब देगा पहली दस्तक (बीएस हिंदी)
इस साल सामान्य मॉनसून रहने के जो संकेत मिले हैं उसके आधार पर भारतीय मौसम विभाग ने कहा कि देश भर में होने वाली 89 सेंटीमीटर की औसत बारिश की 98 फीसदी बारिश जून से लेकर सितंबर के दौरान ही होगी। यह अनुमान 5 फीसदी ऊपर या नीचे हो सकता है।
हालांकि मॉनसून कब तक आएगा इसके अभी तक कोई संकेत नहीं मिले हैं। आमतौर पर 1 जून तक मॉनसून केरल तट या फिर उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में दस्तक दे देता है। यहां से मॉनसून 10 जून तक मुंबई और कोलकाता पहुंचता हैं जबकि दिल्ली में इसका आगमन 29 जून के आसपास ही होता है। जुलाई के मध्य तक देश भर में बारिश होने लगती है।
2010 मॉनसून का पूर्वानुमान 5 मानकों वाले सांख्यिकी मॉडल पर आधारित है। जून में इसे और पक्का करने के लिए 6 मानकों वाले सांख्यिकी मॉडल से भी जांचा जाएगा। मौसम विभाग ने बताया कि इन दोनों मॉडलों में 3 मानक समान हैं। इस जानकारी को मौसम विभाग जून में मॉनसून के आने के बाद जारी करेगा।
पिछले साल 17 अप्रैल को भी मौसम विभाग ने 96 फीसदी की सामान्य बारिश होने का अनुमान जताया था। लेकिन विभाग का यह अनुमान गलत निकला और सिर्फ 77 फीसदी बारिश ही हुई, जिससे देश के कई हिस्सों में सूखा पड़ गया था। यहीं नहीं इसके बाद 24 जून को जारी किये गए नए अनुमान में विभाग ने 93 फीसदी बारिश की संभावना जताई, जो गलत निकली।
दरअसल 2007 से ही मौसम विभाग मॉनसून के अनुमान के लिए दो मॉडलों का इस्तेमाल कर रहा है। एक मॉडल के इस्तेमाल से वह लंबी अवधि के लिए मॉनसून का अंदाजा लगाते हैं और दूसरे मॉडल से जून में सुधार के साथ आंकड़े घोषित किये जाते हैं। लेकिन पिछले दो-तीन साल से इस्तेमाल किये जा रहे इन मॉडलों के आधार पर लगाया गया मॉनसून का अनुमान गलत हो रहा है, जिससे इन मॉडलों की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में है।
हालांकि मौसम विश्लेषकों का मानना है कि इस बार मौसम विभाग का अनुमान सही हो सकता है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मौसम संगठनों ने भी इस बार सामान्य मॉनसून रहने की उम्मीद जताई है। इसके साथ ही मौसम विभाग अल नीनो (प्रशांत महासागर के गर्म होने की प्रक्रिया) पर भी लगातार नजर रखे हुए है।
मौसम विभाग ने कहा, 'दिसंबर के अंत से अल नीनो कमजोर होने लगा है। कई आंकड़ों से यही संकेत मिल रहे हैं कि देश में मॉनसून की शुरुआत तक अल नीनो कमजोर ही रहने के आसार हैं। इसके बाद के महीनों में इसमें और गिरावट की उम्मीद है।'
कुछ मॉडलों से ला नीना (इसका प्रभाव अल नीनो के विपरीत होता है और यह भारतीय मॉनसून के लिये अच्छा माना जाता है) के बनने के संकेत मिल रहे हैं। पिछले साल से मौसम विभाग प्रयोगात्मक मॉनसून अनुमानों के लिए विकसित देशों के मौसम संस्थानों द्वारा अपनाए गए तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है।
अबके बरस सावन में...
देश भर में जून से सितंबर तक होगी 98 फीसदी बारिश अंतरराष्ट्रीय मौसम संगठनों ने भी जताई यही उम्मीदअभी पता नहीं कि मॉनसून कब देगा पहली दस्तक (बीएस हिंदी)
उप्र के गेहूं किसानों पर दोहरी मार
नई दिल्ली April 23, 2010
उत्तर प्रदेश के गेहूं किसानों पर दोतरफा मार पड़ रही है। मौसम की बेरुखी से उत्पादन में गिरावट आई है तो दूसरी तरफ रोजाना मंडियों में गेहूं के भाव कम होते जा रहे हैं।
सप्ताह पहले उत्तर प्रदेश की 10 मंडियों में गेहूं के भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य (1100 रुपये प्रति क्विंटल) से कम थे। कृषि उपज विपणन समिति के मुताबिक अब यह संख्या बढ़कर 15 से अधिक हो गई है। किसानों से कहा जा रहा है कि उनके गेहूं काफी कमजोर एवं पतले है, इसलिए उसकी सरकारी खरीद नहीं हो सकती।
मुरादनगर के किसान राम बहादुर ने बताया कि उनके आसपास हापुड़, मोदीनगर एवं मुरादनगर तीन मंडियां हैं। लेकिन इन सभी में गेहूं की खरीदारी 980-1025 रुपये प्रति क्विंटल तक की जा रही है। मंडियों में गेहूं के तौल के लिए किसानों को चार-चार दिन तक इंतजार करना पड़ रहा है।
ऐसे में हार कर किसान आढ़ती के हाथ कम कीमत पर गेहूं बेच कर चला आता है। राम बहादुर की तरह ओम प्रकाश ने भी 20 क्विंटल से अधिक गेहूं 1000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचा है।
वे बताते हैं, 'मंडी में सबसे पहले तो हमें यह कहा गया कि उनके गेहूं की सरकारी खरीद नहीं हो सकती क्योंकि गेहूं के दाने 25 फीसदी कमजोर है जबकि 4-5 फीसदी तक कमजोर गेहूं की ही सरकारी खरीद हो सकती है। मंडियों में बोरी की भी भारी कमी है।'
यही हाल चंदौसी, संभल, बहरी, अमरोहा, रायबरेली एवं मुरादाबाद जैसी मंडियों का है। चंदौसी मंडी में अपने गेहूं को बेचने वाले हरपाल सिंह कहते हैं, 'यहां पर गेहूं के भाव 950-1000 रुपये तक चल रहे हैं। किसानों को खाद, बीज एवं अन्य लागत के पैसे भी चुकाने होते हैं, इसलिए किसान जल्दी में होता है। इसका फायदा मंडी में मौजूद आढ़ती उठा रहे हैं।'
आगरा से लेकर गाजियाबाद त क गेहूं की उत्पादकता में 25 फीसदी से अधिक की कमी बताई जा रही है। पिछले साल एक एकड़ में कम से कम 30 क्विंटल की पैदावार हुई थी जबकि इस साल यह पैदावार अधिकतम 20 क्विंटल है।
किसानों की मांग है कि पंजाब एवं हरियाणा की तरह उत्तर प्रदेश की मंडियों में भी सरकार की तरफ से समर्थन मूल्य दिलवाने की व्यवस्था होनी चाहिए। राम बहादुर कहते हैं, '1100 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत मिलने पर मुझे 2000 रुपये का नुकसान नहीं होता।'
खरीद 6 फीसदी बढ़ी
गेहूं की सरकारी खरीद इस बार तेज है। चालू सत्र में पहली अप्रैल से अब तक 167.88 लाख टन गेहूं सरकारी गोदामों के लिए खरीदा जा चुका है जो पिछले साल इसी दौरान की खरीद से 6 प्रतिशत अधिक है।
भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने 2009-10 विपणन वर्ष की समान अवधि में 157.80 लाख टन गेहूं की खरीद की थी। 2010-11 विपणन वर्ष में पिछले वर्ष की 253.85 लाख टन की रिकॉर्ड खरीद की तुलना में 262 लाख टन सरकारी खरीद होने का अनुमान है।
शुक्रवार को जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पंजाब ने इस साल अभी तक सबसे अधिक 84.34 लाख टन गेहूं, हरियाणा ने 56.15 लाख टन और मध्य प्रदेश ने 21.62 लाख टन गेहूं की खरीद की है।
उत्पादकता के साथ गेहूं के भाव में भी गिरावट
उत्तर प्रदेश की 15 मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर बिक रहा है गेहूंगेहूं की खरीद 980-1025 रुपये प्रति क्विंटल परकिसानों से कहा जा रहा है कि कमजोर व पतला है गेहूंगेहूं की तौल के लिए करना पड़ रहा है 4 दिन इंतजारआढ़तियों को औने-पौने भाव गेहूं बेचने को मजबूर किसान (बीस हिंदी)
उत्तर प्रदेश के गेहूं किसानों पर दोतरफा मार पड़ रही है। मौसम की बेरुखी से उत्पादन में गिरावट आई है तो दूसरी तरफ रोजाना मंडियों में गेहूं के भाव कम होते जा रहे हैं।
सप्ताह पहले उत्तर प्रदेश की 10 मंडियों में गेहूं के भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य (1100 रुपये प्रति क्विंटल) से कम थे। कृषि उपज विपणन समिति के मुताबिक अब यह संख्या बढ़कर 15 से अधिक हो गई है। किसानों से कहा जा रहा है कि उनके गेहूं काफी कमजोर एवं पतले है, इसलिए उसकी सरकारी खरीद नहीं हो सकती।
मुरादनगर के किसान राम बहादुर ने बताया कि उनके आसपास हापुड़, मोदीनगर एवं मुरादनगर तीन मंडियां हैं। लेकिन इन सभी में गेहूं की खरीदारी 980-1025 रुपये प्रति क्विंटल तक की जा रही है। मंडियों में गेहूं के तौल के लिए किसानों को चार-चार दिन तक इंतजार करना पड़ रहा है।
ऐसे में हार कर किसान आढ़ती के हाथ कम कीमत पर गेहूं बेच कर चला आता है। राम बहादुर की तरह ओम प्रकाश ने भी 20 क्विंटल से अधिक गेहूं 1000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचा है।
वे बताते हैं, 'मंडी में सबसे पहले तो हमें यह कहा गया कि उनके गेहूं की सरकारी खरीद नहीं हो सकती क्योंकि गेहूं के दाने 25 फीसदी कमजोर है जबकि 4-5 फीसदी तक कमजोर गेहूं की ही सरकारी खरीद हो सकती है। मंडियों में बोरी की भी भारी कमी है।'
यही हाल चंदौसी, संभल, बहरी, अमरोहा, रायबरेली एवं मुरादाबाद जैसी मंडियों का है। चंदौसी मंडी में अपने गेहूं को बेचने वाले हरपाल सिंह कहते हैं, 'यहां पर गेहूं के भाव 950-1000 रुपये तक चल रहे हैं। किसानों को खाद, बीज एवं अन्य लागत के पैसे भी चुकाने होते हैं, इसलिए किसान जल्दी में होता है। इसका फायदा मंडी में मौजूद आढ़ती उठा रहे हैं।'
आगरा से लेकर गाजियाबाद त क गेहूं की उत्पादकता में 25 फीसदी से अधिक की कमी बताई जा रही है। पिछले साल एक एकड़ में कम से कम 30 क्विंटल की पैदावार हुई थी जबकि इस साल यह पैदावार अधिकतम 20 क्विंटल है।
किसानों की मांग है कि पंजाब एवं हरियाणा की तरह उत्तर प्रदेश की मंडियों में भी सरकार की तरफ से समर्थन मूल्य दिलवाने की व्यवस्था होनी चाहिए। राम बहादुर कहते हैं, '1100 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत मिलने पर मुझे 2000 रुपये का नुकसान नहीं होता।'
खरीद 6 फीसदी बढ़ी
गेहूं की सरकारी खरीद इस बार तेज है। चालू सत्र में पहली अप्रैल से अब तक 167.88 लाख टन गेहूं सरकारी गोदामों के लिए खरीदा जा चुका है जो पिछले साल इसी दौरान की खरीद से 6 प्रतिशत अधिक है।
भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने 2009-10 विपणन वर्ष की समान अवधि में 157.80 लाख टन गेहूं की खरीद की थी। 2010-11 विपणन वर्ष में पिछले वर्ष की 253.85 लाख टन की रिकॉर्ड खरीद की तुलना में 262 लाख टन सरकारी खरीद होने का अनुमान है।
शुक्रवार को जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पंजाब ने इस साल अभी तक सबसे अधिक 84.34 लाख टन गेहूं, हरियाणा ने 56.15 लाख टन और मध्य प्रदेश ने 21.62 लाख टन गेहूं की खरीद की है।
उत्पादकता के साथ गेहूं के भाव में भी गिरावट
उत्तर प्रदेश की 15 मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर बिक रहा है गेहूंगेहूं की खरीद 980-1025 रुपये प्रति क्विंटल परकिसानों से कहा जा रहा है कि कमजोर व पतला है गेहूंगेहूं की तौल के लिए करना पड़ रहा है 4 दिन इंतजारआढ़तियों को औने-पौने भाव गेहूं बेचने को मजबूर किसान (बीस हिंदी)
23 अप्रैल 2010
घट सकती है तिलहन की बुआई
मुंबई April 23, 2010
इस साल उत्पादकों से लेकर उपभोक्ताओं तक, सभी सामान्य मॉनसूनी बारिश की उम्मीद के चलते खुश हैं।
वहीं तिलहन से जुड़े लोग खरीफ की बुआई को लेकर चिंतित हैं। इसकी वजह है कि तिलहन का भंडारण इस साल ज्यादा है। लगातार दो साल मॉनसूनी बारिश कम होने के बाद मौसम विभाग ने इस साल बेहतर बारिश की उम्मीद जाहिर की है। इससे किसानों को उम्मीद जगी है कि इस साल उत्पादन बढ़िया रहेगा।
इस खबर से सरकार ने भी राहत की सांस ली है, क्योंकि खाद्यान्न की कमी की वजह से महंगाई दर में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। सामान्यतया सोयाबीन (100 प्रतिशत), मूंगफली (75 प्रतिशत), तिल (80 प्रतिशत) अरंडी (100 प्रतिशत) और सूरजमुखी (23 प्रतिशत) की बुआई मॉनसूनी बारिश के समय होती है और इसकी फसल सितंबर और अक्टूबर में तैयार हो जाती है।
इसके बाद नवंबर से पेराई सत्र शुरू हो जाता है। लेकिन इस साल तिलहन की बुआई के खराब संकेत मिल रहे हैं, क्योंकि किसानों और कारोबारियों ने पिछले साल के 85 लाख टन सोयाबीन उत्पादन का आधा माल रोक रखा है।
सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक बीवी मेहता ने कहा कि खाद्य तेलों के आयात पर शुल्क नहीं लगाया गया है। इसके साथ ही पिछले 4 साल से तिलहन के बेस रेट में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। इसके कारण अगर घरेलू बीज का प्रसंस्करण नहीं हो पाता है तो स्टॉक बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा और किसान तिलहन की खेती से मुंह मोड़ लेंगे।
कुल मिलाकर आंकड़ों को देखें तो 1 अप्रैल 2010 तक कुल 185 लाख टन से ज्यादा तिलहन की पेराई नहीं हुई है, इसमें राइस ब्रान, 45 लाख टन सोयाबीन, 60 लाख टन सरसों, 20 लाख टन मूंगफली, और 60 लाख टन कपास बीज शामिल है।
मेहता का कहना है कि खाद्य तेलों के आयात पर भी दबाव बना रहेगा, जब तक भंडारण बना हुआ है और उसे खत्म नहीं कर दिया जाता। इस समय कुल भंडारण देश में 35 दिन के कुल खपत के बराबर है, जो 25 दिन के खपत के लिए भंडारण की तुलना में बहुत ज्यादा है।
खाद्य तेलों का वर्तमान भंडारण 1 अप्रैल 2010 तक बंदरगाहों पर 7-8 लाख टन और 5-6 लाख टन प्रक्रिया में है। भारत में खाद्य तेलों का कुल उत्पादन 60-65 लाख टन है, जबकि खपत 150 लाख टन से ज्यादा है।
ऐसे में शेष जरूरतें इंडोनेशिया, मलेशिया और अर्जेंटीना से आयात करके पूरी की जाती हैं। अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपये के मजबूत होने और कच्चे खाद्य तेल पर आयात शुल्क शून्य होने और रिफाइंड तेल पर मामूली शुल्क (7.5 प्रतिशत) होने की वजह से भारत में पेराई सत्र के दौरान भी बड़े पैमाने पर आयात में सहूलियत मिली।
रुचि सोया इंडस्ट्रीज के प्रबंध निदेशक दिनेश शाहरा के मुताबिक इस समय घरेलू पेराई मिले अपनी कुल क्षमता का 40-50 प्रतिशत ही पेराई कर रही हैं। पेराई करने वाली मिलों ने घरेलू बाजार में उपलब्ध कुल तिलहन का महत 36 प्रतिशत ही पेराई कर सकी हैं। सामान्यतया नवंबर-मार्च के बीच कुल उपलब्ध तिलहन के 60 प्रतिशत हिस्से की पेराई हो जाती है।
पेराई न होने की वजह से तिलहन का भंडारण बढ़ा
पेराई न होने की वजह से इस साल तिलहन का भंडारण 1 अप्रैल तक 185 लाख टनकच्चे तेल का आयात शुल्क मुक्त और रिफाइंड तेल आयात पर मामूली शुल्क की वजह से पेराई सत्र में भी हुआ जमकर आयातभंडारण ज्यादा होने की वजह से तिलहन की खेती से मुंह मोड़ सकते हैं किसान (बीएस हिंदी)
इस साल उत्पादकों से लेकर उपभोक्ताओं तक, सभी सामान्य मॉनसूनी बारिश की उम्मीद के चलते खुश हैं।
वहीं तिलहन से जुड़े लोग खरीफ की बुआई को लेकर चिंतित हैं। इसकी वजह है कि तिलहन का भंडारण इस साल ज्यादा है। लगातार दो साल मॉनसूनी बारिश कम होने के बाद मौसम विभाग ने इस साल बेहतर बारिश की उम्मीद जाहिर की है। इससे किसानों को उम्मीद जगी है कि इस साल उत्पादन बढ़िया रहेगा।
इस खबर से सरकार ने भी राहत की सांस ली है, क्योंकि खाद्यान्न की कमी की वजह से महंगाई दर में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। सामान्यतया सोयाबीन (100 प्रतिशत), मूंगफली (75 प्रतिशत), तिल (80 प्रतिशत) अरंडी (100 प्रतिशत) और सूरजमुखी (23 प्रतिशत) की बुआई मॉनसूनी बारिश के समय होती है और इसकी फसल सितंबर और अक्टूबर में तैयार हो जाती है।
इसके बाद नवंबर से पेराई सत्र शुरू हो जाता है। लेकिन इस साल तिलहन की बुआई के खराब संकेत मिल रहे हैं, क्योंकि किसानों और कारोबारियों ने पिछले साल के 85 लाख टन सोयाबीन उत्पादन का आधा माल रोक रखा है।
सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक बीवी मेहता ने कहा कि खाद्य तेलों के आयात पर शुल्क नहीं लगाया गया है। इसके साथ ही पिछले 4 साल से तिलहन के बेस रेट में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। इसके कारण अगर घरेलू बीज का प्रसंस्करण नहीं हो पाता है तो स्टॉक बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा और किसान तिलहन की खेती से मुंह मोड़ लेंगे।
कुल मिलाकर आंकड़ों को देखें तो 1 अप्रैल 2010 तक कुल 185 लाख टन से ज्यादा तिलहन की पेराई नहीं हुई है, इसमें राइस ब्रान, 45 लाख टन सोयाबीन, 60 लाख टन सरसों, 20 लाख टन मूंगफली, और 60 लाख टन कपास बीज शामिल है।
मेहता का कहना है कि खाद्य तेलों के आयात पर भी दबाव बना रहेगा, जब तक भंडारण बना हुआ है और उसे खत्म नहीं कर दिया जाता। इस समय कुल भंडारण देश में 35 दिन के कुल खपत के बराबर है, जो 25 दिन के खपत के लिए भंडारण की तुलना में बहुत ज्यादा है।
खाद्य तेलों का वर्तमान भंडारण 1 अप्रैल 2010 तक बंदरगाहों पर 7-8 लाख टन और 5-6 लाख टन प्रक्रिया में है। भारत में खाद्य तेलों का कुल उत्पादन 60-65 लाख टन है, जबकि खपत 150 लाख टन से ज्यादा है।
ऐसे में शेष जरूरतें इंडोनेशिया, मलेशिया और अर्जेंटीना से आयात करके पूरी की जाती हैं। अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपये के मजबूत होने और कच्चे खाद्य तेल पर आयात शुल्क शून्य होने और रिफाइंड तेल पर मामूली शुल्क (7.5 प्रतिशत) होने की वजह से भारत में पेराई सत्र के दौरान भी बड़े पैमाने पर आयात में सहूलियत मिली।
रुचि सोया इंडस्ट्रीज के प्रबंध निदेशक दिनेश शाहरा के मुताबिक इस समय घरेलू पेराई मिले अपनी कुल क्षमता का 40-50 प्रतिशत ही पेराई कर रही हैं। पेराई करने वाली मिलों ने घरेलू बाजार में उपलब्ध कुल तिलहन का महत 36 प्रतिशत ही पेराई कर सकी हैं। सामान्यतया नवंबर-मार्च के बीच कुल उपलब्ध तिलहन के 60 प्रतिशत हिस्से की पेराई हो जाती है।
पेराई न होने की वजह से तिलहन का भंडारण बढ़ा
पेराई न होने की वजह से इस साल तिलहन का भंडारण 1 अप्रैल तक 185 लाख टनकच्चे तेल का आयात शुल्क मुक्त और रिफाइंड तेल आयात पर मामूली शुल्क की वजह से पेराई सत्र में भी हुआ जमकर आयातभंडारण ज्यादा होने की वजह से तिलहन की खेती से मुंह मोड़ सकते हैं किसान (बीएस हिंदी)
कपास निर्यात पर पाबंदी, हड़ताल की धमकी
राजकोट April 23, 2010
कपास निर्यात के लिए नए पंजीकरण पर रोक लगाने के सरकारी आदेश के विरोध मे सौराष्ट्र गिनर्स एसोसिएशन (एसजीए) ने अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने का फैसला किया है। भारतीय किसान संघ भी इसका समर्थन कर रहा है।
एसजीए के अध्यक्ष भरत वाला ने कहा कि इस मुददे पर वे सरकार से मिलकर पाबंदी हटाने के लिए कहेंगे क्योंकि उसके इस आदेश से किसानों पर असर पड़ेगा। उन्होंने कहा कि सरकार अगर उनकी बात नहीं मानती है तो सौराष्ट्र क्षेत्र के 580 कपास निर्यातक 10 मई से हड़ताल पर चले जाएंगे।
भरत वाला ने कहा कि गुजरात से कपास का सबसे ज्यादा निर्यात होता है। नए पंजीकरण पर लगाई गई रोक के कारण कच्ची कपास की कीमतों में 20 से 30 रुपये की गिरावट देखी गई है। ये प्रति 20 किलोग्राम 650- 670 रुपये तक आ गई हैं। (बीएस हिंदी)
कपास निर्यात के लिए नए पंजीकरण पर रोक लगाने के सरकारी आदेश के विरोध मे सौराष्ट्र गिनर्स एसोसिएशन (एसजीए) ने अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने का फैसला किया है। भारतीय किसान संघ भी इसका समर्थन कर रहा है।
एसजीए के अध्यक्ष भरत वाला ने कहा कि इस मुददे पर वे सरकार से मिलकर पाबंदी हटाने के लिए कहेंगे क्योंकि उसके इस आदेश से किसानों पर असर पड़ेगा। उन्होंने कहा कि सरकार अगर उनकी बात नहीं मानती है तो सौराष्ट्र क्षेत्र के 580 कपास निर्यातक 10 मई से हड़ताल पर चले जाएंगे।
भरत वाला ने कहा कि गुजरात से कपास का सबसे ज्यादा निर्यात होता है। नए पंजीकरण पर लगाई गई रोक के कारण कच्ची कपास की कीमतों में 20 से 30 रुपये की गिरावट देखी गई है। ये प्रति 20 किलोग्राम 650- 670 रुपये तक आ गई हैं। (बीएस हिंदी)
चीनी के दाम गिरने से कारोबारी परेशान
नई दिल्ली April 23, 2010
दो महीनों के दौरान चीनी की कीमतों में हर सप्ताह हो रही गिरावट से चीनी कारोबारी अपने नुकसान का रोना रो रहे हैं। दो माह में चीनी की कीमत 45 रुपये से घटकर 29 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई है।
उनकी दलील है कि भाव में हर हफ्ते लगभग 2 रुपये प्रति किलोग्राम की गिरावट आई। जबकि मिल से थोक बाजार तक चीनी पहुंचने में ही 4-5 दिन लग जाते हैं। ऐसे में बाजार में आते-आते चीनी की कीमत कम हो जाती है। और उन्हें सैकड़ों रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है।
कारोबारियों की यह भी मांग है कि चीनी पर लगी स्टॉक सीमा को समाप्त किया जाए। उन्होंने सरकार से चीनी के भाव में हो रहे लगातार उतार-चढ़ाव पर रोक के उपाय करने की मांग की है। चीनी के थोक व्यापारियों के मुताबिक पिछले दो महीनों से उन्हें खरीद कीमत से कम भाव पर चीनी की बिकवाली करनी पड़ रही है।
उन्होंने बताया कि भाव में होने वाली लगातार हो रही कमी और तेजी में सबसे ज्यादा नुकसान थोक कारोबारियों को होता है। वे कहते हैं कि अब देश में चीनी की कोई कमी नहीं है और ऐसे में चीनी के भाव चाहे 20 रुपये किलोग्राम ही सही, स्थिर होने चाहिए। इस साल देश में कम से कम 180 लाख टन चीनी उत्पादन का अनुमान है।
अब तक 40 लाख टन कच्ची चीनी तो 10 लाख टन परिष्कृत चीनी का आयात हो चुका है। 30 लाख टन पिछले साल का स्टॉक था। ऐसे में इस साल चीनी वर्ष के लिए 260 लाख टन चीनी की उपलब्धता होगी। जबकि देश में कुल 225-230 लाख टन चीनी की खपत है।
चीनी के थोक कारोबारी विक्की गुप्ता कहते हैं, 'चीनी की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद चीनी की स्टॉक सीमा लागू है। दिल्ली में एक बार के लिए 200 टन की सीमा लागू है। सरकार को अब चीनी की स्टॉक सीमा खत्म कर देनी चाहिए।'
बाजार में पहुंचने के पहले मंद
कारोबारियों का कहना है कि हर हफ्ते कीमतों में 2 रुपये किलो की गिरावट हो रही हैमिल से बाजार तक चीनी पहुंचने में लगते हैं 4-5 दिन, तब तक सस्ती हो जाती है चीनीकारोबारियों का कहना है कि चीनी पर स्टॉक सीमा खत्म की जानी चाहिए (बीएस हिंदी)
दो महीनों के दौरान चीनी की कीमतों में हर सप्ताह हो रही गिरावट से चीनी कारोबारी अपने नुकसान का रोना रो रहे हैं। दो माह में चीनी की कीमत 45 रुपये से घटकर 29 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई है।
उनकी दलील है कि भाव में हर हफ्ते लगभग 2 रुपये प्रति किलोग्राम की गिरावट आई। जबकि मिल से थोक बाजार तक चीनी पहुंचने में ही 4-5 दिन लग जाते हैं। ऐसे में बाजार में आते-आते चीनी की कीमत कम हो जाती है। और उन्हें सैकड़ों रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है।
कारोबारियों की यह भी मांग है कि चीनी पर लगी स्टॉक सीमा को समाप्त किया जाए। उन्होंने सरकार से चीनी के भाव में हो रहे लगातार उतार-चढ़ाव पर रोक के उपाय करने की मांग की है। चीनी के थोक व्यापारियों के मुताबिक पिछले दो महीनों से उन्हें खरीद कीमत से कम भाव पर चीनी की बिकवाली करनी पड़ रही है।
उन्होंने बताया कि भाव में होने वाली लगातार हो रही कमी और तेजी में सबसे ज्यादा नुकसान थोक कारोबारियों को होता है। वे कहते हैं कि अब देश में चीनी की कोई कमी नहीं है और ऐसे में चीनी के भाव चाहे 20 रुपये किलोग्राम ही सही, स्थिर होने चाहिए। इस साल देश में कम से कम 180 लाख टन चीनी उत्पादन का अनुमान है।
अब तक 40 लाख टन कच्ची चीनी तो 10 लाख टन परिष्कृत चीनी का आयात हो चुका है। 30 लाख टन पिछले साल का स्टॉक था। ऐसे में इस साल चीनी वर्ष के लिए 260 लाख टन चीनी की उपलब्धता होगी। जबकि देश में कुल 225-230 लाख टन चीनी की खपत है।
चीनी के थोक कारोबारी विक्की गुप्ता कहते हैं, 'चीनी की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद चीनी की स्टॉक सीमा लागू है। दिल्ली में एक बार के लिए 200 टन की सीमा लागू है। सरकार को अब चीनी की स्टॉक सीमा खत्म कर देनी चाहिए।'
बाजार में पहुंचने के पहले मंद
कारोबारियों का कहना है कि हर हफ्ते कीमतों में 2 रुपये किलो की गिरावट हो रही हैमिल से बाजार तक चीनी पहुंचने में लगते हैं 4-5 दिन, तब तक सस्ती हो जाती है चीनीकारोबारियों का कहना है कि चीनी पर स्टॉक सीमा खत्म की जानी चाहिए (बीएस हिंदी)
हरियाणा के आटा मिल मालिक मंगा रहे हैं दूसरे राज्यों से गेहूं
चंडीगढ़ April 23, 2010
हरियाणा में बहुतायत मात्रा में गेहूं के उत्पादन के बावजूद वहां के आटा मिल मालिक दूसरे राज्यों से गेहूं खरीद रहे हैं। इसकी वजह यह है कि राज्य सरकार करों के ढांचे को सरल नहीं बना रही है।
हरियाणा में इस समय 40 आटा मिलें चल रही हैं जिनमें से अधिकतर अपनी क्षमता का चौथाई हिस्सा ही उपयोग में ला रही हैं। इसका कारण करों का ढांचा इन मिल मालिकों के कारोबार के अनुकूल नहीं होना है। आटा मिलों की औसत दैनिक क्षमता 100 टन है।
हरियाणा आटा मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सी पी गुप्ता ने बताया कि राज्य में निजी मिल मालिकों को गेहूं की खरीदारी के लिए सभी राज्यों से ज्यादा कर देना पड़ता है। गौरतलब है कि राज्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य 1100 रुपये प्रति क्विंटल है और इस पर सरकार 12.75 फीसदी कर ले रही है।
इस कर में 2 फीसदी बाजार शुल्क, 2.5 फीसदी वैट, 5 प्रतिशत वैट पर अधिशुल्क, 2.5 फीसदी कच्चा आढ़ती कमीशन, 1 फीसदी पक्का आढ़ती कमीशन और 2 फीसदी ग्रामीण विकास फंड शामिल है।
गुप्ता ने बताया कि इन सब करों के बाद आटा मिल मालिकों को 1300 रुपये में गेहूं खरीदना पड़ता है। इसके विपरीत उत्तरप्रदेश से गेहूं खरीदने के लिए मिल मालिकों को माल भाड़े और कर सहित प्रति क्ंविटल 1140 रुपये ही चुकाने पड़ रहे हैं। इससे प्रति क्ंविटल गेहूं खरीद में 160 रुपये का अंतर आ रहा है।
गुप्ता ने बताया कि हरियाणा सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए गेहूं की भंडारण योजना लागू करने में अन्य उत्तरी राज्यों से पीछे है। इस योजना में मिल मालिकों को गेहूं को आटे में बदलने के लिए आरक्षण दिया जाता है।
पंजाब और चंडीगढ़ में ऐसा किया जा रहा है। अगर हरियाणा में इसे अपनाया जाता है तो राज्य अपनी क्षमताओं का पूरा उपयोग कर सकेगा। गुप्ता ने बताया कि मिल मालिकों ने सही समय पर राज्य के अधिकारियों के सामने यह मुद्दा उठाया है लेकिन अभी तक इस पर किसी तरह का कोई निर्णय नहीं आया है।
उल्लेखनीय है कि गर्मी बढ़ने का भी कोई खास असर गेहूं के उत्पादन पर नहीं पडा है। इससे स्थिति यह हो गई है कि गेहूं के भंडारण का संकट हो गया है। (बीएस हिंदी)
हरियाणा में बहुतायत मात्रा में गेहूं के उत्पादन के बावजूद वहां के आटा मिल मालिक दूसरे राज्यों से गेहूं खरीद रहे हैं। इसकी वजह यह है कि राज्य सरकार करों के ढांचे को सरल नहीं बना रही है।
हरियाणा में इस समय 40 आटा मिलें चल रही हैं जिनमें से अधिकतर अपनी क्षमता का चौथाई हिस्सा ही उपयोग में ला रही हैं। इसका कारण करों का ढांचा इन मिल मालिकों के कारोबार के अनुकूल नहीं होना है। आटा मिलों की औसत दैनिक क्षमता 100 टन है।
हरियाणा आटा मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सी पी गुप्ता ने बताया कि राज्य में निजी मिल मालिकों को गेहूं की खरीदारी के लिए सभी राज्यों से ज्यादा कर देना पड़ता है। गौरतलब है कि राज्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य 1100 रुपये प्रति क्विंटल है और इस पर सरकार 12.75 फीसदी कर ले रही है।
इस कर में 2 फीसदी बाजार शुल्क, 2.5 फीसदी वैट, 5 प्रतिशत वैट पर अधिशुल्क, 2.5 फीसदी कच्चा आढ़ती कमीशन, 1 फीसदी पक्का आढ़ती कमीशन और 2 फीसदी ग्रामीण विकास फंड शामिल है।
गुप्ता ने बताया कि इन सब करों के बाद आटा मिल मालिकों को 1300 रुपये में गेहूं खरीदना पड़ता है। इसके विपरीत उत्तरप्रदेश से गेहूं खरीदने के लिए मिल मालिकों को माल भाड़े और कर सहित प्रति क्ंविटल 1140 रुपये ही चुकाने पड़ रहे हैं। इससे प्रति क्ंविटल गेहूं खरीद में 160 रुपये का अंतर आ रहा है।
गुप्ता ने बताया कि हरियाणा सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए गेहूं की भंडारण योजना लागू करने में अन्य उत्तरी राज्यों से पीछे है। इस योजना में मिल मालिकों को गेहूं को आटे में बदलने के लिए आरक्षण दिया जाता है।
पंजाब और चंडीगढ़ में ऐसा किया जा रहा है। अगर हरियाणा में इसे अपनाया जाता है तो राज्य अपनी क्षमताओं का पूरा उपयोग कर सकेगा। गुप्ता ने बताया कि मिल मालिकों ने सही समय पर राज्य के अधिकारियों के सामने यह मुद्दा उठाया है लेकिन अभी तक इस पर किसी तरह का कोई निर्णय नहीं आया है।
उल्लेखनीय है कि गर्मी बढ़ने का भी कोई खास असर गेहूं के उत्पादन पर नहीं पडा है। इससे स्थिति यह हो गई है कि गेहूं के भंडारण का संकट हो गया है। (बीएस हिंदी)
गेहूं बंपर, आटा-मैदा मिलें टॉप पर
मुंबई April 23, 2010
लगातार दो सीजन से गेहूं की बंपर पैदावार से इसे रखने को लेकर भले ही सरकार कठिनाई में हो, लेकिन इस जिंस ने देश भर की फ्लोर मिलों की गतिविधियां तेज कर दी है।
देश में 800 गेहूं प्रसंस्करण मिलें हैं, जिन्होंने अपनी क्षमता में 15 प्रतिशत का विस्तार किया है। मिलें जून में बढ़ने वाली मांग का फायदा उठाना चाहती हैं। इस समय मिलों का क्षमता उपयोग बढ़कर 40-45 प्रतिशत हो गया है, जो एक साल पहले 30-35 प्रतिशत था।
महाराष्ट्र रोलर फ्लोर मिल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष गोपाल लाल सेठ ने कहा, 'इस साल स्थिति बिल्कुल अलग है। फ्लोर मिलें अपने उपकरणों को दुरुस्त कर रही हैं, साथ ही अन्य सहायक उपकरण लगा रही हैं, जिससे पूरी क्षमता का उपयोग हो सके। पिछले साल सरकार ने गेहूं की आपूर्ति को लेकर नियम बनाए थे, जबकि उत्पादन ज्यादा हुआ था। इसके चलते प्रसंस्करण क्षेत्र में क्षमता विस्तार को लेकर भय पैदा हो गया था।'
उन्होंने कहा- इस समय गेहूं की पर्याप्त उपलब्धता है, जिसके चलते यह उद्योग अपनी क्षमता का बेहतर इस्तेमाल कर रहा है। साथ ही सरकार की नीतियों से भी प्रसंस्करणकर्ताओं को मदद मिली है। सामान्यतया गेहूं से बने उत्पादों, जैसे आटा, सूजी, मैदा की मांग मॉनसून शुरू होने के बाद बढ़ती है और सामान्य से ज्यादा खपत होती है। इसके चलते फ्लोर मिलों ने अप्रैल से ही तैयारी शुरू कर दी है।
क्षमता विस्तार के पीछे गोपाल दो कारणों को बताते हैं। पहला- हाजिर बाजार से गेहूं की खरीदारी सस्ती दरों पर हो रही है, क्योंकि पिछले साल जब सरकार ने आपूर्ति का नियमन किया जो कृत्रिम कमी की स्थिति बन गई और कीमतें बढ़ गईं। इस समय गेहूं के दाम 10 रुपये किलो है जबकि पिछले साल इस दौरान कीमतें 16-18 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गई थीं।
कीमतों में गिरावट के चलते प्रसंस्करणकर्ताओं के मुनाफे में भी बढ़ोतरी हुई है। दूसरा कारण है कि सरकार के हस्तक्षेप का खतरा नहीं है, जिससे प्रसंस्करणकर्ताओं को क्षमता विस्तार के लिए प्रोत्साहन मिल रहा है।
भारत गेहूं उत्पादन के 820 लाख टन के नए रिकॉर्ड की ओर इस साल बढ़ रहा है, जबकि पिछले साल 807 लाख टन उत्पादन हुआ था। पिछले साल के बचे अग्रिम स्टॉक के साथ इस साल के रिकॉर्ड उत्पादन के चलते सरकार की खरीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को भंडारण में दिक्कतें आ रही हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि एफसीआई गेहूं की खरीद सुस्त कर देगी, क्योंकि इस समय उसकेपास आवश्यक बफर स्टॉक की तुलना में तीन गुना संग्रह हो गया है। 1 अप्रैल को यह 50 लाख टन था। शिवाजी रोलर फ्लोर मिल के प्रबंध निदेशक अजय गोयल ने कहा कि गेहूं प्रसंस्करणकर्ताओं को गेहूं की उपलब्धता को लेकर कोई संकट नहीं आने वाला है, साथ ही कीमतों पर भी दबाव बना रहेगा।
अनुमान के मुताबिक चल रही करीब 400 फ्लोर मिलें करीब 7-8 लाख टन गेहूं की खपत प्रति माह करती हैं और इनकी सालाना खपत 78-80 लाख टन है। इसके अलावा संचालन के लिए पूंजी के अभाव में करीब 400 मिलें बंद पड़ी हैं। जाड़े के समय में प्रसंस्करण गतिविधियां सुस्त रही थीं।
सिर्फ महाराष्ट्र में ही 40 मिलें अपनी कुल क्षमता का 50 प्रतिशत चल रही हैं और 1 लाख टन गेहूं का मासिक प्रसंस्करण कर रही हैं। गोपाल ने कहा कि प्रसंस्करणकर्ताओं ने इस समय बहुराष्ट्रीय कंपनियों से गेहूं खरीदना बंद कर दिया है, क्योंकि हाजिर बाजार में कीमतें कम हैं।
इसके साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मात्रा को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है। विकल्प के रूप में इस समय मिलें हाजिर बाजार से माल उठा रही हैं। इसके पहले करीब 10 प्रतिशत खरीदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से होती थी, जिन्हें मिलें किस्तों में भुगतान करती थीं। (बीएस हिंदी)
लगातार दो सीजन से गेहूं की बंपर पैदावार से इसे रखने को लेकर भले ही सरकार कठिनाई में हो, लेकिन इस जिंस ने देश भर की फ्लोर मिलों की गतिविधियां तेज कर दी है।
देश में 800 गेहूं प्रसंस्करण मिलें हैं, जिन्होंने अपनी क्षमता में 15 प्रतिशत का विस्तार किया है। मिलें जून में बढ़ने वाली मांग का फायदा उठाना चाहती हैं। इस समय मिलों का क्षमता उपयोग बढ़कर 40-45 प्रतिशत हो गया है, जो एक साल पहले 30-35 प्रतिशत था।
महाराष्ट्र रोलर फ्लोर मिल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष गोपाल लाल सेठ ने कहा, 'इस साल स्थिति बिल्कुल अलग है। फ्लोर मिलें अपने उपकरणों को दुरुस्त कर रही हैं, साथ ही अन्य सहायक उपकरण लगा रही हैं, जिससे पूरी क्षमता का उपयोग हो सके। पिछले साल सरकार ने गेहूं की आपूर्ति को लेकर नियम बनाए थे, जबकि उत्पादन ज्यादा हुआ था। इसके चलते प्रसंस्करण क्षेत्र में क्षमता विस्तार को लेकर भय पैदा हो गया था।'
उन्होंने कहा- इस समय गेहूं की पर्याप्त उपलब्धता है, जिसके चलते यह उद्योग अपनी क्षमता का बेहतर इस्तेमाल कर रहा है। साथ ही सरकार की नीतियों से भी प्रसंस्करणकर्ताओं को मदद मिली है। सामान्यतया गेहूं से बने उत्पादों, जैसे आटा, सूजी, मैदा की मांग मॉनसून शुरू होने के बाद बढ़ती है और सामान्य से ज्यादा खपत होती है। इसके चलते फ्लोर मिलों ने अप्रैल से ही तैयारी शुरू कर दी है।
क्षमता विस्तार के पीछे गोपाल दो कारणों को बताते हैं। पहला- हाजिर बाजार से गेहूं की खरीदारी सस्ती दरों पर हो रही है, क्योंकि पिछले साल जब सरकार ने आपूर्ति का नियमन किया जो कृत्रिम कमी की स्थिति बन गई और कीमतें बढ़ गईं। इस समय गेहूं के दाम 10 रुपये किलो है जबकि पिछले साल इस दौरान कीमतें 16-18 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गई थीं।
कीमतों में गिरावट के चलते प्रसंस्करणकर्ताओं के मुनाफे में भी बढ़ोतरी हुई है। दूसरा कारण है कि सरकार के हस्तक्षेप का खतरा नहीं है, जिससे प्रसंस्करणकर्ताओं को क्षमता विस्तार के लिए प्रोत्साहन मिल रहा है।
भारत गेहूं उत्पादन के 820 लाख टन के नए रिकॉर्ड की ओर इस साल बढ़ रहा है, जबकि पिछले साल 807 लाख टन उत्पादन हुआ था। पिछले साल के बचे अग्रिम स्टॉक के साथ इस साल के रिकॉर्ड उत्पादन के चलते सरकार की खरीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को भंडारण में दिक्कतें आ रही हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि एफसीआई गेहूं की खरीद सुस्त कर देगी, क्योंकि इस समय उसकेपास आवश्यक बफर स्टॉक की तुलना में तीन गुना संग्रह हो गया है। 1 अप्रैल को यह 50 लाख टन था। शिवाजी रोलर फ्लोर मिल के प्रबंध निदेशक अजय गोयल ने कहा कि गेहूं प्रसंस्करणकर्ताओं को गेहूं की उपलब्धता को लेकर कोई संकट नहीं आने वाला है, साथ ही कीमतों पर भी दबाव बना रहेगा।
अनुमान के मुताबिक चल रही करीब 400 फ्लोर मिलें करीब 7-8 लाख टन गेहूं की खपत प्रति माह करती हैं और इनकी सालाना खपत 78-80 लाख टन है। इसके अलावा संचालन के लिए पूंजी के अभाव में करीब 400 मिलें बंद पड़ी हैं। जाड़े के समय में प्रसंस्करण गतिविधियां सुस्त रही थीं।
सिर्फ महाराष्ट्र में ही 40 मिलें अपनी कुल क्षमता का 50 प्रतिशत चल रही हैं और 1 लाख टन गेहूं का मासिक प्रसंस्करण कर रही हैं। गोपाल ने कहा कि प्रसंस्करणकर्ताओं ने इस समय बहुराष्ट्रीय कंपनियों से गेहूं खरीदना बंद कर दिया है, क्योंकि हाजिर बाजार में कीमतें कम हैं।
इसके साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मात्रा को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है। विकल्प के रूप में इस समय मिलें हाजिर बाजार से माल उठा रही हैं। इसके पहले करीब 10 प्रतिशत खरीदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से होती थी, जिन्हें मिलें किस्तों में भुगतान करती थीं। (बीएस हिंदी)
निर्यात मांग कमजोर होने से और घटेंगे लाल मिर्च के दाम
पैदावार में बढ़ोतरी और निर्यात मांग कमजोर होने से पिछले एक सप्ताह में लाल की कीमतों में करीब पांच फीसदी की गिरावट आ चुकी है। गुंटूर में लालमिर्च का स्टॉक बढ़कर करीब 48 लाख बोरी (प्रति बोरी 40 किलो) हो चुका है जो पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले करीब 90 फीसदी ज्यादा है। लाल मिर्च का उत्पादन बढ़कर 1।60 करोड़ बोरी होने का अनुमार है। पैदावार ज्यादा होने और वेयर हाउसों में स्टॉक ज्यादा से स्टॉकिस्टों की बिकवाली बराबर बनी हुई है। ऐसे में मौजूदा कीमतों में और भी गिरावट की संभावना है। स्पाइस ट्रेडिंग कंपनी के प्रोपराइटर विनय भूभना ने बिजनेस भास्कर को बताया कि गुंटूर में लाल मिर्च का स्टॉक बढ़कर लगभग 48 लाख बोरी का हो चुका है जो पिछले साल की समान अवधि के 25 लाख बोरी के मुकाबले 90 फीसदी ज्यादा है। चालू सीजन में लाल मिर्च की पैदावार पिछले साल के 1.25 करोड़ बोरी के मुकाबले बढ़कर 1.60 करोड़ बोरी होने का अनुमान है। जबकि गुंटूर में इस समय दैनिक आवक बढ़कर 60-70 हजार बोरी की हो रही है। लेकिन आवक के मुकाबले खरीद कम होने के कारण सप्ताह में एक दिन मंडी में आवक बंद करनी पड़ती है। इसीलिए कीमतों में गिरावट का रुख बना हुआ है। हाजिर बाजार में पिछले एक सप्ताह में कीमतें करीब 300 रुपये प्रति `िंटल घट चुकी हैं। गुंटूर में तेजा `ालिटी की लाल मिर्च के भाव घटकर 5300-5700 रुपये, 334 `ालिटी की लाल मिर्च के भाव 3700-4200 रुपये, ब्याडगी `ालिटी के भाव 4700-5000 रुपये, सनम `ालिटी की लालमिर्च के भाव 4300-4400 रुपये और फटकी `ालिटी के भाव 1500-2500 रुपये प्रति `िंटल रह गए। लाल मिर्च निर्यातक फर्म अशोक एंड कंपनी के डायरक्टर अशोक दत्तानी ने बताया कि इस समय बांग्लादेश और श्रीलंका के आयातक तो खरीद रहे हैं लेकिन अन्य देशों से मांग नहीं निकल रही है। घरलू पैदावार में बढ़ोतरी की संभावना से विदेशी आयातकों ने नए आयात सौदे कम कर दिए हैं। इसके अलावा रुपये के मुकाबले डॉलर कमजोर होने का असर भी निर्यात पर पड़ रहा है। हालांकि उन्होंने माना कि जून-जुलाई में निर्यात मांग बढ़ने की संभावना है। भारतीय मसाला बोर्ड के अनुसार चालू वित्त वर्ष के पहले ग्यारह महीनों (अप्रैल से फरवरी) के दौरान लाल मिर्च के निर्यात में दो फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। चालू वित्त वर्ष के अप्रैल से फरवरी के दौरान कुल निर्यात 1.74 लाख टन का हुआ है जबकि पिछले वित्त वर्ष की समान अवधि में 1.70 लाख टन का निर्यात हुआ था। गुंटूर के व्यापारी कमलैश जैन ने बताया कि कीमतों में गिरावट आने से स्टॉक बढ़ना शुरू हो गया है। किसान घटे भाव में बिकवाली कम करके स्टॉक में ज्यादा माल रख रहे हैं। वायदा बाजार में पिछले दस दिनों में लाल मिर्च की कीमतों में करीब 2.7 फीसदी का मंदा आया है।rana@businessbhaskar.net (बिज़नस भास्कर)
विदेशी सुस्ती के बाद भी चांदी के दाम बढ़े
नई दिल्ली विदेशी बाजार में चांदी की कीमतों में गिरावट के बावजूद दिल्ली सराफा बाजार में 210 रुपये प्रति किलो की तेजी दर्ज की गई। गुरुवार को चांदी के दाम बढ़कर 27,910 रुपये प्रति किलो हो गए। इस दौरान विदेशी बाजार में दाम घटने से सोने की कीमतों में 40 रुपये की गिरावट आकर भाव 16,840 रुपये प्रति दस ग्राम रह गए। विदेशी बाजार में चांदी के दाम 18।05 डॉलर प्रति औंस पर खुले तथा खरीद बढ़ने से भाव बढ़कर 18.15 डॉलर प्रति औंस हो गए थे। लेकिन ऊंचे भावों में निवेशकों की बिकवाली का दबाव बनने से दाम घटकर 17.81 डॉलर प्रति औंस पर कारोबार करते देखी गई। (ब्यूरो)घरलू बाजार में 21 अप्रैल को चांदी का भाव 27,700 रुपये प्रति किलो था जोकि गुरुवार को बढ़कर 27,910 रुपये प्रति किलो हो गया। अंतरराष्ट्रीय बाजार में गुरुवार को सोने की कीमतों में भी करीब 15 डॉलर प्रति औंस की भारी गिरावट देखी गई। विदेशी बाजार में सोने का दाम 1145 डॉलर प्रति औंस पर खुला तथा बढ़कर 1148 डॉलर प्रति औंस हो गया था। लेकिन इन भावों में निवेशकों की मुनाफावसूली आने से 15 डॉलर की गिरावट आकर 1133 डॉलर प्रति औंस पर कारोबार करते देखा गया। (बिज़नस भास्कर)
हाई क्वालिटी कॉटन सस्ती होना मुश्किल
केंद्र सरकार ने घरेलू बाजार में कॉटन की उपलब्धता बढ़ाने के लिए निर्यात पर भले ही रोक लगा दी है लेकिन टैक्सटाइल उद्योग को अच्छी क्वालिटी की कॉटन के दाम ज्यादा घटने की उम्मीद नहीं है। मध्य प्रदेश में उगाई जाने वाली एच-4 और गुजरात की शंकर-6 किस्म की कॉटन खासकर अच्छी क्वालिटी कॉटन के दाम खासकर ज्यादा घटने की संभावना नहीं है। इन दोनों किस्मों की कॉटन मीडियम स्टेपल की होती है। मराल ओवरसीज के प्रेसीडेंट टी. के. बल्दुआ ने बिजनेस भास्कर को बताया कि हाई क्वालिटी का देश में स्टॉक काफी कम बचने का अनुमान है क्योंकि इसका ज्यादातर कॉटन निर्यात हो चुका है। इसकी घरेलू बाजार में उपलब्धता में कमी को देखते हुए इसके मूल्य घटने की संभावना नहीं है। हालांकि हल्की क्वालिटी की कॉटन के दाम जरूर घट सकते हैं। उद्योग के जानकारों का कहना है कि हल्की क्वालिटी की कॉटन में वेस्ट काफी ज्यादा 35 फीसदी तक निकल रहा है। एस. कुमार नेशनलवाइड लिमिटेड के चीफ ऑफरटिंग ऑफीसर ए. उपाध्याय कहते है कि निर्यात पर रोक के बाद हल्की क्वालिटी वाली कॉटन के दामों में कुछ गिरावट देखने को जरूर मिलेगी। क्वालिटी की समस्या मीडियम स्टेपल वाली शंकर-6 और एच-4 किस्म की कॉटन में ज्यादा आ रही है। शंकर-6 किस्म की कॉटन का उत्पादन गुजरात में होता है जबकि एच-4 कॉटन मध्य प्रदेश में उगाई जाती है। निर्यात बढ़ने से कॉटन के दाम पिछले सीजन के मुकाबले करीब ब्फ् फीसदी तक बढ़ गए है। निर्यात शुल्क लगने के बाद दामों में म्क्क्-8क्क् रुपये प्रति कैंडी (प्रति कैंडी 356 किलो) की गिरावट आई थी। लेकिन निर्यात रोक लगने के बाद भी मध्य प्रदेश की सेंधवा मंडी में एच-4 किस्म कॉटन के दाम फ्8,म्क्क् रुपये प्रति कैंडी के स्तर पर बने हुए है। (बिज़नस भास्कर)
सस्ती चीनी आयात होने से घरेलू मूल्य और गिर
करीब 60 फीसदी चीनी का उपभोग करने वाले औद्योगिक उपभोक्ताओं को आयातित चीनी ज्यादा रास आ रही है। कोल्ड्र ड्रिंक, बिस्कुट, कन्फेक्शनरी और आइसक्रीम निर्माता स्टॉक लिमिट से मुक्त सस्ती आयातित चीनी इस्तेमाल करने में ज्यादा रुचि ले रहे हैं। यही वजह है कि ज्यादा खपत वाले गर्मियों के सीजन में भी घरेलू चीनी की कीमतों में गिरावट जारी है। पिछले चार महीने में घरेलू बाजार में चीनी के दाम 36 फीसदी घट चुके हैं। सात जनवरी को उत्तर प्रदेश में चीनी के एक्स-फैक्ट्री दाम 4300 रुपये प्रति `िंटल थे जो गुरुवार को घटकर 2750-2800 रुपये प्रति `िंटल रह गए। उद्योगों द्वारा आयातित चीनी के उपयोग से विदेशी मंदी का भी घरेलू बाजार पर दिखने लगा है। भारत में उत्पादन बढ़ने के अलावा ब्राजील में भी चीनी का ज्यादा उत्पादन होने की संभावना है।सिंभावली शुगर लिमिटेड के कार्यकारी निदेशक डॉ। जी. एस. सी. राव ने बताया कि केंद्र सरकार ने बड़े उपभोक्ताओं पर चीनी की स्टॉक लिमिट लगाई हुई है। जबकि आयातित चीनी पर कोई लिमिट नहीं है। भारतीय चीनी के मुकाबले आयातित चीनी सस्ती भी पड़ रही है। इसीलिए बड़े उपभोक्ता जैसे पेप्सीको, कोक और ब्रिटानिया आदि कंपनियां विदेश से व्हाइट चीनी का आयात कर रही हैं। ऐसे में गर्मी का सीजन शुरू होने के बावजूद घरेलू बाजार में मांग कमजोर है। जिससे कीमतों में गिरावट को बल मिल रहा है।इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि चालू पेराई सीजन में देश में चीनी का उत्पादन बढ़कर 185 लाख टन होने का अनुमान है जो पूर्व अनुमान से करीब 25 लाख टन ज्यादा है। उधर ब्राजील में चीनी का उत्पादन बढ़कर 330 लाख टन होने का अनुमान है। 31 मार्च तक भारत में 167 लाख टन चीनी का उत्पादन हो चुका है जो पिछले साल की समान अवधि के 137.4 लाख टन उत्पादन से काफी ज्यादा है। सबसे बड़े उत्पादक राज्यों महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में अभी भी मिलों में पेराई चल रही है। जबकि मिलों पर चीनी की बिकवाली का दबाव भी है। लेकिन स्टॉक लिमिट होने के कारण स्टॉकिस्टों की खरीद कमजोर है। सूत्रों के अनुसार पहली अक्टूबर से अभी तक करीब 34 लाख टन चीनी (इसमें 7.75 लाख टन व्हाईट शुगर शामिल) का आयात हो चुका है। करीब 12 लाख टन के और आयात सौदे हो चुके हैं जिनकी खेप आने वाली है। ऐसे में घरेलू उत्पादन और आयात को मिलाकर देश में चीनी की कुल उपलब्धता करीब 231 लाख टन की बैठती है। इसके अलावा करीब 25-30 लाख टन चीनी पिछले सीजन की समाप्ति पर बची थी। जबकि देश में चीनी की सालाना खपत 225-230 लाख टन की होती है। ऐसे में आगामी नए पेराई सीजन के समय लगभग 30 लाख टन से तो ज्यादा का बकाया स्टॉक बचेगा। दिल्ली के चीनी कारोबारी ने बताया कि घरेलू बाजार में जनवरी से अभी तक चीनी की कीमतों में करीब 36 फीसदी का मंदा आया है। गुरुवार को उत्तर प्रदेश में चीनी की एक्स-फैक्ट्री कीमतें घटकर 2750-2800 रुपये और महाराष्ट्र में एक्स-फैक्ट्री कीमतें घटकर 2450 रुपये प्रति `िंटल रह गई। दिल्ली बाजार में इसके दाम घटकर 2900 रुपये प्रति `िंटल रह गए। विदेशी बाजार में इस दौरान रॉ-शुगर की कीमतों में करीब 46 फीसदी का मंदा आकर गुरुवार को भाव 16.31 सेंट प्रति पाउंड और व्हाईट चीनी के दाम लगभग 40 फीसदी घटकर 463 डॉलर प्रति टन रह गए।बात पते कीउद्योगों द्वारा आयातित चीनी के उपयोग से विदेशी मंदी का भी घरेलू बाजार पर असर दिखने लगा है। ज्यादा खपत वाले गर्मियों के सीजन में भी घरेलू चीनी की कीमतों में गिरावट जारी है। (बिज़नस भास्कर...आर अस राणा)
22 अप्रैल 2010
गेहूं पर नहीं पड़ेगी मौसम की मार
चंडीगढ़ April 21, 2010
पंजाब और हरियाणा में इस साल गेहूं कटाई के मौसम में तापमान भले ही सामान्य से काफी ज्यादा बढ़ गया हो, लेकिन गेहूं की कुल पैदावार पर इसका कोई खास असर पड़ने की संभावना कम ही है।
कटाई का काम पूरा होने के बाद कुल उत्पादन का आंकड़ा उपलब्ध होता है, मगर दोनों राज्यों के कृषि विभागों के पास मौजूद आंकड़ों से यह बात जाहिर होती है कि मौसम के असर को लेकर बहुत ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है।
हरियाणा के कृषि विभाग का अनुमान है कि बढ़ते तापमान का उत्पादन पर आंशिक असर होगा। इससे पहले मार्च और अप्रैल में सामान्य से काफी ज्यादा तापमान की वजह से गेहूं की फसल और कुल उत्पादन प्रभावित होने के कयास लगाए जा रहे थे।
वरिष्ठ कृषि अधिकारियों के मुताबिक राज्य में बढ़ता तापमान मामूली रूप से उत्पादन को प्रभावित करेगा, पर इस बार गेहूं के रकबे में बढ़ोतरी के कारण बहुत ज्यादा असर होने की उम्मीद नहीं है। कृषि अधिकारियों के मुताबिक राज्य में इस साल गेहूं का रकबा पिछले साल के 24.62 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 24.7 लाख हेक्टेयर हो गया है।
ज्यादा रकबे से बढ़ते तापमान के फसल पर असर की भरपाई में मदद मिलेगी और राज्य के कृषि विभाग की तरफ से अनुमानित उत्पादन के आकड़ों को छूना मुमकिन होगा। अधिकारियों का कहना है कि हाल ही में राज्य के विभिन्न जिलों के कृषि अधिकारियों की बैठक बुलाई गई थी जिसमें अलग-अलग जिलों से गेहूं के उत्पादन का जायजा लिया गया।
अधिकारियों के मुताबिक कुछ जिलों में जहां ज्यादा गर्मी का असर फसल पर देखने को मिल सकता है, वहीं कई इलाकों में इस बार उत्पादकता में बढ़ोतरी की उम्मीद है। जिन इलाकों में गेहूं की बुआई देरी से हुई थी वहां बढ़ते तापमान का असर दिखाई दे सकता है। मौसम विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक मार्च के दौरान ज्यादातर समय तापमान सामान्य से ज्यादा बना रहा था।
19 अप्रैल 2010 तक हरियाणा की मंडियों में 51.27 लाख टन गेहूं पहुंच चुका था। पिछले साल इस समय तक मंडियों में 46.28 लाख टन गेहूं की आपूर्ति हुई थी। करनाल के गेहूं शोध संस्थान के प्रमुख डॉ. एस एस सिंह ने गेहूं की पैदावार पर तापमान के असर से इंकार किया है। देश के कई इलाकों में रकबे में बढ़ोतरी की वजह से देश का गेहूं उत्पादन 820 लाख टन तक जाने की उम्मीद थी।
मौजूदा खरीदारी सत्र में पंजाब में गेहूं की कुल आपूर्ति पिछले साल के 110 लाख टन के मुकाबले 115 लाख टन तक पहुंचने का अनुमान है। 13 अप्रैल के बाद से मंडियों में आवक में तेजी देखने को मिली और 19 अप्रैल तक आवक पिछले साल के मुकाबले 7 फीसदी ज्यादा रही।
आंकड़ों के मुताबिक 19 अप्रैल तक राज्य में विभिन्न मंडियों में 69.02 लाख टन गेहूं की आपूर्ति हो चुकी थी। पिछले साल इसी तारीख को गेहूं की आपूर्ति 64.37 लाख टन रही थी। पिछले साल की तरह इस साल भी सबसे ज्यादा खरीदारी सरकारी एजेंसियों की तरफ से की गई है। कुल आपूर्ति में से 68.90 लाख टन गेहूं सरकारी एजेंसियों ने खरीदा है।
पंजाब, हरियाणा में मामूली घटेगा गेहूं का उत्पादन
राज्य में गेहूं के रकबे में हुई बढ़ोतरी पंजाब में गेहूं की आपूर्ति पिछले साल के 110 लाख टन के मुकाबले 115 लाख टन रहने का अनुमानसरकारी एजेंसियों ने इस साल भी की ज्यादा फसल की खरीदारी फसल पर तापमान का असर ज्यादा नहीं (बीएस हिंदी)
पंजाब और हरियाणा में इस साल गेहूं कटाई के मौसम में तापमान भले ही सामान्य से काफी ज्यादा बढ़ गया हो, लेकिन गेहूं की कुल पैदावार पर इसका कोई खास असर पड़ने की संभावना कम ही है।
कटाई का काम पूरा होने के बाद कुल उत्पादन का आंकड़ा उपलब्ध होता है, मगर दोनों राज्यों के कृषि विभागों के पास मौजूद आंकड़ों से यह बात जाहिर होती है कि मौसम के असर को लेकर बहुत ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है।
हरियाणा के कृषि विभाग का अनुमान है कि बढ़ते तापमान का उत्पादन पर आंशिक असर होगा। इससे पहले मार्च और अप्रैल में सामान्य से काफी ज्यादा तापमान की वजह से गेहूं की फसल और कुल उत्पादन प्रभावित होने के कयास लगाए जा रहे थे।
वरिष्ठ कृषि अधिकारियों के मुताबिक राज्य में बढ़ता तापमान मामूली रूप से उत्पादन को प्रभावित करेगा, पर इस बार गेहूं के रकबे में बढ़ोतरी के कारण बहुत ज्यादा असर होने की उम्मीद नहीं है। कृषि अधिकारियों के मुताबिक राज्य में इस साल गेहूं का रकबा पिछले साल के 24.62 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 24.7 लाख हेक्टेयर हो गया है।
ज्यादा रकबे से बढ़ते तापमान के फसल पर असर की भरपाई में मदद मिलेगी और राज्य के कृषि विभाग की तरफ से अनुमानित उत्पादन के आकड़ों को छूना मुमकिन होगा। अधिकारियों का कहना है कि हाल ही में राज्य के विभिन्न जिलों के कृषि अधिकारियों की बैठक बुलाई गई थी जिसमें अलग-अलग जिलों से गेहूं के उत्पादन का जायजा लिया गया।
अधिकारियों के मुताबिक कुछ जिलों में जहां ज्यादा गर्मी का असर फसल पर देखने को मिल सकता है, वहीं कई इलाकों में इस बार उत्पादकता में बढ़ोतरी की उम्मीद है। जिन इलाकों में गेहूं की बुआई देरी से हुई थी वहां बढ़ते तापमान का असर दिखाई दे सकता है। मौसम विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक मार्च के दौरान ज्यादातर समय तापमान सामान्य से ज्यादा बना रहा था।
19 अप्रैल 2010 तक हरियाणा की मंडियों में 51.27 लाख टन गेहूं पहुंच चुका था। पिछले साल इस समय तक मंडियों में 46.28 लाख टन गेहूं की आपूर्ति हुई थी। करनाल के गेहूं शोध संस्थान के प्रमुख डॉ. एस एस सिंह ने गेहूं की पैदावार पर तापमान के असर से इंकार किया है। देश के कई इलाकों में रकबे में बढ़ोतरी की वजह से देश का गेहूं उत्पादन 820 लाख टन तक जाने की उम्मीद थी।
मौजूदा खरीदारी सत्र में पंजाब में गेहूं की कुल आपूर्ति पिछले साल के 110 लाख टन के मुकाबले 115 लाख टन तक पहुंचने का अनुमान है। 13 अप्रैल के बाद से मंडियों में आवक में तेजी देखने को मिली और 19 अप्रैल तक आवक पिछले साल के मुकाबले 7 फीसदी ज्यादा रही।
आंकड़ों के मुताबिक 19 अप्रैल तक राज्य में विभिन्न मंडियों में 69.02 लाख टन गेहूं की आपूर्ति हो चुकी थी। पिछले साल इसी तारीख को गेहूं की आपूर्ति 64.37 लाख टन रही थी। पिछले साल की तरह इस साल भी सबसे ज्यादा खरीदारी सरकारी एजेंसियों की तरफ से की गई है। कुल आपूर्ति में से 68.90 लाख टन गेहूं सरकारी एजेंसियों ने खरीदा है।
पंजाब, हरियाणा में मामूली घटेगा गेहूं का उत्पादन
राज्य में गेहूं के रकबे में हुई बढ़ोतरी पंजाब में गेहूं की आपूर्ति पिछले साल के 110 लाख टन के मुकाबले 115 लाख टन रहने का अनुमानसरकारी एजेंसियों ने इस साल भी की ज्यादा फसल की खरीदारी फसल पर तापमान का असर ज्यादा नहीं (बीएस हिंदी)
नैशनल स्पॉट एक्सचेंज में शुरू हुए चांदी के ई-सौदे
मुंबई April 22, 2010
ई-गोल्ड कारोबार की सफलता से उत्साहित नैशनल स्पॉट एक्सचेंज ने ई-सिल्वर के सौदे भी 21 अप्रैल से शुरू कर दिए।
सौ ग्राम के छोटे आकार और उसके गुणांक में उपलब्ध ई-सिल्वर के माध्यम से एनएसईएल की छोटे निवेशकों के साथ जुड़ने की योजना है। वित्तीय संपन्नता के मद्देनजर चांदी अब पूरे देश में सभी को उपलब्ध होगी। मुंबई से लेकर सिक्किम तक के सभी छोटे निवेशकों को एक समान मूल्य पर चांदी मिलेगी।
एक निवेशक जो 5000 रुपये की चांदी खरीदता है या 5 करोड़ की, सबके मूल्य एक ही रहेंगे। नैशनल स्पॉट एक्सचेंज के अधिकारियों के अनुसार चांदी में निवेश करने वाले निवेशकों के लिए ई-सिल्वर बढ़िया विकल्प है। ई-सिल्वर हाजिर डिलिवरी आधारित होगी।
चांदी को एक्सचेंज मान्य वॉल्ट में रखकर नैशनल स्पॉट एक्सचेंज पर सौदे किए जा सकेंगे। निवेशक इसमें कम से कम 100 ग्राम के गुणांक यानी तकरीबन 2800 रु पये में खरीद बिक्री कर सकते हैं।
निम्न आय समूह के लोगों के लिये निवेश का यह बेहतरीन माध्यम होगा। गौरतलब है कि एक्सचेंज पर बीते महीने ई-गोल्ड के उत्पाद शुरू किये गये थे, जिसे निवेशकों का भरपूर समर्थन मिला था। (बीएस हिंदी)
ई-गोल्ड कारोबार की सफलता से उत्साहित नैशनल स्पॉट एक्सचेंज ने ई-सिल्वर के सौदे भी 21 अप्रैल से शुरू कर दिए।
सौ ग्राम के छोटे आकार और उसके गुणांक में उपलब्ध ई-सिल्वर के माध्यम से एनएसईएल की छोटे निवेशकों के साथ जुड़ने की योजना है। वित्तीय संपन्नता के मद्देनजर चांदी अब पूरे देश में सभी को उपलब्ध होगी। मुंबई से लेकर सिक्किम तक के सभी छोटे निवेशकों को एक समान मूल्य पर चांदी मिलेगी।
एक निवेशक जो 5000 रुपये की चांदी खरीदता है या 5 करोड़ की, सबके मूल्य एक ही रहेंगे। नैशनल स्पॉट एक्सचेंज के अधिकारियों के अनुसार चांदी में निवेश करने वाले निवेशकों के लिए ई-सिल्वर बढ़िया विकल्प है। ई-सिल्वर हाजिर डिलिवरी आधारित होगी।
चांदी को एक्सचेंज मान्य वॉल्ट में रखकर नैशनल स्पॉट एक्सचेंज पर सौदे किए जा सकेंगे। निवेशक इसमें कम से कम 100 ग्राम के गुणांक यानी तकरीबन 2800 रु पये में खरीद बिक्री कर सकते हैं।
निम्न आय समूह के लोगों के लिये निवेश का यह बेहतरीन माध्यम होगा। गौरतलब है कि एक्सचेंज पर बीते महीने ई-गोल्ड के उत्पाद शुरू किये गये थे, जिसे निवेशकों का भरपूर समर्थन मिला था। (बीएस हिंदी)
यूरोप के बंदरगाहों पर फंसे हैं 300 करोड़ रु. के भारतीय अंगूर
मुंबई April 22, 2010
भारतीय निर्यातकों की ओर से भेजा गया लगभग 40,000 टन अंगूर यूरोप के विभिन्न बंदरगाहों पर फंसा हुआ है।
यूरोपीय देशों ने इसमें स्वीकार्य स्तर से अधिक रासायनिक तत्वों के होने की बात कहते हुए इसके प्रवेश पर रोक लगा दी है। इन अंगूरों की कीमत 300 करोड़ रुपये के आसपास है। 90 फीसदी अंगूर महाराष्ट्र से और शेष अंगूर आंध्रप्रदेश से भेजे गए थे।
अंगूर उत्पादक संघ का कहना है कि यूरोपीय संघ इस तरह की रुकावटें इसलिए लगा रहा है ताकि वहां के किसानों की मदद कर सकें। लिहाजा संघ ने इस मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कृषि मंत्री शरद पवार और कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) से हस्तक्षेप की मांग की है।
संघ के अध्यक्ष सोपान कंचन ने बिजनेस स्टैंडर्ड का बताया, 'भारत से यूरोपीय देशों को भेजे गए कुल 4,200 डिब्बों में से अब तक 3,000 डिब्बों को अस्वीकार कर दिया गया है। आमतौर पर भारतीय अंगूर यूरोपीय देशों में 15 मार्च से 15 मई के बीच भेजे जाते हैं। अंगूर के अस्वीकृत 3,000 डिब्बे विभिन्न बंदरगाहों पर अटके पड़े हैं।
पंद्रह दिन पहले यूरोपीय देशों के विभिन्न बाजारों में बेचे गए 1,000 डिब्बों के अंगूरों में लिहोसिन के अवशेष (क्लोरोकोलाइन क्लोराइड या सीसीसी) मौजूद हैं। इन अंगूरों को समुद्र में फेंकने के अलावा कोई चारा नहीं है। इस वजह से निर्यातक काफी परेशान हैं।' उन्होंने जानकारी दी कि अंगूर निर्यातकों का एक दल अपनी मुश्किलों के समाधान के लिए फिलहाल दिल्ली में है।
कंचन का कहना है कि एपीडा के दिशा निर्देशों के तहत प्रयोगशालाओं में जांच के बाद अंगूरों को भेजा गया था। मगर, अंगूरों में लिहोसिन के अवशेष होने की बात कुछ बड़े बाजारों के खुलासे के बाद सामने आई है।
उन्होंने कहा, 'हालांकि निर्यातक जानना चाहते हैं कि भारतीय अंगूरों की अस्वीकृति यूरोपीय संघ की ओर से लगाया गया गैर शुल्कीय प्रतिबंध तो नहीं हैं। निर्यातक चाहते हैं कि इस मसले को भारतीय सरकार और एपिडा की ओर से यूरोपीय संघ के सामने उठाया जाए।'
जानकार सूत्रों ने कहा कि वाणिज्य मंत्रालय और निर्यातकों की एक बैठक में इस मुद्दे पर बात की गई है। हालांकि इससे कोई अंतिम हल नहीं निकल सका। सूत्रों ने कहा, 'वाणिज्य मंत्रालय ने यह आश्वासन दिया है कि इस समस्या के जल्दी हल के लिए इस मसले को यूरोपीय संघ के प्रतिनिधियों के सामने रखा जाएगा।'
यूरोपीय संघ की वेबसाइट पर साफ किया गया है कि अन्य देशों के निर्यातक इस बात की पूरी पुष्टि कर लें कि वहां से यूरोप भेजे जाने वाले फलों और सब्जियों में मान्य स्तर से ज्यादा रसायन अवशेष नहीं होने चाहिए। हालांकि इसके लिए कोई प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है, पर देश में प्रवेश के मौके पर उत्पाद की जांच की जाती है।
इस दौरान किसी तरह की मिलावट के सबूत मिलने पर माल को अस्वीकार या निर्यातक के खर्चे पर बर्बाद किया जा सकता है। इसके बाद भी मिलावट की शिकायत आने पर निर्देशों के उल्लंघन के रूप में इसे लिया जाता है और इसके खिलाफ कदम उठाए जाते हैं। (बीएस हिंदी)
भारतीय निर्यातकों की ओर से भेजा गया लगभग 40,000 टन अंगूर यूरोप के विभिन्न बंदरगाहों पर फंसा हुआ है।
यूरोपीय देशों ने इसमें स्वीकार्य स्तर से अधिक रासायनिक तत्वों के होने की बात कहते हुए इसके प्रवेश पर रोक लगा दी है। इन अंगूरों की कीमत 300 करोड़ रुपये के आसपास है। 90 फीसदी अंगूर महाराष्ट्र से और शेष अंगूर आंध्रप्रदेश से भेजे गए थे।
अंगूर उत्पादक संघ का कहना है कि यूरोपीय संघ इस तरह की रुकावटें इसलिए लगा रहा है ताकि वहां के किसानों की मदद कर सकें। लिहाजा संघ ने इस मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कृषि मंत्री शरद पवार और कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) से हस्तक्षेप की मांग की है।
संघ के अध्यक्ष सोपान कंचन ने बिजनेस स्टैंडर्ड का बताया, 'भारत से यूरोपीय देशों को भेजे गए कुल 4,200 डिब्बों में से अब तक 3,000 डिब्बों को अस्वीकार कर दिया गया है। आमतौर पर भारतीय अंगूर यूरोपीय देशों में 15 मार्च से 15 मई के बीच भेजे जाते हैं। अंगूर के अस्वीकृत 3,000 डिब्बे विभिन्न बंदरगाहों पर अटके पड़े हैं।
पंद्रह दिन पहले यूरोपीय देशों के विभिन्न बाजारों में बेचे गए 1,000 डिब्बों के अंगूरों में लिहोसिन के अवशेष (क्लोरोकोलाइन क्लोराइड या सीसीसी) मौजूद हैं। इन अंगूरों को समुद्र में फेंकने के अलावा कोई चारा नहीं है। इस वजह से निर्यातक काफी परेशान हैं।' उन्होंने जानकारी दी कि अंगूर निर्यातकों का एक दल अपनी मुश्किलों के समाधान के लिए फिलहाल दिल्ली में है।
कंचन का कहना है कि एपीडा के दिशा निर्देशों के तहत प्रयोगशालाओं में जांच के बाद अंगूरों को भेजा गया था। मगर, अंगूरों में लिहोसिन के अवशेष होने की बात कुछ बड़े बाजारों के खुलासे के बाद सामने आई है।
उन्होंने कहा, 'हालांकि निर्यातक जानना चाहते हैं कि भारतीय अंगूरों की अस्वीकृति यूरोपीय संघ की ओर से लगाया गया गैर शुल्कीय प्रतिबंध तो नहीं हैं। निर्यातक चाहते हैं कि इस मसले को भारतीय सरकार और एपिडा की ओर से यूरोपीय संघ के सामने उठाया जाए।'
जानकार सूत्रों ने कहा कि वाणिज्य मंत्रालय और निर्यातकों की एक बैठक में इस मुद्दे पर बात की गई है। हालांकि इससे कोई अंतिम हल नहीं निकल सका। सूत्रों ने कहा, 'वाणिज्य मंत्रालय ने यह आश्वासन दिया है कि इस समस्या के जल्दी हल के लिए इस मसले को यूरोपीय संघ के प्रतिनिधियों के सामने रखा जाएगा।'
यूरोपीय संघ की वेबसाइट पर साफ किया गया है कि अन्य देशों के निर्यातक इस बात की पूरी पुष्टि कर लें कि वहां से यूरोप भेजे जाने वाले फलों और सब्जियों में मान्य स्तर से ज्यादा रसायन अवशेष नहीं होने चाहिए। हालांकि इसके लिए कोई प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है, पर देश में प्रवेश के मौके पर उत्पाद की जांच की जाती है।
इस दौरान किसी तरह की मिलावट के सबूत मिलने पर माल को अस्वीकार या निर्यातक के खर्चे पर बर्बाद किया जा सकता है। इसके बाद भी मिलावट की शिकायत आने पर निर्देशों के उल्लंघन के रूप में इसे लिया जाता है और इसके खिलाफ कदम उठाए जाते हैं। (बीएस हिंदी)
गन्ने का एफआरपी हो सकता है 140 रुपये
केंद्र सरकार अगले सीजन के लिए गन्ने का फेयर एंड रिन्यूनरटिव प्राइस (एफआरपी) दस रुपये बढ़ाकर 140 रुपये प्रति क्विंटल तय कर सकती है। मौजूदा सीजन के लिए एफआरपी 129।84 रुपये प्रति क्विंटल हैं। हालांकि गन्ने की कम पैदावार के चलते चालू सीजन में किसानों को 250 रुपये प्रति क्विंटस से भी ज्यादा मूल्य मिला। इस तरह लिहाज से गन्ने के एफआरपी में करीब आठ फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने बताया कि नए एफआरपी तय करने का प्रस्ताव जल्द ही केबिनेट के पास भेजा जाएगा। सरकार को कृषि उपजों की मूल्य नीति पर सलाह देने वाले कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों के आधार पर ही यह प्रस्ताव तैयार किया गया है।सरकार ने चालू सीजन से ही एफआरपी तय करने का फैसला किया और इसे लागू किया। इससे पहले वैधानिक न्यूनतम मूल्य (एसएमपी) तय किया जाता है। चीनी मिलों को न्यूनतम इस मूल्य पर गन्ना खरीदना होता है। एफआरपी 9.5त्न न्यूनतम चीनी रिकवरी के आधार पर तय करने की व्यवस्था है। इससे ज्यादा रिकवरी होने पर 1.37 रुपये प्रति क्विंटल प्रति 0.1 फीसदी रिकवरी प्रीमियम देने की व्यवस्था है।चीनी स्टॉक नियमों में छूट संभवनई दिल्ली। केंद्र सरकार उपभोक्ता उद्योगों जैसे कोल्ड ड्रिंक, बिस्कुट, आइसक्रीम व कन्फेक्शनरी निर्माताओं के लिए चीनी स्टॉक करने के नियम में रियायत दे सकती है। सूत्रों के अनुसार पिछले तीन माह में चीनी के दाम 30-35त्न गिरने के बाद इसके बार में विचार किया जा सकता है। उपभोक्ता उद्योगों की चीनी खपत कुल घरलू उपभोग में करीब 60त्न रहती है। खाद्य मंत्रालय उद्योगों को 10 दिन के बजाय 15 दिन के लिए चीनी स्टॉक करने की अनुमति देने के प्रस्ताव पर विचार कर रहा है। चीनी के दाम तेजी से बढ़ने पर पिछले अगस्त में सरकार ने उपभोक्ता उद्योगों के लिए यह नियम लागू किया था। दस क्विंटल प्रति माह से ज्यादा चीनी की खपत करने वाले उद्योगों पर यह नियम लागू होता है। (बिज़नस भास्कर)
गेहूं की खरीद 150 लाख टन के पार
देश में चालू सीजन के दौरान अब तक 152।55 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद हो चुकी है। यह खरीद पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले करीब दस फीसदी ज्यादा है। पिछले साल इस समय तक 138.93 लाख टन खरीद हुई थी। चालू सीजन में गेहूं के प्रति हैक्टेयर उत्पादकता में करीब दस से पंद्रह फीसदी की कमी आने का अनुमान है। ऐसे में गेहूं का उत्पादन सरकारी अनुमान से कम रह सकता है। सरकार ने 802 लाख टन गेहूं उत्पादन का अनुमान लगाया था। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के सूत्रों के अनुसार अभी तक हुई कुल खरीद में सबसे ज्यादा योगदान पंजाब और हरियाणा का है। पंजाब की मंडियों से अभी तक एमएसपी पर 75.01 लाख टन गेहूं की खरीद हो चुकी है जो पिछले साल की समान अवधि के 71.22 लाख टन से ज्यादा है। इसी तरह से हरियाणा की मंडियों से अभी तक 53.14 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद हो चुकी है जबकि पिछले साल इस समय तक 50.73 लाख टन की ही खरीद हुई थी। मध्य प्रदेश की मंडियों से 19.93 लाख टन गेहूं की खरीद हो चुकी है जोकि पिछले साल के 8.78 लाख टन के मुकाबले ज्यादा है। यूपी व राजस्थान से गेहूं की सरकारी खरीद पिछले साल के मुकाबले पिछड़ रही है। यूपी की मंडियों से अभी तक 1.94 लाख टन गेहूं खरीदा गया है जबकि पिछले साल की समान अवधि में 2.93 लाख टन की खरीद हो चुकी थी। वहीं राजस्थान की मंडियों से पिछले साल के 4.81 लाख टन की तुलना में अभी तक 2.09 लाख टन गेहूं ही खरीदा गया है। चालू विपणन सीजन 2010-11 में एफसीआई ने 263 लाख टन गेहूं की खरीद का लक्ष्य रखा है जो पिछले साल के 253.81 लाख टन से ज्यादा है। चालू विपणन सीजन के लिए केंद्र सरकार ने गेहूं का एमएसपी 1100 रुपये प्रति `िंटल तय किया है जो पिछले साल के 1080 रुपये प्रति `िंटल से मात्र 20 रुपये ज्यादा है। जानकारों का कहना है कि मार्च-अप्रैल में मौसम गर्म होने का असर गेहूं के प्रति हैक्टेयर उत्पादन पर पड़ा है। चालू सीजन में प्रमुख उत्पादक राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में इसके प्रति हैक्टेयर उत्पादन में 10 से 15 फीसदी तक की कमी आ रही है। ऐसे में गेहूं का उत्पादन सरकारी अनुमान 802 लाख टन से भी कम होने की आशंका है। (बिज़नस भास्कर)
भारत के प्रतिबंध से चीन को मिलेगी महंगी कॉटन
कॉटन निर्यात पर रोक लगने की खबर चीन के टैक्सटाइल उद्योग के लिए अच्छी नहीं है। भारत में कॉटन निर्यात सौदे के नए पंजीयन पर रोक लगाए जाने से चीन के हाथ से प्रमुख कॉटन सप्लायर निकल गया है। इस वजह से उसे अपने यहां के टैक्सटाइल उद्योग की मांग पूरी करने के लिए दूसर निर्यातक देशों की ओर रुख करना होगा। यही नहीं उसे विश्व बाजार से और महंगी कॉटन खरीदनी होगी।चीन के उद्योग को भारत से सस्ती कॉटन मिल जाती थी लेकिन अब उसे कच्चे माल के लिए ज्यादा खर्च करना होगा। भारत में रोक लगने का फायदा अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, उजबेकिस्तान और अफ्रीका के निर्यातकों को मिलेगा। विश्लेषकों का कहना है कि भारत से कॉटन निर्यात पर नीतिगत बदलाव होने से वैश्विक स्तर पर बाजार में भारी बदलाव आने की पूरी संभावना है। हालांकि भारत चालू सीजन में औसतन वार्षिक निर्यात से भी कहीं ज्यादा विदेश में कॉटन की सप्लाई कर चुका है लेकिन इससे भी विश्वव्यापी मांग पूरी होती नहीं दिखाई दे रही है। चीन की मांग बढ़ने से वैश्विक खपत लगातार बढ़ रही है। चायना कॉटन एसोसिएशन के उप महासचिव यांग जोलियांग ने कहा कि भारत से चीन को कॉटन का आयात घट जाएगा लेकिन कॉटन पर निर्भर उद्योगों की मांग लगातार बढ़ रही है। इस वजह से अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, उजबेकिस्तान और अफ्रीका से खरीद जारी रहेगी। निश्चित ही इन हालातों में कॉटन का मूल्य बढ़ेगा और इन देशों के निर्यातकों को फायदा मिलेगा। अभी तक इन देशों से खरीद धीमी थी।दुनिया का सबसे बड़ा कॉटन उपभोक्ता और आयातक देश चीन हर साल भारत से निर्यात होने वाली 70-80 फीसदी कॉटन खरीदता है। बांग्लादेश, पाकिस्तान और टर्की भी भारत से खरीद करते हैं। इस साल जनवरी से मार्च के दौरान चीन ने कुल 8।46 लाख टन कॉटन आयात किया। यह आयात पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले करीब तीन गुना है। चीन के कस्टम विभाग के अनुसार 47 फीसदी भारत और 26 फीसदी कॉटन का आयात अमेरिका से किया गया। विश्लेषकों के मुताबिक वर्ष के इन महीनों में चीन के लिए अमेरिका सबसे बड़ा सप्लायर होना चाहिए। लेकिन भारत से खरीद कहीं ज्यादा रही है। यांग का कहना है कि भारत से ज्यादा खरीद की मुख्य वजह कॉटन का मूल्य कम होना है। दूसर सप्लायरों के मुकाबले भारत से दूरी भी कम है। (बिज़नस भास्कर)
मानसूनी बारिश की भविष्यवाणी कल होगी
पृथ्वी विज्ञान मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने बताया है कि मौसम विभाग बहुप्रतीक्षित दक्षिण-पश्चिम मानसून की भविष्यवाणी शुक्रवार को करेगा। अगले मानसून के सीजन में बारिश की संभावना के बार में संवाददाताओं द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने यह जानकारी दी। दूसरी ओर अधिकारियों ने कहा कि पिछले वर्ष के मुकाबले आगामी सीजन में बेहतर बारिश होने की संभावना है।पिछले साल मानसून विफल रहने के कारण देश में भयंकर सूखा पड़ा था। भारतीय अर्थव्यवस्था के बेहतर विकास के लिए सामान्य बारिश बेहद जरूरी है। देश में खेती पर 23।5 करोड़ लोग निर्भर हैं। कुछ मौसम भविष्यवक्ताओं का कहना है कि मौसम के शुरूआती दौर में बारिश हल्की रहेगी लेकिन बाद में सुधार होगा। अगस्त और सितंबर के दौरान अच्छी बारिश हो सकती है।चव्हाण ने कहा कि उन्होंने निजी स्तर पर जारी भविष्यवाणियां देखी हैं लेकिन हम 23 अप्रैल को भविष्यवाणी जारी करेंगे। पिछले माह जेनेवा स्थित विश्व मौसम संगठन ने कहा कि मानसून का प्रभावित करने वाला अल नीनो निकल गया है लेकिन मौजूदा वर्ष के मध्य में खत्म होने से पहले इससे मौसम पर प्रभाव पड़ेगा। (बिज़नस भास्कर)
भारत में जिंक के दाम बढ़े पर विदेशी बाजार से कम
आर्थिक सुस्ती से उबरने के बाद जिंक की औद्योगिक मांग में बढ़ोतरी हो रही है। इसके कारण पिछले एक साल के दौरान इसकी कीमतों में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन वैश्विक बाजार में तेजी घरेलू बाजार से काफी ज्यादा रही है। विदेशी बाजार में मूल्य 70 फीसदी से अधिक बढ़े हैं जबकि घरेलू बाजार में करीप 45 फीसदी तेजी आई है। इस लिहाज से भारत में जिंक के उपभोक्ता उद्योगों को कम मूल्य वृद्धि के कारण फायदा मिला है। जानकारों के अनुसार भारत में जिंक का उत्पादन बढ़ा है, जबकि पिछले वैश्विक स्तर पर उत्पादन में कमी आई है। दिसंबर 2009 के मुकाबले जनवरी 2010 में वैश्विक उत्पादन 10।20 लाख टन से घटकर 9.8 लाख टन रह गया। इसके विपरीत भारत में जिंक की बढ़ती मांग के साथ इसका उत्पादन भी बढ़ा है। भारतीय खनन मंत्रालय के अनुसार बीते वित्त वर्ष में अप्रैल से जनवरी तक 5.09 लाख टन जिंक का उत्पादन हुआ। पिछली समान की समान अवधि के मुकाबले इसमें करीब सात फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।लंदन मेटल एक्सचेंज (एलएमई) में तीन माह डिलीवरी के दाम साल भर में 1442 डॉलर से बढ़कर 2421 डॉलर प्रति टन तक पहुंच गए हैं। वहीं घरेलू बाजार में इसके दाम त्तम् रुपये से बढ़कर 108 रुपये प्रति किलो हो गए हैं। एक महीने के दौरान घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंक की कीमतों में पांच फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इंटरनेशनल जिंक स्टडी ग्रुप के मुताबिक चालू वर्ष के जनवरी महीने के दौरान रिफाइंड जिंक की वैश्विक मांग 36.5 फीसदी बढ़कर 9.32 लाख टन हो गई। पिछले जनवरी में यह आंकड़ा 6.83 लाख टन पर था। मांह में वृद्धि यूरोप, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया में इसकी खपत बढ़ने से हुई है। एंजिल ब्रोकिंग के विश्लेषक अनुज गुप्ता का कहना है कि आने वाले दिनों में भी इसकी मांग अधिक रहने की संभावना है। इस साल चीन में जिंक की खपत 10 फीसदी बढ़ने की संभावना है। पिछले साल चीन इसकी खपत 18 फीसदी बढ़कर 47 लाख टन रही थी। भारत में भी इसकी मांग बढ़ने की उम्मीद जताई जा रही है। गुप्ता के मुताबिक भारत, चीन सहित कई देशों में ऑटो सेक्टर में जबरदस्त बिक्री हो रही है। चालू वित्त वर्ष में भी जबरदस्त बिक्री होने की संभावना है। इसके अलावा रियल एस्टेट सेक्टर में भी घरों की मांग बढ़ रह है। यही कारण है कि आने वाले समय में जिंक की मांग और बढ़ने के आसार हैं। ऐसे में इसकी कीमतांे में तेजी बरकरार रह सकती है। भारत के मुकाबले अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंक के दाम अधिक बढ़े है। जिंक का सबसे अधिक उपयोग करीब 50 फीसदी ऑटोमोबाइल सेक्टर में होती है। इसके अलावा निर्माण इंडस्ट्री में गेल्वेनाइजिंग प्रोसेस (स्टील या लोहे को जंगरोधी बनाने के लिए इनके ऊपर जिंक की परत चढ़ाना) में किया है। इसके अलावा एलॉय इंडस्ट्री, बैटरी और रबर गुड्स बनाने में भी इसका उपयोग होता है। बात पते कीभारत, चीन सहित कई देशों में ऑटो सेक्टर की बिक्री तेजी से बढ़ रही है। इसके अलावा रियल एस्टेट सेक्टर में भी फ्लैटों की मांग बढ़ रह है। यही कारण है कि आने वाले समय में जिंक की मांग और बढ़ने के आसार हैं। (बिज़नस भास्कर)
21 अप्रैल 2010
कपास निर्यात पर रोक
मुंबई April 20, 2010
कपास की बढ़ती कीमतों पर नकेल कसने के लिए सरकार ने इसके निर्यात पर पूरी तरह से रोक लगा दी है। यह रोक 19 अप्रैल से ही प्रभावी हो गई है।
सरकार ने अब कपास निर्यात के किसी भी अनुबंध को स्वीकार नहीं करने के आदेश दिए हैं। हालांकि बाजार के जानकार और कारोबारी कुछ और ही कह रहे हैं। उनका मानना है कि सरकार का यह कदम कपास की कीमत पर काबू पाने में ज्यादा असरकारक साबित नहीं होगा।
उनका कहना है कि कीमतों में हो रहे इजाफे की मुख्य वजह यार्न मिलों की मनमानी और कपास पर चल रहा सट्टा है। कपास के बढ़ते दाम पर काबू करने के लिए सरकार पर निर्यात रोकने का दबाव था।
दरअसल कपास उत्पादक देश अमेरिका, ब्राजील ओर पाकिस्तान में इस समय अतिरिक्त कपास नहीं है जबकि चीन में कपास उत्पादन 10 फीसदी घटा है। इससे भारत कपास खरीदारी का केंद्र बन गया है और विदेशी मांग बढ़ने से घरेलू बाजार में कपास की कीमत आसमान छू रही है।
कुछ दिनों पहले कपास की कीमतें 29,300 से 29,400 रुपये प्रति कैंडी (256 किलोग्राम) तक पहुंच गई थीं। फिलहाल कपास की कीमत 28,300 रुपये प्रति कैंडी केआसपास चल रही हैं। जबकि पिछले साल अक्टूबर में 22,000 रुपये प्रति कैंडी की दर पर कपास की बिक्री हो रही थी।
भारत मर्चेंट चैंबर के अध्यक्ष राजीव सिंघल कहते हैं कि पिछले कुछ महीनों में मिलों ने यार्न के दाम 35 फीसदी बढ़ा दिए हैं। दूसरी तरफ कपास का वायदा कारोबारी कीमतों को हवा दे रहा है।
सिंघल के अनुसार सिर्फ निर्यात में रोक लगाने से काम नहीं चलेगा क्योंकि वायदा कारोबार देश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं है। शेयर खान कमोडिटी के मेहुल अग्रवाल कहते हैं कि निर्यात पर रोक से दाम घटेंगे, लेकिन घरेलू मांग के कारण बहुत ज्यादा गिरावट की गुंजाइश नहीं है।
निर्यात में गांठ
कपास निर्यात पर 19 अप्रैल से प्रभावी हो गई रोक घरेलू बाज़ार में कपास के दाम काबू करने की कवायदवायदा और धागा मिलों पर दाम बढ़ाने के आरोप (बीएस हिंदी)
कपास की बढ़ती कीमतों पर नकेल कसने के लिए सरकार ने इसके निर्यात पर पूरी तरह से रोक लगा दी है। यह रोक 19 अप्रैल से ही प्रभावी हो गई है।
सरकार ने अब कपास निर्यात के किसी भी अनुबंध को स्वीकार नहीं करने के आदेश दिए हैं। हालांकि बाजार के जानकार और कारोबारी कुछ और ही कह रहे हैं। उनका मानना है कि सरकार का यह कदम कपास की कीमत पर काबू पाने में ज्यादा असरकारक साबित नहीं होगा।
उनका कहना है कि कीमतों में हो रहे इजाफे की मुख्य वजह यार्न मिलों की मनमानी और कपास पर चल रहा सट्टा है। कपास के बढ़ते दाम पर काबू करने के लिए सरकार पर निर्यात रोकने का दबाव था।
दरअसल कपास उत्पादक देश अमेरिका, ब्राजील ओर पाकिस्तान में इस समय अतिरिक्त कपास नहीं है जबकि चीन में कपास उत्पादन 10 फीसदी घटा है। इससे भारत कपास खरीदारी का केंद्र बन गया है और विदेशी मांग बढ़ने से घरेलू बाजार में कपास की कीमत आसमान छू रही है।
कुछ दिनों पहले कपास की कीमतें 29,300 से 29,400 रुपये प्रति कैंडी (256 किलोग्राम) तक पहुंच गई थीं। फिलहाल कपास की कीमत 28,300 रुपये प्रति कैंडी केआसपास चल रही हैं। जबकि पिछले साल अक्टूबर में 22,000 रुपये प्रति कैंडी की दर पर कपास की बिक्री हो रही थी।
भारत मर्चेंट चैंबर के अध्यक्ष राजीव सिंघल कहते हैं कि पिछले कुछ महीनों में मिलों ने यार्न के दाम 35 फीसदी बढ़ा दिए हैं। दूसरी तरफ कपास का वायदा कारोबारी कीमतों को हवा दे रहा है।
सिंघल के अनुसार सिर्फ निर्यात में रोक लगाने से काम नहीं चलेगा क्योंकि वायदा कारोबार देश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं है। शेयर खान कमोडिटी के मेहुल अग्रवाल कहते हैं कि निर्यात पर रोक से दाम घटेंगे, लेकिन घरेलू मांग के कारण बहुत ज्यादा गिरावट की गुंजाइश नहीं है।
निर्यात में गांठ
कपास निर्यात पर 19 अप्रैल से प्रभावी हो गई रोक घरेलू बाज़ार में कपास के दाम काबू करने की कवायदवायदा और धागा मिलों पर दाम बढ़ाने के आरोप (बीएस हिंदी)
लगातार बढ़ रहा है बीटी कपास का रकबा
नई दिल्ली April 21, 2010
कपास की उत्पादकता भले ही पिछले दो साल से घट रही है, लेकिन हर साल इसकी खेती में बीटी का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है।
कपास सलाहकार समिति (सीएबी) की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल की 80 फीसदी के मुकाबले इस साल बीटी की हिस्सेदारी 88 फीसदी हो गई। वर्ष 2009-10 में कुल 101 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कपास की खेती की गई।
देश की उत्पादकता 494 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहने के बावजूद तमिलनाडु की उत्पादकता 977 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गई। जो कि अमेरिका की कपास उत्पादकता के आसपास है। इस साल कुल 295 लाख बेल्स ( एक बेल = 170 किलोग्राम) कपास का उत्पादन बताया जा रहा है जो कि पिछले साल से 5 लाख बेल्स अधिक है।
वर्ष 2009-10 में सबसे अधिक महाराष्ट्र में 35.02 लाख हेक्टेयर, गुजरात में 26.24 लाख हेक्टेयर एवं आंध्र प्रदेश में 13.19 लाख हेक्टेयर में कपास की खेती की गई। महाराष्ट्र की उत्पादकता 325 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, गुजरात की 615 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं आंध्र प्रदेश की 619 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रही।
मुंबई के माटुंगा स्थित केंद्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले इस साल कपास की उत्पादकता में प्रति हेक्टेयर 32 किलोग्राम की कमी है, लेकिन इसके लिए पूर्ण रूप से बारिश की कमी एवं उच्च तापमान जिम्मेदार है।
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक अब सिर्फ उत्तर भारत यानी कि पंजाब, राजस्थान एवं हरियाणा में देसी कपास (वैज्ञानिक भाषा में अरबोरियम का हाइब्रिड) की खेती की जा रही है। बाकी सभी जगहों पर लगभग 100 फीसदी बीटी कपास की खेती हो रही है।
हालांकि पंजाब में कपास से जुड़े किसानों का कहना है कि उनके यहां भी 95 फीसदी इलाके में बीटी कपास की खेती हो रही है। कृषि वैज्ञानिक भी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि असलियत में 95-96 फीसदी इलाके में बीटी की ही खेती की जा रही है।
कपास से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक चित्रनायक कहते हैं, 'नहर एवं अन्य सिंचाई की सुविधा करके हम अपनी उत्पादकता को अमेरिकी स्तर तक ले जा सकते हैं। कपास के कुल क्षेत्रफल में 60 फीसदी सिंचाई की सुविधा से वंचित है।'
उन्होंने बताया कि तमिलनाडु में इस साल 87,000 हेक्टेयर में कपास की खेती की गई और पानी की पर्याप्त सुविधा के कारण यहां की उत्पादकता 977 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गई। वे कहते हैं कि इन दिनों जाइलैंड एग्री (कम पानी में खेती) पर शोध चल रहा है ताकि कपास की उत्पादकता को बढ़ाया जा सके।
उत्पादकता में लगातार 2 साल से गिरावट
2007-08 में कपास की उत्पादकता 560 किग्रा प्रति हेक्टेयर रही, 2008-09 में 526 और 2009-10 में उत्पादकता घटकर 494 किग्रा प्रति हेक्टेयर रह गईइस साल बीटी कपास की कुल बुआई में हिस्सेदारी 88 प्रतिशत हो गईतमिलनाडु में इस साल रही सर्वाधिक उत्पादकता (बीएस हिंदी)
कपास की उत्पादकता भले ही पिछले दो साल से घट रही है, लेकिन हर साल इसकी खेती में बीटी का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है।
कपास सलाहकार समिति (सीएबी) की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल की 80 फीसदी के मुकाबले इस साल बीटी की हिस्सेदारी 88 फीसदी हो गई। वर्ष 2009-10 में कुल 101 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कपास की खेती की गई।
देश की उत्पादकता 494 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहने के बावजूद तमिलनाडु की उत्पादकता 977 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गई। जो कि अमेरिका की कपास उत्पादकता के आसपास है। इस साल कुल 295 लाख बेल्स ( एक बेल = 170 किलोग्राम) कपास का उत्पादन बताया जा रहा है जो कि पिछले साल से 5 लाख बेल्स अधिक है।
वर्ष 2009-10 में सबसे अधिक महाराष्ट्र में 35.02 लाख हेक्टेयर, गुजरात में 26.24 लाख हेक्टेयर एवं आंध्र प्रदेश में 13.19 लाख हेक्टेयर में कपास की खेती की गई। महाराष्ट्र की उत्पादकता 325 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, गुजरात की 615 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं आंध्र प्रदेश की 619 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रही।
मुंबई के माटुंगा स्थित केंद्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले इस साल कपास की उत्पादकता में प्रति हेक्टेयर 32 किलोग्राम की कमी है, लेकिन इसके लिए पूर्ण रूप से बारिश की कमी एवं उच्च तापमान जिम्मेदार है।
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक अब सिर्फ उत्तर भारत यानी कि पंजाब, राजस्थान एवं हरियाणा में देसी कपास (वैज्ञानिक भाषा में अरबोरियम का हाइब्रिड) की खेती की जा रही है। बाकी सभी जगहों पर लगभग 100 फीसदी बीटी कपास की खेती हो रही है।
हालांकि पंजाब में कपास से जुड़े किसानों का कहना है कि उनके यहां भी 95 फीसदी इलाके में बीटी कपास की खेती हो रही है। कृषि वैज्ञानिक भी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि असलियत में 95-96 फीसदी इलाके में बीटी की ही खेती की जा रही है।
कपास से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक चित्रनायक कहते हैं, 'नहर एवं अन्य सिंचाई की सुविधा करके हम अपनी उत्पादकता को अमेरिकी स्तर तक ले जा सकते हैं। कपास के कुल क्षेत्रफल में 60 फीसदी सिंचाई की सुविधा से वंचित है।'
उन्होंने बताया कि तमिलनाडु में इस साल 87,000 हेक्टेयर में कपास की खेती की गई और पानी की पर्याप्त सुविधा के कारण यहां की उत्पादकता 977 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गई। वे कहते हैं कि इन दिनों जाइलैंड एग्री (कम पानी में खेती) पर शोध चल रहा है ताकि कपास की उत्पादकता को बढ़ाया जा सके।
उत्पादकता में लगातार 2 साल से गिरावट
2007-08 में कपास की उत्पादकता 560 किग्रा प्रति हेक्टेयर रही, 2008-09 में 526 और 2009-10 में उत्पादकता घटकर 494 किग्रा प्रति हेक्टेयर रह गईइस साल बीटी कपास की कुल बुआई में हिस्सेदारी 88 प्रतिशत हो गईतमिलनाडु में इस साल रही सर्वाधिक उत्पादकता (बीएस हिंदी)
चीनी पहुंची 9 माह पुराने स्तर पर
नई दिल्ली April 21, 2010
चीनी की कीमत 9 महीने पुराने स्तर पर पहुंच चुकी है। मंगलवार को चीनी के थोक भाव 29.75-30 रुपये प्रति किलोग्राम बताए गए।
चीनी मिलों में ये भाव 2700-2750 रुपये प्रति क्विंटल रहे। कीमतों में गिरावट के साथ चीनी मिलों में पेराई का काम भी जारी है। उत्तर प्रदेश की 10 फीसदी तो महाराष्ट्र में 15 फीसदी से अधिक मिलों में गन्ने की पेराई चल रही है।
सरकार ने फिलहाल परिष्कृत चीनी पर आयात शुल्क लगाने से भी मना कर दिया है। चीनी मिलर्स परिष्कृत चीनी पर 30 फीसदी तक का आयात शुल्क लगाने की मांग कर रहे हैं। चीनी के थोक कारोबारियों के मुताबिक एक लंबे अंतराल के बाद चीनी की कीमतें 30 रुपये प्रति किलोग्राम से नीचे आई हैं। लगभग एक माह से चीनी के दाम 3050-3150 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे थे।
ऐसे में कारोबारी चीनी की कीमतों में स्थिरता की बात कह रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि चीनी की कीमतें दो महीनों तक एक स्तर पर टिक गईं तो इसकी मांग में भी बढ़ोतरी हो सकती है। टॉफी, कैंडी व मिठाई निर्माता लागत में बदलाव के डर से इन दिनों अधिक मात्रा में चीनी की खरीदारी करने से परहेज कर रहे हैं। इससे मांग अपने सामान्य स्तर पर कायम है।
हालांकि गत वर्ष अप्रैल माह में चीनी की कीमत 2400-2500 रुपये प्रति क्विंटल चल रही थी। इस लिहाज से चीनी के भाव अब भी लगभग 500 रुपये प्रति क्विंटल अधिक है। दूसरी तरफ चीनी के गिरते भाव से मिलर्स काफी परेशानी में हैं। उनकी दलील है कि पिछले साल गन्ने के भाव 140-150 रुपये प्रति क्विंटल थे। इस बार गन्ने के भाव 260 रुपये प्रति क्विंटल रहे।
ऐसे में उनकी लागत 2900 रुपये प्रति क्विंटल तक चली गई है। मिलर्स यह भी कहते हैं कि 7 मई तक संसद का सत्र चलेगा और इस दौरान सफेद चीनी के आयात पर शुल्क लगने की भी कोई उम्मीद नहीं है। सफेद चीनी के आयात पर शुल्क लगने के बाद ही उन्हें कुछ राहत मिलने की संभावना है।
चीनी की थोक कीमत अधिकतम 44 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई थी। उसके बाद कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सरकारी उपायों से लगातार गिरावट आ रही है। (बीएस हिंदी)
चीनी की कीमत 9 महीने पुराने स्तर पर पहुंच चुकी है। मंगलवार को चीनी के थोक भाव 29.75-30 रुपये प्रति किलोग्राम बताए गए।
चीनी मिलों में ये भाव 2700-2750 रुपये प्रति क्विंटल रहे। कीमतों में गिरावट के साथ चीनी मिलों में पेराई का काम भी जारी है। उत्तर प्रदेश की 10 फीसदी तो महाराष्ट्र में 15 फीसदी से अधिक मिलों में गन्ने की पेराई चल रही है।
सरकार ने फिलहाल परिष्कृत चीनी पर आयात शुल्क लगाने से भी मना कर दिया है। चीनी मिलर्स परिष्कृत चीनी पर 30 फीसदी तक का आयात शुल्क लगाने की मांग कर रहे हैं। चीनी के थोक कारोबारियों के मुताबिक एक लंबे अंतराल के बाद चीनी की कीमतें 30 रुपये प्रति किलोग्राम से नीचे आई हैं। लगभग एक माह से चीनी के दाम 3050-3150 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे थे।
ऐसे में कारोबारी चीनी की कीमतों में स्थिरता की बात कह रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि चीनी की कीमतें दो महीनों तक एक स्तर पर टिक गईं तो इसकी मांग में भी बढ़ोतरी हो सकती है। टॉफी, कैंडी व मिठाई निर्माता लागत में बदलाव के डर से इन दिनों अधिक मात्रा में चीनी की खरीदारी करने से परहेज कर रहे हैं। इससे मांग अपने सामान्य स्तर पर कायम है।
हालांकि गत वर्ष अप्रैल माह में चीनी की कीमत 2400-2500 रुपये प्रति क्विंटल चल रही थी। इस लिहाज से चीनी के भाव अब भी लगभग 500 रुपये प्रति क्विंटल अधिक है। दूसरी तरफ चीनी के गिरते भाव से मिलर्स काफी परेशानी में हैं। उनकी दलील है कि पिछले साल गन्ने के भाव 140-150 रुपये प्रति क्विंटल थे। इस बार गन्ने के भाव 260 रुपये प्रति क्विंटल रहे।
ऐसे में उनकी लागत 2900 रुपये प्रति क्विंटल तक चली गई है। मिलर्स यह भी कहते हैं कि 7 मई तक संसद का सत्र चलेगा और इस दौरान सफेद चीनी के आयात पर शुल्क लगने की भी कोई उम्मीद नहीं है। सफेद चीनी के आयात पर शुल्क लगने के बाद ही उन्हें कुछ राहत मिलने की संभावना है।
चीनी की थोक कीमत अधिकतम 44 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई थी। उसके बाद कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सरकारी उपायों से लगातार गिरावट आ रही है। (बीएस हिंदी)
चीनी के दाम छुड़ा रहे हैं मिलों के पसीने
मुंबई April 21, 2010
चीनी उद्योग की चिंता बढ़ने लगी है। तेज गिरावट के दौर में चीनी 2,500 रुपये प्रति क्विंटल के नए न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है।
पिछले 7 दिनों में ही कीमतों में 400 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आई है। उद्योग जगत और कारोबारियों का कहना है कि अगर इसी तरह की गिरावट जारी रही तो चीनी का उठाव न होने की नई समस्या हो जाएगी।
उठाव के लिए बड़ी मात्रा में चीनी पड़ी हुई है और मिलें प्रति दिन एक नए न्यूनतम स्तर पर चीनी बेच रही हैं। इससे किसानों को गन्ने के दाम का समय से भुगतान करने में दिक्कतें आएंगी। जनवरी 2010 के मध्य में चीनी की एक्स मिल कीमतें अटकलबाजी के चलते 40 रुपये प्रति किलो (उत्पाद शुल्क के बगैर) के उच्च स्तर पर पहुंच गई थीं।
इस समय महाराष्ट्र में चीनी की एक्स मिल कीमतें 25 रुपये प्रति किलो हैं। इसकी कीमतों में पिछले 10 सप्ताह के दौरान 37.5 प्रतिशत की गिरावट आई है। उद्योग जगत के सूत्रों को डर है कि बाजार 20 रुपये प्रति किलो के न्यूनतम स्तर पर जा सकता है और उसके बाद गन्ना किसानों के हितों पर बुरा असर पड़ेगा। इसकी वजह यह है कि सामान्यतया गन्ने की कीमतें एक्स मिल कीमतों की 70 प्रतिशत होती हैं।
उद्योग जगत के सूत्रों ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा, 'चीनी की कीमतों में गिरावट के पीछे कोई सैध्दांतिक कारण नजर नहीं आ रहा है। सरकार ने मुक्त बिक्री का कोटा पिछले साल के समान महीने की तुलना में कम कर दिया है। इसके साथ ही गर्मी के चलते भी मांग में बढ़ोतरी की उम्मीद के कारण चीनी की कीमतों में बढ़ोतरी होनी चाहिए।
लेकिन इस समय स्थिति यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी चीनी की कीमतें जनवरी के 766 डॉलर प्रति टन की तुलना में गिरकर 486 डॉलर प्रति टन पर आ गई हैं। इसकी एक ही वजह है कि ब्राजील और भारत में उत्पादन केसही आंकड़े आ गए हैं। भारत में चीनी का उत्पादन 180 लाख टन ज्यादा होने के अनुमान हैं, वहीं ब्राजील में उत्पादन 330 लाख टन होने के अनुमान हैं।'
फेडरेशन आफ कोआपरेटिव शुगर फैक्टरीज के प्रबंध निदेशक प्रकाश नाइकनवारे ने कहा कि अब सरकार को सफेद चीनी के आयात दिए जाने वाले शुल्क छूट पर फिर से विचार करना चाहिए। उन्होंने कहा, 'इस समय बाजार धारणा कमजोर है, क्योंकि यह डर बना हुआ है कि सफेद चीनी का आयात 400-450 डॉलर प्रति टन के भाव हो सकता है। इससे घरेलू बाजार बुरी तरह प्रभावित होगा।
अगर ऐसा होता है तो चीनी मिलों की पूरी अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाएगी, क्योंकि जिस भाव से गन्ना खरीदा गया है, या जो भाव देने का वादा किया गया है, उससे राजस्व पर बुरा असर पड़ेगा। ज्यादातर मिलें खतरे के निशान पर पहुंच जाएंगी।'
महाराष्ट्र शुगर ब्रोकर्स ऐंड मर्चेंट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश पांडे ने कहा कि कारोबारियों में चीनी की खरीद को लेकर अफरातफरी की स्थिति है और कोई इस समय चीनी नहीं खरीदना चाह रहा है। उन्होंने कहा कि सरकार आयातित चीनी पर शुल्क लगाए, क्योंकि आने वाले महीनों में बंपर उत्पादन के चलते देश निर्यात करने की स्थिति में आ जाएगा।
कीमतों में गिरावट का दौर जारी
माह मूल्यजनवरी 3800-4000फरवरी 3500-3800मार्च 3500-3100अप्रैल 3100-2500कीमतें रुपये प्रति क्विंटल में (बीएस हिंदी)
चीनी उद्योग की चिंता बढ़ने लगी है। तेज गिरावट के दौर में चीनी 2,500 रुपये प्रति क्विंटल के नए न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है।
पिछले 7 दिनों में ही कीमतों में 400 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आई है। उद्योग जगत और कारोबारियों का कहना है कि अगर इसी तरह की गिरावट जारी रही तो चीनी का उठाव न होने की नई समस्या हो जाएगी।
उठाव के लिए बड़ी मात्रा में चीनी पड़ी हुई है और मिलें प्रति दिन एक नए न्यूनतम स्तर पर चीनी बेच रही हैं। इससे किसानों को गन्ने के दाम का समय से भुगतान करने में दिक्कतें आएंगी। जनवरी 2010 के मध्य में चीनी की एक्स मिल कीमतें अटकलबाजी के चलते 40 रुपये प्रति किलो (उत्पाद शुल्क के बगैर) के उच्च स्तर पर पहुंच गई थीं।
इस समय महाराष्ट्र में चीनी की एक्स मिल कीमतें 25 रुपये प्रति किलो हैं। इसकी कीमतों में पिछले 10 सप्ताह के दौरान 37.5 प्रतिशत की गिरावट आई है। उद्योग जगत के सूत्रों को डर है कि बाजार 20 रुपये प्रति किलो के न्यूनतम स्तर पर जा सकता है और उसके बाद गन्ना किसानों के हितों पर बुरा असर पड़ेगा। इसकी वजह यह है कि सामान्यतया गन्ने की कीमतें एक्स मिल कीमतों की 70 प्रतिशत होती हैं।
उद्योग जगत के सूत्रों ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा, 'चीनी की कीमतों में गिरावट के पीछे कोई सैध्दांतिक कारण नजर नहीं आ रहा है। सरकार ने मुक्त बिक्री का कोटा पिछले साल के समान महीने की तुलना में कम कर दिया है। इसके साथ ही गर्मी के चलते भी मांग में बढ़ोतरी की उम्मीद के कारण चीनी की कीमतों में बढ़ोतरी होनी चाहिए।
लेकिन इस समय स्थिति यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी चीनी की कीमतें जनवरी के 766 डॉलर प्रति टन की तुलना में गिरकर 486 डॉलर प्रति टन पर आ गई हैं। इसकी एक ही वजह है कि ब्राजील और भारत में उत्पादन केसही आंकड़े आ गए हैं। भारत में चीनी का उत्पादन 180 लाख टन ज्यादा होने के अनुमान हैं, वहीं ब्राजील में उत्पादन 330 लाख टन होने के अनुमान हैं।'
फेडरेशन आफ कोआपरेटिव शुगर फैक्टरीज के प्रबंध निदेशक प्रकाश नाइकनवारे ने कहा कि अब सरकार को सफेद चीनी के आयात दिए जाने वाले शुल्क छूट पर फिर से विचार करना चाहिए। उन्होंने कहा, 'इस समय बाजार धारणा कमजोर है, क्योंकि यह डर बना हुआ है कि सफेद चीनी का आयात 400-450 डॉलर प्रति टन के भाव हो सकता है। इससे घरेलू बाजार बुरी तरह प्रभावित होगा।
अगर ऐसा होता है तो चीनी मिलों की पूरी अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाएगी, क्योंकि जिस भाव से गन्ना खरीदा गया है, या जो भाव देने का वादा किया गया है, उससे राजस्व पर बुरा असर पड़ेगा। ज्यादातर मिलें खतरे के निशान पर पहुंच जाएंगी।'
महाराष्ट्र शुगर ब्रोकर्स ऐंड मर्चेंट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश पांडे ने कहा कि कारोबारियों में चीनी की खरीद को लेकर अफरातफरी की स्थिति है और कोई इस समय चीनी नहीं खरीदना चाह रहा है। उन्होंने कहा कि सरकार आयातित चीनी पर शुल्क लगाए, क्योंकि आने वाले महीनों में बंपर उत्पादन के चलते देश निर्यात करने की स्थिति में आ जाएगा।
कीमतों में गिरावट का दौर जारी
माह मूल्यजनवरी 3800-4000फरवरी 3500-3800मार्च 3500-3100अप्रैल 3100-2500कीमतें रुपये प्रति क्विंटल में (बीएस हिंदी)
कम हुए सोयाबीन के भाव
नई दिल्ली April 21, 2010
सोयाबीन खली निर्यात मांग में 50 फीसदी एवं प्रोसेसिंग इकाइयों के काम में 60 फीसदी की गिरावट से सोयाबीन की कीमतों में पिछले साल के मुकाबले 40 फीसदी की कमी आई है।
पिछले जनवरी माह के मुकाबले भी सोयाबीन के दाम 15-20 फीसदी तक गिर चुके हैं। ब्राजील, अर्जेंटीना एवं दक्षिण अमेरिका में सोयाबीन की अच्छी फसल होने से आने वाले समय में भी सोयाबीन के भाव में तेजी के कोई आसार नहीं हैं।
सोयाबीन तेल के भाव पिछले साल के 480-485 रुपये के मुकाबले 416-424 रुपये प्रति 10 किलोग्राम हो चुके हैं। रुपये की मजबूती के कारण भी खली निर्यातक अधिक मात्रा में निर्यात करने से बच रहे हैं।
सोयाबीन प्रोसेसिंग का काम करने वाले उद्यमियों के मुताबिक इस साल सोयाबीन सीजन के दौरान मिलों में क्षमता के लिहाज से सिर्फ 40 फीसदी का काम हुआ। मिलों की 60 फीसदी क्षमता बेकार रही। सोयाबीन मिलर्स कहते हैं कि सोयाबीन की मांग नहीं होने से कीमतें लगातार कम हो रही हैं।
सोयाबीन प्रोसेसिंग से जुड़ी देश भर में लगभग 200 इकाइयां हैं। इनमें से 70 इकाइयां मध्य प्रदेश में हैं। उद्यमियों ने बताया कि सोयाबीन खली की मांग में गत तीन महीनों से पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 50 फीसदी तक की गिरावट है।
कच्चे पाम तेल (सीपीओ) के रिकॉर्ड शुल्क मुक्त आयात से सोयाबीन तेल की कीमतों में लगातार गिरावट आ रही है। गत वर्ष की समान अवधि की तुलना में सोयाबीन तेल में 15 फीसदी से अधिक की कमी आ चुकी है।
सोयाबीन प्रोसेसर्स ऑफ इंडिया (सोपा) सचिव राजेश अग्रवाल कहते हैं, 'सोयाबीन तेल के बाजार का रुख काफी कमजोर हो चुका है। सोयाबीन मिलर्स का काम बिल्कुल ठंडा हो चुका है।' दूसरी बात यह है कि सोयाबीन की कीमत भले ही कम है, लेकिन मांग के मुताबिक इसकी उपलब्धता बाजार में नहीं है। उनके मुताबिक सोयाबीन खली की मांग अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोयाबीन की अच्छी फसल के कारण कम हो गई।
सोयाबीन में वैश्विक मंदी के कारण खरीदार को पता होता है कि आने वाले समय में कीमत और कम होगी। ऐसे में वह आराम-आराम से माल की खरीदारी करता है। इसके अलावा डॉलर का मूल्य 48 रुपये से गिरकर 45 रुपये तक हो गया है। इस स्थिति मेंखली निर्यातक कम मात्रा में ही निर्यात करना चाहते हैं। इससे भी सोयाबीन की मांग में कमी आई है।
सोयाबीन के भाव
महीना 2009 2010मार्च 2300-2350 1850-1925अप्रैल 2625-2650 1950-2050स्त्रोत : सोपा भाव रुपये क्विंटल (बीएस हिंदी)
सोयाबीन खली निर्यात मांग में 50 फीसदी एवं प्रोसेसिंग इकाइयों के काम में 60 फीसदी की गिरावट से सोयाबीन की कीमतों में पिछले साल के मुकाबले 40 फीसदी की कमी आई है।
पिछले जनवरी माह के मुकाबले भी सोयाबीन के दाम 15-20 फीसदी तक गिर चुके हैं। ब्राजील, अर्जेंटीना एवं दक्षिण अमेरिका में सोयाबीन की अच्छी फसल होने से आने वाले समय में भी सोयाबीन के भाव में तेजी के कोई आसार नहीं हैं।
सोयाबीन तेल के भाव पिछले साल के 480-485 रुपये के मुकाबले 416-424 रुपये प्रति 10 किलोग्राम हो चुके हैं। रुपये की मजबूती के कारण भी खली निर्यातक अधिक मात्रा में निर्यात करने से बच रहे हैं।
सोयाबीन प्रोसेसिंग का काम करने वाले उद्यमियों के मुताबिक इस साल सोयाबीन सीजन के दौरान मिलों में क्षमता के लिहाज से सिर्फ 40 फीसदी का काम हुआ। मिलों की 60 फीसदी क्षमता बेकार रही। सोयाबीन मिलर्स कहते हैं कि सोयाबीन की मांग नहीं होने से कीमतें लगातार कम हो रही हैं।
सोयाबीन प्रोसेसिंग से जुड़ी देश भर में लगभग 200 इकाइयां हैं। इनमें से 70 इकाइयां मध्य प्रदेश में हैं। उद्यमियों ने बताया कि सोयाबीन खली की मांग में गत तीन महीनों से पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 50 फीसदी तक की गिरावट है।
कच्चे पाम तेल (सीपीओ) के रिकॉर्ड शुल्क मुक्त आयात से सोयाबीन तेल की कीमतों में लगातार गिरावट आ रही है। गत वर्ष की समान अवधि की तुलना में सोयाबीन तेल में 15 फीसदी से अधिक की कमी आ चुकी है।
सोयाबीन प्रोसेसर्स ऑफ इंडिया (सोपा) सचिव राजेश अग्रवाल कहते हैं, 'सोयाबीन तेल के बाजार का रुख काफी कमजोर हो चुका है। सोयाबीन मिलर्स का काम बिल्कुल ठंडा हो चुका है।' दूसरी बात यह है कि सोयाबीन की कीमत भले ही कम है, लेकिन मांग के मुताबिक इसकी उपलब्धता बाजार में नहीं है। उनके मुताबिक सोयाबीन खली की मांग अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोयाबीन की अच्छी फसल के कारण कम हो गई।
सोयाबीन में वैश्विक मंदी के कारण खरीदार को पता होता है कि आने वाले समय में कीमत और कम होगी। ऐसे में वह आराम-आराम से माल की खरीदारी करता है। इसके अलावा डॉलर का मूल्य 48 रुपये से गिरकर 45 रुपये तक हो गया है। इस स्थिति मेंखली निर्यातक कम मात्रा में ही निर्यात करना चाहते हैं। इससे भी सोयाबीन की मांग में कमी आई है।
सोयाबीन के भाव
महीना 2009 2010मार्च 2300-2350 1850-1925अप्रैल 2625-2650 1950-2050स्त्रोत : सोपा भाव रुपये क्विंटल (बीएस हिंदी)
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