November 17, 2008
जिंसों के लिए मौजूदा हालात दोहरी चुनौती के हैं। एक ओर तो उन्हें तरलता की किल्लत के चलते मांग की कमी से जूझना पड़ रहा है तो दूसरी ओर, निवेशक फंडों में से धड़ाधड़ धन निकाल रहे हैं।
डेरिवेटिव फंडों में मंदी की पहली धमक मिलने के बाद हेज फंडों ने अनुमान लगाया कि जिंसों में करीब दो अरब डॉलर का निवेश होगा। इसके चलते कृषि और औद्योगिक जिंसों में धन का प्रवाह तेजी से बढ़ा। जानकारों के मुताबिक, इन जिंसों में धन का प्रवाह बाजार में आए बूम की वजह से हुआ न कि इसकी कोई वजह रही। फंड प्रबंधक आश्वस्त थे कि जिंस में अभी तेजी बरकरार रहेगी। लेकिन सट्टेबाजों का इतना धन जिस तेजी से आ रहा था, उससे बाजार में और तेजी आई जो पहले से ही उफान पर था। अमेरिका से शुरू हुई मौजूदा आर्थिक मंदी को तो 1930 की आर्थिक मंदी से भी ज्यादा खतरनाक बताया जा रहा है। हमलोग जुलाई के अंत से ही जिंस बाजार में कमजोरी का रुख देख रहे थे। जानकारों का अभी मानना है कि बाजार में विश्वास का मौजूदा संकट इतना है कि बाजार ने अब तक अपना निचला स्तर नहीं छुआ है। मतलब साफ है कि बाजार में अभी और गिरावट आएगी। दुनिया के अमीर देशों में छायी आर्थिक मंदी और भारत और चीन जैसे विकासशील देशों की विकास दर के नीचे गिरने से दुनिया में लौह और आधारभूत धातुओं की मांग तेजी से गिरी है। मांग और भाव में हुई कमी का असर तो दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियों जैसे आर्सेलरमित्तल, बायोस्टील, अल्कोआ और चाल्को पर पड़ रहा है। इनका हाल इतना बुरा है कि इन कंपनियों को अपने उत्पादन में कटौती करनी पड़ रही है। अपनी विस्तार योजनाओं पर विराम लगाने के बाद अब ये कंपनियां सोच रही हैं कि हाल ही में क्षमता में किए गए विस्तार का पूर्ण इस्तेमाल करना उचित नहीं होगा। जेएसडब्ल्यू का ही उदाहरण लें, कंपनी ने हाल में अपने उत्पादन में 30 लाख टन की वृद्धि की है। लेकिन मौजूदा मंदी को देखते हुए कंपनी ने तय किया कि 38 लाख टन क्षमता वाला विजयनगर प्लांट बंद कर दिया जाए। दूसरी कंपनियों की तरह जेएसडब्ल्यू ने अपने उत्पादन में 20 फीसदी की कटौती कर दी है, जबकि इस्पात की कीमतों में करीब 5,500 रुपये प्रति टन की कमी कर दी है।भारतीय इस्पात उद्योग को डर है कि देश की नरम कारोबारी नीतियों का फायदा उठाकर चीन कहीं अपने सरप्लस उत्पादन को भारत में न झोंक दे। आधारभूत धातुओं को लें तो इसका भविष्य भी धुंधला है। दिन पर दिन इस क्षेत्र का परिदृश्य धुंधला होता जा रहा है।लंदन मेटल एक्सचेंज में अल्युमीनियम का भाव 11 जुलाई को 3,291 डॉलर प्रति टन की ऊंचाई को छू लिया था। लेकिन रियल और ऑटोमोबाइल सेक्टर की पतली होती हालत के चलते अब एक टन अल्युमीनियम के दाम 1,860 डॉलर प्रति टन तक आ गए हैं। जेपी मॉर्गन के मुताबिक, दुनियाभर में अल्युमीनियम तैयार करने की औसत लागत 2,600 से 2,700 डॉलर प्रति टन के बीच आती है। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि पूरे विश्व में वैसे स्मेलटर लगातार बंद हो रहे हैं जिनकी लागत काफी ऊंची है। पिछले चार महीनों में तांबे की कीमत भी 8,940 डॉलर प्रति टन के रिकॉर्ड स्तर से 3,625 डॉलर प्रति टन तक गिर चुके हैं। एलएमई निकल और जस्ते के भाव में भी काफी कमी हुई है। हालत इतनी बुरी है कि लगता है कि इनकी कीमत लागत से भी नीचे चली जाएगी। फिलहाल हेज फंड जिंसों के भाव को लगातार नीचे धकेल रहे हैं। वास्तविकता तो यही है कि मौजूदा आर्थिक परिस्थिति में फंड प्रबंधकों को जिंसों से बाहर निकलने में ही भलाई नजर आ रही है। हमलोग देख रहे हैं कि किस तरह जिंस सूचकांक से जुड़े सिक्योरिटीज और डेरिवेटिव्स में विनिवेश एआईजी-डाऊ जोंस कमोडिटी सूचकांक पर आधारित है।इनमें जुलाई से ही तेजी आने लगी। ठीक इसी समय औद्योगिक जिंसों ने सट्टेबाजों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। ऐसे समय बैंकों को लगा कि जिंसों में निवेश करना फायदा का सौदा है। (BS Hindi)
18 नवंबर 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें