मुद्रास्फीति की ऊंची दरों से सहमे शेयर बाजार के लिए आर्थिक विकास दर में सुस्ती, अच्छी खबर हो सकती है। इससे कमोडिटी की कीमतों में और कमी आने के आसार हैं। शेयर बाजारों में रुख में बदलाव के संकेत हैं। पिछले एक महीने में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शेयरों की कीमतें में भले ही ज्यादा हलचल नहीं दिखी हो, लेकिन अब रुझान बदलता दिखाई दे रहा है। इससे मंदी के बाजार के दौर के खत्म होने के संकेत दिखाई देते हैं।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के घट कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक आने के आसार हैं। कमोडिटी की कीमतों में हाल में सबसे तेज गिरावट आई है। वित्त क्षेत्र से बुरी खबरें आने के बावजूद इस क्षेत्र की कंपनियों के शेयरों में मजबूती आ रही है। मुद्रास्फीति के चलते बने मंदी के दबाव को कमजोर करने के लिए दोनों ही क्षेत्रों के रुख में बदलाव जरूरी है। कुछ रुझानों को लेकर एक महीना पहले ही चिंता पैदा हो गई थी। अब लगता है कि वे सिर्फ अस्थायी रुझान थे।
लंबी अवधि के परिपेक्ष्य में देखें तो 1990-2000 के दशक में तेल की कीमतों और नैस्डेक में करीब समान बढ़ोतरी दर्ज की गई। इस साल जून में ऊर्जा क्षेत्र ने अपेक्षाकृत बेहतरीन प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन 1970 के दशक में ऊर्जा क्षेत्र के प्रदर्शन से भी अच्छा था। इससे पहले 2000 की शुरुआत में टेक्नॉलजी सेक्टर ने अन्य क्षेत्रों के मुकाबले शानदार प्रदर्शन किया था।
तेल और अन्य कमोडिटी में मंदी का दौर शुरू हो चुका है, इस बात पर यकीन करने की कई वजहें हैं। इस साल तीसरी तिमाही में शायद पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल की खपत की वृद्धि दर नकारात्मक रहने की संभावना है। ओईसीडी देशों में वर्ष दर वर्ष आधार पर तेल की कीमतों में 3 फीसदी की दर से कमी दर्ज की जा रही है। चूंकि दुनिया में तेल की कुल मांग में ओईसीडी देशों का योगदान 50 फीसदी से अधिक है, इसलिए यदि उभरते बाजारों में मांग में तीन फीसदी की वृद्धि दर जारी रहती है तो भी कुल मांग में गिरावट आना तय है।
इसके अलावा इस बात के साक्ष्य हैं कि चीन में आर्थिक मंदी आ रही है। साल के अंत तक वैश्विक स्तर पर औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर के गिरकर 2 फीसदी से नीचे पहुंच जाने का अंदेशा है। तेल की मांग में बदलाव अधिक नहीं आता है। इतिहास पर गौर करें तो मांग के नकारात्मक होते ही कमोडिटी की कीमत उसके उत्पादन की सीमांत लागत तक गिर जाती है। लेकिन जहां तक तेल की कीमतों का सवाल है तो इसका वाजिब स्तर 80 डॉलर प्रति बैरल है।
यह वह स्तर है जिसको पिछले नवंबर में छूते ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शेयरों की कीमतें गिरने लगी थीं। तेल की कीमतों में बढ़ोतरी की वकालत करने वाले तेजड़ियों का मानना है कि मांग के रुझान पर ध्यान केंद्रित करना भ्रामक हो सकता है क्योंकि वास्तविक समस्या तेल की आपूर्ति को लेकर है। आपूर्ति बढ़ाने में उत्पादों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
हालांकि इस तर्क में कुछ दम दिखाई देता है, लेकिन मौजूदा ऑयल फील्ड में कमी और क्षमता विस्तार की सीमित संभावनाओं के बावजूद जब कभी मांग नकारात्मक हुई है, आपूर्ति की बाधाओं के होते हुए भी तेल के अंतरराष्ट्रीय बाजार में मंदी आई है। 1970 के दशक में ऐसा देखा जा चुका है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तनाव की स्थिति के चलते 1973 में तेल की कीमतों में तेज बढ़ोतरी हुई थी लेकिन अगले ही साल मांग घटने की वजह से कीमतों में नरमी आई गई थी।....BS Hindi
12 अगस्त 2008
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