कमोडिटी बाजार में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पिछले करीब ढाई साल की भारी तेजी पर अब ब्रेक लगते दिख रहे हैं। ब्रेक ही नहीं इनकी कीमतों का यह उफान शांत होने के बाद कीमतों का रुख नीचे की ओर हो गया है। वर्ष 2005 में शुरू हुआ यह दौर भारत और दुनिया के अधिकांश देशों के लिए कई बड़ी चिंताएं लेकर आया था क्योंकि इसके चलते महंगाई की दर के नये रिकार्ड बनते रहे।
कीमतों की यह तेजी केवल कृषि जिन्सों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि धातुओं और कच्चे तेल सहित दूसरे औद्योगिक कच्चे माल में भी जारी थी। जिसके चलते आम आदमी को जहां ऊंची कीमतों के दंश को झेलना पड़ा वहीं ब्याज दरों में तेजी ने उस पर दोहरा वार किया।
लेकिन अब शायद सरकारें ही नहीं आम आदमी भी सुकून की सांस लेने की उम्मीद कर सकता है। कमोडिटी कीमतों में गिरावट का सबसे बड़ा संकेत गेहूं, चावल, मक्का, सोयोबीन और पॉम ऑयल की कीमतों में आ रही कमी में देखा जा सकता है। इसके साथ ही कच्चे तेल, बेस मेटल और सोने की कीमतों में भी इसी तरह का रुख बन रहा है। जबकि 2005 के बाद से विभिन्न कमोडिटी की कीमतों में विश्व बाजार में 36 फीसदी से 370 फीसदी तक की तेजी आई थी। हालांकि घरेलू बाजार में महत्वपूर्ण कमोडिटी की कीमतों में 10 फीसदी से 81 फीसदी तक की तेजी आई थी। चीनी एक अकेली ऐसी जिन्स रही है जिसकी कीमत में बढ़ोतरी की बजाय इस दौरान गिरावट देखी गयी।
यह बात अलग है कि अब चीनी ही एक ऐसी जिन्स होगी जिसकी कीमत आने वाले दिनों में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों बाजारों में तेज होगी। इसके पीछे भारत में चीनी उत्पादन में गिरावट का अनुमान मुख्य कारण रहेगा। हाल के दिनों में सबसे अधिक गिरावट पॉम ऑयल की कीमतों में आई है। इसकी कीमत मार्च,2008 में 1400 डॉलर प्रति टन तक पहुंच गई थी लेकिन अब पॉम ऑयल की कीमत घटकर 750 डॉलर प्रति टन तक आ गई हैं। इसके चलते कई बड़े आयातकों ने सौदे उठाने से मना कर दिया है। पॉम ऑयल की कीमत में गिरावट का असर घरेलू बाजार में भी खाद्य तेलों की कीमतों में कमी के रूप में सामने आया है।
बात केवल पॉम ऑयल की ही नहीं है 2005 के बाद से गेहूं की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में 93 फीसदी तक का इजाफा हुआ था लेकिन अब गेहूं की आयात कीमत सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद लागत के करीब आ चुकी है।
मक्का की अंतरराष्ट्रीय कीमत में भी नीचे का रुख है। इसके पीछे कच्चे तेल की कीमतों के उच्चतम स्तर से करीब 40 डॉलर प्रति बैरल तक की गिरावट को कारण माना जा रहा है। इसके बीच सीधा संबंध भी है क्योंकि पॉम ऑयल का उपयोग बॉयो फ्यूल के लिए हो रहा था। यही कहानी मक्का के साथ भी रही है। इन दोनों के बॉयो फ्यूएल में उपयोग होने के चलते गेहूं पर पशुओं के चारे में उपयोग का दबाव बना। यही नहीं अब चावल की अंतरराष्ट्रीय और घरेलू कीमतों में भी नीचे का रुख है। कृषि जिन्सों के मामले में विश्व स्तर पर उत्पादन की बेहतर खबरें भी कीमतो में गिरावट का कारण बनी हैं। असल में विश्व बाजार में जिन्सों की कीमतों में इजाफे का एक बड़ा कारण डॉलर का कमजोर होना रहा है। विश्व के अधिकांश देश डॉलर को रिजर्व करेंसी के रूप में रखते हैं। यही नहीं विश्व में अधिकांश ट्रेड भी डॉलर में होता है। डॉलर के कमजोर होने के चलते भी जिन्सों के दाम बढ़े।
एक अन्य बड़ा कारण रहा है जिन्सों में सट्टेबाजी का। इंडेक्स फंडों के कमोडिटी में निवेश ने कीमतों में उछाल को गुणात्मक रुख दिया। घरेलू बाजार में भी वायदा बाजार में कई जिन्सों को इसलिए प्रतिबंधित किया गया क्योंकि उसके चलते स्पॉट कीमतों में भारी तेजी आ गई थी। यह बात केवल संयोग ही नहीं है कि अमेरिका में भी नियामक एजेंसियों को कहना पड़ा कि कच्चे तेल में सट्टेबाजी कीमतों में तेजी का बड़ा कारण बन रही है।
जिन्सों की कीमतों में इस तेजी का पूरा फायदा किसानों को भी नहीं मिला क्योंकि किसान, प्रसंस्करण उद्योग, व्यापारी और दूसरे उपयोगकर्ता ही केवल इस कीमत बढ़ोतरी के कारक नहीं रह गये थे। जिन्सों में निवेश के विकल्प ने कीमतों में अधिक आग लगाई। लेकिन अब दुनिया भर के विशेषज्ञ इस बात पर सहमत होते दिख रहे हैं कि जिन्सों में तेजी का दौर रुक गया है। केवल कृषि जिन्सों में ही नहीं बल्कि बेस मेटल और सोना चांदी से लेकर कच्चे तेल तक में इसी तरह का रुख है। (Business Bhaskar)
25 अगस्त 2008
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