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13 अप्रैल 2009

कृषि के बगैर नहीं बनेगी बात

नई दिल्ली April 13, 2009
दिसंबर में कोपेनहेगन में होने वाले यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन आन क्लाइमेट चेंज (संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन संधि - यूएनएफसीसीसी) की अंतरराष्ट्रीय बातचीत में कृषि क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
वैश्विक कृषि नीति बनाने वाले चिंतकों ने यह संस्तुति की है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीच्यूट (आईएफपीआरआई) ने अपने एक नीतिगत मसौदे में कहा है कि कृषि क्षेत्र अब ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) के उत्सर्जन में 15 प्रतिशत भूमिका निभाता है।
कृषि क्षेत्र में उचित तकनीक, बेहतर प्रबंधन के द्वारा इसे कम किया जा सकता है, जो अन्य क्षेत्रों के कुल उत्सर्जन की मात्रा में कमी ला सकता है। पर्यावरण परिवर्तन से पूरी दुनिया में कृषि प्रभावित हो रही है और इसका बुरा प्रभाव खेती करने वाले लाखों किसानों पर पड़ रहा है।
पूरी दुनिया में मौसम के अनुकूल तकनीकों को प्रयोग करने के लिए किसानों को सहयोग करने की जरूरत है। इसे देखते हुए पर्यावरण के मुताबिक कार्य करने की रणनीति बनाने के लिए कृषि क्षेत्र पर भी यूएनएफसीसीसी की कोपेनहेगन बैठक में शामिल किए जाने की जरूरत है।
कृषि क्षेत्र से होने वाले 15 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के अलावा भूमि के प्रयोग के बदलाव, जैसे वन क्षेत्र में कमी आदि से 19 प्रतिशत खतरनाक उत्सर्जन हो रहा है। उत्सर्जन को कम करने के लिए वनों की कटान और इसकी कमी पर भी पर्यावरण परिवर्तन पर होने वाली बातचीत में शामिल किए जाने की जरूरत है।
आईएफपीआरआई ने कहा है कि कोपेनहेगन बैठक में इन सभी मसलों को तत्काल शामिल किए जाने की अब जरूरत है। विकासशील देश कृषि क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन में 50 प्रतिशत की भूमिका निभाते हैं और भूमि प्रयोग के मामले में और वनों से संबंधित उत्सर्जन में 80 प्रतिशत की भूमिका निभाते हैं।
आईएफपीआरआई के मसौदे में कहा गया है कि होने वाली आगामी बातचीत में गरीबी को कम करने और के साथ ही इस क्षेत्र में कम लागत के उपाय करने और इसे रोकने के लिए उचित अवसर मिल सकता है।
पर्यावरण परिवर्तन के बुरे प्रभावों की चर्चा करते हुए इसमें कहा गया है कि इसके प्रभाव से तमाम इलाकों में सूखे और बाढ़ की स्थिति आ सकती है, जिससे कृषि तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। कुछ तटीय इलाके समुद्र में विलीन हो सकते हैं, जहां खेती होती है।
परिणामस्वरूप कुछ जगहों पर खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट आ जाएगी। इसका सबसे अधिक प्रभाव विकासशील अर्थव्यवस्थाओं और गरीबों पर पड़ेगा। (BS Hindi)

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