27 अप्रैल 2009
चुनावी मौसम में भी अन्नदाता बेसहारा
दोसाल पहले अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं के लिए करीब 400 डॉलर प्रति टन तक की कीमत चुकाने को तैयार केंद्र सरकार उस संकट को भूल गई है। या यूं कहें कि केंद्र में अगली सरकार पर कब्जे की होड़ में राजनीतिक दलों और चुनावी काम के बहाने नौकरशाहों को भी किसानों के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है। यही वजह है कि पंजाब और हरियाणा को छोड़ दें तो देश के अधिकांश राज्यों में किसान एमएसपी से कम दाम पर गेहूं बेचने को मजबूर हैं। उससे भी अधिक विडंबना यह है कि लोकसभा चुनाव का दौर होने के बावजूद कोई भी राजनीतिक दल किसानों के इस संकट पर बात ही नहीं कर रहा है। चालू रबी विपणन सीजन (2009-10) की शुरुआत से ही किसानों के सामने सरकार द्वारा तय 1080 रुपये प्रति क्विंटल के एमएसपी पर गेहूं बेचने में दिक्कत शुरू हो गई थी। हालांकि पंजाब और हरियाणा में किसानों को इस तरह की दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन गुजरात से लेकर राजस्थान, मध्य प्रदेश और देश में गेहूं के सबसे बड़े उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश तक सभी जगह किसान इस संकट का सामना कर रहे हैं। सबसे बुरी हालत उत्तर प्रदेश की है। जहां किसानों की कोई सुनने वाला ही नहीं है। देश में गेहूं उत्पादन में सबसे बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले इस राज्य के किसानों क्या कसूर है? इसका जवाब अभी तो कोई देने को तैयार नहीं है। बसपा प्रमुख व मुख्यमंत्री मायावती दिल्ली की गद्दी की जुगाड़ के लिए लोकसभा चुनाव में इतनी मशगूल हैं कि उनको यह भी नहीं दिख रहा है कि लखनऊ से कुछ ही दूरी पर किसानों को समर्थन मूल्य नहीं मिल रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, मथुरा और अलीगढ़ जिलों से लेकर शाहजहांपुर, हरदोई, एटा, कानपुर से राज्य के उत्तरांचल के जिलों तक सभी जगह किसान व्यापारियों के रहमो-करम पर हैं। यहां सरकारी खरीद केवल नाममात्र की हो रही है। असल में उत्तर प्रदेश ने केंद्र सरकार के सरकारी खरीद के विकेंद्रीकरण के फामरूले को स्वीकार कर रखा है। यह फामरूला जब स्वीकार किया गया, उस समय राजनाथ सिंह राज्य के मुख्यमंत्री थे। उस समय केंद्र की एनडीए सरकार के इस प्रस्ताव को स्वीकार करने वाला उत्तर प्रदेश पहला बड़ा राज्य था। जबकि पंजाब, हरियाणा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने इसका विरोध किया था। यही वजह है कि अब उत्तर प्रदेश का किसान राज्य की नकारा मशीनरी के भरोसे है। जबकि पड़ोसी राज्य हरियाणा और पंजाब में सरकारी खरीद का जिम्मा भारतीय खाद्य निगम ही उठाता है। इसके चलते ही हरियाणा से सटे उत्तर प्रदेश के किसान इसका फायदा उठाते रहे हैं। लेकिन इस साल संकट में फंसे उत्तर प्रदेश के किसानों को हरियाणा में एमएसपी पर गेहूं बेचने से हरियाणा सरकार ने रोक दिया है। दिलचस्प बात यह है कि मौजूदा लोकसभा चुनाव के लिए जारी चुनाव घोषणा पत्र में कांग्रेस ने किसानों की जिंसों की देश भर में आवाजाही की वकालत की है। लेकिन उसकी ही पार्टी की हरियाणा सरकार किसानों को इस हक से वंचित कर रही है। अगर उत्तर प्रदेश की लापरवाह सरकार की वजह से उनको सही दाम नहीं मिल रहा है तो क्या हरियाणा में जाकर बेहतर दाम पर गेहूं बेचने के विकल्प से किसानों को वंचित करना जायज है। दूसरी ओर स्वयं को किसानों का नेता साबित करने में जुटे भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को उनके किए का फल भुगत रहे किसानों की अपने गृह राज्य में भी सुध नहीं है। इस सारी स्थिति को नजरअंदाज कर रही केंद्र सरकार भी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है। एमसएपी व्यवस्था लागू करना उसका काम है। अगर कोई राज्य इसमें नाकाम है तो उसे किसान हितों को देखते हुए हस्तक्षेप करना चाहिए। लेकिन पिछले दो साल में हर दिन की सरकारी खरीद का हिसाब लगाने वाली केंद्र सरकार की इस साल इसमें दिलचस्पी नहीं है क्योंकि अब गेहूं की कोई किल्लत नहीं है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम भी काबू में हैं। दो साल पहले इसी केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश में एफसीआई को सीधे गेहूं खरीद के लिए भेजा था। साथ ही एमएसपी से अधिक दाम देने की छूट भी दी थी ताकि आढ़तियों को कमीशन देकर अधिक गेहूं खरीदा जा सके।यही नहीं नेफेड को राज्य में गेहूं खरीद का लाइसेंस दिलवाने से लेकर निजी कंपनियों पर अंकुश लगाने के लिए भी राज्य सरकार की मदद ली थी। उस समय बिहार में तो सरकार ने एफसीआई अधिकारियों को मोबाइल देकर उनके नंबर अखबारों में प्रकाशित करा दिए थे। इसमें कहा गया था कि अगर किसी गांव में एक ट्रक लोड भी गेहूं उपलब्ध है तो एफसीआई के अधिकारी वहां जाकर गेहूं की खरीद करेंगे। लेकिन पिछले साल हुई 220 लाख टन की खरीद और 7.78 करोड़ के गेहूं उत्पादन ने सरकार के खाद्यान्न भंडार भर दिए। कुछ ऐसा ही पिछले साल तक चीनी के मामले में भी था। लेकिन किसान के सामने जब संकट पैदा हुआ तो उसने गन्ने की फसल से मुंह मोड़ लिया और अब सरकार पूरी ताकत लगाकर भी चीनी के दाम को काबू नहीं कर पा रही है। जिस तरह से बेहतर उत्पादन का खामियाजा गेहूं किसानों को इस साल झेलना पड़ रहा है। उसके चलते सरकारी भंडार और कीमतें कब तक काबू रहेंगी। यह कह पाना मुश्किल है। (Business Bhaskar)
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