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17 फ़रवरी 2009

करते तो फंसते, न किया तो भी फंसे

अंतरिम बजट पेश करना आसान काम नहीं है। नैतिकता के हिसाब से आप ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। अगर वित्त मंत्री कुछ ज्यादा घोषणाएं करते तो चुनावी माहौल के मद्देनजर विपक्ष जमकर बवाल काटता। इसलिए प्रणब दा ने शायद कोई नई बात नहीं की। इसलिए बजट भाषण के दौरान कोई आवाज ही नहीं सुनाई दी। इसमें सिर्फ थोड़ा सा व्यवधान उस समय पड़ा, जब जनता दल सेक्यूलर के एक सांसद सदन में ही बेहोश होकर गिर पड़े। सदन दस मिनट तक स्थगित रहा और फिर बजट भाषण शुरू हुआ।प्रणब दा ने अंतरिम वित्त मंत्री के तौर पर अंतरिम बजट पेश किया। तकनीकी रूप से दादा ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे। वह टैक्स या रेवेन्यू ढांचे को छू नहीं सकते थे क्योंकि यह अंतरिम बजट है। उन्होंने वित्त विधेयक पेश जरूर किया जिसमें कराधान से जुड़े कुछ विवरण मौजूद थे लेकिन यह सिर्फ औपचारिकता भर थी। इसमें मौजूदा टैक्स दरों को और एक साल जारी रखने के लिए सदन से अनुमति ली गई थी। जहां तक स्टॉक मार्केट का सवाल है तो ब्रोकरों को उम्मीद थी कि बजट में कुछ न कुछ तो होगा ही। इस उम्मीद में शेयर बाजार में कारोबार करने वालों ने शुक्रवार से ही खरीदारी शुरू कर दी थी लेकिन जब कोई ऐलान नहीं हुआ तो बिकवाली शुरू हो गई और सेंसेक्स तीन फीसदी लुढ़क गया। ज्यादातर उद्योगपति यह कह कर खुद को सही साबित करने की कोशिश में थे उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं थी। लेकिन हर कोई अंदर ही अंदर उम्मीद बांधे था। यह उम्मीद इसलिए भी थी कि अर्थव्यवस्था एक असाधारण दौर से गुजर रही है और इसमें सरकार की ओर से असाधारण कदम उठाने की भरपूर गुंजाइश थी।दरअसल देश की अर्थव्यवस्था एक कठिन दौर से गुजर रही है। फिर भी सरकार ने मौजूदा वित्त वर्ष (2008-09) के दौरान विकास दर के 7.1 फीसदी रहने पर उम्मीद जताई है। सरकार के आंकड़े सही तस्वीर पेश नहीं करते हैं। अर्थव्यवस्था का हर सेक्टर धीमेपन का शिकार हो रहा है। कई सेक्टरों में मांग घट गई है। हर कारोबारी यह उम्मीद लगाए बैठा है कि सरकार इस परेशानी से पार लगाएगी। वह निवेश बढ़ाने के कदम उठाएगी और आखिरकार यह कंपनियों के पास राजस्व के तौर पर पहुंच जाएगा। ऑटो और हाउसिंग जैसे सेक्टर एक्साइज ड्यूटी में कटौती और ऋण आवंटन में इजाफे के तौर पर सीधी मदद की उम्मीद कर रहे थे। भारत में अर्थव्यवस्था के ये हालात हैं लेकिन अमेरिका और यूरोपीय देशों में स्थिति और भी गंभीर है। वहां कई सेक्टर सरकार से बेल-आउट पैकेज की उम्मीद लगाए बैठे हैं। भारत में हम इकोनॉमी को रफ्तार देने वाले पैकेज की बात कर रहे हैं लेकिन यूरोप और अमेरिका में राहत पैकेज की बात हो रही है।देश हो या विदेश अब सरकार ही तारणहार नजर आ रही है। यहां भी सरकार से इसी भूमिका की उम्मीद की जा रही थी। अंतरिम बजट से इतनी उम्मीदें इसीलिए थीं। लेकिन प्रणब दा ने राजनीतिक रूप से सुरक्षित रास्ता पकड़ा और एक भी नई घोषणा नहीं की। विधवाओं और विकलांगों के लिए घोषित कल्याणकारी योजनाओं को कैबिनेट पिछले सप्ताह ही मंजूरी दे चुका था। नरेगा और भारत निर्माण जैसी फ्लैगशिप योजनाओं के लिए वह घोषणा करते हुए तो दिखे लेकिन उन्होंने इनका आवंटन नहीं बढ़ाया। सिर्फ एक सेक्टर ऐसा है, जिसमें उन्होंने आवंटन बढ़ाया। मुंबई हमलों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि हम कठिन दौर से गुजर रहे हैं और सुरक्षा के मोर्चे पर ऐसी सीमा में पहुंच चुके हैं जहां रक्षा खर्च को बढ़ाया जाना जरूरी है। रक्षा खर्च बढ़ा कर 1,41,703 करोड़ रुपये कर दिया गया। इसमें 54,824 करोड़ रुपये का पूंजीगत खर्च भी शामिल है। हालांकि इससे सेवानिवृति सैनिकों को शायद ही कोई लाभ मिलेगा।ये रिटायर्ड सैनिक एक रैंक एक पेंशन के लिए काफी समय से आंदोलन चला रहे हैं और पिछले दिनों उन्होंने अपने मेडल सामूहिक रूप से राष्ट्रपति को लौटा दिए थे। वित्त मंत्री ने अपने भाषण का ज्यादातर हिस्सा पिछले साल की उपलब्धियों का बखान करने में ही खर्च कर दिया। बजट भाषण के 18 पृष्ठों में से लगभग 14 में उन्होंने सरकार के पिछले चार साल की उपलब्धियों का ब्योरा दिया था। सिर्फ चार पन्नों में अगले वित्त वर्ष 2009-10 की बात की गई थी। वित्त मंत्री ने सरकार को सिर्फ यह सलाह दी कि अगले चार साल में उसे क्या करना चाहिए लेकिन खुद उन्होंने किसी कदम का ऐलान नहीं किया। उन्होंने अर्थव्यवस्था के बदलते हालात के मद्देनजर राजकोषीय घाटे की सीलिंग की समीक्षा की सलाह भी दे डाली। अपने बजट भाषण के निष्कर्ष में भी उन्होंने फिर चार साल की उपलब्धियों का बखान कर डाला। वित्त मंत्री ने चंद्रयान के सफल प्रक्षेपण का हवाला दिया।पांच साल तक 8.6 फीसदी दर वाले इन्क्लूसिव विकास दर की बात की। वित्त मंत्री ने इस बात का भी जिक्र किया कि अमेरिका के साथ समझौता से किस कदर भारत के साथ न्यूक्लियर भेदभाव खत्म हुआ और किस तरह आम आदमी को विकास प्रक्रिया के केंद्र में रखा गया। एक अच्छे और समर्पित कांग्रेसी की तरह उन्होंने अपने भाषण में राजनीतिक पुट बरकरार रखा। इकोनॉमी की बातें बीच-बीच में चली आती थीं। लेकिन थोड़े देर के लिए। एक वित्त मंत्री अंतरिम बजट में नियम के हिसाब से तो ज्यादा नहीं कर सकता पर समय का तकाजा था और उम्मीदें थीं कि वह यह नियम तोड़ेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। (Business Bhaskar)

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