02 फ़रवरी 2009
खत्म हो बासमती का राज
आपको पता है कि बासमती की खासियत क्या है? इसे खास माना जाता है। इसकी तुलना बहुत हद तक हमारे राजनेताओं से की जा सकती है। नेताओं की तरह बासमती भी खुद को खास मानती है। हालांकि, अब यह बात बहुत सच नहीं लग रही। अंतरराष्ट्रीय बाजार में नई किस्मों से बासमती को कड़ी टक्कर मिल रही है। हालांकि, यह बात भी सही है कि अब तक इसका रसूख खत्म नहीं हुआ है। यह ग्राहकों के हाथ में है। कभी विदेशी ग्राहक थाइलैंड के उच्च दर्जे के सुगंधित होम माली चावल की जगह पर बासमती के लिए 300 से 400 डॉलर प्रति टन ज्यादा भुगतान करने के लिए तैयार थे। आज बासमती निर्यातक थाइलैंड के पाथुंथानी सुगंधित चावल के बराबर कीमत मिलने पर खुद को खुशनसीब मानते हैं। यह बात और है कि थाइलैंड का यह चावल अंतरराष्ट्रीय बाजार में दूसरे दर्जे का माना जाता है। ज्यादातर बासमती ब्रांडों के बारे में माना जाता था कि खाने वालों को इसकी लत लग जाती है। हालांकि, बासमती के निर्यात में आई गिरावट से इस बात को निराधार साबित कर दिया है। बासमती के घमंड को तोड़ने के बावजूद दूसरी घरेलू चावल किस्मों और बासमती के बीच प्रतिस्पर्धा का समान माहौल पैदा नहीं हो सका है। इस माहौल को तैयार करने के लिए हमें ज्यादा बड़े बदलाव करने होंगे। सालों से बासमती का केवल नाम ही निर्यात प्रोत्साहन नीतियों में अपने लिए सुविधाएं पाने के लिए काफी रहा है। इसकी किस्मों के निर्यात पर तब भी छूट जारी रही, जब दूसरे चावल के निर्यात पर रोक लगी हुई थी। यहां तक कि बासमती के निर्यात को तब भी जारी रखा गया जबकि चावल की दूसरी किस्मों की कीमत और क्वालिटी इसके बराबर स्तर पर आ गई। पुराने वक्त से अपनी अलग पहचान रखने वाली पोन्नी, सोना मसूरी और काला जीरा को बासमती के मुकाबले हमेशा से ही दोयम दर्जे का माना जाता रहा। बासमती के मुकाबले दूसरी घरेलू चावल की बेहतर से बेहतर किस्मों को दोयम मानने की प्रथा बरसों से चली आ रही है। इस गैर-बराबरी वाले माहौल को बदलने के लिए चावल की दूसरी किस्मों को भी बराबर का मौका देने की जरूरत है। सबसे बड़ी जरूरत यह है कि भारत को अपनी निर्यात नीति में बासमती को दूसरों के मुकाबले ज्यादा तरजीह देने की सोच को खत्म करना होगा। ऐसा नहीं किया जाना चाहिए कि चावल की एक किस्म का उसी की बराबर क्वालिटी वाली दूसरी किस्म पर शासन हो। इसे लागू करने का सबसे आसान तरीका न्यूनतम निर्यात कीमत (एमईपी) पर आधारित नीति पर चलना है। यह नीति हमारे पास पहले से मौजूद है और इसे केवल आगे बढ़ाने की जरूरत है। एमईपी आधारित नीति के कई फायदे हैं। इसका पहला फायदा तो यह है कि सरकार कीमतों को कुछ पारदर्शी अंतरराष्ट्रीय बाजारों के बेंचमार्क इंडेक्सों के आधार पर तैयार करेगी। कीमतों को तय करने से सबसे महंगी किस्मों का ही निर्यात करने का फैसला लेने में सरकार को फायदा होगा। इससे सरकार को यह भी पता चलेगा कि किन किस्मों का निर्यात करना महंगा पड़ सकता है। अब निर्यात के दायरे में कौन सी किस्म आती है यह सरकार की चिंता नहीं होगी। एमईपी आधारित नीति का दूसरा फायदा यह है कि इससे चावल की सभी किस्मों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने का बराबर मौका मिलेगा। जब तक किसी किस्म को उसकी एमईपी से ज्यादा मूल्य देने वाले ग्राहक मिलते रहेंगे, उसे निर्यात का दर्जा मिलता रहेगा। इससे बासमती जैसे केवल नाम पर आधारित ब्रांडों से छुटकारा पाने का मौका मिलेगा। इसका तीसरा फायदा यह है कि किसान दूसरी किस्मों के उत्पादन पर ज्यादा गौर करेंगे। कई दशकों से पंजाब और हरियाणा के बासमती उगाने वाले किसानों को इसके निर्यात का फायदा मिल रहा है। साफ तौर पर दूसरे राज्यों के किसानों को भी इसी तरह के फायदे मिलने चाहिए। (ET Hindi)
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