16 फ़रवरी 2009
कृषि शोध तंत्र के मठ खत्म करने की जरूरत
यह बात सच है कि विश्व का सबसे बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र का कृषि शोध तंत्र भारत के पास है। यह भी सच है कि कई फसलों में हम विश्व में पहले व दूसरे नंबर के उत्पादक भी हैं। लेकिन यह भी सच है कि पिछले करीब डेढ़ दशक से हमारा यह शोध तंत्र ऐसा कुछ देश को नहीं दे पाया है जो विकास के मोर्चे पर घिसट रहे देश के कृषि क्षेत्र में जान फूंकने का काम कर सके।एक तरह से अलसाए हाथी की तरह पड़े इस तंत्र को देश की कृषि विकास दर को डेढ़ से ढाई फीसदी के बीच बनाए रखने वाली सबसे बड़ी बाधाओं में शुमार किया जा सकता है। देश के किसानों और भूमि की बदलती जरूरतों के हिसाब से कोई नया शोध ये संस्थान नहीं दे पाए हैं। साथ ही समय के साथ इनका किसानों के साथ नाता भी टूटता जा रहा है। यह बात देश में कृषि शोध का नेतृत्व संभालने वाली संस्था भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और इसके नेतृत्व में चल दूसरे कृषि विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और राज्य कृषि विश्वविद्यालय सभी पर लागू होती है। हालात में सुधार के लिए देश के अधिकांश जिलों में खोले गए कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके) की भी हालत लगभग ऐसी ही है।मजेदार बात यह है कि यह हालत देश के शीर्षस्थ नेतृत्व से भी छिपी नहीं है। यही वजह है कि तीन साल पहले प्रधानमंत्री कार्यालय ने आईसीएआर को सीधे एक पत्र लिखकर कहा था कि यह संस्था अपने उद्देश्यों में नाकाम होती जा रही है। जिसका सीधा असर देश के कृषि क्षेत्र पर पड़ रहा है। वहीं कृषि शोध तंत्र में ढांचागत सुधार करने की रस्म अदायगी की कोशिशें भी हुईं। इसके लिए माशेलकर समिति, स्वामीनाथन समिति और चbा समिति समेत चार समितियां बनाई गई। लेकिन पहली समिति की रिपोर्ट आने के पहले ही दूसरी समिति बनती गई। रिपोर्ट किसी भी समिति की लागू नहीं हो सकी। करीब सौ साल पुराने इस तंत्र को बदलने का सबसे अधिक विरोध आईसीएआर से ही शुरू होता रहा है। कभी इस बदलाव को आईएएस लॉबी का वैज्ञानिकों के अधिकारों पर हमला बताकर विरोध किया जाता रहा है तो कभी कुछ दूसरे बहाने से आईसीएआर में सुधारों का विरोध किया जाता रहा है। लेकिन जब बात परिणाम देने की आती है तो कोई जवाब देने की बजाय इसके प्रमुख लोग राजनीतिक आकाओं को खुश करने में लग जाते हैं। आईसीएआर द्वारा पिछले कुछ बरसों में खोले गए तमाम शोध केंद्र इसका उदाहरण हैं। इनमें से अधिकांश कृषि मंत्रियों के चुनाव क्षेत्र या गृह राज्यों में ही खुलते हैं।जहां तक नए शोध का सवाल है तो 1996 में जारी की गई गेहूं की प्रजाति पीबीडब्लू-343 के बाद उत्पादन में बढ़ोतरी कोई क्रांतिकारी बदलाव सरकारी कृषि शोध से नहीं आया है। वह भी राज्य कृषि विश्वविद्यालय से आई थी, न कि आईसीएआर से। आईसीएआर ने केवल धान की पूसा-1121 किस्म ही एक ऐसी प्रजाति विकसित की है जिसका फायदा किसानों को आर्थिक रूप से मिला है। वहीं इस बीच किसानों में सबसे तेजी से पैठ बनाने वाली प्रजाति बीटी कपास की रही है और यह निजी क्षेत्र की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के जरिये देश के किसानों को मिली है। यही नहीं, तमाम प्रजातियां विकसित करने का दावा करने वाला हमारा शोध तंत्र अभी तक किसी फसल के लागत के इकानॉमिक्स को लेकर भी पारदर्शी नहीं है। यही वजह है कि जब ये प्रजातियां किसानों के खेत में पहुंचती हैं तो उनका अनुभव अलग ही रहता है।पिछले करीब दो दशक से आईसीएआर और दूसरे बड़े शोध संस्थानों की बात करें तो यहां नेतृत्व में भी कोई नयापन नहीं आया है। पुरानी सोच और र्ढे वाला यह नेतृत्व कुछ नया नहीं सोच पा रहा है और न ही नया दे पा रहा है। यही नहीं कोई नई कमेटी बने या कमीशन, ले-देकर वही कुछ लोगों की चौकड़ी इन पर काबिज हो जाती है। ऐसे में कुछ क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है। यहां अधिकतर लोगों को कमेटी और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में अपनी सीट को लेकर अधिक चिंता है। ऐसे में आम किसान के साथ संवाद और उसके लिए काम की फुर्सत इन लोगों को कहां है। लेकिन यह सब लंबे समय तक नहीं चलेगा क्योंकि विकास के मोर्चे पर घिसट रहे कृषि क्षेत्र में जान फूंकने का जिम्मा संभालने वाले इस तंत्र से सवाल पूछने का सिलसिला शुरू होने में बहुत देर नहीं होने वाली है। (Business Bhaskar)
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