सरकार ने अगले वित्त वर्ष में सब्सिडी की सीमा जीडीपी के 2 फीसदी तक सीमित करने का लक्ष्य रखा है और अगले तीन वर्षों में जीडीपी के 1.75 फीसदी तक। कई विश्लेषकों का मानना है कि सब्सिडी लक्ष्य को देखते हुए लगता नहीं कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून आ पाएगा या फिर सब्सिडी पर लगाम नहीं कसी जा सकेगी। योजना आयोग के सदस्य अभिजित सेन ने दिलाशा सेठ को दिए साक्षात्कार में कहा कि खाद्य सुरक्षा पर मीडिया में सब्सिडी की मात्रा बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जा रही है और प्रस्तावित कानून लागू करना असंभव नहीं है। उनसे बातचीत / April 01, 2012
खाद्य सुरक्षा पर सब्सिडी के विभिन्न अनुमान दिए गए हैं। क्या आपको लगता है कि ऐसे हालात में खाद्य सुरक्षा कानून लागू करना संभव होगा, जब सरकार का ध्यान सब्सिडी में कमी लाने पर हो?
निश्चित तौर पर खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने की लागत मौजूदा जनवितरण प्रणाली से थोड़ी ज्यादा होगी। मौजूदा पीडीएस व्यवस्था सस्ती नहीं है। नए कानून की लागत ज्यादा होगी। यह नरेगा जैसी होगी। अगर आप देखें तो साल 2004 में संप्रग के सत्ता में आने से पहले इसकी लागत जीडीपी की करीब 0.4 फीसदी थी, लेकिन नरेगा की लागत जीडीपी की 0.5 फीसदी है। खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने पर भी लागत में मोटे तौर पर ऐसा ही बदलाव देखने को मिलेगा। इसे लागू करने पर सरकार को ज्यादा खर्च करना होगा, लेकिन यह असंभव नहीं है क्योंकि तब नरेगा को भी असंभव माना जा रहा था।
लेकिन सब्सिडी में कटौती के लिए कृतसंकल्प सरकार सब्सिडी का बोझ कैसे संभालेगी?
आपको कर बढ़ाने होंगे या खर्चों में कटौती करनी होगी। पेट्रोल व दूसरी सब्सिडी भी घटानी होगी। यह दलील आर्थिक नहीं है कि इसका खर्च नहीं उठाया जा सकेगा। आर्थिक दलील यह होगी कि ऐसा करने और कुछ हद तक वित्तीय घाटे को बनाए रखने के लिए और कौन से समायोजन करने होंगे।
क्या आपको लगता है कि विभिन्न विश्लेषकों के सब्सिडी के आंकड़े सही मायने में वास्तविकता के करीब हैं?
खाद्य सुरक्षा विधेयक का बड़ा हिस्सा पीडीएस के साथ होगा। ज्यादातर खर्च उसी पर होगा। ज्यादातर लागत बढ़ाचढ़ाकर पेश की गई है और निश्चित तौर पर मीडिया में पेश आंकड़े तो और बढ़ाचढ़ाकर पेश किए गए हैं। इस पर वैसी लागत नहीं आएगी। इस विधेयक के कई विंदु हैं। पीडीएस के आंकड़े घट रहे हैं। जिन्हें खाद्य सुरक्षा का हक मिलेगा, उनकी संख्या पता चलेगी और वे अपने अधिकार का इस्तेमाल करेंगे। अगर वे अधिकार का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो लागत में थोड़ी कमी आएगी। सच्चाई यह है कि मौजूदा पीडीएस में हर कोई अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर रहा है। ऐसे में आकलन के लिए जो आंकड़े पेश किए जा रहे हैं, वे अंतिम दौर के आंकड़ों से अलग होंगे। वास्तव में सरकार अनाज की भंडारित मात्रा की लागत का भी खर्च उठाती है। पिछले 4-5 सालों में हम भंडारण कर रहे हैं, खरीद रहे हैं, लेकिन इसे निकाल नहीं रहे। खाद्य सुरक्षा कानून से यह अनाज निकलना सुनिश्चित होगा। अनाज को जमा रखने पर 250-300 रुपये खर्च आ रहा है। आपको यह लागत उठानी होगी।
बहस चल रही है कि गरीबी रेखा के ऊपर और गरीबी रेखा के नीचे की पूरी व्यवस्था समाप्त कर दी जाएगी और प्रस्तावित कानून में इस तरह का विभाजन नहीं होगा। इस पर आपका क्या कहना है?
मुझे लगता है कि मौजूदा एपीएल और बीपीएल के विभेद से अक्षमता बढ़ी है। इससे बाजारों का स्थिरीकरण मुश्किल हो गया है और असमानता पैदा हुई है। हमें एकसमान पीडीएस की तरफ लौटना चाहिए। यह एपीएल-बीपीएल 1997 में शुरू हुआ था। हमने साल 2002 में खाद्य मंत्रालय से एकसमान पीडीएस में लौटने की सिफारिश की थी। सभी के लिए कीमत का स्तर न्यूनतम समर्थन मूल्य ही होना चाहिए। अगर आपके पास समानता होगी तो कीमत भी एक ही होगी।
गरीब और अमीर दोनों को एक ही कीमत पर क्यों खरीदना चाहिए?
इस मामले में विभिन्न तरह के विचार पेश किए गए हैं। इनमें से एक विचार अमीरों को अलग करने का है। ऐसे में 75 फीसदी आबादी को एकल कीमत पर खाद्य सुरक्षा हासिल करने दें। लेकिन इसके लिए पर्याप्त अनाज होना चाहिए। प्रति व्यक्ति 7 किलोग्राम के बजाय इसे 5 किलो कर दिया जाना चाहिए। (BS Hindi)
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