देश में दालों के कारोबार में पिछले 3-4 वर्षों में भारी बदलाव आया है। कम घरेलू उत्पादन के कारण जहां वर्ष 2009-10 में दालों के आयात में करीब 35 लाख टन की बढ़ोतरी रही वहीं, 2010-11 में आयात घटकर करीब 25 लाख टन रहा और 31 मार्च को समाप्त हो रहेचालू वित्त वर्ष में यह 27-28 लाख टन रह सकता है।
घरेलू उत्पादन भी बढ़कर करीब 170 लाख टन हो गया है, जो 2009 से पहले की स्थिति से बिल्कुल उलट है। उस समय तक शायद ही उत्पादन ने कभी 145 लाख टन का आंकड़ा पार किया हो।
आयात में स्थिरता और उत्पादन में बढ़ोतरी से पिछले वर्षों में दालों की कीमतों पर काफी हद तक लगाम में मदद मिली है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि जिन किसानों ने अच्छी आमदनी की उम्मीद में बड़े पैमाने पर दालों की बुआई की, उन्हें नुकसान उठाना पड़ा, क्योंकि वर्तमान घरेलू कीमतें उनकी लागत की भरपाई नहीं कर पाती हैं। दो साल पहले खुदरा बाजार में तुअर दाल 100 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई थी।
तुअर के बड़े उत्पादक राज्यों में से एक महाराष्ट्र में इसकी कीमत राज्य के न्यूनतम समर्थन मूल्य 3,200 रुपये प्रति क्विंटल से भी नीचे आ गई है, जिससे लाखों किसान परेशान हैं।
कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के चेयरमैन अशोक गुलाटी ने कहा, 'महाराष्ट्र में तुअर किसानों को दो बुनियादी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। पहली, कम उत्पादकता और नई तकनीक के अभाव में उत्पादन लागत बढ़ी है। दूसरी, कोई संगठित विपणन व्यवस्था नहीं है, जिससे उत्पादकों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे अपनी उपज बेचनी पड़ती है।'
गुलाटी ने हाल में महाराष्ट्र के तुअर उत्पादक क्षेत्रों का व्यापक दौरा किया था। उन्होंने कहा कि पिछले दो वर्षों में किसानों को अच्छी कीमत मिलने से उत्पादन में अल्पकालीन बढ़ोतरी के कारण स्थानीय स्तर पर आपूर्ति बढ़ी है। (BS Hindi)
02 अप्रैल 2012
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