December 20, 2011
मंत्रिमंडल ने खाद्य सुरक्षा विधेयक को संसद में पेश करने की मंजूरी तो दे दी है लेकिन इसमें तमाम विसंगतियां हैं और यह कहीं-कहीं अव्यावहारिक प्रतीत होता है। इसमें 75 फीसदी ग्रामीण आबादी को ज्यादा सब्सिडी वाला भोजन उपलब्ध कराने के लिए सांविधिक अधिकार चाहा गया है। इसमें से 46 फीसदी को 'वरीयता' देने की बात कही गई है जो गरीबी रेखा के नीचे बसर करते हैं। इतना ही नहीं शहरी आबादी का 50 फीसदी भी इसमें शामिल किया जाना है जिसमें से 28 फीसदी वरीयता प्राप्त होंगे। ध्यान देने योग्य बात है कि विधेयक के प्रावधानों में शामिल जनसंख्या राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की मंशा के मुताबिक नहीं है। अगर ऐसा होता तो इसमें और अधिक लोग शामिल होते और इसका क्रियान्वयन मुश्किल होता। इसके बावजूद यह प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के उन शुबहों को पूरी तरह दूर कर पाने में नाकाम रही है जो उसने इसके कारण पडऩे वाले वित्तीय बोझ के बारे में जताए हैं। इसके प्रावधानों के मुताबिक चावल 3 रुपये किलो, गेहूं 2 रुपये किलो और मोटा अनाज 1 रुपये किलो की दर से वितरित करने होंगे, जबकि इनकी खरीद की कीमत इससे कई गुना ज्यादा होगी। जाहिर है ऐसे में खाद्य सब्सिडी बिल बेहद ऊंचे स्तर तक पहुंच जाएगा। एक ओर जहां खाद्य मंत्रालय का केंद्रीय सब्सिडी बिल का अपेक्षाकृत संकुचित आकलन 60,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 95,000 करोड़ रुपये हो जाने का अनुमान है वहीं विश्लेषकों का अनुमान है कि यह 100,000 करोड़ रुपये तक हो सकता है। एक बार अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन, बढ़ती खरीद कीमत, राज्यों के कर, मंडी शुल्क और ढुलाई तथा वितरण लागत आदि जोड़े जाने के बाद वास्तविक सब्सिडी बिल इसका दोगुना तक हो सकता है। इस बीच लागत में हिस्सेदारी और क्रियान्वयन को लेकर राज्य सरकारों की अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा, अनेक राज्य पहले ही कुछ तबकों को 2 रुपये और 1 रुपये प्रति किलो की दर पर अनाज मुहैया करा रहे हैं। यह कीमत विधेयक में उल्लिखित दर से भी कम है। ऐसा लग सकता है कि संप्रग-2 1970 के दशक में लौटने की कोशिश कर रहा है लेकिन इंदिरा गांधी भी खाद्य कारोबार का राष्ट्रीयकरण करने में नाकाम रही थीं। हालांकि बेहद कड़ाई से लिखे इस कानून में भी राज्यों में अनाज उत्पादन की मात्रा वांछित करके एक तरह से राष्ट्रीयकरण की कोशिश की गई है। खुले बाजार में कीमतें बढ़ेंगी क्योंकि सरकारी खरीद से कम ही अनाज बचेगा। ऐसे में विधेयक यह कैसे सुनिश्चित करेगा कि जो परिवार गरीब नहीं हैं, वे महंगे अनाज पर निर्भर न रहें? जैसा कि कई राज्यों ने इंगित किया है- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) खराब हो चुकी है और यह कुल क्षमता का दो तिहाई ही सही ढंग से अंजाम दे पाती है। विधेयक का मौजूदा स्वरूप इसमें सुधार की कोशिशों पर बुरा असर ही डालेगा। भोजन के अधिकार को लागू करने में राज्य सरकारों की अहम भूमिका है और अगर उनके पास कोई वैकल्पिक विचार हो तो उन्हें खाद्य सुरक्षा को अपने तरीके से सुनिश्चित करने देना चाहिए। इसके अलावा अनाज की कोई कानूनी कीमत भी तय नहीं की जानी चाहिए। एन टी रामराव ने आंध्र प्रदेश में 1983 में 2 रुपये किलो अनाज देने की घोषणा की थी। उस कीमत को आखिर वर्ष 2011 में कानूनी मान्यता क्यों दी जानी चाहिए? बेहतर कानूनों को लागू करने के लिए थोड़े बहुत परिवर्तन की आवश्यकता होती है वरना वे उद्देश्य में सफल नहीं हो पाएंगे। अब चूंकि यह विधेयक समिति के जरिये सदन की राह ले चुका है, ऐसे में इस सिद्घांत को ध्यान में रखा जाना चाहिए। (BS Hindi)
22 दिसंबर 2011
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