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17 दिसंबर 2008

स्टेनलेस स्टील री-रॉलिंग मिलों ने मांगा राहत पैकेज

नई दिल्ली December 16, 2008
देश भर में स्टील के बर्तन और शीट बनाने वाली रॉलिंग मिलों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
वर्तमान में लगभग 70 फीसदी री-रॉलिंग इकाइयां, जहां स्टेनलेस स्टील की पट्टी और बर्तन बनाए जाते हैं, बंद पड़ी हुई है। इन इकाइयों के बंद होने से लगभग 2.50 लाख लोगों का रोजगार छिन चुका है। गौरतलब है कि भारत में स्टेनलेस स्टील से बर्तन और शीट्स बनाने वाली चार मुख्य इकाइयां हैं, जिनसे पूरे देश में इसकी आपूर्ति की जाती है।ये इकाइयां जोधपुर, दिल्ली, अहमदाबाद और भिवाड़ी में है। अपनी खस्ताहाल स्थिति से निजात पाने के लिए इन इकाइयों ने प्रधानमंत्री से राहत पैकेज की मांग की है। आनेवाले दिनों में इस बाबत इनके प्रतिनिधि प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से मुलाकात भी करेंगे, हालांकि मिलने की तारीख का फैसला अभी तक नहीं किया गया है।दिल्ली स्टेनलेस स्टील ट्रेड फेडरेशन के अध्यक्ष जयकुमार बंसल ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'अभी प्रति रॉलिंग मशीन पर 30,900 रुपये का शुल्क लगता है। 5 से 6 साल पहले मात्र 10,000 रुपये प्रति मशीन यह शुल्क लगता था। हालांकि सेनवैट को 14 फीसदी से कम कर 10 फीसदी कर दिया गया है। कच्चे माल की कीमतों में 30 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है।'उन्होंने बताया कि शुल्क में कमी होने के बावजूद रॉलिंग मशीन पर लगाया जाने वाला शुल्क कम नहीं हुआ है। हमलोग सरकार से यह मांग कर रहे हैं कि निम्वर्ग और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए जिन उत्पादों का निर्माण हो रहा है, उसे बंद होने से बचाया जाए। संगठन सरकार से मांग कर रहा है कि मशीन पर लगने वाले शुल्क को कम कर 5000 रुपया प्रति महीना कर दिया जाए। ऑल इंडिया री-रॉलर्स एसोसिएशन के प्रमुख कार्यकारी ए. के. भार्गव ने कहा, 'इन मिलों की हालत काफी खराब है। इन इकाइयों पर मंदी की जबरदस्त मार पड़ रही है। इसके बावजूद सरकार की तरफ से किसी प्रकार की राहत पैकेज की पहल नहीं की गई है। अगर यही हाल जारी रहा, तो री-रॉलिंग से जुड़ी सारी निर्माण इकाइयां बंद हो जाएगी।' उन्होंने बताया कि मंदी की वजह से उत्पादन कम हो गया है। कच्चे माल की कीमत में काफी बढ़ोतरी हो चुकी है। मांग के अनुपात में लागत कीमत में काफी इजाफा हुआ है। ऐसी स्थिति में अगर सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता है, तो बंदी और बेरोजगारी के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। गौरतलब है कि 1994 में इन इकाइयों की समस्याओं को समझते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने प्रति मशीन 15000 रुपये प्रति महीने की कंपाउंड शुल्क लगाने की व्यवस्था की थी। इस शुल्क में किसी प्रकार के सेनवैट को शामिल नहीं किया गया था। इसके बाद इसे 2006-07 में बढ़ाकर 30000 रुपये प्रति मशीन कर दिया गया। हालांकि पहले लोहे और इस्पात पर सेनवैट की दर 16 फीसदी थी, जो 7 दिसंबर 2008 को घटाकर 10 फीसदी कर दी गई है। (BS Hindi)

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