मुंबई December 25, 2008
विश्व भर में छाई आर्थिक मंदी के बावजूद 2009 में तिलहन और खाद्य तेल की कीमतों में 20 फीसदी उछाल की संभावना है।
ऐसे में जनवितरण प्रणाली के तहत सस्ता खाद्य तेल वितरित करने की नीति के चलते सरकार के कोष पर करीब 1,500 करोड़ रुपये का बोझ पड़ने की संभावना है। जानकारों के मुताबिक, ये खर्च आयात शुल्क में कटौती सहित सब्सिडी देने में खर्च होंगे। खाद्य तेलों के बजट में तेजी की मुख्य वजह पाम तेल की मांग में वृद्धि होना रही है। उल्लेखनीय है कि दुनिया में खाद्य तेलों की कुल खपत में पाम तेल की हिस्सेदारी 15 फीसदी से अधिक है। भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में मंदी की कम मार के चलते अनुमान है कि यहां खाद्य तेलों की मांग बढ़ेगी। मौजूदा वित्त वर्ष में इन दशों की अर्थव्यवस्था के 7 फीसदी से अधिक तेजी से विकास करने का आकलन है। हालांकि विकसित देशों की अर्थव्यवस्था का रुख इस समय नकारात्मक है। जानकारों के मुताबिक, खाद्य तेलों का अर्थव्यवस्था से सीधा संबंध होता है, पर इस क्षेत्र पर मंदी की मार दूसरे क्षेत्रों की तुलना में कम ही पड़ी है। रेलीगेयर कमोडिटीज के अजीतेश मलिक के अनुसार, घरेलू हाजिर बाजार में बेहतर खरीदारी के चलते खाद्य तेल कारोबार का रुख काफी सकारात्मक है। जहां तक 2008 की बात है तो पूरे साल खाद्य तेल सरकार की निगरानी में रहा। उपभोक्ताआं और किसानों का हित साधने के लिए लगातार कई नियंत्रणकारी उपाय किए जाते रहे।अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी के चलते फरवरी से ही खाद्य तेलों में तेजी आनी शुरू हो गई। मार्च में सोया तेल 80 रुपये प्रति किलोग्राम पर पहुंच गई जबकि सरसों तेल 100 रुपये को पार कर गया। ऐसे में गृहणियों की रसोई का पूरा बजट ही बिगड़ गया। चुनावों के करीब पहुंच रही यूपीए सरकार ने तब मार्च में अनेक मूल्य-नियंत्रक प्रशासकीय और वित्तीय उपाय किए। खाद्य तेलों के निर्यात पर पाबंदी लगा दी गई जबकि घरेलू उपलब्धता बढ़ाने के लिए आयात शुल्क में कटौती की गई। 1 अप्रैल से कच्चे खाद्य तेल पर आयात शुल्क खत्म कर दिए गए, वहीं रिफाइंड तेल पर यह शुल्क घटाकर 7.5 फीसदी कर दिया गया। जुलाई में सरकार ने कहा कि 2006-07 में जहां आयात शुल्क से 4,800 करोड़ रुपये की कमाई हुई, वहीं 2007-08 में 3,500 करोड़ रुपये इस मद में आए। लेकिन इस बात की पूरी उम्मीद है कि 2008-09 के दौरान खाद्य तेलों के आयात शुल्क से नाम मात्र की राशि ही एकत्रित होगी।अंदाजा है कि शुल्क में कटौती से 2008-09 के दौरान खाद्य तेलों का आयात 2005-06 के 1.18 करोड़ टन से बढ़कर 1.33 करोड़ टन तक पहुंच जाएगा। इतना ही नहीं जमाखोरी रोकने के लिए सरकार ने तेल और तिलहनों की स्टॉक-सीमा भी तय कर दी। इतना काफी नहीं हुआ तो सरकार ने गरीब लोगों को जनवितरण प्रणाली के जरिए तेल का वितरण करने की घोषण की।मलयेशिया में कीमतें गिरने और खरीफ फसल के बाजार में आने से अक्टूबर से कीमतें सुधरने लगीं। केंद्र सरकार ने तब राहत की सांस ली। मार्च में 1,400 डॉलर प्रति टन की तुलना में अक्टूबर में इसके दाम 400 डॉलर प्रति टन तक लुढ़क गए।ऐसे में किसानों और कारोबारियों को सस्ता आयात से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए सरकार ने सोया तेल पर आयात शुल्क को संशोधित किया। साथ ही आश्वस्त किया कि यदि पाम तेल में और गिरावट हुई तो इसके आयात शुल्क में भी बढ़ोतरी की जाएगी।विशेषज्ञों के मुताबिक, ऐसी समस्या से बचने के लिए जरूरी है कि खाद्य तेलों पर देश की निर्भरता घटाई जाए। गौरतलब है कि 1992-93 में देश महज 3 फीसदी तेल का आयात करता था जो कि इस समय बढ़कर 40 फीसदी हो गया है। जर्मनी की मशहूर खाद्य तेल पत्रिका ऑयल वर्ल्ड के कार्यकारी संपादक थॉमस मिल्के ने बताया कि 2009 की पहली छमाही में कच्चे पाम तेल में 33 फीसदी की तेजी आ सकती है। इस तरह यह 660 डॉलर प्रति टन तक जा सकता है। हालांकि इसका भाव कच्चे तेल के भाव पर ही निर्भर करेगा। मिल्के के मुताबिक, नवंबर के आखिर में मलयेशिया और पूरी दुनिया में पाम तेल का भंडार सबसे ज्यादा हो गया था। (BS Hindi)
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