पिछले दिसंबर में पश्चिम बंगाल में आलू की खेती के लिए मौसम बेहद अनुकूल था
यानी तापमान में थोड़ी ठंडक थी। लेकिन इसके बावजूद राज्य में करीब 20
किसानों ने आत्महत्या कर ली। दिसंबर 2010 में पश्चिम बंगाल में रिकॉर्ड
स्तर पर आलू का उत्पादन हुआ। मार्च 2011 से ही बाजार में गिरावट शुरू हो गई
थी। नवंबर 2011 तक 32 किसानों ने आत्महत्या कर ली थी। दिसंबर 2011 में नई
फसल के आने से पुरानी फसल की बिक्री बेहद दबाव या हताशा में की गई और
कीमतें स्थिर हो गईं।
नवंबर तक 2013 में पश्चिम बंगाल को फिर से संकट का सामना करना पड़ा। इस बार आलू की कीमत दो साल पहले के 5 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 50 रुपये प्रति किलोग्राम के स्तर पर पहुंच गईं थी। इसकी वजह यह थी कि इससे पहले के साल में उत्पादन का स्तर कम रहा। राज्य सरकार ने पश्चिम बंगाल से दूसरे राज्यों में आलू का निर्यात सीमित कर दिया और इसकी बिक्री की कीमत पर एक सीमा तय कर दी और मालिकों को आदेश दिया कि वे अपने कोल्ड स्टोरेज को खाली कर दें। यह तस्वीर पश्चिम बंगाल में आलू के अनियमित और अस्थिर अर्थव्यवस्था की है जो खेती का सबसे जोखिमपूर्ण विकल्प है।
उत्तर प्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल, सब्जियों का दूसरा सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाला राज्य है और भारत के आलू उत्पादन में इस राज्य का योगदान 25 फीसदी तक है। सब्जियों की मार्केटिंग के अपर्याप्त विकल्पों, बिचौलियों की तिकड़म और न्यूनतम समर्थन मूल्य के अभाव में राज्य में आलू की खेती काफी जोखिम का कारण बन रही है। इस साल पश्चिम बंगाल में करीब 1.1 करोड़ टन आलू का उत्पादन हुआ है। स्थानीय स्तर पर उपभोग 55 लाख टन से ज्यादा नहीं है। राज्य आमतौर पर पड़ोसी राज्यों में करीब 45 लाख टन जिंस भेजता है। राज्य में 10 लाख टन अतिरिक्त उत्पादन हुआ जिसकी वजह से कीमतों में गिरावट आई।
आत्मघाती अर्थव्यवस्था
दिसंबर में नई फसल के आने से पहले किसान बिक्री करने पर जोर दे रहे हैं क्योंकि इसमें असफल रहने पर उनकी मुश्किलें और भी बढ़ सकती हैं। वे प्रति क्विंटल 100 रुपये के घाटे पर फसल की बिक्री कर रहे हैं। भंडारण की लागत के साथ करीब 550-590 रुपये प्रति क्विंटल उत्पादन की लागत के मुकाबले किसान अपने आलू को 350 रुपये प्रति क्विंटल रुपये से ज्यादा बेचने में सफल नहीं हैं। उत्तर प्रदेश और पंजाब में उत्पादन के बढ़ते अनुमानों के साथ दूसरे राज्यों में सब्जियों का बाजार प्रतिस्पद्र्धी बन चुका है। पश्चिम मेदिनीपुर, वर्धमान और हुगली जिले में चुनिंदा अमीर किसान परिवहन, कोल्ड स्टोरेज के लिए किराये आदि का भुगतान कर सकते हैं जबकि पश्चिम बंगाल में छोटे किसान अपनी फसलों को बिचौलियों को बेचने के लिए मजबूर होते हैं। पहले इसकी बिक्री होती थी और अब इसका कारोबार पेपर स्लिप के जरिये होता है जिसे अनौपचारिक तौर पर आलू बॉन्ड कहते हैं। कम फसलों के दौरान ये बॉन्ड प्रीमियम पर बेचे जाते हैं जबकि बेहतर फसलों के दौरान इनकी बिक्री खुले तौर पर होती है।
राज्य में किसानों को तब भी अच्छी कीमत नहीं मिल पाती जब फसल की कमी होती है क्योंकि जब तक कीमतों में तेजी आती है तब तक वे अपनी फसल बेच चुके होते हैं। वर्ष 2013 में जब आलू की बिक्री 50 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिक्री हुई तब भी किसानों ने 5 रुपये प्रति किलोग्राम से ज्यादा की कमाई नहीं की और उनका मुनाफा 1 रुपये प्रति किलोग्राम से ज्यादा नहीं था। विधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय में प्रोफेसर प्रणव चटर्जी का कहना है, 'पश्चिम बंगाल में किसान अपनी फसलों की बिक्री करने के लिए बिचौलिये पर निर्भर हैं। इसी वजह से वे फसलों की कमी के वक्त भी बेहतर कीमतें पाने में असफल होते हैं और मुश्किल की बात यह है कि वे ज्यादा उत्पादन के वक्त भी कम कीमतें पाते हैं।'पश्चिम बंगाल में आलू की खेती के लिए दूसरी समस्या बुनियादी ढांचे की कमी थी। पश्चिम बंगाल में कोल्ड स्टोरेज की क्षमता 60-62 लाख टन है जबकि बाकी 10-15 लाख टन आलू खुले में ही पड़ा रहता है। इसके अलावा पिछले साल के मुकाबले कोल्ड स्टोरेज का किराया 14 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़कर 135 रुपये हो गया है। इसके अलावा पश्चिम बंगाल आलू के बीजों के लिए पंजाब पर निर्भर है। करीब 800,000 टन बीजों की जरूरत पश्चिम बंगाल में उत्पादित 300,000 टन बीज से पूरी की जाती है। (BS Hindi)
नवंबर तक 2013 में पश्चिम बंगाल को फिर से संकट का सामना करना पड़ा। इस बार आलू की कीमत दो साल पहले के 5 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 50 रुपये प्रति किलोग्राम के स्तर पर पहुंच गईं थी। इसकी वजह यह थी कि इससे पहले के साल में उत्पादन का स्तर कम रहा। राज्य सरकार ने पश्चिम बंगाल से दूसरे राज्यों में आलू का निर्यात सीमित कर दिया और इसकी बिक्री की कीमत पर एक सीमा तय कर दी और मालिकों को आदेश दिया कि वे अपने कोल्ड स्टोरेज को खाली कर दें। यह तस्वीर पश्चिम बंगाल में आलू के अनियमित और अस्थिर अर्थव्यवस्था की है जो खेती का सबसे जोखिमपूर्ण विकल्प है।
उत्तर प्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल, सब्जियों का दूसरा सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाला राज्य है और भारत के आलू उत्पादन में इस राज्य का योगदान 25 फीसदी तक है। सब्जियों की मार्केटिंग के अपर्याप्त विकल्पों, बिचौलियों की तिकड़म और न्यूनतम समर्थन मूल्य के अभाव में राज्य में आलू की खेती काफी जोखिम का कारण बन रही है। इस साल पश्चिम बंगाल में करीब 1.1 करोड़ टन आलू का उत्पादन हुआ है। स्थानीय स्तर पर उपभोग 55 लाख टन से ज्यादा नहीं है। राज्य आमतौर पर पड़ोसी राज्यों में करीब 45 लाख टन जिंस भेजता है। राज्य में 10 लाख टन अतिरिक्त उत्पादन हुआ जिसकी वजह से कीमतों में गिरावट आई।
आत्मघाती अर्थव्यवस्था
दिसंबर में नई फसल के आने से पहले किसान बिक्री करने पर जोर दे रहे हैं क्योंकि इसमें असफल रहने पर उनकी मुश्किलें और भी बढ़ सकती हैं। वे प्रति क्विंटल 100 रुपये के घाटे पर फसल की बिक्री कर रहे हैं। भंडारण की लागत के साथ करीब 550-590 रुपये प्रति क्विंटल उत्पादन की लागत के मुकाबले किसान अपने आलू को 350 रुपये प्रति क्विंटल रुपये से ज्यादा बेचने में सफल नहीं हैं। उत्तर प्रदेश और पंजाब में उत्पादन के बढ़ते अनुमानों के साथ दूसरे राज्यों में सब्जियों का बाजार प्रतिस्पद्र्धी बन चुका है। पश्चिम मेदिनीपुर, वर्धमान और हुगली जिले में चुनिंदा अमीर किसान परिवहन, कोल्ड स्टोरेज के लिए किराये आदि का भुगतान कर सकते हैं जबकि पश्चिम बंगाल में छोटे किसान अपनी फसलों को बिचौलियों को बेचने के लिए मजबूर होते हैं। पहले इसकी बिक्री होती थी और अब इसका कारोबार पेपर स्लिप के जरिये होता है जिसे अनौपचारिक तौर पर आलू बॉन्ड कहते हैं। कम फसलों के दौरान ये बॉन्ड प्रीमियम पर बेचे जाते हैं जबकि बेहतर फसलों के दौरान इनकी बिक्री खुले तौर पर होती है।
राज्य में किसानों को तब भी अच्छी कीमत नहीं मिल पाती जब फसल की कमी होती है क्योंकि जब तक कीमतों में तेजी आती है तब तक वे अपनी फसल बेच चुके होते हैं। वर्ष 2013 में जब आलू की बिक्री 50 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिक्री हुई तब भी किसानों ने 5 रुपये प्रति किलोग्राम से ज्यादा की कमाई नहीं की और उनका मुनाफा 1 रुपये प्रति किलोग्राम से ज्यादा नहीं था। विधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय में प्रोफेसर प्रणव चटर्जी का कहना है, 'पश्चिम बंगाल में किसान अपनी फसलों की बिक्री करने के लिए बिचौलिये पर निर्भर हैं। इसी वजह से वे फसलों की कमी के वक्त भी बेहतर कीमतें पाने में असफल होते हैं और मुश्किल की बात यह है कि वे ज्यादा उत्पादन के वक्त भी कम कीमतें पाते हैं।'पश्चिम बंगाल में आलू की खेती के लिए दूसरी समस्या बुनियादी ढांचे की कमी थी। पश्चिम बंगाल में कोल्ड स्टोरेज की क्षमता 60-62 लाख टन है जबकि बाकी 10-15 लाख टन आलू खुले में ही पड़ा रहता है। इसके अलावा पिछले साल के मुकाबले कोल्ड स्टोरेज का किराया 14 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़कर 135 रुपये हो गया है। इसके अलावा पश्चिम बंगाल आलू के बीजों के लिए पंजाब पर निर्भर है। करीब 800,000 टन बीजों की जरूरत पश्चिम बंगाल में उत्पादित 300,000 टन बीज से पूरी की जाती है। (BS Hindi)
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