मुंबई April 19, 2011
नकदी की जरूरतें पूरी करने के लिए महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलें घबराहट में बिकवाली कर रही हैं। पिछले सप्ताह इन मिलों ने 200 करोड़ रुपये कीमत की 8 लाख टन चीनी की बिकवाली की क्योंकि इन्हें गन्ने का भुगतान, कर्मचारियों के वेतन और गन्ने के मालभाड़े के भुगतान के लिए नकदी की जरूरत थी। 2550 रुपये प्रति क्विंटल की एक्स-मिल कीमतों के मुकाबले कुछ मिलों ने 2400 रुपये प्रति क्विंटल का भुगतान किया। कुछ मिलों ने 2555 रुपये प्रति क्विंटल का भुगतान किया जबकि एक्स-मिल कीमतें 2730 रुपये प्रति क्विंटल थी। केंद्र द्वारा घोषित अतिरिक्त गैर-लेवी कोटा और भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने की वजह से भी ऐसा हुआ।एक वरिष्ठ मंत्री ने कहा - गैर-लेवी चीनी के अतिरिक्त कोटे का पिछले साल की समान अवधि से कोई अंतर्संबंध नहीं है, लिहाजा इसने मिलों की समस्याओं में इजाफा किया। जनवरी में केंद्र ने चीनी का 17 लाख टन गैर-लेवी कोटा जारी किया था जबकि जनवरी 2010 में यह 11 लाख टन था। फरवरी में 16.2 लाख टन गैर-लेवी कोटा था जबकि फरवरी 2010 में यह 13 लाख टन रहा था। मार्च में यह 13 लाख टन था जबकि एक साल पहले की समान अवधि यानी मार्च 2010 में यह 11.7 लाख टन रहा था। अप्रैल में गैर-लेवी चीनी का कोटा 15.8 लाख टन जारी किया गया है जबकि अप्रैल 2010 में यह 12.8 लाख टन रहा था। मासिक समय-सीमा में इतनी बड़ी मात्रा की बिक्री काफी मुश्किल रही क्योंंकि कुछ महीने में मांग कम थी और कम कीमत के चलते चीनी का उठाव नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त अगर मिलें तय समय सीमा में चीनी की बिक्री में नाकाम रहती हैं तो यह कोटा अपने आप लेवी कोटा में तब्दील हो जाता है और इसमें मिलों को कम से कम 700 रुपये प्रति क्विंटल का नुकसान होता है। इसलिए मिलें अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए थोक मूल्य से नीचे या यहां तक कि एक्स-मिल कीमतों से नीचे चीनी बेचना पसंद करती हैं।उद्योग के सूत्रों का कहना है कि पिछले साल अक्टूबर महीने में शुरू हुए पेराई सीजन से ही मिलों पर वित्तीय दबाव है। साल 2010-11 में 141 सहकारी मिलों ने पेराई सीजन में भागीदारी की। मिलों को औसत लागत मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। अगर हम उपोत्पाद के जरिए मिले राजस्व को भी इसमें समायोजित कर दें तब भी चीनी की बिक्री पर शुद्ध नकद नुकसान 1250 से 1750 रुपये प्रति टन का है और यह पिछले 10 महीने से हो रहा है। इन मिलों को अब तक 1000 करोड़ रुपये से ज्यादा का नकद नुकसान हो चुका है और इसके परिणामस्वरूप आने वाले दिनों में इन पर गंभीर वित्तीय दबाव देखने को मिलेगा।पश्चिमी महाराष्ट्र के एक सहकारी मिल के चेयरमैन ने कहा कि उचित व लाभकारी मूल्य (एफआरपी) में हर साल बढ़ोतरी हो रही है और महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश व कर्नाटक जैसे राज्यों द्वारा कानूनी रूप से न्यूनतम कीमत चुकाए जाने की बाध्यता के उलट उनके द्वारा एफआरपी से ज्यादा का भुगतान किया जा रहा है। (BS Hindi)
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