25 अप्रैल 2011
एंडोसल्फान की आड़ में नई साजिश
अरविंद कुमार सेन भारतीय खेतों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशक एंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने का मुद्दा राजनीतिक रंग लेता जा रहा है। केरल सरकार के बाद कर्नाटक सरकार भी एंडोसल्फान के इस्तेमाल पर रोक लगा चुकी है। केरल सरकार ने स्वास्थ्य संबंधी कारणों का हवाला देते हुए एंडोसल्फान का उपयोग गैरकानूनी घोषित कर दिया था। यूरोपीय यूनियन और कुछ एनजीओ के दबाव में एंडोसल्फान की लड़ाई वास्तविक मुद्दे से भटक गई है और अब कुछ राज्यों की सरकारें आनन-फानन में इस कीटनाशक पर रोक लगाने की तैयारी में हैं। एंडोसल्फान का मुद्दा तथ्यों से हटकर आरोप-प्रत्यारोप पर सिमट आया है और इस छद्म खेल का सारा खामियाजा आखिरकार निर्दोष किसानों को ही भुगतना पड़ेगा। चुनावी मौसम में केरल सरकार ने एंडोसल्फान पर दांव खेलकर जो पृष्ठभूमि तैयार की है, किसानों और देसी कीटनाशक कंपनियों को इसकी महंगी कीमत चुकानी पड़ेगी। एंडोसल्फान एक ऐसा कीटनाशक है, जिसका छिड़काव फल-सब्जियों को कीट-मकोड़ों से बचाने के लिए किया जाता है। पिछले चार दशकों से भारतीय किसान एंडोसल्फान का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा एंडोसल्फान निर्माता देश है और एंडोसल्फान के वैश्विक कारोबार के 70 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर भारतीय कंपनियों का कब्जा है। भारत से लगभग 180 करोड़ रुपये के एंडोसल्फान का निर्यात किया जाता है और अकेले गुजरात ही दुनिया का 55 फीसदी से ज्यादा एंडोसल्फान उत्पादित करता है। पिछले 55 सालों से भारत में एंडोसल्फान का उत्पादन किया जा रहा है और कुछ समय पहले तक इसका बड़े पैमाने पर यूरोप को भी निर्यात किया जाता है। एंडोसल्फान पर ताजा विवाद की शुरुआत 2001 में हुई, जब एकमात्र एंडोसल्फान निर्माता यूरोपीय कंपनी बेयर क्रॉप साइंस ने इसका उत्पादन बंद करने का फैसला किया। एंडोसल्फान को अपने पोर्टफोलियो से हटाने के बाद बेयर क्रॉप साइंस ने यूरोपीय यूनियन के देशों पर इस कीटनाशक के बहिष्कार के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया। इसी दबाव के बीच 2005 में यूरोपीय संघ ने अपने सदस्य देशों से कहा कि वह ऐसे पौधों को संरक्षण वाले उत्पादों का प्रयोग बंद करें, जिसके निर्माण में एंडोसल्फान का इस्तेमाल होता है। 2005 में यूरोपीय यूनियन ने एंडोसल्फान को पीओपी यानी परसिसटेंट आर्गेनिक पॉल्यूटेंट की सूची में शामिल करने का अभियान छेड़ दिया। असल में यूरोपीय कंपनियों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए स्टॉकहोम सम्मेलन से पहले एंडोसल्फान को प्रतिबंधित जैविक प्रदूषक की सूची में डालने के लिए यह मुद्दा जोर-शोर से उठाया जा रहा है। यूरोपीय यूनियन की आर्थिक सहायता से भारत के कई गैरसरकारी संगठनों ने भी एंडोसल्फान को मानव स्वास्थ्य के लिए बड़े खतरे के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया। एनजीओ और मौकापरस्त नेताओं के गठजोड़ से देश में बनी इसी ताकतवर लॉबी ने यूरोपीय देशों के दबाव में खेती से जुड़ी तमाम समस्याओं के लिए एंडोसल्फान को उत्तरदायी ठहराया, नतीजन हड़बड़ी में कदम उठाए जाने लगे। कुछ एनजीओ की रपटों में यह दावा किया जा रहा है कि केरल के कारगोड़ जिले के लोगों पर एंडोसल्फान का बेहद प्रतिकूल असर हुआ है। यूरोपीय संस्थानों के कृषि जानकारों के हवाले से एंडोसल्फान के इस्तेमाल पर रोक लगाने की सलाह दी जा रही है। एंडोसल्फान से होने वाले नुकसान का अध्ययन करने के लिए ताबड़तोड़ तरीके से कई समितियों का गठन किया गया, लेकिन अधिकांश समितियों का कहना है कि एंडोसल्फान के मानव स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव का कोई सबूत नहीं है। फरवरी 2001 में तमिलनाडु के फ्रेडरिक वनस्पति शोध संस्थान ने मानव रक्त, गायों व इलाके के पेड़-पौधों पर शोध करने के बाद कहा कि एंडोसल्फान के कोई अंश इनमें नहीं पाए गए। केरल कृषि विश्वविद्यालय को भी अपने शोध में एंडोसल्फान से मानव स्वास्थ्य पर होने वाले दुष्प्रभावों के बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिली। इसी तरह कृषि मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञों की समिति ने भी एंडोसल्फान और मानव स्वास्थ्य के बीच कोई संबंध होने से इनकार किया। यहां तक कि केरल सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने भी 2003 में अपनी रपट में कहा था कि एंडोसल्फान से मानव स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान के बारे में उसे कोई सबूत नहीं मिला है। सवाल उठता है कि इन सब सुझावों को दरकिनार करते हुए केरल सरकार ने एंडोसल्फान पर रोक लगाने का फैसला क्यों किया? जाहिर है कि पश्चिम की साम्राज्यवादी नीतियों के विरोध का ढोंग करने वाले वाममोर्चा के नेतृत्व वाली केरल सरकार का यह फैसला राजनीति से प्रेरित है। केरल सरकार इस फैसले के जरिए अपनी किसान हितैषी छवि चमकाने की कोशिश में जुटी है, लेकिन इस फैसले के नतीजे का अनुमान केरल के वाम योजनाकारों ने नहीं लगाया है। हकीकत यह है कि देश में इस्तेमाल होने वाले 120 लाख लीटर एंडोसल्फान में से केरल की भागीदारी सबसे कम है। गुजरात, आंध्र प्रदेश व मध्य प्रदेश समेत देश के दूसरे राज्यों में एंडोसल्फान का व्यापक इस्तेमाल किया जाता है और कहीं से भी किसानों ने इसके दुष्प्रभाव की शिकायत नहीं की है। पिछले दिनों गुजरात के किसानों ने एक खास एनजीओ की अगुवाई में चलाए जा रहे इस एंडोसल्फान विरोधी अभियान का विरोध किया था। असल में वैश्विक स्तर पर रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का कारोबार तेल के बाद दूसरा स्थान रखता है और इस कारोबार को हथियाने के लिए यूरोपीय व अमेरिकी कंपनियों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है। यूरोपीय कंपनियां एंडोसल्फान पर रोक लगाकर उसकी जगह अपने महंगे कीटनाशकों की आपूर्ति करना चाहती हैं। फसलों की सुरक्षा में इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशकों के अंतरराष्ट्रीय बाजार की तीन बड़ी कंपनियां यूरोपीय हैं और ये कंपनियां वैश्विक कीटनाशक कारोबार के 50 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर काबिज है। एंडोसल्फान दुनिया का तीसरा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला कीटनाशक है, लेकिन इसके कारोबार पर भारतीय कंपनियों का एकाधिकार है। लिहाजा, यूरोपीय कंपनियां एंडोसल्फान को बाजार से बाहर करने पर तुली हुई हैं। स्टॉकहोम सम्मेलन के मद्देनजर अप्रैल माह में 172 देशों की बैठक होने वाली है, जो एंडोसल्फान को पीओपी सूची में शामिल करने के बारे में अंतिम फैसला करेगी। इनमें 27 यूरोपीय संघ के देश और 21 अफ्रीकी देश एंडोसल्फान के विरोध में ही फैसला लेने की सिफारिश करेंगे। यूरोप को निर्यात होने वाले कोको पर प्रतिबंध के डर से अफ्रीकी देशों के पास यूरोपीय यूनियन की नाजायज मांग का समर्थन करने के सिवाए कोई चारा नहीं है। यूरोपीय व अफ्रीकी देश एंडोसल्फान की वैश्विक खपत का महज 12 फीसदी इस्तेमाल करते हैं। लिहाजा, इसका खामियाजा हमारे किसानों को ही भुगतना पड़ेगा। सुखद संकेत यह कि इस लड़ाई में अर्जेटीना व चीन भारत का साथ दे रहे हैं और भारत सरकार को यूरोपीय पैसों के बल पर उछल रही एनजीओ लॉबी के दबाव में आए बगैर इस किसान विरोधी कदम का पुरजोर विरोध जारी रखना चाहिए। (sampden feturers)
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