December 08, 2008
देश की दो एल्युमीनियम कंपनियां नैशनल एल्युमीनियम कंपनी लिमिटेड (नाल्को) और हिंदुस्तान एल्युमीनियम कंपनी लिमिटेड (हिंडाल्को) का इस समय मुनाफा, दुनिया के चार सबसे किफायती उत्पादकों में शामिल होते हुए भी, न के बराबर है।
हालत यह है कि ये कंपनियां उत्पादन में जितना लगा रही हैं, बस उतना ही कमा रही हैं। इसकी वजह, पिछले चार महीनों में एल्युमीनियम की कीमतों में हुई तेजी से कमी है। शुक्र है कि देश में अल्युमीनियम की खपत अब भी पहले के स्तर पर ही बरकरार है। दुनिया के मौजूदा आर्थिक हालात देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि एल्युमीनियम का बाजार तेजी से गिरेगा। लंदन मेटल एक्सचेंज (एलएमई) और शांघाई फ्यूचर्स एक्सचेंज (एसएचएफई) के हालात भी इसका बयान कर रहे हैं। एसएचएफई की हालत तो एलएमई से भी ज्यादा खराब हैं। 2008 की बात करें तो बीते तीन तिमाही में दुनिया का कुल उत्पादन 3.04 करोड़ टन में अकेले चीन की हिस्सेदारी 1.03 करोड़ टन की रही है। यद्यपि चीन में ऊर्जा का खर्च काफी अधिक है और वहां बॉक्साइट के अच्छे भंडार भी नहीं हैं। दुनिया के मौजूदा आर्थिक हालात देखते हुए बुद्धिमानी इसी में समझी जा रही है कि चीन अपनी एल्युमिना शोधन और एल्युमीनियम धातु स्मेल्टिंग क्षमता बढ़ाकर क्रमश: 2.5 करोड़ टन और 1.5 करोड़ टन करने का लक्ष्य छोड़ दे। वैश्विक मंदी और चीन की आर्थिक विकास दर में हुई गिरावट से यह सवाल पैदा होगा कि क्या इस्पात और एल्युमीनियम उत्पादन की इतनी विशाल क्षमता तैयार करना बुद्धिमानी भरा कदम है। विश्व बैंक का अनुमान है कि अगले साल चीन की विकास दर 7.5 फीसदी रहेगी, जो पिछले 19 सालों में सबसे कम है। हालांकि चीन ने खुद स्वीकार किया है कि यदि ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले इस्पात संयंत्र बंद कर दिए जाएं तो उसकी इस्पात उत्पादन क्षमता में 10 करोड़ टन की कमी हो जाएगी। लंदन मेटल एक्सचेंज में इस्पात का भाव अभी 1,600 डॉलर प्रति टन है। शायद ही चीन के किसी संयंत्र से पैदा हुए इस्पात की लागत इतनी कम होगी। सीआरयू इंटरनैशनल नामक मॉनिटरिंग इकाई का मानना है कि भविष्य में चीन की सारी इकाइयां घाटे में जाएगी, इतना तो तय है। फिलहाल नैशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च ने पुष्टि कर दी है कि दिसंबर 2007 से अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी की गिरफ्त में चली गई है। पिछले छह साल से हो रही लगातार बढ़ोतरी के बाद आई यह मंदी निकट भविष्य में दूर होने की उम्मीद नहीं है।ऐसे में एल्युमीमिनयम उद्योग का मानना है कि इस धातु की कीमतों में और कमी होगी। फिलहाल कोई भी यह बताने को तैयार नहीं है कि इसकी कीमतें कब निचला स्तर छुएगी। एक्सचेंजों में धातुओं के भंडार में लगातार वृद्धि हो रही है। अभी अमेरिका में ऑटों की मासिक बिक्री 1982 के बाद सबसे कम हो गई है। जनरल मोटर्स, फोर्ड और क्रिसलर का भविष्य अनिश्चित है।जर्मनी में भी कारों की बिक्री 1990 के स्तर तक पहुंच गई है। पश्चिमी देशों में तो आवासीय सेक्टर को मानो लकवा ही मार गया है। एल्युमीनियम का वैश्विक उपभोग 2007 में 3.8 करोड़ टन तक पहुंच गया था। इसमें से परिवहन सेक्टर की हिस्सेदारी करीब 30 फीसदी की और निर्माण सेक्टर की 20 फीसदी से अधिक थी। पिछले 6 साल से ऑटो उद्योग में हो रही 20 फीसदी की सालाना बढ़ोतरी को देखते हुए चीन के एल्युमीनियम निर्माताओं ने पिछले साल तय किया कि वे अपनी स्मेल्टिंग क्षमता में तेजी से बढ़ोतरी करेंगे। उम्मीद है कि चीन इस साल के अंत तक करीब 1 करोड़ वाहनों की बिक्री कर लेगा। लेकिन भीषण मंदी को देखते हुए चीन का वाहन उद्योग भी अपने प्रतिद्वंद्वी अमेरिका की तरह राहत पैकेज की मांग कर रहा है। दुनिया में एल्युमीनियम का सबसे बड़े उत्पादक चीन में कार उत्पादन में हुई कमी और आवासीय सेक्टर में आयी मंदी से एल्युमीनियम की खपत तेजी से गिरी है।नाल्को के चेयरमैन सी आर प्रधान कहते हैं कि एल्युमीनियम के मौजूदा बाजार भाव पर तो सारे स्मेल्टरों को नुकसान हो रहा है। यदि उच्च किफायत संयंत्रों को छोड़ दें तो सभी अपनी लागत सीमा से नीचे ही उत्पाद बेच रहे हैं। इस तथ्य को तो कोई भी झुठला नहीं सकता कि स्मेल्टिंग क्षमता में बढ़ोतरी करना अव्यावहारिक है।प्रधान कहते हैं कि एल्युमीनियम की घटती वैश्विक खपत के चलते एलएमई और एसएचएफई में इसका भंडार तेजी से ऊपर चलता जा रहा है। फिलहाल एलएमई में एल्युमीनियम का भंडार 18.5 लाख टन के आसपास तक जा पहुंचा है, जबकि एसएचएफई का भंडार 18 लाख से ज्यादा हो गया है। इन दोनों एक्सचेंजों का भंडार 1994 के बाद सबसे ज्यादा हो गया है। उद्योग के अधिकारियों का मानना है कि न केवल एल्युमीनियम के भाव गिर रहे हैं, बल्कि कच्चे उत्पाद भी सस्ते हो रहे हैं। हाल यह है कि महज छह महीने में ही एल्युमिना के भाव 460 डॉलर से गिरकर 175 डॉलर तक चले गए हैं। इसी प्रकार कार्बन कैथोडों की कीमतों में भी कमी हुई है। सौभाग्य से भारतीय अर्थव्यवस्था के 7 फीसदी की दर से तरक्की करने के चलते मांग जस का तस रहने से नाल्को और हिंडाल्को के लिए राहत का सबब है। जैसे-जैसे चीन पर घरेलू मांग में हो रही कमी के चलते अपना सरप्लस भंडार विश्व बाजार में छोड़ने का दबाव बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे भारत में इसकी डंपिंग का खतरा बढ़ता जा रहा है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि भारत इसकी डंपिंग रोकने का उपाय करे। (Business Bhaskar)
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