04 मार्च 2009
किसान वोटों की फसल काटने वाले कहां हैं
एक बार फिर देश लोक सभा चुनावों में जा रहा है। जल्द ही अस्सी फीसदी से ज्यादा लोक सभा सदस्यों को संसद में भेजने वाली ग्रामीण आबादी के वोट लुभाने के टोटके शुरू हो जाएंगे। लेकिन कटु सत्य यह है कि पांच साल पहले जिस तरह से देश में किसान आत्महत्या को मुद्दा बनाकर बड़ी संख्या में वोट बटोरने की कोशिश की गई थी वह इस बार के चुनावों में शायद ही दिखाई दे। ऐसा नहीं है कि कृषि क्षेत्र की तसवीर और किसानों की हालत अब बदल गई है। सचाई यह है कि कृषि क्षेत्र पांच साल बाद फिर वहीं खड़ा है जहां से चौदहवीं लोक सभा ने अपना सफर शुरू किया गया। वर्ष 2004-05 में कृषि क्षेत्र की विकास दर लगभग शून्य (0.05 फीसदी) रही थी। अभी तक के आंकड़ों के आधार पर चालू वित्त वर्ष (2008-09) में यह एक फीसदी की ओर बढ़ रही है।केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक चालू साल की तीसरी तिमाही में कृषि क्षेत्र की विकास दर में 2.2 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2002-03 में जब भयानक सूखे ने देश को अपनी चपेट में ले लिया था। उस बार कृषि विकास दर में आई करीब आठ फीसदी की गिरावट के बाद यह पहला मौका है जब कृषि विकास दर ऋणात्मक हो गई है। यह बात अलग है कि 2002 के जुलाई माह में भयानक सूखे के चलते बारिश का स्तर अभी तक के उपलब्ध आंकड़ों में सबसे कम रहा था। लेकिन उसके बाद से लगातार देश को सामान्य मानसून मिलता रहा है। इसके बावजूद चालू 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 4.1 फीसदी की औसत कृषि विकास दर का सपना पूरा होने वाला नहीं है। चालू साल की तीन तिमाही में यह क्षेत्र मात्र 1.16 फीसदी की दर से बढ़ा है। जाहिर सी बात है कि अंतिम तिमाही में कोई ऐसा चमत्कार नहीं होने वाला है जिसके चलते लक्ष्य और वास्तविक दर के अंतर को पाटा जा सके।खास बात यह है कि मौजूदा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने कृषि क्षेत्र को पटरी पर लाने के लिए दिखावा खूब किया है। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने की सिफारिशों को अनमने ढंग और विश्व बाजार में कृषि उत्पादों की ऊंची कीमतों के दबाव में स्वीकार किया गया। इसी का दावा किया जा रहा है कि किसानों को सबसे बेहतर दाम मौजूदा सरकार ने दिए। इस बेहतर दाम के चलते ही कृषि उत्पादों की कीमतों में आई बढ़ोतरी से पिछले तीन साल में ऊंची कृषि विकास दर भी दिखाई दी। जबकि उत्पादकता और उत्पादन में यह अंतर नहीं दिखता है।मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने के बाद राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) की एक उपसमिति बनाकर कृषि को आगे बढ़ाने के लिए एक रिपोर्ट तैयार की। उसके तहत राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन योजनाएं लागू की गई। लेकिन इन योजनाओं को कोई बड़ा फायदा अभी तक किसानों को नहीं मिल सका है। वहीं कोई ऐसी बेहतर तकनीक या किस्म किसानों को सरकार देने में नाकाम रही है जो उनकी आय में गुणात्मक बदलाव ला सके। ताजा आंकड़े इसी संकट की ओर इशारा करते हैं।कृषि को मौजूदा वैश्विक वित्तीय संकट से जोड़कर भी देखने की जरूरत है। सरकार में बैठे लोग लगातार कहते रहे हैं कि देश की बड़ी आबादी खेती में लगी हुई है उद्योगों में काम के अवसर घट रहे हैं। लोगों का कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों से निकलकर उद्योग और सेवा क्षेत्र में जाने का रास्ता और मुश्किल हो जाएगा। पहले ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि की हिस्सेदारी लगातार घटती जा रही है और अब यह 18 फीसदी के आसपास है। ऐसे में इस क्षेत्र की दिक्कतें बढ़ने वाली हैं। दिलचस्प बात यह है कि उद्योग और सेवा क्षेत्र को मौजूदा वित्तीय संकट से लड़ने के लिए तीन पैकेज देने वाली सरकार ने पिछले साल की कर्ज माफी के अलावा कृषि क्षेत्र को कुछ नहीं दिया है। उस समय 61,000 करोड़ रुपये की कर्ज माफी की आलोचना करने वाले लोगों की भी कोई टिप्पणी इस बारे में नहीं आई।राजनीतिक दल किसानों के वोटों पर अपना हक समझते हैं लेकिन अगर इस क्षेत्र के लिए जब कुछ करने की बात आती है तो किसी को इसकी परवाह नहीं होती। संसद में किसानों की समस्याओं और आत्महत्याओं के मुद्दे पर बहस के दौरान एक तिहाई संसद भी दिखाई नहीं देते हैं। इसलिए कृषि क्षेत्र के लिए धरती गोल है वाली कहावत सही है। पांच साल के बड़े-बड़े दावों के बाद यह क्षेत्र एक बार फिर वहीं खड़ा है जहां से चला था। (Business Bhaskar)
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