February 22, 2011
जमीन की उर्वरता कम होना फसल की पैदावार बढ़ाने में सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है। देश में अधिकांश कृषि योग्य भूमि पर दशकों से खेती की जा रही है। कुछ मामलों में तो यह आंकड़ा सदियों पुराना है। इस प्रक्रिया में हर वर्ष बड़ी मात्रा में भूमि के पोषक तत्त्व इस्तेमाल में आ जाते हैं, जिनकी भरपाई जैविक अथवा रासायनिक उर्वरकों की मदद से उतनी तेजी से नहीं की जा सकती जितनी तेजी से इनका क्षरण हो रहा है। इसके अलावा अन्य प्राकृतिक तथा मानवजनित कारणों से हर वर्ष भूमि का एक बड़ा हिस्सा अपनी उर्वरता खो रहा है। यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अपने नवीनतम दस्तावेज 'विजन 2030' में कहा है कि देश की कुल 14 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 12 करोड़ हेक्टेयर से अधिक भूमि की उत्पादकता में क्षरण के कारण कमी आई है। इसके अलावा करीब 84 लाख हेक्टेयर भूमि मृदा में लवणता तथा पानी जमा हो जाने की समस्या से जूझ रही है। ज्यादा बुरी बात यह है कि इन तमाम कारणों से देश को हर वर्ष करीब 80 लाख टन नाइट्रोजन, 18 लाख टन फॉस्फोरस और 2.6 करोड़ टन पोटेशियम का नुकसान हो रहा है। पोषकों के असंतुलित इस्तेमाल से समस्या में और इजाफा ही हो रहा है। इसके अलावा खनिज पदार्थों का अत्यधिक खनन भी मृदा के तमाम तरह के पोषक तत्त्वों पर नकारात्मक असर डालता है जिसका आखिकार फसल की पैदावार पर नकारात्मक असर होता है। वानस्पतिक खाद के अलावा अन्य प्रकार की खाद तथा जैविक उर्वरकों की उपलब्धता बहुत कम है जो कि चिंताजनक बात है। इसके परिणामस्वरूप मृदा की प्रकृति में हर तरह से गिरावट देखने को मिल रही है। अच्छी बात यह है कि किसान इस बात से पूरी तरह अवगत हैं, हालांकि आर्थिक तथा कुछ अन्य कारणों से उनके हाथ बंधे हुए हैं और वे इससे पूरी तरह निपटने की स्थिति में नहीं है। ये तमाम बातें हाल ही में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले संगठन 'ग्रीनपीस' द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में सामने आई हैं। यह सर्वेक्षण असम, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और पंजाब में कराया गया। सर्वेक्षण के निष्कर्ष में कहा गया है, 'भारतीय किसान मृदा की स्थिति को लेकर बहुत चिंतित हैं और वे मृदा के उपजाऊपन में आ रही कमी से निपटने के लिए पर्यावरण के अनुकूल उर्वरकों के इस्तेमाल को लेकर बहुत उत्सुक हैं। बहरहाल, वे पर्याप्त सरकारी सहायता उपलब्ध न हो पाने के कारण ऐसा कर पाने में असमर्थ हैं।' महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिन 1000 किसानों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया उनमें से 98 फीसदी जैविक उर्वरकों का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं अगर इनकी उपलब्धता आसान बनाई जाए और इन्हें छूट पर उपलब्ध कराया जाए।मृदा की उर्वरता के हालात का एक और संकेत है उसमें जीवों की मौजूदगी। इसमें छोटे जीव, केंचुए तथा अन्य जीव शामिल हो सकते हैं। वे मृदा की उर्वरता, जलधारण क्षमता तथा उर्वरता आदि को मजबूत बनाए रखते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि वर्षों से रसायनों के लगातार इस्तेमाल के कारण मिट्टïी में रहने वाले अधिकांश जीव नष्ट हो चुके हैं। किसानों ने इस बात की पुष्टिï की है कि मृदा में रहने वाले जीवों की संख्या समाप्तप्राय है। सर्वेक्षण में शामिल किए गए अधिकांश किसानों ने कहा कि अब उन्हें जमीन में जिंदा जीव देखने को नहीं मिलते हालांकि 1980 से पहले आमतौर पर ये जीव देखने को मिलते थे। बहरहाल इन किसानों में से 80 फीसदी ने वर्ष 2000 तक इन जीवों को मिट्टी में देखा है। इसका साफ मतलब है कि मिट्टïी की गुणवत्ता में यह कमी पिछले एक दशक के दौरान आई है।्रहालात में आई इस खराबी को बेहद गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। हालांकि अल्पावधि में शायद तमाम जरूरतों के लायक जैविक खाद का उत्पादन कर पाना संभव नहीं होगा इसलिए समस्या से निपटने के लिए अन्य रणनीतियों को अपनाने की जरूरत है। एक संभावित विकल्प यह हो सकता है कि जैव उर्वरकों और इसके जरिए संवर्धित की गई वानस्पतिक खाद के के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाए। आईसीएआर द्वारा कराए गए अध्ययनों ने भी संकेत दिया है कि जैव उर्वरकों के मिश्रण का इस्तेमाल करके फसल की पैदावार तो बढ़ाई ही जा सकती है साथ ही इससे मिट्टïी की स्थिति में भी सुधार होता होगा। इन प्रयोगों में इस्तेमाल किए गए जैव उर्वरक मिश्रण में नाइट्रोजन-फिक्सिंग जीवाणु अजोस्पिरिलम युक्त चावल की भूसी और रॉक फॉस्फेट का मिश्रण तथा फॉस्फेट को जल में घुलनशील बनाने वाले एक अन्य जीवाणु का इस्तेमाल किया गया था। इस खाद के प्रयोग ने तिलहन की फसल वाले क्षेत्रों में चावल की पैदावार में 23 फीसदी का इजाफा किया। इसके अलावा चावल गेहूं के परिवर्तित फसल चक्र वाले इलाकों में भी इसने उत्पादन में 10 फीसदी का इजाफा किया। अतीत में कई किसान ऐसी हरी फसलों की खेती करते थे जो खाद का काम करती थीं। इसमें तेजी से बढऩे वाली फलीदार फसलें मसलन, काउपी यानी सूखी लोबिया और सन-हेम्प या ढैंच्या शामिल थीं। ये फसलें मिट्टी में ही मिलकर नष्टï हो जाती थीं और पोषक खाद में तब्दील हो जाती थीं। लेकिन अधिकांश राज्यों में अब ऐसा नहीं होता। मध्य प्रदेश और असम इस मामले में अपवाद हैं जहां कुछ हद तक यह प्रक्रिया अभी जारी है। इस उपयोगी प्रक्रिया को यथा संभव दोबारा शुरू किए जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा आधुनिक वर्मीकल्चर (चयनित प्रजाति के केंचुओं का पालन) भी एक अत्यंत प्रभावी तरीका है जिसके जरिए मृदा में जीवों की उपस्थिति को दोबारा बढ़ाया जा सकता है। केचुओं से संवर्धित वर्मीकंपोस्ट मिट्टी को नया जीवन देती है और पौधों की पैदावार बढ़ाती है। ऐसी तकनीक को हरसंभव बढ़ावा दिया जाना चाहिए। (BS Hindi)
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