February 09, 2011
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए मोटे अनाज की आपूर्ति की जो पेशकश रखी है उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह एक ऐसा विचार है जिस पर कई वजहों से गौर किया जाना चाहिए। पोषक होने के अलावा मोटा अनाज उस अंतर को भी पाट सकता है जिसके खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लागू होने के बाद पैदा होने का अंदेशा है। गेहूं और चावल का मौजूदा भंडार खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद देशभर की जरूरतों को शायद पूरा नहीं कर पाएगा। ऐसे में मोटे अनाज को इसमें शामिल करना कई वजहों से बेहतर होगा। ज्वार, बाजरा, रागी तथा अन्य मोटे अनाज उदाहरण के लिए मक्का, जौ, जई आदि भले ही गुणवत्ता में गेहूं और चावल के समान न हों लेकिन पोषण स्तर के मामले में वे उनसे बीस ही साबित होते हैं। दरअसल, अब इन्हें पोषक अनाज कहकर भी पुकारा जाने लगा है। एक ओर जहां कई मोटे अनाजों में प्रोटीन का स्तर गेहूं के नजदीक ठहरता है, वे विटामिन (खासतौर पर विटामिन बी), लौह, फॉस्फोरस तथा अन्य कई पोषक तत्त्वों के मामले में उससे बेहतर हैं। इसके अलावा बारीक अनाजों की तुलना में भी बेहतर होते हैं और यही वजह है कि देश के अनेक हिस्सों खासतौर पर गांवों में लोग इन्हें प्राथमिकता से अपने भोजन में शामिल करते हैं। दुखद बात यह है कि ये अनाज धीरे धीरे खाद्य श्रृंखला से बाहर होते गए क्योंकि सरकार ने बेहद रियायती दरों पर गेहूं और चावल की आपूर्ति शुरू कर दी। नीतिगत उपेक्षा और सब्सिडी की कमी के चलते मोटे अनाज के रकबे में कमी जरूर आई लेकिन पशुओं तथा पक्षियों के भोजन तथा औद्योगिक इस्तेमाल बढऩे के कारण इनका अस्तित्व बचा रहा। इनका औद्योगिक इस्तेमाल स्टार्च और शराब आदि बनाने में होता है।इन फसलों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्हें चावल तथा गेहूं की तुलना में बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है। इसके अलावा इन्हें कमजोर पोषण वाली मिट्टी में तथा अद्र्घ उष्णकटिबंधीय इलाकों में भी सफलतापूर्वक पैदा किया जा सकता है। इनके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह है कि ये फसलें स्वाभाविक रूप से ऊर्जा और पौधों के पोषक तत्त्वों को जैवभार में अधिक किफायत से बदलती हैं। यही वजह है कि इनमें से अनेक प्रति हेक्टेयर गेहूं और चावल की तुलना में अधिक पैदावार देती हैं। जबकि गेहूं-चावल की खेती में आधुनिक तकनीक और नवीनतम हाइब्रिड किस्मों का इस्तेमाल किया जाता है जो अब भारी संख्या में उपलब्ध हैं। इन फायदों के अलावा मोटे अनाज को बढ़ावा देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सिंचित क्षेत्र में उपज का स्तर लगभग स्थिर हो गया है। अगर भारत को पोषक खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग से निपटना है और अगर वर्षा आधारित कृषि की उत्पादकता में क्रांति लानी है तो कृषि शोध और कीमत नीति को इस दिशा में केंद्रित करना चाहिए। सरकार को इस दिशा में शोध और विकास संबंधी कार्यों पर निवेश बढ़ाना चाहिए। आज यह वक्त की जरूरत बन गई है। इसके साथ ही ऐसे कदम उठाए जाएं जिसके जरिए यह तय हो कि चावल और गेहूं जैसी अत्यधिक पानी चाहने वाली फसलों की जगह उन इलाकों में मोटे अनाज की खेती की जाए जहां भूजल से सिंचाई होती है। इससे कई तरह के फायदे होंगे। ऐसा करने से पानी की बचत होगी और आज के हमारे अनाज के भंडार कल मरुस्थल में बदलने से बचे रहेंगे। (BS Hindi)
26 फ़रवरी 2011
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